हर साल नयी किताबें छपती हैं। हर साल नए पढ़नेवाले आते हैं। संस्कृति का यह ऐसा सातत्य है जो विद्या, विनय, मनुष्यता, संवेदना और विवेक को हर साल कुछ कदम आगे ले जाता है।
हर साल कुछ किताब ऐसी आती हैं जिनके बारे में अतिशयोक्तिपूर्ण या विज्ञापनी भाषा में न कहें तो कह सकते हैं वे समय समाज की चौखट पर खड़े होकर अपने किताब होने की दस्तक देती हैं। अपने साथ बहुत सा इंसानी और उम्मीद भरा समेटे हुए पढ़े जाने का इंतज़ार करती हैं।
ये किताबें उस ताक़ीद और आशा के लिए सबसे उपयुक्त होती हैं जिनमे कहा जाता है आइये किताबें पढ़ें। पढ़िए किताबें अगर ज़माने में अकेले हैं या ज़माने में ही खोए हैं। लीजिये, ये किताब अगर हिसाबी किताबी ही हो चले हैं।
'इतिहास में अभागे' एक ऐसी ही नयी किताब का नाम है। कविताओं की यह नयी किताब जाने-माने कवि दिनेश कुशवाह के नाम से है। दिनेश कुशवाह इस दौर में सचमुच के विरल कवि हैं। इसे ख़ूबी कहें, सीमा कहें या प्रतिबद्धता दिनेश कुशवाह के परिचय में चाहे जो जो लिखा हो लेकिन हैं वे केवल कवि।
कोई चाहे तो उन्हें टोक सकता है, कोई चाहे तो उनसे ईर्ष्या कर सकता है, कोई चाहे तो उन्हें पढ़ते हुए सराह सकता है, कोई दिनेश कुशवाह को ललकार सकता है कि कविजी इस वर्सटाइल एज में आप और भी कुछ क्यों न हुए!!!
लेकिन यह पत्थर की लकीर जैसी ही शानदार बात है कि दिनेश कुशवाह इस घोर वक़्त में निरे कवि ही हैं। जिन अर्थों में कोई किताब किताब कहलाती है उन अर्थों में कवि।
इस संग्रह में एक से बढ़कर एक कविताएँ हैं और सबसे बढ़कर है किताब होने का एहसास। इस एहसास को और मार्मिकता देती है हमारे समय के अद्वितीय विरल कथाकार शिवमूर्ति की ब्लर्बनुमा तस्दीक।
समय मिले और संभव हो तो आप पूरी किताब ज़रूर पढ़ियेगा। शुरुआत के लिए मेरी इस वाल पर इस कविता से गुज़रना अच्छा रहेगा। प्रस्तुत है इसी किताब की शीर्षक कविता- शशिभूषण
इतिहास के नाम पर मुझे
सबसे पहले याद आते हैं
वे अभागे
जो बोलना जानते थे
जिनके खून से
लिखा गया इतिहास
जो श्रीमंतों के हाथियों के पैरों तले
कुचल दिए गए
जिनके चीत्कार में
डूब गया हाथियों का चिंघाड़ना
वे अभागे कहीं नहीं हैं इतिहास में
जिनके पसीने से जोड़ी गयी
भव्य प्राचीरों की एक-एक ईंट
पर अभी भी हैं मिस्र के पिरामिड
चीन की दीवार और ताजमहल।
सारे महायुद्धों के आयुध
जिनकी हड्डियों से बने
वे अभागे
कहीं भी नहीं हैं इतिहास में।
पुरातत्ववेत्ता जानते हैं
जिनकी पीठ पर बने
बकिंघम पैलेस जैसे महल
वे अभागे भूत-प्रेत-जिन्न
कुछ भी नहीं हुए इतिहास के।
इतिहास के नाम पर मुझे
याद आते हैं वे अभागे बच्चे
जो पाठशालाओं में पढ़ने गए
और इस जुर्म में
टांग दिए गए भालों की नोक पर।
इतिहास के नाम पर मुझे
याद आती हैं वे अभागी बच्चियां
जो राजे-रजवाड़ों के धायघरों में पाली गयीं
और जिनकी कोख को कूड़ेदान बना दिया गया।
इतिहास के नाम पर मुझे
याद आती हैं वे अभागी
घसिआरिन तरुणियां
जिनसे राजकुमारों ने किया प्रेम
और बाद में उनके सिर के बाल
किसी तालाब में सेंवार की भाँति तैरते मिले।
इतिहास के नायकों का
भरण-पोषण करने वाले
इनके अभागे पिताओं के नाम पर
नहीं रखा गया
हमारे देश का नाम भारतवर्ष।
हमारी बहुएँ और बेटियाँ
जिन्हें अपनी पहली सुहागिन-रात
किसी राजा-सामंत
या मंदिर के पुजारी के
साथ बितानी पड़ी
इस धरती को उनके लिए
नहीं कहते भारत माता।
-दिनेश कुशवाह
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