संपत राम जाड़े की ऋतु में बस से लौटते हुए रास्ते में रोज़ अमरुद खाते थे। उनकी बस बीच में पड़नेवाले एक क़स्बे के छोटे बस स्टैंड पर चलते चलते रुकती थी। बस ठिठकती गुज़र जाती उसके पहले ही संपत राम 10 रुपये का नोट निकाल कर हाथ में रख लेते थे। खिड़की से रुपये ठेलेवाले को पकड़ा देते। इशारे के आधार पर वह दो अमरुद छांटकर उन्हें दे देता। संपत राम बेचनेवाले को अमरुद वापस करते- काटकर दे दो। बेचनेवाला पूछता- मसाला लगा दूँ क्या? संपत राम कहते- लगा दो। यह रोज़ मानो किसी जैविक नियम के अधीन अनिवार्य रूप से होता था।
लेकिन जैसे ही संपत राम अमरुद खाना शुरू करते अफ़सोस से भर जाते। बुदबुदाकर कहते- मसाला नहीं लगवाना था। मसाला बिलकुल ख़राब है। नमक ही नमक और लाल मिर्च। मसाला, अमरुद को बदमज़ा कर देता है। संपत राम का यह सोचना और तय करना कि कल मसाला नहीं लगवाएंगे, फिर यंत्रचालित सा हां बोल देना, अफ़सोस से भर जाना भी रोज़ मानो किसी जैविक नियम के अधीन अनिवार्य रूप से होता था।
बस, स्टैंड पर आकर धीमे धीमे खिसकने लगी थी। सम्पतराम को नींद लग गयी थी। अमरुद बेचने वाले ने उन्हें खिड़की का कांच खटखटा कर जगाया। जब तक वे नोट उसे पकड़ाते बेचनेवाला अमरुद काट चुका था। उसने पूछा - मसाला लगा दूँ क्या? लगा दो संपत राम ने कहा।
बस सड़क पर पहुँच चल पड़ी। संपत राम ने अमरुद की चौथी फांक से एक छोटा टुकड़ा कुतर लिया। फिर वही भुनभुनाहट- मसाला नहीं लगवाना था। अमरुद बदमज़ा हो जाता है। कल नहीं लगवाऊंगा।
उस दिन जाने क्या हुआ कि सम्पतराम को मिर्च लग गयी। गले में नमक सना अमरुद अच्छी तरह चबाने के बावजूद फंस गया। जोर की खांसी आयी तो आँख में आंसू भी आ गए। उन्होंने पानी की बोतल निकाली। तभी बस ने स्पीड ब्रेकर पार किया। हाथ का संतुलन बिगडा और सम्पतराम मुंह से नहा गए। वे इतना झल्ला गए कि उन्होंने अमरुद के साथ बेख़याली में पानी का बोतल भी खिड़की से बाहर फेंक दिया। अगल-बगल की सवारी उनकी यह हरकत देखकर हंस पड़ी।
संपत राम पहले तो खूब पछताए। फिर सोचते हुए गुस्साकर बस रुकवाई। भीड़ चीरकर नीचे लगभग कूद गए। दौड़कर बोतल उठा ले आये। जब तक बस नहीं चली खिड़की से सड़क किनारे पड़े अमरुद के टुकड़ों को पछतावे और अजीब दयनीय निगाहों से देखते रहे। बस चल पड़ी तो संपत राम ने सोचा
बात क्या है आखिर!!! रोज़ सोचता हूँ मसाला नहीं लगवाना। बेचनेवाला रोज़ पूछता है मसाला लगा दूँ क्या? मैं रोज़ कहता हूँ- लगा दो। हूँ हाँ भी नहीं साफ़ साफ़ लगा दो कहता हूँ। फिर खाता हूं। रोज़ वही बेकार स्वाद!!!फिर वही पछतावा मसाला नहीं लगवाना था। यह आखिर क्या है? इसका समाधान क्या है? और आज जो तमाशा हो गया उसमें ग़लती किसकी है? कल को कोई बड़ी बात हो जाये तो किसे दोष देंगे?
संपत राम देर तक बड़ बड़ाते रहे। फिर वे सचेत होकर चुप हो गए। बिलकुल चुप। चारों ओर निगाह दौड़ाकर आँखें मूंद ली। अपेक्षाकृत नीची सीट पर गर्दन टिका ली।
लेकिन घटना थी कि सम्पतराम को बेध रही थी। अंत में उन्होंने खुद को चिकोटी काटकर ताक़ीद की- अनुशासन ज़रूरी है। दूसरों को सुधारने या किन्ही हालात के बारे में शिकायत करने से पहले ज़रूरी है कठोर अनुशासन से खुद को धीरे-धीरे ठीक करना। अपनी गलतियां ठीक नहीं होती और अपेक्षा ज़माने भर कीं। ग़लत है यह।
संपत राम ने ख़ुद से पक्का किया-कल अमरुद में मसाला नहीं लगेगा मतलब नहीं लगेगा और मन ही मन हंस पड़े। बस ने रफ़्तार पकड़ ली थी।
-शशिभूषण
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