शुक्रवार, 17 जून 2016

सैराट


मैंने भी मराठी फ़िल्म 'सैराट' देखी। मुझे मराठी नहीं आती। अंग्रेज़ी में लिखे आ रहे संवाद समझ नहीं आये। इस तरह यह अनोखी फ़िल्म थी जिसमे किसने किससे क्या कहा मैने नहीं समझा।

मैंने दृश्य देखे और कहानी में, चरित्रों में पूरी तरह डूब गया। जब फ़िल्म ख़त्म हुई तो मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था। क्रोध, शोक और करुणा की त्रिवेणी में मैं स्तब्ध और निःशब्द रह गया। मेरे भीतर हाहाकार और सन्नाटा दोनों बराबर थे।

नन्हे शिशु के सूनी सड़क पर असहाय, भविष्यहीन कदम और घर में उसके मां बाप की निर्दोष, निरापद, स्वावलंबी ज़िन्दगी की निर्मम हत्या से पैदा मौत ने ऐसा कर दिया था कि लगा यह सब अभी-अभी अपने घर में घटा है।


कुछ बड़ा कहने की आज भी स्थिति नहीं न ही सामर्थ्य। सिर्फ़ यही कह सकता हूँ कि यह फ़िल्म प्रेम, क्रोध, शोक और करुणा की अनमोल सामाजिक कृति है। जो भी देखेगा अपने भीतर बदलाव अवश्य पायेगा।

इससे पहले कि सुधारगृहों के चौकीदार, व्यापारी चिकित्सकों के सहयोग से निर्मित कोई नयी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट बांचकर फ़िल्म को सुधार की खोखली, नकली कोशिश साबित कर दें आप फ़िल्म देख लें।

जब आप फ़िल्म देख चुकें तो कहीं गवाही देने मत दौड़ें। एक गिलास पानी पियें और मौन टहलने निकल जाएँ। यदि टहलना मुनासिब नहीं तो संभव एकांत में कुछ देर एकाकी गुनें




-शशिभूषण

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