इंसान में पढ़ने की लगन हो, वह पढ़ना चाहे तो अच्छी किताबों, पत्रिकाओं तक पहुँच जाता है। एक अच्छी किताब दूसरी अच्छी किताब का पता दे देती है। शायद ही कोई ऐसा कृतघ्न हो जो उन किताबों की बुराई करे जिन्होंने उसे बेहतर बनाया।
किताब का कवर, ले आउट, प्रिंट और पेपर क्वालिटी भी किताबों का मुरीद सामान्यतया नहीं देखता। पुस्तकालय इसीलिए बनाये जाते रहे कि बिना खरीदे भी किताब, पत्रिकाएं पढ़ी जा सकें। अच्छा उपन्यास या कहानी संग्रह मिले तो पढ़ने का शौकीन भूख-प्यास भूल उन्हें चाट जाता है। किताब पढ़ने, उनके आदान-प्रदान से भी अच्छे रिश्ते बनते रहे हैं।
पाठक के लिए मुख्य होती है कृति। कृतिकार से भी भेंट का सुयोग बने तो सौभाग्य।
यह अब तक अच्छा ही चला आ रहा है कि दुनिया का सबसे अच्छा संपादक भी उस शख्स को लेखक नहीं बना सकता जिसके पास लिखने को महत्वपूर्ण और नया न हो। किताबों, पत्रिकाओं की तारीफ़, विज्ञापन या प्रचार उतने ही सहायक होते हैं जैसे बाज़ार से उन्हें गुज़रना हो।
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यदि पाठक तक न पहुँचे तो कोई प्रकाशन अर्थहीन है। मेरे खयाल से लेखक-आलोचक-प्रकाशक-संपादक-पाठक परस्पर सहयोग से ही विकसित होते हैं। किताबों के लिए शिक्षकों की भी दरकार होती है।
इस बात में शायद ही किसी पाठक की दिलचस्पी हो कि वह किस एक को श्रेष्ठ माने। किताब या कृति की उपयुक्त प्रशंसा यदि उत्साहवर्धक और रचनात्मक होती है तो समुचित आलोचना भी परिष्कार के लिए आवश्यक होती है। लेखक-आलोचक-प्रकाशक-संपादक कब किसे अपनाते हैं और किसकी उपेक्षा करते हैं आमतौर पर पाठक को यह जानने की भी गरज नहीं होती।
आलोचक ही यह दर्ज़ करते हैं कि कितना मीठा मीठा गप्प था कितना कड़वा कड़वा थू। इस पर किसी अन्य के अतिरिक्त दावों से भला क्या फायदा?
जितनी अधिक किताबें पाठकों तक पहुँचती रही हैं उससे ज्यादा सुधीजन किताबों तक पहुँचते रहे हैं। प्यासे कुएँ के पास जाते रहे हैं। हाथों तक पहुँचा हुआ पानी का गिलास नि:शुल्क नहीं हो सकता। इसलिए इस बात से विशेष फर्क़ नहीं पड़ना चाहिए कि किताब का ब्लर्ब किसने लिखा या प्रकाशक ने किससे समीक्षा लिखवायी। अंत में किताब रह जाती है और पाठक का एकांत।
लेखक इससे कम ही उदास होते रहे कि उन्हें क्या मिला? उदाहरण ही देना हो तो याद कीजिए- शैलेश मटियानी को क्या दिया गया? हिंदी का यह अप्रतिम कहानीकार और उपन्यासकार यही प्रार्थना करता रचता रहा कि हे ईश्वर मुझे लेखक बना दो। उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ भी सुर ही माँगते रहे जीवन भर अपने खुदा से।
पाठक के लिए कृति ही मुख्य होती है। आलोचक-संपादक-प्रकाशक भी कृति से ही ईमानदार रिश्ता रखकर गरिमा को प्राप्त होते हैं।
किताब का कवर, ले आउट, प्रिंट और पेपर क्वालिटी भी किताबों का मुरीद सामान्यतया नहीं देखता। पुस्तकालय इसीलिए बनाये जाते रहे कि बिना खरीदे भी किताब, पत्रिकाएं पढ़ी जा सकें। अच्छा उपन्यास या कहानी संग्रह मिले तो पढ़ने का शौकीन भूख-प्यास भूल उन्हें चाट जाता है। किताब पढ़ने, उनके आदान-प्रदान से भी अच्छे रिश्ते बनते रहे हैं।
पाठक के लिए मुख्य होती है कृति। कृतिकार से भी भेंट का सुयोग बने तो सौभाग्य।
यह अब तक अच्छा ही चला आ रहा है कि दुनिया का सबसे अच्छा संपादक भी उस शख्स को लेखक नहीं बना सकता जिसके पास लिखने को महत्वपूर्ण और नया न हो। किताबों, पत्रिकाओं की तारीफ़, विज्ञापन या प्रचार उतने ही सहायक होते हैं जैसे बाज़ार से उन्हें गुज़रना हो।
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यदि पाठक तक न पहुँचे तो कोई प्रकाशन अर्थहीन है। मेरे खयाल से लेखक-आलोचक-प्रकाशक-संपादक-पाठक परस्पर सहयोग से ही विकसित होते हैं। किताबों के लिए शिक्षकों की भी दरकार होती है।
इस बात में शायद ही किसी पाठक की दिलचस्पी हो कि वह किस एक को श्रेष्ठ माने। किताब या कृति की उपयुक्त प्रशंसा यदि उत्साहवर्धक और रचनात्मक होती है तो समुचित आलोचना भी परिष्कार के लिए आवश्यक होती है। लेखक-आलोचक-प्रकाशक-संपादक कब किसे अपनाते हैं और किसकी उपेक्षा करते हैं आमतौर पर पाठक को यह जानने की भी गरज नहीं होती।
आलोचक ही यह दर्ज़ करते हैं कि कितना मीठा मीठा गप्प था कितना कड़वा कड़वा थू। इस पर किसी अन्य के अतिरिक्त दावों से भला क्या फायदा?
जितनी अधिक किताबें पाठकों तक पहुँचती रही हैं उससे ज्यादा सुधीजन किताबों तक पहुँचते रहे हैं। प्यासे कुएँ के पास जाते रहे हैं। हाथों तक पहुँचा हुआ पानी का गिलास नि:शुल्क नहीं हो सकता। इसलिए इस बात से विशेष फर्क़ नहीं पड़ना चाहिए कि किताब का ब्लर्ब किसने लिखा या प्रकाशक ने किससे समीक्षा लिखवायी। अंत में किताब रह जाती है और पाठक का एकांत।
लेखक इससे कम ही उदास होते रहे कि उन्हें क्या मिला? उदाहरण ही देना हो तो याद कीजिए- शैलेश मटियानी को क्या दिया गया? हिंदी का यह अप्रतिम कहानीकार और उपन्यासकार यही प्रार्थना करता रचता रहा कि हे ईश्वर मुझे लेखक बना दो। उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ भी सुर ही माँगते रहे जीवन भर अपने खुदा से।
पाठक के लिए कृति ही मुख्य होती है। आलोचक-संपादक-प्रकाशक भी कृति से ही ईमानदार रिश्ता रखकर गरिमा को प्राप्त होते हैं।
-शशिभूषण
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