इस साल मशहूर लेखक-कवि यतीन्द्र मिश्र की वाणी प्रकाशन से भारत रत्न लता मंगेशकर पर केंद्रित एक अत्यंत पठनीय, महत्वपूर्ण, उपयोगी और प्रेरक किताब लता सुर-गाथा आई।
इस किताब को पढ़ चुके पाठकों ने खूब सराहा। लेकिन यह किताब हिंदी के कुछ वाचाल लेखकों, समीक्षकों के बीच बहस-विरोध का विषय बनी।
इस बहस-विरोध आदि से गुज़रकर दो बातें मेरे ख़याल में आईं-
1. अमिताभ बच्चन आदि अभिनेताओं पर अंग्रेजी में किताब लिखने वाले लेखक जल्द ही सेलिब्रेटी का दर्ज़ा पा जाते हैं। उन्हें बड़े-बड़े साहित्यिक महोत्सवों में बुलाया जाता है, पत्र पत्रिकाओं के रंगीन पृष्ठों पर उनके साक्षात्कार छपते हैं और हिंदी पाठकों के बीच भी वे लेखक बड़ा सम्मान पाते हैं।
2. भारत की कई पीढ़ियों के दिलों पर एक साथ राज करने वाली जीवित किंवदंती लता मंगेशकर पर हिंदी में आई एक स्तरीय और पठनीय किताब प्रशंसा तो दूर क़ायदे का स्वागत भी न पा सकी। इस किताब के बारे में ऐसे मीन-मेख निकाले गए कि जिसने यह किताब नहीं पढ़ी है वह इस किताब को खरीदने से पहले पढ़ने के बारे में कई बार सोचे।
ऊपर की दो बातों से यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास आदि को छोड़कर अन्य विषयों पर किताबें पढ़ने का चलन नहीं है तो यह अपने आप नहीं हुआ।
किताबें धीरे-धीरे पाठकों से दूर हो रही हैं तो यह स्वाभाविक ही है। हमारे लेखकों के बीच परस्पर इस बात पर आम सहमति सी है कि किसकी किताब की तारीफ़ करनी है किसके किताब की निंदा। किताब भले कैसी भी हो और चाहे पलटी तक न गयी हो।
आज हिंदी में ठीक ठाक माने जाने वाले समीक्षकों में भी किसी किताब के बारे में ऐसी टिप्पणी लिखने की प्रवृत्ति सायास ग़ायब होती है कि किताब प्रचलित हो और पढ़ी जाये।
हिंदी किताबों के बारे में उत्साह जनक माहौल का अभाव और ख़त्म होते जा रहे पुस्तकालय आनेवाले गंभीर संकट का स्पष्ट संकेत हैं। इसके लिए वे टीकाकार, शिक्षक, संपादक ख़ासतौर से ज़िम्मेदार हैं जो भरपूर श्रम और तैयारी से लिखी गयी किसी किताब के बारे में अपने पूर्वाग्रहों को भी निर्णयात्मक ढंग से प्रकट करते हैं।
इस नकारात्मक किताब विरोधी प्रवृत्ति का निदान होना ही चाहिए। अन्यथा पुस्तक मेले वायुयान से पहुंचकर झोले भर भरकर किताब लानेवाले पढ़ने का समय नहीं निकाल पाएंगे और सचमुच के पाठकों तक किताब पहुँच नहीं पाएंगी।
-शशिभूषण
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