शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

अँधियारे की बाढ़ में, चली दीप की नाव

धनतेरस के दिन बाज़ार नहीं जा पाया था.समय नहीं मिला.कुछ खरीदना भी नहीं था.सब्जियाँ बिना बनाए ही मुरझा रहीं थीं.बर्तन पहले से इतने हैं कि सबमें कैसे कैसे बनाया जाता है मुझे नहीं आता.यह अच्छा भी है.क्योंकि मुझे पक्का विश्वास है अगर अच्छा खाने अच्छा पहनने की लत लग जाए और सहारा अपना ही हो तो हो गई ज़िंदगी.

खैर,सुबह से लेकर दोपहर तक स्कूल के वार्षिक दिवस समारोह में रहे.कार्यक्रम अच्छा गया था.अपने को मिली ज़िम्मेदारी अच्छे से निभ गई थी.बच्चों ने अपनी मेहनत से खुश किया.इन्हीं सब की मिली जुली निश्चिंतता थी.सो मस्ती में आए और सो रहे.शाम को तरंग उठी तीन चार घंटे की कड़ी मेहनत की और एक सीधी सादी कविता लिख ली.फिर क्या था धनतेरस के बधाई संदेश आते रहे और हम बताते रहे कि हमने कविता लिखी है.दो तीन हिम्मतवालों को सुना भी डाली फोन पर ही.ले देकर पता चल गया कि ठीक-ठाक है.

आज दीवाली में भी घर से नहीं निकला हूँ.खाना बनाना पड़े इसलिए सुबह ही इडली खा ली.दो पैकेट बिस्कुट निपटा दिए.अमरूद खा चुका.राजपाल यादव की फिल्म कुश्ती देख डाली.नहाने के बाद झा़ड़ू लगाकर कचरा फेंकते हुए(दो दिन के जूठे बर्तन बाद में धोऊँगा) लौट ही रहा था सोचते कि अब क्या बचा है खाने को कि नीचे संगीत शिक्षक झा जी मिल गए.बोले शाम को खाना मत बनाइए.हमारे साथ खाइएगा.

मैं खुश हो गया.चैन से अपने लैपटाप के संग हो लिया.वरना इससे पहले तो जाने क्या क्या सोच रहा था.बड़ा आलसी हूँ.गोया टीवी देखना भी समाजवाद लाने की दिशा में एक कदम हो.मैं बुदबुदा रहा था मेरे सामने मेरे ही आलस्य और इच्छाओं का पहाड़ है.चढ़ चढ़कर लुढ़कता रहता हूँ.उस पार जलता दीया है.पहुँचे बिना ही उस तक सोचता रहता हूँ.उठा उठाकर लोगों की देहरी में रख दूँगा.

यह सब सोचते हुए ही फेसबुक की नाव पर सवार हो गया.समय की धार इससे बेहतर नहीं कटती किसी से.लगता ही नहीं कि समय काटा जा रहा है.वहीं आज दिखे ओम द्विवेदी.उनके कुछ दोहे.उन्हें पढ़ने के बाद बाक़ी पढ़ने दी गई लिंक पर आया.सारे के सारे पढ़ डाले.सच मानिए तबियत खुश हो गई.भीतर से आवाज़ आई अपनी दीवाली तो हो गई.इतना अच्छा लगा कि कुछ पूछिए मत.मन भर आया लगा कि ओम भाई को फ़ोन लगाऊँ.पर सोचा कुछ और करते हैं.संदीप को सुनाने की सोची तो खयाल आया बंदे ने क्या बिना पढ़े छोड़ा होगा अब तक.फिर लगा एसएमएस में दो दोहे लिखूँ और सब को दीवाली की शुभकामना बनाकर भेज दूँ.कुछ संतों,विद्वानों को भी जो प्यार कर करके उनसे दुश्मनी करते हैं.उन्हें छोटा-मोटा पत्रकार समझते हैं.खयाल आया यह बदमाशी समझ ली जाएगी.

कविता को फोन लगाया.वह सोने जा रही थी.मैने कहा अभी मत सोओ.वह बोली क्यों?मैंने कहा पहले दोहे सुनो.उसने कहा सुनाओ मैंने सुनाए.उसे बहुत पसंद आए.बोली ये तुम्हारे तो हैं नहीं.मैंने कहा ओम द्विवेदी के हैं.उसने कहा बहुत अच्छा लिखते हैं.कई बार बड़े कवियों की छुट्टी कर देते हैं.मैने कहा सही है.अब तुम सो जाओ मैं कुछ लिखना चाहता हूँ.वह कहती रह गई यह अच्छा है जगा जगाकर कविता सुनाओ. जब चाहे बोल दो अब सो जाओ.मैंने हँसते हुए फोन काट दिया और लिखने बैठ गया हूँ.लिखता रहूँगा जब तक कोई मनहूस फोन या दरवाजा नहीं खटखटा देगा.या मेरा ही आलसी मन नहीं उचट जाएगा.तो अब सीधे ओम द्विवेदी पर आते हैं.

ओम द्विवेदी कवि हैं,व्यंग्यकार हैं और पत्रकार हैं.सचमुच ओम द्विवेदी को कोई बहुत बुरी लगनेवाली बात कहनी हो तो बाक़ायदा भी लगाकर कह दीजिए कि ओम द्विवेदी रंगकर्मी भी हैं.अच्छे अभिनेता.निश्छल व्यक्ति.अभासी सौजन्य से भरे मित्रों में वास्तविक दोस्त.जो नाराज है तो प्यार से हर्गिज नहीं बोलेगा और खुश है तो दिल उड़ेल देगा.लड़ेगा तो हानि-लाभ सोचकर नाम नहीं छुपाएगा.आपके साथ खड़ा होगा तो धिक्कारने की भी हिम्मत रखेगा.छला जाएगा तो गली गली,रचनाओं में रोएगा नहीं.सबकुछ होते हुए जैसे जानबूझकर अपना क़द छोटा रखेगा.क्योंकि शायद उसे डर है अधिक महत्वाकांक्षा से गुलामी आती है.कृपा के वैभव में जीने से बेहतर है थोड़ी तंगी में जीना.मस्त और बेपरवाह.

एक बार मैने ओम भाई के घर से लौटते हुए कथाकार सत्यनारायण पटेल से पूछा था कि इस आदमी को आपने गौर से देखा.इतनी बात की कैसा है?सत्यनारायण पटेल जो हमेशा इस मुद्रा में रहते हैं कि प्रशंसा करना सबसे निकृष्ट कार्य है बोले-इस आदमी के भीतर आग है.यह कभी भूखा भी सोया होगा.इसने दुनिया देखी है वरना तो तुम्हारे रीवा में जी सर और मोनालिसा की मुस्कुराहट वाले बहुत हैं.जो देखे वही सोचे मेरे लिए मुस्कुरा रहा है.उन सबको ठेंगे पर रखता होगा जो रीवा में सफलता का ईनाम बाँटते हैं.इसीलिए असफल है.पर ठीक है यार सफलता से क्या उखड़ता है.अपना काम तो कर ही रहा है.

ओम द्विवेदी.आजकल नयी दुनिया इंदौर में सहायक संपादक हैं.मेरे मन में अभी बातों ,यादों,प्रसंगों का रेला रहा है.सबको सिलसिलेवार जमाने लायक सोच पाने का भी वक्त नहीं.इस सबको पोस्ट भी तो करना है.आकुलता में ज़रूरी छूटकर गौंण हो जाए इससे बेहतर है कम लिखना.मेरी रफ्तार बिल्कुल कम हो गई है.एक लाइन लिखने में कई कई लाइन मिटा रहा हूँ.अभी खयाल रहा है सबकुछ विस्तार से बाद में लिखूँ तो अधिक ठीक रहेगा.अभी दोहे आपसे बाँटू.

ये दोहे मैंने ओम द्विवेदी के ब्लॉग से छाँटे हैं.सारे पढ़ने के लिए आप इस लिंक मीठी मिर्ची पर जाएँ.ओम द्विवेदी संकोची हैं इसलिए यदि आप उन्हें बहुत अच्छे कवि के रूप में नहीं जानते तो आपकी ग़लती नहीं.ये दोहे पढ़िए और सोचिए कैसा कवि ऐसे दोहे लिख सकता है.मैं सिर्फ़ इतना कह रहा हूँ यह मेरे ब्लॉग की दीवाली पोस्ट है.


झालर, झूमर, दीप सब, सजकर हैं तैयार।
अँधकार के तख्त को, पलटेंगे इस बार॥

अँधियारे की बाढ़ में, चली दीप की नाव।
घर-घर पहुँची रोशनी, रोशन सारा गाँव॥

बंद आँख में रात है, खुली आँख में भोर।
पलकें बनकर पालकी, लेकर चलीं अँजोर॥

लक्ष्मी, दीप, प्रसाद सब, बेच रहा बाजार।
जिसकी मोटी जेब है, उसका है त्योहार॥

मावस ने है रच दिया, यह कैसा षडयंत्र।
कहे रोशनी ठीक है, अँधियारे का तंत्र॥

सूरज ने जबसे किया, जुगुनू के संग घात।
लाद रोशनी पीठ पर, घूमे सारी रात॥

पसरी है संसार पर, जब-जब काली रात।
एक दीप ने ही उसे, बतला दी औकात॥

सोता है संसार जब, बेफिक्री की नींद।
रात पालती कोख में, सूरज की उम्मीद॥

नहीं चलेगा यहाँ पर, अँधियारे का दाँव।
पोर-पोर में रोशनी, यह सूरज का गाँव॥

उँजियारे का है बहुत, मिला-जुला इतिहास।
कुछ आँखों के पास है, कुछ सूरज के पास॥

अँधकार के राज में, दीपक की हुंकार।
तुझसे लड़ने के लिए, आऊँगा हर बार॥

4 टिप्‍पणियां:

  1. ज्योति पर्व के अवसर पर आप सभी को लोकसंघर्ष परिवार की तरफ हार्दिक शुभकामनाएं।

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  2. दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें।

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  3. बहुत खूबसूरत लिखा है तुमने ओम भाई के बारे में। शशि सत्तू का एनालिसिस ओम भाई के बारे में एकदम सटीक है। इंदौर छोड़ने के बाद भी जब कभी मन उदास होता है तो उनकी बेफिक्र हंसी सुनने के लिए घंटी बजा देता हूं। उनकी कविता व दोहों के बारे में खैर मैं क्या कहूं...

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  4. सच! मैंने तो अभी पढा और दीवाली मनाने में बची कसर पूरी कर ली...धन्यवाद इन दोहों को शेयर करने के लिये...

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