शुक्रवार, 17 जून 2016

एक ही मुराद है अपने लिखे से किसी निर्दोष को पीड़ा न हो

उज्जैन सिंहस्थ 2016 शुरू ही हुआ था कि दैनिक अखबार ‘पत्रिका’ पर नज़र पड़ी। अखबार के तेवर ऐसे थे कि परखने का मन हुआ- देखना चाहिए स्थायी बल है या सिंहस्थ जमाऊ जलवा है। कुछ रोज़ मँगाना तय किया गया। एक अंग्रेज़ी अखबार ‘टाईम्स ऑफ़ इंडिया’ को मिलाकर घर में तीन अखबार हो रहे थे। निर्णय लेना ही पड़ा। ‘टाईम्स ऑफ़ इंडिया’ को स्थगित किया गया। ‘पत्रिका’ की आमद शुरू हुई।

इसमें कोई शक़ नहीं कि सिंहस्थ को लेकर ‘पत्रिका’ ने साहसिक, दिलचस्प और विश्लेषणपरक खबरें छापीं। बड़े-बड़े बाबाओं, महामंडलेश्वरों और नामानंदों के प्रति आलोचनात्मक दो टूक रवैया रखा। सरकारी नीतियों और कार्यों के प्रति पर्याप्त निर्ममता बरती। कई खुलासे किए। सिंहस्थ के खरे-खोटे हिस्से खूब छपे।

लेकिन सिंहस्थ की खबरों में जोखिम, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक ऐंगल लाने का श्रेय जाता है बनारस से आये पत्रकार आवेश तिवारी को। जितने दिन उज्जैन रहे आवेश जोरदार रहे। कमाल यह था कि आवेश अपनी खबरों के शानदार फोटोग्राफर भी हैं। हर स्टोरी के साथ बढ़िया फोटो छपे। उज्जैन में खूब दौड़े और खबरों को सब दूर दौड़ाया। एक बाबा को तो बाकायदा कमंडल पकड़ाकर चलते बनो पर मजबूर कर दिया।

मेरी राय में आवेश तिवारी में पत्रकार के सभी गुण हैं। वे भाँप सकते हैं। चाँप सकते हैं। भाग भी सकते हैं। दौड़ा भी सकते हैं। नौबत आ ही जाये तो कुश्ती भी लड़ सकते हैं। ज़रूरतमंद को कंधे में लादकर घाट भी पार करा सकते हैं। आवेश का कहना है भाई, बस एक ही मुराद है अपने लिखे से किसी निर्दोष को पीड़ा न हो। आवेश तिवारी का एक प्रसंग आपको भी गौर करने के काबिल लगेगा।

हम रामघाट में थे। रात का समय। टहलते-टहलते बाबाओं के पास पहुँचे। वैसे बाबा जिन्हें देखना भी चाहें और देखें भी नहीं। आवेश ने बात शुरू की तो एक युवा नागा खुलने लगा। इन्होंने पहचान लिया।
बनारस से हो?
हाँ?
वाह! खाना-पीना हो रहा है बढ़िया कि नहीं?
दिक्कत है!
बनारसी हो खाने-पीने में कमी न करना।

यह वार्तालाप सुनकर मुखिया बाबा आ गया। जोर की हाँक लगाई-हटो। डंडा दिखा बुदबुदाकर गाली दी। आवेश कठोर हुए-बनारसी, बनारसी से टेढा बोलने लगे तो समझो बुरे दिन आ गये। गरम मत होना। बाबा शांत हुआ। फिर वे परस्पर बातें करने लगे। मैं दूसरे साथियों में व्यस्त हो गया।

थोड़ी देर में क्या देखता हूँ कि जैसे आवेश ने कोई मंत्र फूँक दिया था। एक नागा के कंधे पर दूसरा नागा चढ़ गया। दोनों अपनी कलाबाज़ी दिखाने लगे। आवेश मज़े से फोटो लेने लगे। भीड़ लग गयी। दूसरे भी सेल्फ़ी लेने लगे।

आज यह याद आ गयी। सिंहस्थ हो चुका है। आवेश पहले ही जा चुके हैं। पत्रिका की टीम भी अपना काम उसी मुस्तैदी से करती रही है। अपने घर में ‘नयी दुनिया’ का कोई विकल्प नहीं है। अब केवल यह निर्णय करना है कि टाईम्स ऑफ़ इंडिया फिर शुरू करें या नहीं!

चलिए, यह अपना घरू मामला है तय हो जायेगा। अब कौन सा अखबार पढ़ रहे यह बताते रहना ज़रूरी नहीं। हम सेलिब्रेटी नहीं न हैं!

-शशिभूषण

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