रविवार, 26 मार्च 2017

अनारकली ऑफ़ आरा देख लीजिए, देश के लिए

मैंने भी फ़िल्म 'अनारकली ऑफ़ आरा' देख ली। लगता नहीं कि अब यह भूल पायेगी। बिहार के आरा की सुन्दर, साहसी और ख़ुद्दार लोक गायिका और नाचनेवाली अनारकली की जिंदादिली, संघर्ष, दुःख और सपने दिल में उतर गए हैं। लगता है एक उम्मीद से भरे मार्मिक आख्यान से गुज़र कर आये हैं। घर, सड़क, गलियां, रसिकों का हुजूम भीतर पैठ सा गया है।

बिहार का लोक, शिक्षा, संगीत, कला, राजनीति, जवाबदेही और सिनेमा सब जैसे घुल मिल साँस लेते हुए भीतर से गुज़र गए हैं। मन में जितना ख़ालीपन है उतना ही भराव। समझ नहीं आ रहा यह चैत की चमकीली उदासी गुज़री है या सिनेमा की भरी पूरी ऋतुएँ। याद नहीं आता कब ऐसा सिनेमा देखा था जिसमें अपने हिस्से की लड़ाई लड़कर हारी हुई सी जीती लड़की सुनसान सड़क पर अकेली चलती हुई 'जो हुआ' उसे फिल्म के पार्श्व संगीत में आखिरी बार हुए बदलाव से झटका देकर दर्शक के भीतर संकल्प और उम्मीद में बदल जाती है।

बहुत पहले, कहना चाहिए सालों पहले वी शांताराम की फ़िल्म 'पिंजरा' देखी थी। तब से वह दिल में उतरी हुई है। जब कभी याद आती है तो लगता है कल ही देखी थी। या कि सालों हो गए एक बार और देख लेते हैं। इसी तरह बासु भट्टाचार्य की मशहूर फ़िल्म 'तीसरी क़सम' जब देखी तो दिल में आया था- लगता नहीं इससे बेहतर फ़िल्म कोई और हो सकती है। अनारकली ऑफ़ आरा भी इन्हीं की सगी बहन फ़िल्म है। एक वाक्य में कहना चाहें तो कह सकते हैं किसी आधुनिक लोककथा जैसी मार्मिक फ़िल्म है।

वी शांताराम की फ़िल्म 'पिंजरा' में गानेवालियों का एक औपन्यासिक आख्यान दिखता है। फ़िल्म, केवल देखकर ही जाना जा सकता है कि जीवन के कितने रूप और रंग हो सकते हैं। नियति या समाज या नियंता या सत्ता क्या-क्या दिन दिखा देंगे किसी के न जानने में आ सकता है न वश में है। अनारकली के साथ भी क्या-क्या होगा अनुमान में नहीं आता। आगे क्या होगा की सचमुच की उत्सुकता फ़िल्म की बहुत बड़ी खूबी है। लेकिन अनारकली का जो प्रतिरोध है वह हिंदी सिनेमा में इतनी मार्मिकता से मैंने पहले नहीं देखा। इस लिहाज़ से यह फ़िल्म एक शुरुआत भी है। चुनौती है और ज़िम्मेदारी भी। यह स्त्री शक्ति-स्त्री शक्ति के नारेबाज़ी वाले समाधान से बहुत आगे की सोद्देश्य दिशा है।

एक बात विशेष रूप से गौर करने की है कि इस फ़िल्म में एक लोक गायिका के सामने जो शत्रु या विलेन है वह विश्वविद्यालय का कुलपति है। यानी अब भारत की उच्च शिक्षा, राजनीति और पुलिस के साथ मिलकर लोक गायिका का शील हड़प लेना चाहती है। संगीत और मनोरंजन के लिए जीनेवाली को रंडी बना देना चाहती है। जब नहीं बना पाती तो झूठ से बना डालती है। लेकिन जिसे रंडी कहा जा रहा है वह तो ठेठ गायिका और नर्तकी है। मनोरंजन से कहीं बहुत गहरे बहन है, दोस्त है, सहकर्मी है और सबसे बढ़कर स्त्री है। गायकी और गायिका मां की स्मृति ही उसकी दौलत हैं।

शिक्षा और विश्वविद्यालयों को इस तरह समाज विरोधी रूप में सामने ला देने के लिए मैं अविनाश दास को कभी नहीं भूल पाउँगा और मेरे दिल में इस एक फ़िल्म से ही फ़िल्मकार के लिए जो लेखक भी हैं कभी इज़्ज़त कम नहीं होगी। यह सचमुच बहुत बड़ा क़दम है। यदि छूट लेकर कहूँ तो विश्वविद्यालय में गया पत्रकार कोई और नहीं अविनाश दास स्वयं हैं। एक सचमुच का पत्रकार ही विश्वविद्यालय को ऐसा देख सकता है। यह केवल फ़िल्मकार के बस की बात न थी।

फ़िल्म में संगीत और गाने और आवाज़ बिलकुल देशज हैं। भीतर रच-बस जानेवाले। जिसने कभी भी लोक की संगत में कुछ उम्र गुज़ारी होगी वह इस संगीत के जादू में खो जाए बग़ैर नहीं रह सकेगा। 2017 में यह फ़िल्म लोक के प्रति अपने ऋण उतारने की तरह है। एक ज़िद की तरह है और सिनेमा को सिनेमा के कपड़े पहनाने की तरह है। फ़िल्म के दृश्य, पात्रों की भाषा और भाव इतने बारीक़ और सूक्ष्म हैं कि कह सकते हैं अविनाश दास ने यह फ़िल्म कैमरे से नहीं दिल से भीगी ज़िंदा आंख से देखे और दिखाये हैं।

यह भी दर्ज़ करने लायक अनुभव है कि पीवीआर कल्चर ने बहुत तरसा कर फ़िल्म देखने दी। यदि इस फ़िल्म को शाम का भी कोई शो टाइम मिलता तो हम जैसे छोटे शहरों के लोग भी बड़ी संख्या में देख पाते। लेकिन अब यक़ीन से लगता है सचमुच की फ़िल्में इसी तरह से हार हार कर अंत में जीतती होंगी। क्योंकि ये केवल मनोरंजन के लिए नहीं हैं। इनमें सार्थकता, सोद्देश्यता और मनोरंजन बराबर हैं। ये केवल इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट मार्का कमाऊ फिल्में नहीं हैं। अनारकली ऑफ़ आरा हस्तक्षेप में गहरे राजनीतिक है। देश के लिए, केवल हंसाने के लिए नहीं है बल्कि फ़िल्म का एक तीखा डायलॉग और बयान है।

फ़िल्म के उस दृश्य से बात ख़त्म करना ठीक रहेगा कि अनारकली ऑफ़ आरा फ़िल्म में कुलपति अंत में रोता है। अकेला बचता है। यह रोना फ़िल्म, फ़िल्मकार और दर्शक तीनों के लिए दौलत सरीखा है। यह दृश्य बताता है कि फ़िल्म को किसी व्यावसायिक फॉर्मूले के तहत नहीं पूरा कर दिया गया है, पूरी फ़िल्म में दिखनेवाली अनिश्चितता हो या नयापन सब परिपक्वता से, समझ से, अच्छे संपादन से रचे गए हैं। इतना ही नहीं फ़िल्म की पूर्णता में भीतर गहरी राजनीतिक, कलात्मक और जवाबदेह प्रतिज्ञा दिखाई पड़ती है।

मारे जाने वाले बुरे लोगों से रोनेवाले खलनायक समाज में बेहतरी की दृष्टि से अधिक काम के होते हैं यह इस फ़िल्म का सार्थक दावा है। यह दृश्य मंच पर और मंच से नीचे तथा दर्शकों के घर तक यादगार था। हमेशा रहेगा।

फ़िल्म में स्वरा भास्कर का अभिनय उनके लिए हमेशा चुनौती रहेगा। इसे लांघना तो संभव नहीं हाँ इसके और आयाम अवश्य हो सकते हैं। यह रेखा के लिए उमराव जान जैसा रोल था वक़्त स्वरा के लिए भी साबित करेगा। दूसरे कलाकारों के बारे में भी यही कहा जा सकता है कि वे जो बने हैं वही लगे हैं। 
इस फ़िल्म में दिल को छू लेने वाली बात यह भी है कि फ़िल्मी बहुत कम है। यथार्थ भी कहीं चुभता या खटकता नहीं है।

अनार का साथी अनवर और संरक्षक चाचा तो फ़िल्म 'अनारकली ऑफ़ आरा' की भारतीय दुआ सरीखें हैं। वे हमेशा सलामत रहें यही प्रार्थना की जानी चाहिए। फ़िल्म के गाने अपने मिजाज़ के लिए सब बेजोड़ हैं लेकिन सबके लिहाज़ से 'मन बेकैद हुआ...' साल के चुनिंदा अच्छे गानों में शुमार होना चाहिए। यह कह देना भी ठीक रहेगा कि 'जोगीरा सा रा रा' अब सिनेमाई धरोहर भी है।

अंत में यही गुज़ारिश है कि फ़िल्म लोक के लिए है लेकिन 'देश के लिए' बड़े काम की है। जिन्हें भारत का सेंसर बोर्ड देखने से नहीं रोकता उन्हें ज़रूर देखनी चाहिए। और घर के बच्चे बड़े हो जाएं उससे पहले यह सलाह ज़रूर बचाकर रख लेनी चाहिए कि ऐसा सिनेमा देखना चाहिए।

-शशिभूषण

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (28-03-2017) को

    "राम-रहमान के लिए तो छोड़ दो मंदिर-मस्जिद" (चर्चा अंक-2611)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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