कभी पानी ब्राह्मण-शूद्र होता था। कभी इंसान स्वधर्मी-म्लेच्छ होते थे। फिर भारत विभाजन के दौरान ट्रेन हिन्दू-मुसलमान होने लगीं।
अब कुछ बिना दाढ़ वाले ऐसे सयाने मांस भोजी निकले हैं जो कहते फिरते हैं हिंदी भी भगवा या सवर्ण होती है।
ऐसे भोले व्याकुल घाघ लोगों से एक ही बात कहनी है हिंदी भारतीय उपमहाद्वीप में सभी धर्मों, सभी जातियों के आज़ादी, स्वराज्य और तरक्की पसंद इंसानों की राष्ट्रीय आकांक्षा रही है।
आप एक बार ज़रा उन लोगों के नाम ग़ौर से देख लीजिए जो भोजपुरी या राजस्थानी को आठवीं अनुसूची में जगह दिलाने निकले हैं। मेरे ख़याल से केवल नोटबंदी को ही लेकर त्रस्त आम जनता के प्रति उनकी क्रूर मसखरी को याद कर लेना काफ़ी होगा।
आज जब अंग्रेज़ी की साम्राज्यवादी, पूंजी आधारित नीतियां हिंदी को उसी की ताक़त मानी जानेवाली उपभाषाओं, बोलियों से लड़ाने निकली है तब आप इस आपसी लड़ाई को रोक, हिंदी की आवाज़ बुलंद करने वालों को कलंकित करने का जो प्रयास कर रहे हैं उसे इतिहास कभी माफ़ नहीं करेगा।
थोड़ा सा वक़्त समझने की ख़ातिर आप भी ज़रूर निकालिये कि जब बड़ी आसानी से हिंदी की बोलियों को स्वायत्त कर उन्हें हिंदी से पृथक कर आज़ादी की लड़ाई कमज़ोर की जा सकती थी तब अंग्रेजी यह क्यों नहीं कर पायी होगी? एक से एक मनीषी और भाषा तथा देश सेवी हिंदी की एकता को लेकर क्यों अटूट प्रतिबद्ध रहे होंगे?
याद रखिये हिंदी लेकर जब गुजराती भाषी महात्मा गांधी भारत के कोने कोने में जा रहे थे तब वे साथ में यह भी आह्वान कर रहे थे बचपन से जितना व्यय और श्रम अंग्रेजी सीखने में किया जाता है उससे बहुत कम व्यय और श्रम में स्वाभाविक रूप से हिंदी सीखी जा सकती है। केवल हिंदी ही है जिसमें भारत का प्रतिनिधित्व करने की सामर्थ्य है।
अभी भी वक़्त है भोजपुरी को लेकर जो मुहिम कुछ कथित भली भांति पहचाने जा चुके जन प्रतिनिधियों और छद्म संस्कृति सेवियों द्वारा शुरू हुई है उसे पहचान लें।
वरना आनेवाली पीढियां कहेंगी-
अब पछताए होत का जब चिड़िया चुग गयी खेत
-शशिभूषण
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