
यह लेखक और चित्रकार प्रभु जोशी द्वारा ज्ञान चतुर्वेदी के नया ज्ञानोदय में प्रकाशित व्यंग्य लेखों की ज्ञानपीठ से छप रही किताब का ब्लर्ब है.गाढ़ा और व्यंजक.आलोचनात्मक संकेतों तथा सूक्तियों से गुँथा ऐसा ब्लर्ब मैंने नहीं पढ़ा अब तक.ज्ञान जी का मैं नियमित पाठक हूँ.कह सकता हूँ कि प्रभु जोशी जी की कही हुई एक भी बात झूठ नहीं है.जिस त्रयी की बात उन्होंने कही है सचमुच उसकी सिद्धि ज्ञान जी में मौजूद है.कृति हमेशा नयी होती है और कसौटियाँ पुरानी तो अद्भुत बात है.जितना एकल उद्धृत हिस्सा है वह सब तो अलग अलग लेखों की मांग करता है.थोड़ा लिखा है बहुत समझना की टेक को कहना चाहता हूँ बहुत को थोड़े में सचमुच कह दिया गया है.मुझे नहीं पता कि समकालीन आलोचना के पास ज्ञान जी पर ऐसी सार्थक बात समझने का भी कोई अभ्यास है.यह मेरा आरोप नहीं सदिच्छा है.समकालीन आलोचना सचमुच विरोधाभासों के आभासी उजाले में आसक्तों के दाग धो रही है.मुझे इस बात की भी खुशी है कि यह ब्लर्ब हमेशा किताब के साथ-साथ रहेगा.-ब्लॉगर
इस उत्तर-औपनिवेशिक समय में, ‘बाज़ार के आशावाद‘ को बेचती पत्रकारिता के आग्रह पर, इन दिनों अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं के व्यंग्य-स्तम्भों में, जो कुछ भी ‘लिखा‘ जा रहा है, आलोचनात्मक-विवेक से देखने पर, उसका ‘अधिकांश‘ मात्र एक ‘अभ्यस्त मसख़री का सतही उत्पाद‘ भर जान पड़ता है। ऐसे में कमोबेश उसके लिए ‘कृति‘ का दर्ज़ा हासिल करना, तो सर्वथा असंभव ही होगा। यदि, उसे ‘आलोचना की आँख‘ की थोड़ी-बहुत उदारता से भी खँखालने का उपक्रम करें, तो, हम पायेंगे कि उसे सिर्फ़ अपने पाठकों के मनोरंजन की टहल में जुटी पत्रकारिता के ख़ाते में ही दर्ज़ किया जा सकता है, जिसमें कभी-कभी और कहीं-कहीं, ‘साहित्यिक-संस्कार की छायाओं का मिथ्याभास‘ होता रहता है। अधिक-से-अधिक हम, उसे ऐसा प्रीतिकर और ‘पठनीय-वाग्जाल‘ भर कह सकते हैं, जिसमें ‘भाषा का मनोरंजनमुखी‘ मंसूबा ही, उसका आखि़री प्रतिपाद्य है। बस.... इसे ही अपनी सबसे बड़ी अर्हता मानने की वजह से, वह सारा का सारा ‘लिखा जा रहा‘, सृजन का वरेण्य पुरुषार्थ प्राप्त नहीं कर पा रहा है।
जबकि, ज्ञान चतुर्वेदी ने कमोबेश, एक दशक से भी अधिक के, अपने स्तंभ-लेखन में समझ, सामर्थ्य और शिल्प की ऐसी ‘त्रयी‘ गढ़ ली है, जिसके चलते उसने व्यंग्य-लेखन की एक अत्यन्त परिष्कृत-प्रविधि को अपना आश्रय बना लिया है। यही वह रचनात्मक युक्ति है, जिसके कारण रचना अपने आभ्यन्तर में, एक वृहद् ‘गल्प-संभावना‘ के विस्तृत मानचित्र को गढ़ने में उत्तीर्ण हो जाती है। प्रकारान्तर से कहूँ कि ज्ञान, ‘अधिकतम लोगों से अधिकतम तादात्म्य‘ बनाने में ही अपने सृजन की अन्तर्व्याप्ति देखता हैं। कदाचित्, इसी को वह अपनी पहली और अंतिम प्राथमिकता भी मानता हैं, जिसके कारण वह ‘भाषा से भाषा‘ में पैदा होने वाले अनुभवों का मायावी स्थापत्य नहीं गढ़ता, बल्कि, इरादतन किफ़ायत के साथ, यथार्थ के पार्श्व में खड़े ‘विसंगत यथार्थ का व्यंग्यात्मकता के माध्यम‘ से विखण्डन करता हैं।
कहने की ज़रूरत नहीं कि ज्ञान का लिखा हुआ आलोचना के आपात-कक्ष की प्राणवायु पर साँस लेता लेखन नहीं है, अलबत्ता इसके ठीक उलट कहा जाए कि वह जिन्दगी के हाट में भीड़ के बीच कंधे रगड़ कर, उम्मीद के लिए जगह बनाता, जन-जन को सम्बोधित सृजन है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उसमें एक ऐसी सम्वाद-क्षम ऊर्जा है, जो उसे अभिव्यक्ति की लड़ाई में पराजय से दूर रखती है। मुझे ज्ञान के व्यवसाय की चिकित्सीय-भाषा के रूपक का सहारा लेते हुए कहने दीजिए कि ज्ञान का इधर का सारा लेखन, जनतांत्रिकता की ड्रिप लगाकर लेटी रूग्ण-व्यवस्था के वक्ष में पलते नासूर की पहचान के लिए लगातार की जा रही मेमोग्राफी है।
ज़ाहिर है कि ज्ञान अपने लेखन में, राजनीतिक शब्दावलियों की कसौटियों से तय की गई प्रतिबद्धता से कतई लदा-फँदा नहीं है, अलबत्ता बहुत मानवीय समग्रता के साथ, पूरी कायनात को कुनबा मानकर चलते हुए, स्वप्न और दुःस्वप्न से भरी बेनींद रात में, अचानक उठ कर बैठ गये आदमी द्वारा, जख़्मी आँख से उस अँधेरे के पार देखने की ज़िद और जिहाद में मुब्तिला है, जहाँ मामूली जीवन जीते आदमी की उम्मीदें अकेली, आहत और लहू-लुहान है।
इसकी पुख़्ता तसदीक उसकी औपन्यासिक कृतियों से की जा सकती है। उसने अपनी अप्रतिम मेधा से ‘सर्वोत्कृष्ट और विपुलता’ के बीच वैमनस्य की धारणा को धराशायी किया है। ज्ञान के यहाँ ये एक-दूसरे में समाहित है। लगभग अन्तर्ग्रथित।
ज्ञान अपनी भाषा को सुविचारित तरीके से न तो मेटानिमिक बनाता है और ना ही कवियों की तरह मेटाफोरिक, बल्कि, इस सबसे अलग दुर्बोधता बनाम् कलात्मक महानता के विरूद्ध लगभग सभी तरह से विषयों को छूती हुई, उसकी एक किस्म की ऐसी भारहीन भाषा है, जो तितली की तरह उड़ती हुई फूल नहीं, उसकी खूबसूरती पर जाकर बैठती है और बाद बैठने के वह खु़द उसका हिस्सा लगने लगती है। यही वह मुश्किल है, कि उसकी भाषा को, उसके पात्र से बाहर निकालना यानी नसों और नब्जों सहित उसकी जीभ उखाड़ लेना है। यहाँ इस बिन्दु पर ख़ासतौर पर एकाग्र किया जाना चाहिए, कि, ज्ञान की तुलना न तो शरद जोशी से की जा सकती है और न ही हरिशंकर परसाई से। वह तो जीवन के निरबंक घसड़-फसड़ से रस-रस करती बस एक कलात्मक अन्तर्दृष्टि से प्राप्त की गई अभिव्यक्ति का अनुपम उदाहरण है।
मुझे ज्ञान को देखकर हमेशा लगता रहा है, जैसे वह ‘अपने ही आकाश के एकान्त‘ में अकेले और चुपचाप टिमटिमाते उस तारे की तरह है, जो आलोचना की आँख में, एक किरकिरी की तरह ‘अपनी‘ और ‘अपने होने’ की बार-बार याद दिलाता रहता है। उसके कान उधर हैं ही नहीं, जहाँ आलोचना अपने आसक्तों की अभ्यर्थनाओं में लगी हुई है और उनकी ऊँचे स्वर में गाये जाने वाले प्रशस्तिगानों के लिए कोई नया छंद गढ़ रही है। बहरहाल, इसे बस वक्त की विडम्बना ही कहें कि आलोचना की हमेशा से यह दिक्कत रही है कि वह अपने समय के सर्वोत्कृष्ट को समझने में हमेशा गफ़लत करती रही है।
अन्त में यही कि शायद, इतने वर्षों से लिखते हुए, ज्ञान ने यह जान लिया है कि कृति हमेशा नयी होती है और कसौटियाँ पुरानी। वे सूखे छिलके की तरह उतरती रहती हैं। इसीलिए, रचना में समग्रता को आत्मनिष्ठता के साथ नाथ कर, कल्पना के ज़रिये रचना-सत्य को खोजने के साथ ही उसे सामान्यजन के सोच के सम्भव मुहावरे में व्यक्त करने की अपनी एक प्रामाणिक-प्रविधि विकसित कर ली है और उसे इस पर पूरा भरोसा भी है। वह आलोचना के कृपासाध्यों की सूची से बाहर है और कृपांकों के सहारे उत्तीर्ण नहीं है, बल्कि लेखन की प्रवीणता उसकी अपनी आत्मसाध्य है।
वह साहित्य के इतिहास के फटे-पुराने मस्टर में अपना नाम दर्ज़ कराने के लिए होती आ रही धक्का-मुक्की से नितान्त दूर, वह वक्त की कोरी दीवार पर, जनता की जानकारी में बहुत परिश्रमसाध्य युक्ति के ज़रिये, व्यंग्य की कलम से, बहुत साफ और सुपाठ्य हर्फों में समकालीन-यथार्थ की एक मुकम्मल इबारत लिख रहा है। यह आकस्मिक नहीं कि उसके ‘रचे हुए‘ में व्याप्त लेखकीय ईमानदारी के चलते उसका लिखा हुआ, चाहे वह पत्र-पत्रिकाओं के साप्ताहिक स्तम्भों में हो या एक ‘औपन्यासिक आभ्यन्तर‘ में हो, निश्चय ही वह हिन्दी साहित्य के पाठकों की स्मृति का अविभाज्य हिस्सा बन कर हमेशा साँस लेता रहेगा और कदाचित् यही उसके लेखन की उत्तरजीविता का सर्वाधिक सशक्त और सार्वकालिक आधार भी होगा।
-प्रभु जोशी
4, संवाद नगर, इन्दौर
इस उत्तर-औपनिवेशिक समय में, ‘बाज़ार के आशावाद‘ को बेचती पत्रकारिता के आग्रह पर, इन दिनों अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं के व्यंग्य-स्तम्भों में, जो कुछ भी ‘लिखा‘ जा रहा है, आलोचनात्मक-विवेक से देखने पर, उसका ‘अधिकांश‘ मात्र एक ‘अभ्यस्त मसख़री का सतही उत्पाद‘ भर जान पड़ता है। ऐसे में कमोबेश उसके लिए ‘कृति‘ का दर्ज़ा हासिल करना, तो सर्वथा असंभव ही होगा। यदि, उसे ‘आलोचना की आँख‘ की थोड़ी-बहुत उदारता से भी खँखालने का उपक्रम करें, तो, हम पायेंगे कि उसे सिर्फ़ अपने पाठकों के मनोरंजन की टहल में जुटी पत्रकारिता के ख़ाते में ही दर्ज़ किया जा सकता है, जिसमें कभी-कभी और कहीं-कहीं, ‘साहित्यिक-संस्कार की छायाओं का मिथ्याभास‘ होता रहता है। अधिक-से-अधिक हम, उसे ऐसा प्रीतिकर और ‘पठनीय-वाग्जाल‘ भर कह सकते हैं, जिसमें ‘भाषा का मनोरंजनमुखी‘ मंसूबा ही, उसका आखि़री प्रतिपाद्य है। बस.... इसे ही अपनी सबसे बड़ी अर्हता मानने की वजह से, वह सारा का सारा ‘लिखा जा रहा‘, सृजन का वरेण्य पुरुषार्थ प्राप्त नहीं कर पा रहा है।
जबकि, ज्ञान चतुर्वेदी ने कमोबेश, एक दशक से भी अधिक के, अपने स्तंभ-लेखन में समझ, सामर्थ्य और शिल्प की ऐसी ‘त्रयी‘ गढ़ ली है, जिसके चलते उसने व्यंग्य-लेखन की एक अत्यन्त परिष्कृत-प्रविधि को अपना आश्रय बना लिया है। यही वह रचनात्मक युक्ति है, जिसके कारण रचना अपने आभ्यन्तर में, एक वृहद् ‘गल्प-संभावना‘ के विस्तृत मानचित्र को गढ़ने में उत्तीर्ण हो जाती है। प्रकारान्तर से कहूँ कि ज्ञान, ‘अधिकतम लोगों से अधिकतम तादात्म्य‘ बनाने में ही अपने सृजन की अन्तर्व्याप्ति देखता हैं। कदाचित्, इसी को वह अपनी पहली और अंतिम प्राथमिकता भी मानता हैं, जिसके कारण वह ‘भाषा से भाषा‘ में पैदा होने वाले अनुभवों का मायावी स्थापत्य नहीं गढ़ता, बल्कि, इरादतन किफ़ायत के साथ, यथार्थ के पार्श्व में खड़े ‘विसंगत यथार्थ का व्यंग्यात्मकता के माध्यम‘ से विखण्डन करता हैं।
कहने की ज़रूरत नहीं कि ज्ञान का लिखा हुआ आलोचना के आपात-कक्ष की प्राणवायु पर साँस लेता लेखन नहीं है, अलबत्ता इसके ठीक उलट कहा जाए कि वह जिन्दगी के हाट में भीड़ के बीच कंधे रगड़ कर, उम्मीद के लिए जगह बनाता, जन-जन को सम्बोधित सृजन है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उसमें एक ऐसी सम्वाद-क्षम ऊर्जा है, जो उसे अभिव्यक्ति की लड़ाई में पराजय से दूर रखती है। मुझे ज्ञान के व्यवसाय की चिकित्सीय-भाषा के रूपक का सहारा लेते हुए कहने दीजिए कि ज्ञान का इधर का सारा लेखन, जनतांत्रिकता की ड्रिप लगाकर लेटी रूग्ण-व्यवस्था के वक्ष में पलते नासूर की पहचान के लिए लगातार की जा रही मेमोग्राफी है।
ज़ाहिर है कि ज्ञान अपने लेखन में, राजनीतिक शब्दावलियों की कसौटियों से तय की गई प्रतिबद्धता से कतई लदा-फँदा नहीं है, अलबत्ता बहुत मानवीय समग्रता के साथ, पूरी कायनात को कुनबा मानकर चलते हुए, स्वप्न और दुःस्वप्न से भरी बेनींद रात में, अचानक उठ कर बैठ गये आदमी द्वारा, जख़्मी आँख से उस अँधेरे के पार देखने की ज़िद और जिहाद में मुब्तिला है, जहाँ मामूली जीवन जीते आदमी की उम्मीदें अकेली, आहत और लहू-लुहान है।
इसकी पुख़्ता तसदीक उसकी औपन्यासिक कृतियों से की जा सकती है। उसने अपनी अप्रतिम मेधा से ‘सर्वोत्कृष्ट और विपुलता’ के बीच वैमनस्य की धारणा को धराशायी किया है। ज्ञान के यहाँ ये एक-दूसरे में समाहित है। लगभग अन्तर्ग्रथित।
ज्ञान अपनी भाषा को सुविचारित तरीके से न तो मेटानिमिक बनाता है और ना ही कवियों की तरह मेटाफोरिक, बल्कि, इस सबसे अलग दुर्बोधता बनाम् कलात्मक महानता के विरूद्ध लगभग सभी तरह से विषयों को छूती हुई, उसकी एक किस्म की ऐसी भारहीन भाषा है, जो तितली की तरह उड़ती हुई फूल नहीं, उसकी खूबसूरती पर जाकर बैठती है और बाद बैठने के वह खु़द उसका हिस्सा लगने लगती है। यही वह मुश्किल है, कि उसकी भाषा को, उसके पात्र से बाहर निकालना यानी नसों और नब्जों सहित उसकी जीभ उखाड़ लेना है। यहाँ इस बिन्दु पर ख़ासतौर पर एकाग्र किया जाना चाहिए, कि, ज्ञान की तुलना न तो शरद जोशी से की जा सकती है और न ही हरिशंकर परसाई से। वह तो जीवन के निरबंक घसड़-फसड़ से रस-रस करती बस एक कलात्मक अन्तर्दृष्टि से प्राप्त की गई अभिव्यक्ति का अनुपम उदाहरण है।
मुझे ज्ञान को देखकर हमेशा लगता रहा है, जैसे वह ‘अपने ही आकाश के एकान्त‘ में अकेले और चुपचाप टिमटिमाते उस तारे की तरह है, जो आलोचना की आँख में, एक किरकिरी की तरह ‘अपनी‘ और ‘अपने होने’ की बार-बार याद दिलाता रहता है। उसके कान उधर हैं ही नहीं, जहाँ आलोचना अपने आसक्तों की अभ्यर्थनाओं में लगी हुई है और उनकी ऊँचे स्वर में गाये जाने वाले प्रशस्तिगानों के लिए कोई नया छंद गढ़ रही है। बहरहाल, इसे बस वक्त की विडम्बना ही कहें कि आलोचना की हमेशा से यह दिक्कत रही है कि वह अपने समय के सर्वोत्कृष्ट को समझने में हमेशा गफ़लत करती रही है।
अन्त में यही कि शायद, इतने वर्षों से लिखते हुए, ज्ञान ने यह जान लिया है कि कृति हमेशा नयी होती है और कसौटियाँ पुरानी। वे सूखे छिलके की तरह उतरती रहती हैं। इसीलिए, रचना में समग्रता को आत्मनिष्ठता के साथ नाथ कर, कल्पना के ज़रिये रचना-सत्य को खोजने के साथ ही उसे सामान्यजन के सोच के सम्भव मुहावरे में व्यक्त करने की अपनी एक प्रामाणिक-प्रविधि विकसित कर ली है और उसे इस पर पूरा भरोसा भी है। वह आलोचना के कृपासाध्यों की सूची से बाहर है और कृपांकों के सहारे उत्तीर्ण नहीं है, बल्कि लेखन की प्रवीणता उसकी अपनी आत्मसाध्य है।
वह साहित्य के इतिहास के फटे-पुराने मस्टर में अपना नाम दर्ज़ कराने के लिए होती आ रही धक्का-मुक्की से नितान्त दूर, वह वक्त की कोरी दीवार पर, जनता की जानकारी में बहुत परिश्रमसाध्य युक्ति के ज़रिये, व्यंग्य की कलम से, बहुत साफ और सुपाठ्य हर्फों में समकालीन-यथार्थ की एक मुकम्मल इबारत लिख रहा है। यह आकस्मिक नहीं कि उसके ‘रचे हुए‘ में व्याप्त लेखकीय ईमानदारी के चलते उसका लिखा हुआ, चाहे वह पत्र-पत्रिकाओं के साप्ताहिक स्तम्भों में हो या एक ‘औपन्यासिक आभ्यन्तर‘ में हो, निश्चय ही वह हिन्दी साहित्य के पाठकों की स्मृति का अविभाज्य हिस्सा बन कर हमेशा साँस लेता रहेगा और कदाचित् यही उसके लेखन की उत्तरजीविता का सर्वाधिक सशक्त और सार्वकालिक आधार भी होगा।
-प्रभु जोशी
4, संवाद नगर, इन्दौर
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