बुधवार, 15 मार्च 2017

जेएनयू में साक्षात्कार

यूजीसी ने फैसला किया। जेएनयू(केंद्रीय विश्वविद्यालय) सबसे पहले अपनाने जा रहा है। नियम यह है कि एक औपचारिक पात्रता परीक्षा के बाद पात्र परीक्षार्थियों के साक्षात्कार लिए जाएंगे। केवल इसी साक्षात्कार के अंकों की मेरिट के आधार पर उनका अध्ययन के लिए प्रवेश हो पायेगा।

कुछ बातें मैं भी रखना चाहता हूँ:-

1. उच्च शिक्षा में अध्ययन के लिए प्रवेश पाने के लिए ही पात्रता परीक्षा के बाद साक्षात्कार की अनिवार्यता भारत की खोखली उच्च शिक्षा का अत्यंत साफ़ आइना है। ख़ासकर तब और जब भारत एक ऐसे युग में प्रवेश कर चुका हो जिसमें किसी प्रकार की शिक्षा के बाद लगभग न के बराबर रोज़गार होंगे।

2. मेरे ख़याल से केंद्रीय संस्थानों में किसी प्रकार के प्रवेश या नियुक्ति में आरक्षण के नियमों का मानक स्तर पर अनुपालन किया जाता है। जेएनयू में साक्षात्कार के अंकों के पूर्ण अधिभार के मसले को पूर्णतः स्पष्ट रूप में सामने आना चाहिए। सवाल यह है कि प्रवेश हेतु जब सीट आरक्षण के तहत सभी वर्गों के लिए नियत होंगी तब साक्षात्कार के अंकों के आधार पर केवल वंचित तबके के परीक्षार्थियों को कैसे बाहर किया जा सकेगा? क्या वे सीट सामान्य श्रेणी के परीक्षार्थियों से भरी जाएँगी या जेएनयू में एडमिशन में आरक्षण है ही नहीं? प्रबुद्ध लोगों को या जेएनयू के मामलों के जानकार लोगों को इस स्थिति को अविलंब स्पष्ट करना चाहिए।

3. यूजीसी में इस नियम पर मुहर प्राध्यापकों के अनुमोदन या सहमति के बाद ही लगी होगी। यानी नीति निर्माण के स्तर पर यह निर्णय उच्च शिक्षा के शिक्षकों द्वारा ही कार्यान्वयन के स्तर तक पहुंचा होगा। माना जाना चाहिए कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों में पिछड़े, दलित, आदिवासी तबके के लोग पर्याप्त संख्या में होंगे। अलग अलग नामों वाले उनके यूनियन भी होने ही चाहिए। यूजीसी में भी इनकी उपयुक्त संख्या से शायद ही इंकार किया जा सके। तो क्या ये शिक्षक इस मसले पर कोई संयुक्त बयान निर्मित कर सकने की स्थिति में सचमुच हैं? या माना जाये कि शिक्षा और पद की इस अवस्था में भी सवर्ण दवाबों से मुक्ति असंभव है!!! फिर किससे उम्मीद के जा सकती है?

4. यह बहुत चौंकानेवाला डर या यथार्थ हो सकता है कि यदि साक्षात्कार अनिवार्य पात्रता शर्त हुआ तो विश्वविद्यालयों में दलित, पिछड़े, आदिवासी विद्यार्थी प्रवेश से छांट दिए जाएंगे। क्या यह माना जाना चाहिए कि साक्षात्कार समिति में सब सवर्ण ही होंगे?

5. हवाई उत्कृष्टता के नाम पर भारत में रोज़गार विहीन पढ़ाई के लिए यह बेतुका नियम और घमासान अत्यन्त हास्यास्पद है। इस नियम को हटाए जाने के सम्बन्ध में केवल जेएनयू के कुछ विद्यार्थियों द्वारा आन्दोलन या आमरण अनशन किया जाना अत्यन्त दुखद है। स्थिति की दयनीयता मानो सबकुछ चीख चीख कर कह रही है। दुनिया में भारतीय उच्च शिक्षा को देखने वाले अगर लोग होंगे तो उनका कितना अधिक मनोरंजन हो रहा होगा इसका भी केवल अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है।

6. उच्च शिक्षा में प्रवेश को लेकर साक्षात्कार की अनिवार्यता के सम्बन्ध में शिक्षाविद माने जाने वाले लोगों और मीडिया की चुप्पी अचरज में डालनेवाली है। परिस्थिति की भीषणता का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि ऐसा तब हो रहा है जब भारत के विद्वान या प्राध्यापक ज्ञान विज्ञान में पूरी पृथ्वी या अखिल ब्रह्माण्ड को झुका देने के दावे करते रहते हैं। उनके अध्ययन, शोध और यात्राओं में सरकार द्वारा बेशुमार दौलत ख़र्च की जाती है। निजी विश्वविद्यालयों के मनीषियों के तो कहने ही क्या?

7. सब बखूबी जानते हैं कि 2017 के भी आनेवाले शुरूआती दो तीन महीने सेमिनारों और शोध तथा शैक्षणिक परिचर्चाओं के लिए ही नहीं व्यय के लिए भी कुख्यात होंगे। ऐसी हालत में भी यह उम्मीद व्यर्थ ही है कि यूजीसी के ताज़ा प्रवेश नियम के सम्बन्ध में कोई आम सहमति बन पायेगी।

8. ऊपरी तौर पर यह समस्या बड़ी विकराल लगती है। फेसबुक पर तो इस संबंध में हो रही बहसों के मार्च से उड़नेवाली धूल से आसमान ढँक गया है। इसी मसले पर रवीश कुमार को सुधीर चौधरी के साथ एक ही तराजू में चढ़ा देने की दिलीप मंडल जी जैसे अन्य पक्षधरों की आक्रामकता से तो यही लगता है कि बड़ा भूचाल आ जायेगा और बौद्धिक तबका अम्बेडकरवादी और प्रगतिशील अलग अलग धड़े में पूर्णरूपेण दो फाड़ हो जायेगा। लेकिन ठहरकर सोचने पर यही लगता है इस मुद्दे से भी बड़ा प्रसंग यानी उत्तर प्रदेश का चुनाव बौद्धिकों को रह रहकर खींच रहा है।

9. उत्तर प्रदेश में बहु प्रतीक्षित विधान सभा के चुनाव होने हैं। मीडियाकर्मी, बहसबाज़, टीकाकार और राजनीतिक विश्लेषक अपने दल बल के साथ इसी मसले पर लंबे प्रवास में हैं। वे अब तक एक कथित समाजवादी परिवार की महा संघर्ष गाथा से भारत का विवेक समृद्ध कर चुके हैं। आगे वे इस सत्य की खोज में हैं कि यदि वहां अमुक या तमुक को हरा दिया गया या जिता दिया गया तो किस प्रकार भारत का दुर्भाग्य टल जायेगा।

10. एक बहुत मामूली चिंता या साफ़ गोई यह है कि भारत की इन दिनों की उच्च शिक्षा ही कई सामाजिक, राजनीतिक समस्याओं की जड़ है। जिस प्रकार भारतीय लोकसभा बहस के नाम पर केवल वक़्त की बर्बादी और सफलतम अवस्था में निरा जूतम पैजार कर सकती है उसी प्रकार उच्च शिक्षा भी पाठ्यक्रम बदलते बदलते केवल परीक्षा के नियम या प्रवेश के नियम बदल सकती है। मौजूदा उच्च शिक्षा से किसी शैक्षिक सामाजिक बदलाव की उम्मीद करना रेत से तेल निकालने के सामान है या एक और मुहावरे में चील के घोंसले में मांस मिलने जैसा है।

उपर्युक्त कुछ बातें अनधिकार ही हैं। लेकिन अराजक वाचाल विमर्श भीड़ में आख़िर अपनी विनम्र बौद्धिक बारी का इंतज़ार कब तक किया जाये?

-शशिभूषण

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