प्रगतिशीलों, क्रांतिकारियों, गांधीवादियों, समाजवादियों, अम्बेडकरवादियों, सरकारी कर्मचारियों और हिंदी समर्थकों का मज़ाक उड़ाते आपने भी लोगों को पढ़ा देखा सुना होगा।
जहाँ उचित है वहां आलोचना होनी चाहिए। क्यों नहीं होनी चाहिए? हमारी राय में भी ज़रूर होनी चाहिए, फ़ौरन होनी चाहिए। बल्कि यदि आवश्यक हो तो भर्त्सना भी होनी चाहिये।
लेकिन जब बात समाज सुधार की, ज़रूरी राष्ट्रीय हस्तक्षेप की हो तो ऐसे आलोचकों के सम्बन्ध में एक सावधानी, सतर्कता भी बरतनी चाहिए।
वह ज़रूरी कदम यह हो सकता है कि जो उपर्युक्त आलोचना या निंदा में संलग्न पाये जाएँ उनका बायोडाटा एक बार देख लेना चाहिये। यदि संभव हो तो ऐसे लोगों की एक यथासंभव छोटी बड़ी सूची बना लेनी चाहिए।
जब यह सूची आप बना लेंगे तो एक दिलचस्प चीज़ देखने में आएगी। ऐसे लोग किसी कारोबारी कंपनी, किसी एनजीओ या किसी मीडिया संस्थान के वेतन या पैकेज भोगी कर्मचारी होंगे।
इन जॉबधारियों की प्राथमिक प्रतिबद्धता यह होती है कि यदि दूसरी जगह पांच रुपये अधिक मिलें तो पहली जगह जॉब तुरंत छोड़ देंगे।
मान लीजिए ऐसे लोग यदि धर्म की आलोचना कर रहे हैं तो आप देखेंगे इनके ही सेठ या तो अत्याधुनिक मंदिर बनवा रहे होंगे या कल्पना कीजिये यदि वे होटल या ट्रांसपोर्ट व्यवसाय में होंगे तो धर्मस्थलों से बिजनेस कर रहे होंगे।
यह छोटा सा उदाहरण है। आप अपने अनुसार भी चेक कर सकते हैं। नतीज़े दिलचस्प निकलेंगे यह तय है।
-शशिभूषण
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