बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

हमारी तटस्थता की शिकार फिल्मों में ‘थैंक्स माँ’ भी है


कभी फिल्म देखना आवारगी हुआ करती थी। लोग पैसे बचाकर फिल्में देखते थे और बदनाम रहते थे। फिल्मी गाने गानेवाले नौजवानों को लड़कियाँ पसंद करती थीं लेकिन उनके साथ उठना-बैठना मंज़ूर नहीं करती थीं। आज जब किसी को सिर्फ़ शौक के लिए फिल्में देखने को भागते, लंबी लाइन में घंटे भर खिसकते देखता हूँ तो मन लगाव से भर जाता है। कोई बौद्धिकता नहीं, कोई दावा नहीं। फिल्में देखनी हैं कि देखे बिना नहीं रह सकते। अकेले देखने से सख्त गुरेज़। जो ज्ञान के लिए फिल्में देखें वे चूतिया।

हिंदी में शानदार फिल्मों की कमी नहीं। ऐसी दर्जनों फिल्में हैं जिनमें आंदोलित करने की क्षमता है। वे हमारे भीतर की जड़ताएँ तोड़ने में सक्षम हैं। जो चुपचाप अपना काम करती रहती हैं। तमाम भुलावों और भव्य विज्ञापनों को छोड़कर हम ऐसी फिल्मों की शरण में जाते हैं। वे हमें बिना शर्त अपनी गोंद ले लेती हैं। हम उनकी करुणा में भीग भीग जाते हैं। उनके क्रोध में जबड़े भींच लेते हैं। वे हमें हँसना-रोना-लड़ना-प्यार करना और अपना हक़ लेना सिखाती हैं। लेकिन देखने में यह आता है कि हमारा समाज ऐसी परिवर्तनकामी, सच्ची फिल्मों का साथ नहीं देता। जिनके ऊपर ऐसी फिल्मों को प्रकाश में लाने की सामर्थ्य और ज़िम्मेदारी है वे कृपण हो जाते हैं। ऐसी फिल्मों के अभिनेता स्टार नहीं कहलाते। इनके निर्देशक वाजिब पहचान नहीं पाते। जैसा कि जीवन में होता है लोग ईमानदारों को छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं ये फिल्में भी हमारी तटस्थता की शिकार हो जाती हैं। जबकि होना यह चाहिए कि बिना किसी गुणा भाग के सहज फिल्मों को प्रश्रय मिले। उनके पक्ष में अच्छा माहौल बने। वे लोगों तक बार-बार पहुँचें।

ये बातें मैं एक खास फिल्म को ध्यान में रखकर कह रहा हूँ। फिल्म का नाम है थैंक्स माँ। आपमें से अधिकांश ने जो फिल्मों पर पढ़ने के आदी होंगे यह फिल्म ज़रूर देखी होगी। इरफान कमाल की यह पहली फिल्म मार्च 2010 के पहले सप्ताह में रिलीज़ हुई थी। यू/ए सर्टिफिकेट के साथ। हालांकि यह फिल्म शिशुओं पर है और मुख्य कलाकार भी बच्चे ही हैं इसमें। रघुवीर यादव, जो फिल्म की कहानी के केंद्र एक अस्पताल में गार्ड की यादगार भूमिका में हैं को छोड़ दिया जाये तो एक भी जाना-माना नाम बड़ी भूमिका में नहीं है इस फिल्म में।

फिल्म शुरू होती है रेलवे प्लेटफार्म के एक दृश्य से। एक बच्ची जिस पर से माँ-बाप की नज़र अभी-अभी हटी है पटरी की ओर बढ़ रही है। सीटी बजाती ट्रेन प्लेटफार्म में लगने ही वाली है। यात्रियों की भीड़ आ-जा रही है पर किसी को बच्ची की परवाह नहीं है। वह तेज़ी से घुटनों के बल ट्रेन की तरफ़ जा रही है। यह दृश्य पूरा होते-होते कलेजा मुह को आता है कि बच्ची पटरियों पर अब गिरेगी और ट्रेन आ जायेगी। नसीब की बात माँ की नज़र उस पर पड़ जाती है। वह बदहवास दौड़कर बच्ची को मौत के मुँह से खींच लेती है। स्क्रीन पर दो शब्द उभरते हैं थैंक्स माँ और फिल्म शुरू होती है।

फिल्म का नायक है दस-बारह साल का बच्चा मुन्सिपल्टी। उसके साथी हैं सोडा मास्टर, कटिंग, डेढ़ शाणा, और सुरसुरी। ये सब चोर हैं। मवाली हैं। प्लेटफार्म पर जेबें काटते हैं, सामान छीनकर भागते हैं। परस्पर दोस्तनुमा दुश्मन और दुश्मननुमा दोस्त हैं। मुन्सिपल्टी के नामकरण की कहानी यह है कि उसकी माँ उसे म्यूनिसिपैल्टी के अस्पताल में छोड़ गयी थी इसलिए वह मुन्सिपल्टी है। वह अक्सर उस अस्पताल में गार्ड के लिए शराब की रिश्वत लेकर इस उम्मीद में जाता है कि उसकी माँ उसे खोजते अस्पताल जब आयेगी तो गार्ड उसे माँ से मिला देगा। अपनी माँ से मिलना मुन्सिपल्टी का सबसे बड़ा सपना है। इसी सपने के साथ रोज़ी-रोटी के अधम प्रयास में एक दिन उसे पुलिस पकड़ ले जाती है। वह बाल सुधारगृह पहुँचा दिया जाता है। वहाँ उसका सामना एक अधिकारी से होता है जो उसे नहा धो लेने को साबुन देता है। उसके इरादे मुन्सिपल्टी भाँप लेता है। वह खुद को छुड़ाता हुआ वहाँ से भागता है। रात में मुन्सिपल्टी छत से कूदकर भागने की जुगत में है तो क्या देखता है कि एक कुत्ता है जो कपड़े में लिपटे शिशु को सूँघ रहा है और भौंक रहा है। एक टैक्सी में कोई औरत अभी अभी बैठकर जा रही है। मुन्सिपल्टी कुत्ते को भगाकर शिशु को सीने से चिपटा लेता है। टैक्सी नज़रों से ओझल हो जाती है।

सही मायने में फिल्म की कहानी यहीं से शुरू होती है। मुन्सिपल्टी शिशु का नाम रखता है कृष्ण। वह उसकी माँ को खोज रहा है। वह उसे चर्च के अनाथालय में नहीं देना चाहता। हिजड़ों के यहाँ से भी भाग आता है। वह तय करता है कि शिशु की पहचान छिन जाये इससे अच्छा होगा जब तक माँ नहीं मिल जाती मैं ही देखभाल करूँ।

उसकी खोज के दौरान वेश्या आती है जिसने इस शिशु को खरीदकर छोड़ दिया था। क्योंकि यह लड़का था। बुढ़ापे में उसका दलाल हो सकता था।

एक दिन मुन्सिपल्टी अस्पताल प्रबंधन की चालाकी भेदकर और पादरी की मदद से कृष्ण की माँ को खोज लेता है। लेकिन जब वह कृष्ण की माँ से मिलता है तो उसकी माँ पर से श्रद्धा ही मिट जाती है। कृष्ण की माँ का गर्भ उसके पिता का था। इस कारण वह कृष्ण को स्वीकार नहीं सकती। हारा हुआ मुन्सिपल्टी जो बकौल पादरी चोर है और जीवन में पहली बार किसी की चीज़ लौटाना चाहता है बच्चे को बाहों में लिये सड़क में आता है तो एक कार अचानक दबाये गये ब्रेक के कारण उसके पास रुकती है। वह कार में बैठी हुई औरत को देखता है। अगले पल उसकी नज़र एक बड़े होर्डिंग पर लगे पोस्टर पर जाती है। दोनो एक ही हैं। वह चल देता है कि तभी छोटा बच्चा देखकर औरत मुन्सीपल्टी को रूपये देने के लिए हाथ बढ़ाती है। वह इंकार के साथ आगे बढ़ जाता है। मुन्सिपल्टी हारकर अनाथालय में जाता है और बच्चे के माँ-बाप के रूप में अपना नाम लिखने को कहता है।

वह फिल्म के आखिर में अस्पताल पहुँचता है। आज भी उसके हाथ में गार्ड के लिए शराब है। गार्ड कहता है तेरी माँ कभी नहीं आयेगी। मुन्सीपल्टी उठते हुए कहता है लेकिन मैं आता रहूँगा। वह धीरे धीरे चला जाता है। गार्ड शराब की बोतल पटक देता है। फिल्म के बिल्कुल आखीरी दृश्य में वही औरत कार से अस्पताल के परिसर में उतरती है जो मुन्सिपल्टी को रास्ते में मिली थी। जिससे पैसे लेने से उसने इंकार कर दिया था। जो उसकी माँ है।

यह संक्षेप में फिल्म की कहानी का ढाँचा है। फिल्म के दृश्य और संवाद जो कहानी बयान करते हैं उसे देखकर ही जाना जा सकता है। इस फिल्म के संवाद उस जीवन में ले जाते हैं हमें जिससे हम स्लम डॉग मिलेनियर या सलाम बांबे जैसी फिल्मों के माध्यम से परिचित होने का दावा कर सकते हैं।

थैंक्स माँ शिशुओं को फेंकने से लेकर उनके खरीद फरोख्त और हत्याओं तक की अनगिन दारुण गाथाओं को हमारे सामने उजागर कर देती है। यह फिल्म दिखाती है कि भारतीय समाज में शिशुओं के साथ हो रहे अन्याय की कितनी वजहें छुपी हैं और रोज़ पनपती रहती हैं। यदि इस कथा श्रंखला को देखें जिसमें एक स्त्री अस्पताल में अपने पिता से मिला जीवित शिशु छोड़कर आती है। उसे अस्पताल का पेशेवर चोर वेश्या को बेंच देता है। वेश्या उसे इसलिए नहीं पालना चाहती क्योंकि वह लड़का है। एक बारह साल का बच्चा जो खुद अनाथ और चोर है लेकिन उस बच्चे को माँ तक पहुँचाना और एक मुकम्मल पहचान के साथ बड़ा होता देखना चाहता है तो लिंग परीक्षण के पश्चात मारे जाने वाले कन्या भ्रूणों की त्रासदी घोर सामाजिक ताने-बाने की केवल एक पहलू दिखायी देगी। भारतीय समाज अपनी जिस संरचनागत हत्यारी प्रविधि में है उसे चंद सरकारी और एनजीओ संचालित जागरुकताएँ नहीं बदल पायेंगी।

थैंक्स माँ हमारे समय की एक ऐसी फिल्म है जो बड़े सिनेमाघरों में मँहगे पापकार्न और अँग्रेज़ी बोलते वेटरों के अनुरोध के साथ व्यापक पैमाने पर नहीं देखी जा सकी। यद्यपि इसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रशंसा एवं सम्मान बटोरे। लेकिन यह भी फिल्म ही है और जब भी किसी सहृदय के द्वारा देखी जायेगी उसे झकझोरकर रख देगी।

मुझे यक़ीन है आपने ऊपर मेरा यह लिखा पढ़ चुकने के बाद सारी स्थितियों का आकलन कर ही लिया होगा। लेकिन सवाल यह नहीं है कि इस फिल्म पर मैंने कितने फिल्म संबंधी तकनीकि पहलुओं से विचार किया है। कलात्मक पैमानों पर इसे कसने में कितना सफल रहा हूँ। या यह फिल्म बाकी फिल्मों की तुलना में कितनी उत्कृष्ट है। साथियो, मुद्दा यह है कि यह फिल्म बड़े पैमाने पर क्यों नहीं देखी जा सकी। इसे यदि बच्चों को दिखाना हो तो किस तर्क से दिखाया जाये उन्हे किस तरह से तैयार किया जाये पहले कि वे सार सार को पकड़ सकें? क्योंकि इस फिल्म फलफमें गालियाँ हैं। बड़े तीखे हर क़िस्म के नग्न यथार्थ हैं लेकिन इन सबके बावजूद मैं समझता हूँ यह बूट पालिश या सन आफ इंडिया जैसी फिल्मों से बच्चों के लिये अधिक ज़रूरी है। ऐसी फिल्में जो जनमानस की समझ बढ़ाती हों उपेक्षा के साथ साथ अपेक्षित मानसिक दशा के अभाव की शिकार क्यों हो रही हैं?

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2 टिप्‍पणियां:

  1. इस तरह की फिल्में मास वैल्यू भले न जनरेट करें लेकिन अपने आप में खुद एक स्टैंडर्ड वैल्यू हैं, एक पैमाना जिसे हर फिल्मकार छूना चाहता है लेकिन तमाम व्यवसायिक मजबूरियों या कहें रोजमर्रा की घिच पिच के कारण नहीं छू पाता।

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  2. सतीश जी,
    आपकी बात से सहमत हूँ। यह पिछड़ी हुई बात मानी जायेगी आज के लाभ-लोभ से भरे समय में। लेकिन इसकी वजह व्यवसायिक मज़बूरियाँ और रोज़मर्रा की घिच पिच उतनी नहीं जितनी फिल्मकारों के भीतर पैदा हुई सेवा भावना में कमी है।

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