बुधवार, 15 मार्च 2017

जाति जाति का खेल

छत्तीसगढ़ के बस्तर में काम कर रही सामाजिक कार्यकर्ता बेला भाटिया कुछ दलित बौद्धिकों की नज़र में सवर्ण महिला हैं। महानगरों में टिके हुए इन चिंतकों को इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि बेला भाटिया छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में आदिवासी महिलाओं और वंचित तबके के लिए हर क़िस्म का जोख़िम उठाकर काम कर रही हैं।

उल्लेखनीय है कि बेला भाटिया को एक दिन पहले ही उनके घर में गोलबंद दबंगों द्वारा कुछ ही घंटों में छत्तीसगढ़ छोड़ देने की बेशर्त धमकी मिली है। इस प्रसंग में पुलिस से लेकर राज्य सरकार तक बेला भाटिया के ख़िलाफ़ हैं। समाचार तो ऐसे आ रहे हैं कि पुलिस के सबसे बड़े अधिकारी बेला भाटिया की महिला वकील को भी अश्लील धमकी दे रहे हैं।

इस आशंका को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता कि ऐसे घोर दमन के वक़्त और परिवेश में यदि बेला भाटिया के ख़िलाफ़ कुछ अप्रिय किया जाता है तो उन्हें समय रहते कोई मदद मिल भी पायेगी या नहीं!!!

हाल के कुछ वर्षों में जब वाम और दलित एकता की सबसे अधिक आवश्यकता महसूस की जा रही है तब वंचितों की ओर से कुछ ख़ास तरह के परिवर्तनकामी अम्बेडकरवादी जन्मना दलित या पिछड़े उभरकर सामने आये हैं। इनमें पत्रकार, शिक्षक से लेकर प्रशासनिक अधिकारी शामिल हैं।

दलित, पिछड़ों के मध्यवर्ग से सम्बन्ध रखने वाले ये अधिकांश विचारक किसी को भी जो जन्मना दलित या पिछड़ा नहीं है हमेशा जातिवाद के मोर्चे पर खींचकर बहस करना चाहते हैं। यह एक विचित्र धुन है जो अधिकतर कटुता को ही जन्म देती है। इनके लिए जाति ही सत्ता है। सत्ता के कुल चरित्र को इन्होंने केवल जाति से ही इस तरह नत्थी कर दिया है जैसे किसी ज़माने में लंगोट ही चरित्र की कसौटी हुआ करता था।

ऐसा खासतौर पर तब अतिरिक्त उत्साह से किया जाता है जब सामने कोई जन्मना सवर्ण हो। इसमें आसानी यह होती है कि बिना किसी तर्क के भी ब्राह्मणवादी आया ब्राह्मणवादी आया कहकर या तो बहस को काबू में किया जा सकता है या कम से कम भटकने को विवश किया ही जा सकता है।

इस नए क़िस्म के प्रायोजित दलित बौद्धिक कार्य व्यापार में एक मज़बूत आधार यह होता है कि कोई सचमुच का प्रगतिशील जन्मना सवर्ण गिरी हालत में भी दलित विरोधी बात नहीं कह पायेगा और जन्मना सवर्ण जातिवादी नहीं हो सकता दलित बौद्धिक कभी यह मानेंगे नहीं न मानने देंगे।

फिर क्या है? एक विचित्र विवेचना शुरू होती है जिसमें नेहरू केवल जनेऊधारी हैं। एक ओर गांधी के भी विखंडन की ज़बरदस्त तैयारी है तो वहीं दूसरी ओर ऐसे समकालीन कुख्यात नेताओं की वक़ालत की विवशता है जो कभी न घर के रहे हैं न कभी घाट के होंगे।

समकालीन राजनीति के ही वार, पलटवार के उपकरणों, सूचनाओं और लेखन कौशल से अपनी बौद्धिकता का समर्थन निर्मित कर रहे जनाधार पलट देने की महत्वाकांक्षा रखनेवाले कुछ नव दलित एक्टिविस्टों से बहस करते हुए यदि जातिवादी कहे जाने की व्यक्तिगत और निजी तक़लीफ़ छोड़ दी जाए तो आमतौर पर आगे कोई बड़ी चुनौती नहीं मिलती।

हर ऐतिहासिक उदाहरण को केवल खारिज़ करने की ज़िद तो खूब मिलती है लेकिन निर्मिति में दक्षता नहीं होती। सिर्फ़ इंकार और निंदा। तोड़ो और तोड़ो। मानो निर्माण और सहकार दैवी कृपा से अपने आप होता जायेगा।

कुल मिलाकर इस सब से वास्तव में कोई बड़ी तोड़ फोड़ तो नहीं दिखती लेकिन एक दुर्भाग्यपूर्ण बात तो है ही कि अपने करियरिस्ट लेखन और ज़बरदस्त बायोडाटा के बल पर ये कुछ नए सफलताकामी लोगों के भीतर गहरी सामाजिक तैयारी के स्थान पर अकारण जातीय दुराव पैदा करने में किंचित सफ़ल रहते हैं।

महान स्वप्न दृष्टा अम्बेडकर के प्रति अटूट और आलोचना से परे आस्था रखते दिखने वाले ये नव दलित चिंतक भूल ही जाते हैं कि इनकी आपस की बहसें, असहमतियां और झगडे कितने क्रूर और पश्चगामी हैं।

इनका झगड़ा विश्व के सबसे बड़े माने जानेवाले दक्षिण पंथी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से है लेकिन ये फौरी तौर पर वामपंथियों को निशाने में रखना चाहते हैं क्योंकि कभी आंबेडकर ने संघ के प्रति उपेक्षा बरती थी।

शुक्र है कि अपने आरंभिक दौर में भी दलितवाद के पास ज्योतिबा फुले से लेकर प्रो तुलसी राम और ओमप्रकाश वाल्मीकि, शीतल साठे जैसे प्रकाश स्तंभ हैं। वरना केवल जाति की पहचान करके ही उग्र या शांत हो जानेवाली इनकी सक्रियता कितने विभ्रम रचती इसका अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है।

एक तरफ़ छत्तीसगढ़ में बेला भाटिया हैं दूसरी तरफ़ जेएनयू में दिलीप यादव। इन दोनों के बीच में दलित, वाम सत्ता विमर्श। फ़ायदा चाहे जिसका हो लेकिन दूरी बेला और दिलीप के बीच ही बढ़ रही है इतना साफ़ है।

मज़े में हैं वे ताक़तें जो दलित और वाम एकता से संकट में हो सकती थीं।

-शशिभूषण

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