बहादुर पटेल कवि हैं.देवास में रहते हैं.उनका पहला कविता संग्रह बूँदों के बीच प्यास अंतिका प्रकाशन से छपकर आया हैं.यह हमारे समय के महत्वपूर्ण कथाकार प्रकाशकांत को समर्पित है.वे युवा कवि हैं कि नहीं यह बड़े लोग जानें पर मेरी नज़र में वे अच्छी कविताएँ लिखते हैं.उनकी कविताएँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं हैं.जब तक साहित्य में ऐसी धारणाएँ क़ानून नहीं बन जातीं कि महानगरों में ही अच्छी कविताएँ लिखी जाती हैं.अपनी तरफ़ का युवा ही अच्छा कवि होता है तब तक तो आपको भी यह कहने में हर्ज़ नहीं होना चाहिए कि कविता वहां भी है जहाँ तक विशेषांको की अनुक्रमणिका नहीं जाती.साहित्यिक केंद्रों की सिटी बसें नहीं पहुँचतीं.जिन्हें उदारता लाभ नहीं मिलता.एक ज़माने में इलाहाबाद में अच्छा साहित्य लिखा जाता था.अब वहां किसी प्राचीन स्मारक से अमरकांत जी के अगल बगल लोग अफसर होते हैं.फिर बनारस का साहित्य बढ़िया माना गया.अब वहां काशीनाथ सिंह जी जैसे स्तंभ की छोड़ दें तो प्रचुरता में टीकाएँ,कुंजियाँ,लिखी जाती हैं.आजकल तो जो दिल्ली से नहीं लिखता वह भी कोई साहित्यकार है?किसी आयोजन के निमंत्रण भी भेजने हों तो डाक दिल्ली ही जाती है.हालांकि कुछ ज़िद्दी,कहीं भी बस जाने को विवश यहां वहां भी साहित्य होने की तस्दीक करते रहते हैं.पर यह फुटकल है.नक्शे में लखनऊ,भोपाल,जबलपुर के आगे देखना नहीं हो पाता.सवाल उठता है साहित्य का केंन्द्र शहरों को कौन बनाता है?किसके भीतर कहीं से भी कविता सुनाने की धुन कम नहीं होती.बहरहाल यहाँ दो कविताएँ बहादुर पटेल की.इसी संग्रह से.इस उम्मीद के साथ कि आपको भी अच्छी लगेंगी.
सुनाऊँगा कविता
शहर के आखिरी कोने से निकलूंगा
और लौट जाउंगा गाँव की ओर
बचाऊँगा वहां की सबसे सस्ती
और मटमैली चीज़ों को
मिट्टी की खामोशी से चुनूंगा कुछ शब्द
बीजों के फूटे हुए अंखुओं से
अपनी आँखों के लिए
लूंगा कुछ रोशनी
पत्थरों की ठोकर खाकर
चलना सीखूंगा
और उन्हें दूंगा धन्यवाद
उनके मस्तक पर
लगाउंगा खून का टीका
किसान जा रहे होंगे
आत्महत्या के रास्ते पर
तब उन्हें रोकूंगा
सुनाउंगा अपनी सबसे अंतिम
और ताज़ा कविता
वे लामबंद हो चल पड़ेंगे
अपने जीवन की सबसे दुरूह पगडंडी पर।
टापरी
वो देखो वहां कभी हुआ करती
ठीक कुंए के बगल में टापरी
तब दादा भी हुआ करते
बनाई भी उन्होंने ही थी
अपनी मेहनत के मोतियों से
इकट्ठा किया था उन्होंने
ईंट, गारा और चूना
जिससे खड़ी की थीं चारों ओर दीवारें
सुरक्षा का एक घेरा बनाया था
बिछा दी थी दीवारों पर
कुछ सीमेंट की चादरें
नीचे से बल्लियों के टेकों पर
बहिन कमली अक्सर लीप दिया करती
पीली मिट्टी और गोबर से
कैसा दिपदिपाता था अंदर
जैसे सोने सा
धूप के कुछ पहिंए
मंडराते थे वहां दिन में कुछ ढूंढ़ते से
और रात में चांदनी
अपने करतब दिखाती
अमावस की रात जब भारी पड़ती
तो गुलुप जलता
या फिर किरासिन की चिमनी
ही होती आँखों का सहारा
यह तब की बात है
जब कुंए में हुआ करता था
लबालब सागर सा पानी
दादा अक्सर किस्सा सुनाते
कि कैसे जब चड़स में बैलों को जोतकर
निकाला जाता पानी
कैसे सोते फूट पड़ते
कल-कल संगीत के साथ
बैलों की कांसट करती उनकी संगत
यह कैसी कहानी थी
जिसमें कविता का वास था
संगीत का वास था
फिर कैषा हलवाहा अपनी
तान छेड़ता तो नहा जाती हवाएं
बहा ले जातीं दूर तक मिठास
कैशा तब भी गाता था जब
पहली बार बिजली से पानी निकाला गया
फिर वह गाने को
किस्से में बदलने लगा
ऐसे किस्से सुनाता कि कुंए के
सोते धार-धार रोते से लगते
इसे हम दूस रे टापरी कहते
और यदि होते पास तो खोली
गांव से दूर खेत पर थी यह
ऐसी कई टापरियां थीं
कई-कई खेतों पर
सबका मिजाज़ होता अलग-अलग
सबकी अलग-अलग थी गंध
सबका अलग-अलग था संसार
इनका उपयोग ऐसा कि
जैसे खाली पेट को खाना
प्यासे को पानी
मदन, मंशाराम, दादा, दादी,
माँ, पिता और हम भाई बहन कर रहे होते
खेतों में काम
तो बार-बार हर छोटे-मोटे काम के लिए
गाँव के घर न जाने की सुविधा
थी यह टापरी
काम करते तो सुस्ताते इसी में
थकान को धोते इसी की छाया से
मौसम की मार में हमेशा तैयार
गर्मी देती ठंडक
बारिश में छिपा लेती हमें
ठंड में रजाई सी होती गरम
हर मर्ज़ की दवा
सौ तालों की एक चाबी
गाँव के घर की उपशाखा
जिसमें कुछ खास चीज़ों को छोड़कर
था सबकुछ
जैसे एक लकड़ी का संदूक
जिसमें फुटबॉल, पाईप पर लगाने के क्लिप,
स्टार्टर की पुरानी रीलें, बिरंजी, नट-बोल्ट,
कुछ पाने, पिंचिस, पेंचकस, टेस्टर,
बिजली के तार, फेस बांधने का वायर,
सुतलियां, नरेटी, सूत के दोड़ले
और साइकिल के पुराने ट्यूब इत्यादि
ये सारे ब्यौरे किसी न किसी काम से नस्ती थे
यह एक ऐसा कबाड़खाना था कि
इससे बाहर कोई काम नहीं था
या कि किसी काम के लिए इसके
अलावा कोई विकल्प की ज़रूरत नहीं
कोने में पड़ी रहती खटिया
जिस पर दिन में एक तरफ ओंटा
हुआ चिथड़ा बिस्तर
जो रात में काम आता
रखवाली के समय
ठंड के दिनों में
पाणत करते तो इसी में दुबक जाते
खटिया के नीचे था रहस्यमय संसार
खाली बोरे, खाद की थैलियों के बंडल,
कुछ पल्लियां
जब अनाज पैदा होता तो
इन्हीं में बरसता
सब्जियां मंडी जातीं तो इन्हीं में
इनके सहयोगी होते
कुछ टोकनियां, छबलिये
और बड़े डाले, गेंती, फावड़े, कुल्हाड़ी
दरांते, सांग, खुरपियां
कितना कुछ था इस टापरी के भीतर
खेती किसानी का पूरा टूलबॉक्स
यही नहीं इसके पिछवाड़े
बल्लियां, बांस, हल, बक्खर, डवरे,
जूड़ा पड़े रहते
छांव में पड़ी होती पुरानी साइकिल
हां यहीं तो था यह सबकुछ
कैसे स्मृति में रपाटे मारती हैं सारी चीज़ें
कहां गया यह सब
देखो भाई
यह खोड़ली सड़क
जब से यहां से निकली है
सबकुछ खा गई यह डाकिन
यह देखो अपने साथ
कैसा विकास का पहिया लेकर आयी
कुचल दिया सबकुछ
यह पेट्रोल पंप
वह चौपाल सागर
ये बड़ी-बड़ी मषीनों से भरी फैक्ट्रियां
बड़ा भयावह दृष्य है यह
बाज़ार और पूंजी के पंजों को देखो
अदृष्य हैं ये
इनके वार ने खोद दी है
ऐसी कई टापरियों की जड़ें
एक सागर में तब्दील होता जा रहा है
सारा मंजर
जिसमें डूबता जा रहा है सबकुछ
-बहादुर पटेल
सुनाऊँगा कविता
शहर के आखिरी कोने से निकलूंगा
और लौट जाउंगा गाँव की ओर
बचाऊँगा वहां की सबसे सस्ती
और मटमैली चीज़ों को
मिट्टी की खामोशी से चुनूंगा कुछ शब्द
बीजों के फूटे हुए अंखुओं से
अपनी आँखों के लिए
लूंगा कुछ रोशनी
पत्थरों की ठोकर खाकर
चलना सीखूंगा
और उन्हें दूंगा धन्यवाद
उनके मस्तक पर
लगाउंगा खून का टीका
किसान जा रहे होंगे
आत्महत्या के रास्ते पर
तब उन्हें रोकूंगा
सुनाउंगा अपनी सबसे अंतिम
और ताज़ा कविता
वे लामबंद हो चल पड़ेंगे
अपने जीवन की सबसे दुरूह पगडंडी पर।
टापरी
वो देखो वहां कभी हुआ करती
ठीक कुंए के बगल में टापरी
तब दादा भी हुआ करते
बनाई भी उन्होंने ही थी
अपनी मेहनत के मोतियों से
इकट्ठा किया था उन्होंने
ईंट, गारा और चूना
जिससे खड़ी की थीं चारों ओर दीवारें
सुरक्षा का एक घेरा बनाया था
बिछा दी थी दीवारों पर
कुछ सीमेंट की चादरें
नीचे से बल्लियों के टेकों पर
बहिन कमली अक्सर लीप दिया करती
पीली मिट्टी और गोबर से
कैसा दिपदिपाता था अंदर
जैसे सोने सा
धूप के कुछ पहिंए
मंडराते थे वहां दिन में कुछ ढूंढ़ते से
और रात में चांदनी
अपने करतब दिखाती
अमावस की रात जब भारी पड़ती
तो गुलुप जलता
या फिर किरासिन की चिमनी
ही होती आँखों का सहारा
यह तब की बात है
जब कुंए में हुआ करता था
लबालब सागर सा पानी
दादा अक्सर किस्सा सुनाते
कि कैसे जब चड़स में बैलों को जोतकर
निकाला जाता पानी
कैसे सोते फूट पड़ते
कल-कल संगीत के साथ
बैलों की कांसट करती उनकी संगत
यह कैसी कहानी थी
जिसमें कविता का वास था
संगीत का वास था
फिर कैषा हलवाहा अपनी
तान छेड़ता तो नहा जाती हवाएं
बहा ले जातीं दूर तक मिठास
कैशा तब भी गाता था जब
पहली बार बिजली से पानी निकाला गया
फिर वह गाने को
किस्से में बदलने लगा
ऐसे किस्से सुनाता कि कुंए के
सोते धार-धार रोते से लगते
इसे हम दूस रे टापरी कहते
और यदि होते पास तो खोली
गांव से दूर खेत पर थी यह
ऐसी कई टापरियां थीं
कई-कई खेतों पर
सबका मिजाज़ होता अलग-अलग
सबकी अलग-अलग थी गंध
सबका अलग-अलग था संसार
इनका उपयोग ऐसा कि
जैसे खाली पेट को खाना
प्यासे को पानी
मदन, मंशाराम, दादा, दादी,
माँ, पिता और हम भाई बहन कर रहे होते
खेतों में काम
तो बार-बार हर छोटे-मोटे काम के लिए
गाँव के घर न जाने की सुविधा
थी यह टापरी
काम करते तो सुस्ताते इसी में
थकान को धोते इसी की छाया से
मौसम की मार में हमेशा तैयार
गर्मी देती ठंडक
बारिश में छिपा लेती हमें
ठंड में रजाई सी होती गरम
हर मर्ज़ की दवा
सौ तालों की एक चाबी
गाँव के घर की उपशाखा
जिसमें कुछ खास चीज़ों को छोड़कर
था सबकुछ
जैसे एक लकड़ी का संदूक
जिसमें फुटबॉल, पाईप पर लगाने के क्लिप,
स्टार्टर की पुरानी रीलें, बिरंजी, नट-बोल्ट,
कुछ पाने, पिंचिस, पेंचकस, टेस्टर,
बिजली के तार, फेस बांधने का वायर,
सुतलियां, नरेटी, सूत के दोड़ले
और साइकिल के पुराने ट्यूब इत्यादि
ये सारे ब्यौरे किसी न किसी काम से नस्ती थे
यह एक ऐसा कबाड़खाना था कि
इससे बाहर कोई काम नहीं था
या कि किसी काम के लिए इसके
अलावा कोई विकल्प की ज़रूरत नहीं
कोने में पड़ी रहती खटिया
जिस पर दिन में एक तरफ ओंटा
हुआ चिथड़ा बिस्तर
जो रात में काम आता
रखवाली के समय
ठंड के दिनों में
पाणत करते तो इसी में दुबक जाते
खटिया के नीचे था रहस्यमय संसार
खाली बोरे, खाद की थैलियों के बंडल,
कुछ पल्लियां
जब अनाज पैदा होता तो
इन्हीं में बरसता
सब्जियां मंडी जातीं तो इन्हीं में
इनके सहयोगी होते
कुछ टोकनियां, छबलिये
और बड़े डाले, गेंती, फावड़े, कुल्हाड़ी
दरांते, सांग, खुरपियां
कितना कुछ था इस टापरी के भीतर
खेती किसानी का पूरा टूलबॉक्स
यही नहीं इसके पिछवाड़े
बल्लियां, बांस, हल, बक्खर, डवरे,
जूड़ा पड़े रहते
छांव में पड़ी होती पुरानी साइकिल
हां यहीं तो था यह सबकुछ
कैसे स्मृति में रपाटे मारती हैं सारी चीज़ें
कहां गया यह सब
देखो भाई
यह खोड़ली सड़क
जब से यहां से निकली है
सबकुछ खा गई यह डाकिन
यह देखो अपने साथ
कैसा विकास का पहिया लेकर आयी
कुचल दिया सबकुछ
यह पेट्रोल पंप
वह चौपाल सागर
ये बड़ी-बड़ी मषीनों से भरी फैक्ट्रियां
बड़ा भयावह दृष्य है यह
बाज़ार और पूंजी के पंजों को देखो
अदृष्य हैं ये
इनके वार ने खोद दी है
ऐसी कई टापरियों की जड़ें
एक सागर में तब्दील होता जा रहा है
सारा मंजर
जिसमें डूबता जा रहा है सबकुछ
-बहादुर पटेल
बहादुर पटेल समर्थ कवि हैं. उनकी अपनी एक पहचान है. उनके संग्रह का स्वागत.
जवाब देंहटाएंकृपया अंतिका प्रकाशन का पता और कवि का संपर्क भी दें. संग्रह के लिए उन्हें बधाई
जवाब देंहटाएंसाहित्य का केंद्र सिर्फ शहर ही नहीं हैं .....। बहादुर पटेल जी को बहुत बहुत बधाई ,अपनी जमीन की सोंधी महक लिए है उनकी कविता और उनके विम्बों मे आज के गाँव की त्रासदी भी है .... ।
जवाब देंहटाएंbahaut achhi kavitayein. badhai.
जवाब देंहटाएंSaumitra
बहादुर भाई को बधाई…अंतिका और कवि का मेल पता यहां है "GOURINATH" , "Bahadur Patel"
जवाब देंहटाएंantika56@gmail.com, bahadur.patel@gmail.com
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अशोक जी.
जवाब देंहटाएंरागिनी जी,डाक के पते भी ये रहे
बहादुर पटेल
12-13,मार्तण्ड बाग
ताराणी कॉलोनी
देवास
मो.09827340666
अंतिका प्रकाशन
सी-56/यूजीएफ़-4
शालीमार गार्डेन एक्सटेंशन-II
ग़ाज़ियाबाद-201005(उ.प्र.)
फ़ोन-0120-6475212
sabhi ko dhanywaad.
जवाब देंहटाएं