पत्रकार पूजा सिंह ने मुझसे कई बार कहा सर जी मुझे आपसे लड़ाई करनी है। संयोग ऐसे रहे कि मुझे कहना पड़ता कर लेंगे लड़ाई भी। समय मिलते ही ज़रूर लड़ाई करेंगे।
ज़िंदगी ऐसी है, इतने रिश्तों की शक्ल में लोग प्रिय हो जाते हैं कि लड़ाई से समझौता करना पड़ता है। लगता है आत्मीयता के ऊपर किसी एक बात को क्यों हावी होने दिया जाये? फिर समय भी हर हाल में कम पड़ जाता है।
मुझे अंदाज़ा नहीं था पूजा के पास शिकायतों की खेप तैयार हो रही है। इसमे आग में घी का काम कर रखा था उदय प्रकाश की कहानी वारेन हेस्टिंग्स का सांड़ पर मेरे द्वारा की गयी आलोचना ने। पूजा ने भोपाल में मेरी बातें सुनी थी। उदय प्रकाश जी की एक खासियत भी है वे किसी को भी लड़ जाने की हद तक प्रिय हो जाते हैं। उदय प्रकाश जी को पसंद करनेवाले परस्पर उनके निंदको से अधिक लड़ते हैं। यह अलग रहस्य है।
इस बार पूजा के अकेले उज्जैन आने से समय मिल ही गया। यद्यपि तबियत खराब थी। दस्त रोकने की दवाई और ग्लूकोज लेना पड़ रहा था। दवाई के प्रति ऐसा विलक्षण रवैया भी कि शकल करैला हो जाये। 200 किमी की यात्रा और आजकल की गर्मी। इसी बीच पूजा ने मेरी ग़लतफ़हमी भी दूर कर दी कि मेरी तबियत ऐसे खराब होती है कि किसी को यक़ीन नहीं होता मैं बीमार भी हूँ। मैने इस मार्मिक बात की मन ही मन तस्दीक की।
लेकिन रिस्क छोड़ दें, अनजान न दिखें तो किस बात की पूजा! मैंने भरसक कोशिश की हल्की फुल्की बातें की जायें। उन्हें शुक्रवार के लिए उज्जैन का सिंहस्थ कवर करना है तो उसी से जुड़ी बातें हों। बहस में उलझ गयीं तो काम प्रभावित होगा। अधिक दिन रुकना संभव नहीं।
लेकिन अपना सोचा कहाँ होता है। कई बाबाओं और एक साध्वी के दर्शन के उपरांत आतिथ्य, मेज़बानी, स्वास्थ्य और समय को दांव पर लगाती हुई कठोर बहस शुरू हुई। गउघाट पर। ऐसी बहस लड़कियाँ जिसकी आदी नहीं होती। आसपास के लोग जिस पर चौंककर देखते हैं। लेकिन पूजा की तैयारी थी। वे तमाम विषय भी ले आयीं। साहित्य, पत्रकारिता, समाज और इंसानी कमजोरियाँ सब तरह के विषय।
पूजा ने स्त्रियों के बारे में आये मेरे विचारों में बदलाव और मेरे खरा कॉमरेड न होने को सख्ती से रेखांकित किया। मैं तिलमिला गया। उन्होंने मुझसे कहा आपको जितना जल्दी हो सके समझ लेना चाहिए कि लड़कियाँ वह सब नहीं कर पाती हैं जो वे कर सकती हैं और करना चाहती हैं। इसमें रोक, छल और घुटन सब होते हैं। इसी के आलोक में उनकी प्रतिभा और कृतित्व को देखना चाहिए।
मैंने कहा पूर्वाग्रह किसी कीमत पर नहीं रखना चाहिए। स्त्रियों को भी रोज़मर्रा के आंकलन से ऊपर गंभीर विषयों पर तर्कसंगत बहस की तैयारी करनी चाहिए। अपनी सीमाओं से युक्ति निकालकर तथ्यों की चुनौती देनी चाहिए। ध्यान रहे वस्तुपरक बहस एक क्रूरतापूर्ण गतिविधि है। यह स्त्री-पुरुष नहीं देखती। इसमें घायल होने के बाद अपनी मल्हम पट्टी का इंतज़ाम भी खुद ही रखना चाहिए।
मेरा इशारा था कि रियायत की उम्मीद मत करना। पूजा का दावा था मैं परवाह नहीं करती।
कई बातें बेनतीज़ा रहीं। पूजा अगले दिन भोपाल लौट गयीं। हो सकता है उन्होंने मेरी समझदारी का अनुमान कर तसल्ली कर ली हो कि मेरे सकुशल भोपाल पहुँच जाने को मैंने जान ही लिया होगा। न उन्होंने बताया। न मैं पूछ पाया।
अब फेसबुक पर देने को कोई नसीहत नहीं है। बस शुक्रिया है कि मेरी यह समझ बढ़ी है कि पत्रकारिता बहुत कठिन, चुनौतीपूर्ण और श्रमसाध्य काम है। स्त्रियों के लिए कई गुना कठिन। असंभव सा। अपने को खतरे में डालने जैसा। अपना ही जुनून न हो तो कोई करवा नहीं सकता।
पूजा में जुनून और साहस की कोई कमी नहीं है। उनका दायरा भी बड़ा है। मैं साधन, सुरक्षा और अवसरों के लिए दुआ ही कर सकता हूँ।
अंत में बस यह हल्का-फुल्का सवाल पूछना चाहता हूँ कि बड़े-बड़े जोखिम उठा लेनेवाली किसी महिला पत्रकार को छिपकिली से आखिर क्यों डरना चाहिए?
-शशिभूषण
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