आलोचक अंकित नरवाल की एक स्पष्टीकरण पोस्ट से शुरू हुई शशिभूषण-जितेंद्र विसारिया की टिप्पणी-प्रति टिप्पणी जो बढ़ते-बढ़ते पोस्टबाज़ी तक फैल गयी।
शशिभूषण: अंकित जी आप जिस हिंसा में उतर पड़े हैं यानी नामवर सिंह संघ में थे स्थापित करने की हिंसा में तो ज़ाहिर है कि आपसे कहा जाए कि कुछ काम विवेक के भी होते हैं।
अगर आपने अमर उजाला या राजकमल की किसी किताब ढाल से इस स्थापना में सफलता पा ली है कि नामवर सिंह संघ में थे तो मैं इसे आपकी ही हिंसा मानता हूँ।
आपने क्या पढ़ा होगा नामवर सिंह को इस पर तरस आता ही है।
जितेन्द्र विसारिया: आश्चर्य कि आप की नज़रों से यह नहीं गुजरा...और गुजरा भी तो चुप क्यों रहे? आमने सामने, राजकमल प्रकाशन का विश्वनाथ त्रिपाठी-नामवर सिंह पृष्ठ।
जितेन्द्र विसारिया: अंकित को हिंसक कहने और उसे बिना पढ़े काश आपने उसकी विनम्रता पढ़ी होती उस पुस्तक(अनल पाखी) की भूमिका में...
शशिभूषण: जितेंद्र मैंने आपकी एक पोस्ट पढ़ी थी जिसे पढ़कर मैंने सोचा कि
जैसे हिन्दू राष्ट्र्वादी बौद्धिकों के आगे मुसलमान होते हैं वैसे ही बहुजन बौद्धिकों के आगे जल्द जन्मना सवर्ण होंगे।
मैं भारत में अपने मुसलमान होते जाने के डर वाली हिंसा भी देख रहा हूँ।
अंकित नरवाल ने बहुत विनम्रता कर दी है, मान लिया। उन्होंने हिंदी समाज में बहस छेड़ दी है कि नामवर सिंह संघ में थे। उनकी यह विनम्रता जिसे जिसे हो सकती हो मुबारक!
जितेन्द्र विसारिया: अंकित से पहले उनके बेटे और पट्ट शिष्य कर चुके...उन पर भी कुछ कहिए... नहीं कहते तो यही जनेऊ लीला है।
शशिभूषण: बकवास हैं अब ऐसी बातें।
"निज जाति केहिं लागि न नीका" से निकलें
या जाएं धीरेश सैनी ही हो जाएं। मुझे अब फर्क नहीं पड़ता।
जितेन्द्र विसारिया: आप भी तो निज जाति से निकलिए....पहले अंकित को उलटबासियों में संघी कहते हो फिर उसका जवाब आता तो गांधीवादी कटार चलाते उसे हिंसक कहते हो जबकि उसने अपनी बात विनम्रतापूर्वक कही है...बाक़ी फ़र्क़ एक तरफ़ा नहीं पड़ता।
शिव प्रकाश: सर यदि अंकित दोषी हैं तो जहाँ से वह रिफरेंस दे रहे हैं उन पर आप क्यो नही बोलते। सेलेक्टिव नही होना चाहिए।
शशिभूषण: जितेंद्र अब तो अमर उजाला की कतरन भी आ गयी। अब बोलो। मगर छोड़ो। क्या बोलेंगे।
प्रतिभा तो आप भी हैं मगर लगता है उसे निर्दोषों का जनेऊ देखने में ही जाया करने वाले हैं।
करिए। जैसी आपकी मर्ज़ी।
शशिभूषण: राजकमल के बारे में मुझे यह बोलना है कि इसकी दो किताबों में अब एक ही शब्द की अलग अलग वर्तनी मिलती है।
बोल दो तो इतने लोग नाराज़ होते हैं कि पूछिये मत।
जितेन्द्र विसारिया: अंकित ने मूल रिफरेंस तो आमने-सामने से लिया। जिसका शीर्षक पढ़कर नामवर जी ने दिया और उनके बेटे ने छपवाई...जब नामवर जी ने कुछ न कहा। और उनके पट्ट शिष्यों ने उसे पढ़कर चार से कुछ नहीं बोला। क्या यह इसलिए नहीं बोला कि यह उनके बेटे ने कहा? यह ब्राह्मणवादी चुप्पी अब तक क्यों रही कि...आगे मैं वही कहूँगा जो मैंने अपनी पिछली पोस्ट में कही थी...निर्दोष वे बिल्कुल नहीं जिनको इस दृष्टि से देखा है और यह मेरा अटल विश्वास है...बाक़ी सब भूसे पर की लिपाई है।
शशिभूषण: देखो अब और लीपा पोती मत करो। अपने प्रिय विनम्र ग़ैर सवर्ण युवा आलोचक की सन्दर्भ मिलान सामर्थ्य का जायज़ा लो और कँवल भारती जी आदि के अभियान का मज़ा लो।
बाक़ी राजकमल की पुस्तक पर मैंने संकेत रूप में शिव प्रकाश जी को जो लिखा उसका अवलोकन करो।
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शशिभूषण: नया कौन समझ रहा है? मैं तो देखता हूँ कि दिलीप मंडल तक नया नहीं कह रहे। जब वे मंदिर में पढ़े लिखे दलित पिछड़े पुजारी की बात करते हैं तो यह अम्बेडकर के ही हिन्दू धर्म सुधार का पुराना प्रस्ताव है।
तेवर से लेकर ड्राफ्टिंग तक नया क्या है?
नया यह है जहां तक मुझे लगता है कि तुम जाति की जासूसी करते हो और जिसे जान मान लेते हो उसे ठहरा भी देते हो। एक बार दो बार बार बार।
कभी कभी अनुभव की बात भी करनी चाहिए। अगर मानवता वादी रहना किसी का जन्मना गुण है तो दूसरे बाद में भी क्यों नहीं हो सकते?
और अगर पूरे नहीं भी हो सकते तो कलंकित करने का काम ही सृजनात्मक बचा है? अगर यह ज़रूरी ही हो तो विधि की शरण में क्यों नहीं जाते?
दलित साहित्य आख़िर किस दौर का इंतज़ार कर रहा है? राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री कौन नहीं देश में?
रही बात संघ की तो वहां भी होंगे जल्द। तब क्या करोगे?कैसे लड़ोगे ब्राह्मणवाद से?
और जाति विषयक गाली गलौज में ही पड़े रहोगे तो क्या पूंजीवाद से लड़ने बुद्ध आएंगे?
अंशिका शिवांगी: ये एक सवाल है जिससे मैं हर वक़्त जूझती हूं कि दलित साहित्य को क्या सिर्फ दलित लिखते हैं..? या फिर वो साहित्य जो शोषितों के जीवन पर है चाहे किसी ने मतलब किसी तथाकथित उच्च जाति ने भी लिखा हो तो भी क्या उसकी रचना दलित साहित्य मानी जाएगी..? सवाल हैं लेकिन जवाब कहां से मिलेंगे उसकी राह शायद खुद ही खोजनी पड़ें।
जितेन्द्र विसारिया: अंशिका शिवांगी यह बहुत जटिल और बहुतों को कुपित करने वाला सवाल है। बेहतर हो उसका जवाब स्वयं के विवेक से खोजा जाए।
अंशिका शिवांगी: जितेन्द्र विसारिया बिल्कुल। समय, पाठन और अनुभव के साथ इस सवाल का जवाब अपने विवेकानुसार ज़रूर खोजेंगे।
अनिल गजभिये : अंशिका शिवांगी दलित वर्ग द्वारा भोगा हुआ यथार्थ है दलित साहित्य.
अंशिका शिवांगी: अनिल गजभिये ये एक जवाब समानांतार चलता रहा है। अनुभव भी शायद इसी जवाब को ठोस करें कभी। बाकी बहुत सवाल हैं मेरे लेकिन ठीक है वक़्त के साथ जवाब ढूंढ़ लेंगे
शशिभूषण: अंशिका शिवांगी इसके लिए पिछड़े वर्ग की जातियों में भी पैदा हुआ होना स्वीकृत है। लेकिन सवर्ण जातियों में पैदा होना स्वीकृत नहीं। यहां तक कि कायस्थ का लेखन भी दलित साहित्य में नहीं आ सकता।
प्रेमचंद तक गाली खा चुके हैं।
लेकिन दलित पिछड़े घर में जन्म लेने के बाद राष्ट्रपति हों तो भी दलित साहित्य लिख सकते हैं।
मैंने यही समझाते, दिमाग़ में बैठाते लोगों को पढ़ा सुना।
जितेन्द्र विसारिया: शशिभूषण मुझे अब आपके है है पढ़े और सुने पर संदेह है।
शशिभूषण: किस पर सन्देह है? मुझ पर या जो मैंने पढ़ा सुना उस पर?
जितेन्द्र विसारिया: प्रो. तुलसीराम के साक्षात्कार का एक पृष्ठ चित्र।
शशिभूषण: कुल मिलाकर सब तरह की बातें ही कही गयी हैं इसमें। जैसे कि अक्सर अकादमिक लोग समेटने में करते हैं। यद्यपि दलित साहित्य के विषय में इसमें एक सूत्र वाक्य ढूंढा जा सकता है, दलित जातिवादी नहीं हो सकता। यही तर्क अधिकतर अप्लाई होता है सवर्ण दलित साहित्य नहीं लिख सकते क्योंकि उनकी जाति तो जाती नहीं।
हां, गांधी जी साहित्यकार प्राणी ही नहीं थे कि वे वर्णव्यवस्था के ख़िलाफ़ शब्द लिखते। कई बार समझौते के साथ भी अपनी लड़ाई जीती जाती है। उन्होंने जाति प्रथा को अपने ढंग से तोड़ने का काम किया। जैसे अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाकर।
वर्ण व्यवस्था को लेकर गांधी की समझ उतनी कारगर नहीं है जितनी अम्बेडकर की। पर ध्यान रहे, अम्बेडकर जातिव्यवस्था पर फ़ोकस रहे। उन्होंने जाति व्यवस्था को खत्म करने का रास्ता प्रतिनिधित्व और बौद्ध धर्म में देखा। गांधी ने प्रतिनिधित्व और सामाजिक सुधार में। परिणाम में दोनों में 19- 20 का ही अंतर है आज। भविष्य में अम्बेडकर की राह कम से कम धर्म वाली अस्वीकृत ही पायी जाती है। जैसे वर्णव्यवस्था के मसले में गांधी कच्चे दिखते हैं।
यही लोगों की अपने समय में सीमा कहलाती है। इसी के चलते पुराने लोग कमोबेश हमारे साथ बने रहते हैं।
प्रेमचंद ने वर्णव्यवस्था और महाजनी सभ्यता दोनों को तोड़ा और इन्हें चुनौती दी।
जितेन्द्र विसारिया: दलित साहित्य का लेखक कौन? इस बात की हाय-तौबा मचाई जाती है/मचा रहे हैं उसका 18 साल पहले प्रो.तुलसीराम द्वारा दिये इस साक्षात्कार में जो स्पष्ट विचार है-"मेरा मानना है कि दलित साहित्य वर्णव्यवस्था के विरोध का साहित्य है। वर्णव्यवस्था का विरोध चाहें जो भी करे। ब्राह्मण करे या कोई भी। वह दलित साहित्य का अभिन्न हिस्सा है। दलित साहित्य का उद्गमन बुद्ध धर्म है। इसको सभी स्वीकार करते हैं। मराठी में 60 के बाद आधुनिक दलित साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ था। इस आंदोलन के लेखक और आलोचक इनके स्रोत को बुद्ध से जोड़ते हैं। अश्वघोष तो अयोध्या के ब्राह्मण थे पर उन्हें क्यों दलित साहित्य के अंतर्गत रखा जाता है? इसलिए कि उन्होंने वर्णव्यवस्था कि जड़ पर चोट की थी। प्रेमचंद और निराला को गाली देने लगे। उग्रवादिता ठीक नहीं है। अगर उनके लेखन से दलितों के आंदोलन का कोई एक पक्ष मजबूत होता है तो ठीक है। दलित बेसिकली जातिवादी हो ही नहीं सकता। ब्राह्मणवाद के बदले ब्राह्मण को गाली देना मानसिक विकृति है। बाबा साहेब ने बार-बार इस पर जोर दिया है। उनके अनेक मित्र ब्राह्मण थे। मैं तो यह कहता हूँ कि वे दलित जो ब्राह्मणवादी हैं अर्थात जो संघ में हैं, विश्व हिंदू परिषद या भाजपा में हैं उनका भी विरोध होना चाहिए।" (उत्तरप्रदेश : सितंबर-अक्टूबर 2002 पृ.175)
उससे बेहतर कोई जवाब नहीं हो सकता। आप हैं कि तब भी गोलमोल घुमा रहे जबकि उसका सटीक जवाब मिल गया है। सामाजिक समानता को लेकर गाँधी और आम्बेडकर के विचार उन्नीस-बीस नहीं 50-50 भी नहीं थे। सही पूछा जाए तो उनके विचार आर्य समाजियों से भी गए गुजरे थे। यह कैसा प्रगतिशील है जहाँ वर्णव्यवस्था पर कठोर प्रहार करने वाले आम्बेडकर, फुले, पेरियार हेय हैं देहरी बाहर के अछूत और जिस्का एक धार्मिक सुधारवादी जितना जाति को लेकर दृष्टिकोण है उसे बार-बार प्रगतिशीलता के दायरे में घेर कर शामिल किया जाता है...बस यही जनेऊ लीला है। दलित साहित्य का विरोध करना होगा तब आपको प्रगतिशील सोच युक्त तेज सिंह, प्रो. तुलसीराम, आंनद तेलतुंबड़े और शरण कुमार लिम्बाले नहीं दिखेंगे। आप तब टारगेट डॉ. धर्मवीर को लेकर करोगे उन्ही का लिखा कोट करने की कोशिश करोगे, जिन्हें दलित साहित्यकार ही पूरी तरह स्वीकार नहीं करते और जिसके लिए उनके जीते जी आपस में ख़ूब जूतम-पैजार हुई। एक दो धर्मवीर और -सुमनाक्षर दलित साहित्य नहीं हैं। न वे उसका केंद्र बिंदु हैं। जो हैं उन पर आप बातचीत भी न करोगे। उलटबांसियां हमें भी आती हैं, तब भी बस सौ की एक बात दलित साहित्य अथवा लोकधर्मी विमर्श में अब वही स्वीकार होगा जो बुद्ध, कबीर, फुले, आम्बेडकर, भगतसिंह, जैसा क्रांतिकारी और आगे के विचार लिखेगा। उसमें गाँधी और उनके चेलों का वर्णव्यवस्था पोषी लेखन कभी शामिल नहीं हो सकता। 19 क्या साढ़े 19 भी नहीं।
शशिभूषण: पूरी बात लाया करें जितेंद्र। अपने लिए ताली बजवाने का इतना ही शौक़ है तो जिसका जवाब दिया है उसे भी रखने की विनम्रता दिखाएं। एक बात।
दूसरी बात, भविष्य में प्रो तुलसीराम का उद्धरण सम्मान स्थापन करने निकलें तो कम से कम तीन बार सोचें। वे आपकी उद्धरण बखरी के दास ही नहीं हैं जिन्हें जब चाहे हाज़िर कर लें।
ऐसा इसलिए कहा, क्योंकि कल को आप अपने समर्थन सम्मान में गांधी को भी खड़ा कर लेंगे इसमें क्या शक़?
गांधी हों या अम्बेडकर अब न हम वर्णव्यवस्था को सही मानते हैं न बौद्ध धर्म में चले जाने को।
रही बात दलित साहित्य की तो अब तक इसके बारे में अधिकतम मान्य स्थापना यही ठहरती है कि यह दलितों या स्थूल अर्थ में स्वानुभूति का साहित्य है।
बाक़ी ठीक है। 2021 में अगर आप यह भी नहीं देख पा रहे हैं कि देश में राष्ट्रपति प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री और आप स्वयं कौन हैं तो मस्त रहें। थोड़ी बहुत दलित साहित्य की राजनीति करते रहें। इसके लिए किसी को भी जाति की गाली देना भी ज़रूरी है तो दें।
कबीर कह गए हैं। अरे! वही कबीर जिन्हें किसी ने हिन्दू माना किसी ने मुसलमान और अब आप दलित साहित्यिक नेता मान रहे हैं। मानिए किसने रोका है। कल को आप ऐसी ही रिसर्च फिसर्च भी करा सकते हैं। कराइयेगा। फिलहाल दोहा पढ़िए:
आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक।
कह कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक।।
जितेन्द्र विसारिया: आपकी खीज समझ में आती है....करते रहिए आय-बांय...बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला आपके लेखे न विहाग वैभव ख़ारिज होने वाले न अंकित नरवाल...बस अपनी चिंता कीजिये और कुछ सनातनी क्लासिक रचिये...दलितों-पिछड़ों की चिंता में काहे घुले जा रहे। उनके लिए तमाम प्रकाश स्तम्भ हैं वे अन्ततः अपनी मुक्ति का द्वार खोज ही लेंगे।
शशिभूषण: केवल अपने कामों को ही तय करने का अधिकार रखें यानी दूसरों के काम तय करने में लगने वाले श्रम से बचें। किन्हीं और के विषय में किन्हीं अन्य विषयक भ्रम न फैलाएं। तर्क में फिसल चुके हों, तथ्यों की चूक के शिकार हुए हों तो प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर किन्हीं को अपनी ढाल न बनाएं। बहस अकेले दम ही सुलटाएँ।
उपर्युक्त नीति परक सलाह-स्मरण के बाद साफ़ कर दूँ: मेरी नज़र में विहाग वैभव ठीक ठाक कवि हैं। कुछ अच्छी कविताएँ भी वे लिख सके हैं। लेकिन ज़रूरी नहीं कि उनकी अटपटी स्थापनाओं के लिए भी मैं प्रस्तुत रहूँ। उनका प्रतिकार भी मुझे उचित लग सकता है।
अंकित नरवाल को मैंने पढ़ा नहीं है। कभी ज़रूरी लगा तो अवश्य पढूंगा। क्योंकि आलोचना पढ़ने में मैं पाठक ही नहीं रहना चाहता। लेकिन जिस तरह की समझ का परिचय उन्होंने हाल ही में दिया है, तो माफ़ करें उन्हें विश्वसनीयता हासिल करने में और आधार प्रकाशन को पुरानी प्रतिष्ठा हासिल करने में थोड़ा वक़्त लगेगा। मैं भी उन्हें जल्दी पढ़ने की हिम्मत शायद ही कर पाऊं।
कृपया इसे जल्द से जल्द संज्ञान में लें कि अंकित नरवाल हों या विहाग वैभव (विहाग वैभव से तो मिलने के बाद तक मैं नहीं जानता था कि वे किस जाति के हैं, यह आपका ही ज्ञानवर्धन रहा) उनके साहित्यकार होने में मुझे कोई व्यक्तिगत फ़ायदा या नुकसान नहीं है। वे अपनी जगह मैं अपनी जगह।
एक बात और आप जब भी दिखाएं चाहे जितनी दिखाएं अंतिम छोर तक सदा स्वागत है विद्वत्ता की ही गर्मी दिखाएं। क्योंकि एक प्रोफ़ेसर से मैं ऐसी ही उम्मीद करता हूँ। तथ्य रखें। सदैव याद रखें आपके सवर्ण घर में पैदा न होने में ही कोई महानता निहित नहीं है क्योंकि शंभूलाल रैगर भी सवर्ण घर में पैदा नहीं हुए थे। तर्क की काट ही रखें जैसे अभी आपने तुलसीराम का उद्धरण रखा तो मेरी बात को जांचकर बताएं क्या मैं ग़लत कह रहा हूँ दलित साहित्य के विषय में? क्या मेरी पंक्तियां सदोष हैं?
अंतिम बात, चालू बहुजन राजनीतिक फ़ैशन के अनुसार गाहे बगाहे जाति विषयक उद्दंड-गरम इशारे न किया करें। यह चर्चा को विनम्रता से बरतना ही होगा। मस्त रहें। भाषा में इधर आपके जो मुँहफटपन आ गया है उससे बचें। अपनी ही शालीनता भंग होती है इससे। किसी के पास इतनी अतिरिक्त इज्ज़त नहीं होती कि वह जाति विषयक टिप्पणी से उखड़ जाए। भले सवर्ण की ही। धन्यवाद!
ना दलित ना सवर्ण आपका ही शशिभूषण
जितेन्द्र विसारिया: यह फ़तवे बाजी है और यह कोई कैसे तय करेगा कि अपने ही काम तय करें मुझे जितणा और जहाँ तक लगता है उसका मूल्यांकन करूँगा। यह मैं किताबों और व्यक्तियों दोनों की समीक्षा के बारे में बोल रहा। मेरा लिखा पानी की तरह साफ होता है। मैं एक साथ राजनीति, समाज, संस्कृति, नैतिकता, विनम्रता, मित्रता सबके बीच गुलाट नहीं मरता फिरता। मेरी ढाल मैं स्वयं हूँ मुझे किसी को ढाल बनाने की जरूरत नहीं। तर्क में फिसलना तो कभी सीखा ही नहीं न ऐसी कच्ची गोटी खेलता हूँ। यहाँ जब लिखता हूँ तो किसी व्यक्ति विशेष को टारगेट करके नहीं लिखता। मेरे लिखे में जो आलोचना होती वो अधिकतर समूह वाचक होती।
यह पहला मौका नहीं है ऐसा कई बार हुआ है कि जब भी मैंने ब्राह्मणवाद या उसकी कारगुजारियों पर लिखा प्रगतिशील लिबरल और जाति से तथाकथित ब्राह्मण ही ट्रोल करने की हद तक आये। आश्चर्य कोई संघी या भाजपाई ट्रोल सामने नहीं आया। विहाग के मामले में अशोक पांडेय ने दो साल पहले मुझे मुँह देखी और उनके चमचों की भाषा में समर्थन न करने पर ब्लॉक किया था। यही स्थिति मैंने अंकित के सन्दर्भ में देखा है। कि युवाओं को ट्रोल करने में क्या बूढ़े क्या जवान तथाकथित सवर्ण वामी पीछे नहीं रहे। इसलिए सन्दर्भ देना ज़रूरी समझा।
अंकित या विहाग की श्रेणी मुझे पता है और पता है तो इसका अर्थ है कि मैं उसका समर्थन उसकी श्रेणी के आधार पर करता हूँ। उनमें प्रतिभा है। रचने का सामर्थ्य है। संघर्ष और ऊर्जा है। चीजों को बरतने की एक सही समझ है। अंकित पर जो आरोप मढ़ा वो उसकी लेखकीय भूल कही जा सकती। क्योंकि उसने जो सन्दर्भ लिया वह इस विश्वास के साथ लिया कि उस किताब का शीर्षक स्वयं नामवरजी ने दिया और उनके बेटे ने उसे सम्पादित किया। कितनी धूर्तता है प्रगतिशील खेमे में कि वह उस किताब पर 2 साल तक चुप रहा और उसकी आंख तब खुली जब उसका सन्दर्भ एक युवा ने ले लिया। हम क्यूँ नहीं इसे प्रगतिशीलों की जनेऊ लीला कहें? कहें कि इसका है कोई तर्क आपके पास।
रही बात विनम्र होने की तो ओढ़ी हुई शातिर विनम्रता मुझे आती नहीं। इसे चम्बल का पानी कह सकते हो। वयः प्रोफेसर बनकर भी न बदलने आलिम और हाँ शंभूलाल सैंगर आपके लिए वंदनीय होंगे ( पैदा हुए थे) मेरे लिए वह हत्यारा है। मेरी तुलना एक हत्यारे से करते हो तो अच्छा है यह भी मान लो कि हम कभी मित्र नहीं रहे। तुलसीराम की आत्मकथाएँ पढ़िए वे वाम खेमे से निराश और धोखा कहकर अम्बेडकर और बुद्ध की ओर मुड़े थे। उनकी आत्मकथाओं को हिंदी का कोई भी बदमाश प्रगतिशील वामपंथी आत्मकथाएँ न कहकर दलित आत्मकथाएँ ही कहता है। जैसे राम कोविंद या पूर्व राष्ट्रपति के. आर. नारायणन को राष्ट्रपति नहीं दलित राष्ट्रपति कहते हैं। दलित का पुछल्ला तो जबर्दस्ती उनसे लगाए रखे और उन्हें अपनी बखरी का भी कहोगे। यही चम्बल की भाषा में दोगलापन कहा जाता है। यहाँ मैं फिर बताता चलूँ कि यह बात भी मैं व्यक्ति विशेष के सन्दर्भ में नहीं सामूहिकता में बोल रहा हूँ।
अंतिम बात बहुजन राजनीति में कभी सक्रिय नहीं रह न सक्रिय होने की कोई मंशा है। हाँ कबीर से खरा पन लेकर पैदा हुए तो वो अक्खड़पन की टोंन न जाने वाली। किसी पर व्यक्तिगत टिप्पणी करूँगा और लगेगा कि कुछ गलत बोल गया तो मुझे एक्सक्यूज करने में भी कोई दिक़्क़त नहीं। सामूहिकता को कोई व्यक्तिगत लेता है तो यह उसकी दिक़्क़त है वह अपना और रास्ता देखले।
बाक़ी जो नेह के नाते हैं वे वैचारिक असहमतियों से तोड़ने वाले निरे लबार होते।
शशिभूषण: वाम -प्रगतिशील सब आपको बढ़िया दिखते हैं बस अपना ही पूर्वग्रह नहीं दिखता। आप किसी को छूटते ही जाति की गाली दे दें और कोई आपकी लू भी न उतारे। वाह!
चूँकि आप सर्वशुद्ध मानवतावादी ठहरे और दलित पिछड़ों के स्वयं निर्वाचित मसीहा तो आप चाहे जिसे ट्रोल कह दें।
या तो आप ऐसा जान बूझकर करते हैं सामुदायिक फ़ैन फॉलोइंग बढ़ाने के लिए या फिर आप शब्दों के मतलब कम ही समझते हैं।
पहले समझने की कोशिश किया कीजिये जो लिख डालें उसे।
इस दुनिया में रोज़ प्रतिभा पैदा होती हैं और रोज़ मरती हैं। जिसमें जहां कॉमनसेंस का अभाव हो मैं उसे वहां सृजनात्मक नहीं मानता।
विहाग ने शुक्ल को सांप्रदायिक ठहराने की कोशिश की थी और अंकित ने नामवर सिंह को संघ का। वजह चाहे जो रही हों कम समझ या ग़लत सन्दर्भ पर कुचेष्टा यही थी। इसी का विरोध था, है और रहेगा।
आप पूर्वग्रह से निकलें। बात पर फ़ोकस किया करें। जाति प्रमाणपत्र न देना आपके अधिकार में है न उसे जाँचना।
बात सही है तो टिकेंगे। व्यवहार निभाने उतरेंगे तो सही तर्क कहाँ से लाएंगे?
जितेन्द्र विसारिया: लोग स्थापनाएँ दे रहे और हम आलोचना भी नहीं कर सकते यह कहाँ का न्याय है महाराज? मेरा कोई पूर्वाग्रह नहीं आँखों देखा कहता हूँ और कानों सुने पर भरोसा करता...मेरे इतने निकृष्ट संस्कार नहीं कि मैं किसी को गाली दूँ। जो लू उतरेगा वो लपटों में झुलसेगा भी।
जो अपनी जाति और संगठन का अगुआ बनेगा और उसके किये पर भूसे पर लीपना करेगा तो उसकी लौ में भी झुलसेगा। बाक़ी मैं क्या हूँ और मुझे क्या करना है यह मुझे बेहतर तरीके से पता है। मुझे दी हुई उपाधियों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
बाक़ी जितनी समझ और जितनी शब्द प्रयुक्ति मुझे आती है उसके चलते मैं जितना कर सकता हूँ उसमें मुझे अब तक अपयश कम ही मिला है। यहाँ भी एक व्यक्ति को छोड़ मेरे लिखे पर किसी को आपत्ति नहीं नज़र आ रही। उसे सलाह है कि वह और मोटे लैंस का चश्मा बनवाकर हमारे लिखे पढ़े को देखे।
शशिभूषण: सिर्फ़ मुँह खोलकर किसी को भी हिटलर, संघी, साम्प्रदायिक, ट्रोल, ब्राह्मणवादी कहना गाली ही हैं।
यह बात और है कि इन्हें गाली समझने के लिए व्यक्ति का शिक्षित होना आवश्यक है। मगर जो जितना समझेगा ये गाली उतनी ही बड़ी हैं।
अगर आप शुक्ल को सांप्रदायिक और नामवर सिंह को संघ का मानने को तैयार हो तो मेरी नज़र में कोदो देकर हिंदी की पढ़ाई की है।
अभी इतना ही। थोड़ा उन लोगों से लड़ने की और प्रैक्टिस करो जो दलित साहित्य और हिंदुत्व के चरित्र हनन वाले फैशन से परिचित हैं।
बाक़ी माया है। आप भी एक प्रतिभा हैं बस ये मानना छोड़ दो कि कोई सवर्ण आपका गला घोंट देगा और उन लोगों का नाहक प्रमोशन करना छोड़ दो जाति वगैरह के समीकरण से जो अपने से लगते हैं।
और हाँ मुझे पांडेजी की धौंस मत दें उनकी वो किताब मैंने इसलिए नहीं पढ़ी क्योंकि मैं जानता हूँ उसने गांधी को क्यों मारा। मेरा अनुमान है कश्मीरनामा आपने भी पूरी नहीं पढ़ी है। पढ़ी हो तो मुझे सुधार देना।
मस्त रहिये
जितेन्द्र विसारिया: जो कहता हूँ डंके की चोट कहता हूँ। प्रमाण चाहिए तो वो भी उपलब्ध करा दूँगा।
जो है उसे वैसा उसे कहने में मुझे कोई झिझक नहीं। अब जिसे जितनी गहराई में जाना है चला जाए। हम तो ठेठ गँवार हैं उस पर चम्बल के। हमें उस रूप में शिक्षित न समझा जाए।
मैंने अंकित का समर्थन इसलिए नहीं किया कि वो नामवर को संघी ठहरा रहा है। यदि ऐसा होता तो मैं कभी उसका समर्थन नहीं करता। इतना मतिमन्द नहीं हूँ। हाँ पर आपकी समझ की गति समझ गत कि आप वैसा समझे। दूसरे मैं एक पोस्ट पहले लिख चुका हूँ और फिर लिख रहा हूँ कि कोई संघी नहीं है और जातिवादी है तो वो शोषितों के सामाजिक अपराध से बच नहीं जाता। इस रूप में रामचन्द्र शुक्ल और नामवर सिंह जी दोनों जातिवादी थे और अपनी वर्ण और जातियों के हित साधक भी। चाहों तो प्रमाण भी जुटाकर उपलब्ध करा दूँगा।
समान घटना पर समान ही उदाहरण दिए जाते। बाक़ी जितना उनका कथा-पुराण पढ़ना था सो मैंने उनका पढ़ लिया।
मैं चाहता हूँ कि थोड़ा भरम बना रहने दो। मैं सप्रमाण एक खुली पोस्ट लिखूँगा और उसके अंत में यह भी लिखूँगा कि इसके लिए उकसाने वाले परम आदरणीय शशि भूषण जी हैं।
शशिभूषण: लिखो लिखो पता तो चले हिम्मतवाले चंबल में अलग से नहीं बसत।
लेकिन इतनी ही हिम्मत है तो क्लब हाउस ज्वाइन करो
जितेन्द्र विसारिया: मैं जो ठान लेता करके भी दिखा देता। चम्बल में सच हिम्मत वाले ही रहते।
दूसरे पहले भिण्ड ट्रांसफर करवाकर भिण्ड के KV No 1 में आ जाइए। फिर क्लब हाउस खुलवाने की दरख़्वास्त देते। उसके बाद सामूहिक सदस्यता लेंगे। पक़्क़ा रहा।
शशिभूषण: क्या बात है चूंकि तुम रहते हो इसलिए चंबल पर भी गर्व कर रहे हो? अपनी हर चीज़ पर गर्व कर रहे हो? यह अवसरवाद कहाँ से ला रहे हो?
मैं पूर्वोत्तर में रह चुका हूँ, इसलिए जब मिलो कुछ टिप्स मुझसे भी ले लेना।
अभी के लिए इतना ही हे चंबल शिरोमणि कि बहुजनवाद और हिंदूवाद में आजकल साहस नहीं अवसरवाद का फल है। बड़ा निरापद है साहस यहां। बहुमत का लालच ही लालच है।
जितेन्द्र विसारिया: हर क्षेत्र की अपनी सामूहिक पहचान होती है, कुछ मूल्य होते हैं यदि वे मूल्य उदात्त और क्रांतिकारी हैं तो उन पर गर्व करने में बुराई नहीं पर इसका अर्थ यह नहीं कि इसके लिए दूसरों से घृणा करूँ। चम्बल में शेर रहते हैं...आपकी हिम्मत नहीं तो रहने दीजिए...उस समझ का अब क्या रोना रोऊँ कि यह अवसर है या वंचित के साथ खड़े होने का साहस कि मेरा स्टैंड उस क्षेत्र के साथ है जहाँ का नाम लेने पर लोग आपसे दोस्ती करने में दस बार सोचते किराए से कमरा नहीं देते। जैसे लोग जाति छुपा जाते मैं भी अपने को ग्वालियर वासी बताकर मौज में रहता आखिर वहाँ भी मेरा घर...ख़ैर उसके लिए वो दृष्टि कहाँ से लाओगे.....हारे के पक्ष में खड़ा होने वाला भीम पुत्र बर्बरीक भी अपनी मूल पृष्ठभूमि में आदिवासी ही था...आपसे मैं क्या उम्मीद रखूँ? बस इतना ही कि थोड़ा डाह कम कर दो।
शशिभूषण: अपने कुल जाति धर्म देश को पवित्र और सबसे महान मानना कूपमंडूकता है।
मनुष्यता और पृथ्वी प्रकृति के साथ खड़े होने में सबके साथ खड़े होना शामिल है। वरना आपका बहुजनवाद नागालैंड के आदिवासियों के पल्ले नहीं पड़ेगा। भिंड आदि इत्यादि में ही चमका सकते हैं खुद को।
आप समेत जिसे भी बहुसंख्यक वर्चस्व की राजनीति करनी हो करे बहती गंगा में हाथ धोना हो धोए। न मुझे डाह है न बहुमत की आकांक्षा।
और अगर आप अपने को अधिक ही साहसी मानते जानते हैं तो ज़रूर कहूँगा भूमाफिया और राष्ट्रवाद माफ़िया से भी कुछ लड़ें। और ताक़त बचे तो अपने उन लोगों से जो आजकल कर्णधार हैं।
अपनी आग बचाकर रखें। ज़रूरत बहुत पड़ने वाली है।
जितेन्द्र विसारिया: "सबसे महान" यह मनगढ़ंत आरोप हैं और तर्क में हारने की खीज है। बहुजनवाद सर्वहारा का पयार्यवाची है। जैसे सर्वहारा में पूंजीपति शामिल नहीं वैसे ही बहुजनों में जातिवादी और वर्णवादी बाहर हैं। पूर्वाग्रह सम्यक शब्द को भी गलीज़ प्रचारित करते। बहुजन बुद्ध का दिया शब्द है। ख़ैर! बुद्ध भी आपकी दृष्टि में कहाँ ठरते सो बहस ही व्यर्थ है।
मनुष्यता और प्रकृति के साथ खड़ा होना केवल जन्मना ब्राह्मणों ने ही सीखा है। गधे भूमिपुत्र दलित-आदिवासी क्या जानें? कोई कुछ साल के लिए नागालैंड रह आये तो अपने को तीस मारखां न समझ ले अध्य्यन और सम्पर्क से भी बहुत कुछ समझ और समझाया जा सकता है...उस पर भी यह कि दुनियाभर में यात्राएँ स्थगित हैं। अध्ययन की व्यापकता आम्बेडकर को कोलंबिया में भी चमका सकती है और सोच की निकृष्टता व्यक्ति को गली में भी जूते पड़वा देती है।
डाह तो है वरना आप अंदर तक निरापद हैं और बहुसंख्यक वर्ग के लिए कुछ करने का जज़्बा है तो आपको किसने रोका बहु संख्यकों की राजनीति करने से?
हममें कितना साहस है और हमें सर्वप्रथम किस मोर्चे पर बड़ी टक्कर देनी यह हमें खुद पता है। किसी के मोहरे नहीं। कठपुतली नहीं कि बस इशारे पर काम करें। मुझे जज करने वाले मुँह की खाएँगे।
शशिभूषण: कुछ लोगों का बढ़िया है। सन्तोष कर सकते हैं। इतने अच्छे दिन तो आ ही गये हैं कि कुछ लोग जो पहचान में बहु हैं सन्तोष कर सकें, और जन्मना ब्राह्मण को नीचा दिखाने की कोशिश कर सकें। लेकिन मुझसे नहीं होगा। जन्म पर वश नहीं था। और ऐसे मामलों में किसी को मूर्ख तक कह पाना वैधानिक चूक होती है!
कुछ लोग जो पहचान में बहु हैं यह बेहतर जान गए हैं। पॉलिटिकली प्रिविलेज्ड भी हैं इस सम्बंध में। फिर ऐसे देश में भी रहते हैं जहां मुसलमानों को टाइट करने का चलन टॉप पर है। अब अधिक सोचना-करना क्या है? मुसलमान की जगह सवर्ण रख लेना है। सवर्ण में ब्राह्मण मिल जाये तो चुटकी में हो गया काम। ठीक-ठाक सुरक्षा भी है। टाइट करते रहो मुसलमानों को जन्मना ब्राह्मणों को।
लेकिन ऐसे कुछ लोग जो पहचान में बहु हैं को ज़रा ख़याल भी रखना चाहिए। ज़रूरत से ज़्यादा टाइट करेंगे तो मनुष्यता से तो गिरेंगे ही संताप से बच न सकेंगे। मनुष्य हैं तो इसका ख़याल रहना ही चाहिए क्लेश और ग्लानि से बच न सकेंगे। बाक़ी क्या है? राष्ट्रीय दुर्घटना तो हो ही चुकी है कि पढ़ने लिखने की उम्र में कुछ लोग जो पहचान में बहु हैं चुनी हुई जातियों के निर्दोष मनुष्यों को टाइट करने वाली मानसिकता में पड़ चुके हैं। पड़े रहें। क्या करना है? जब देश में ही कुछ भी हो टाईट करो की आग लगी है तो मैं क्या कर सकता हूँ?
थैंक्यू ऐसे लोगों को जिन्होंने सफलता की ओर एक कदम बढ़ा दिया है। ऐसी सफलता जिसकी मैं
बधाई नहीं दे सकता। और उस सफलता से अमृत भी मिले तो मुझे नहीं चाहिए।
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जितेंद्र विसारिया: इस देश में संघियों की एक तिहाई लड़ाई, तथाकथित लिबरल प्रगतिशील ब्राह्मण लड़ लेता- कोई बताये यह कनेक्शन क्या कहलाता है...है?
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मैं न कहता था???
कि बहुजनों के थोड़ा जागरूक होते जनेऊ लीला किस तरह अपना रंग दिखाना शुरू कर देती है। उन्हें तुरंत ही देश मे फासीवाद और बहुजनवाद की आहट सुनाई देने लगती हैं। इन हृदयी आँख के अन्धों को बहुजन आंदोलन में बुद्ध की करुणा, कबीर की सहजता। रैदास की नम्रता। फुले की सादगी और और बाबा साहेब की स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता की प्रीति कहीं नहीं नज़र आती? यह सच में प्रगतिशीलता के खोल में छुपे रंगे ब्राह्मणवादी सियार हैं।
विश्वास न हो तो यह कविता पढ़ डालिए :
बहुजनवाद हिंदूवाद भाई भाई
कोई किसी जाति का है
कोई किसी धर्म का है
तो अपने को अधम क्यों समझे?
हिन्दू महान बहुजन महान
मुस्लिम म्लेच्छ सवर्ण शैतान
यह आह्वान कहाँ से आ रहा है?
हिन्दू राष्ट्र के पीछे बहुजन राष्ट्र
दबे पांव आता दिख रहा है ?
हिंदूवाद आया मुसलमानों पर
सवर्णों पर दलितवाद आएगा
लेकिन कहाँ अभी समझ में आएगा
उद्धार दमन भी होता है राजनीति में
इजराइल चीख चीखकर कहता है
भेष बदल बदलकर आती सरमाया
समय पर कम ही समझ में आया
क्योंकि कहना साहित्यिक हो जाता है
कर जातीं तब तक खेल सत्ताएं।
बहुजनवाद हिंदूवाद भाई भाई
यह लिखकर रख लें
नयी साम्प्रदायिकता
जाति संघर्षों की आहट सुन लें
आज भले न कुछ कर पाएं
वामी प्रगतिशील देशद्रोही नक्सल कहलाएं
लेकिन सच उतरेगा, आप समझ रहे थे।
शशिभूषण
जितेंद्र विसारिया: वे हमसे मायावती, पासवान और शंभू रैगर का हिसाब माँगते हैं, जब मैं उनसे कहता हूँ कि आप भी मुझे अपने बाप-दादों के 5000 साल के अत्याचारों का हिसाब दो, तो वे हमें जातिवादी कहते हैं। (प्रगतिशील विप्र)
……..
प्रगतिशील विप्रवर चाहते हैं कि प्रेमचंद और सज्जाद ज़हीर की परंपरा पर उनका ही अखंड साम्राज्य रहे और बाक़ियो को वे जातिवादी और सांप्रदायिक कहकर उन्हीं के बाड़े में हँकालते रहें! अब ये न चोलबे! तो महराज...
शशिभूषण: हम सेपियंस हैं। हमारे पुरखों ने निएंडरथलस और दूसरे मानवों को मिटा डाला। उनके नामोनिशान नहीं मिलते। अब पृथ्वी को खाने में लगे हैं। इतनी सी बात बीहड़ के सो कॉल्ड इन्द्रों को कौन समझाए? जबकि इसके लिए स्वाभाविक रूप से पाँच हज़ार साल से ऊपर आज की गर्दन ही चाहिए और उसके ऊपर रखे सिर में थोड़ी सी ज़्यादा बुद्धि! वह बुद्धि जिसके सहारे मनुष्यता गांधी जी के वर्णव्यवस्था प्रेम और अम्बेडकर के धर्मांतरण तथा किन्हीं नेताओं के ब्राह्मण सम्मेलन से आगे दुनिया का मुँह देख रही है। उस दिशा में जहाँ से सरमाया के ध्वंस से राहत देने गुहार आये।
जितेंद्र विसारिया: मान लिया कि प्रो. तुलसीराम दलित बखरी के दास नहीं, पर कभी तो कहीं से आपने उनकी आत्मकथाओं को दलित नहीं प्रगतिशील आत्मकथा कहा होता?
शशिभूषण: हे महामानव अम्बेडकर बीहड़ के अपने उन जितेंद्रिय लठैतों को माफ़ करना जो चाहते हैं कि जिसे भी मुँह खोलकर ब्राह्मणवादी-जातिवादी कह दें वे आँधी में उड़ जाएँ, बाढ़ में बह जाएँ।
जितेंद्र विसारिया: अंतरजातीय प्रेम विवाह करने वाली लड़की विद्रोही होगी ही और लड़का प्रगतिशील यह बहुत ज़रूरी नहीं, वे उसके उलट भी हो सकते हैं। लगभग आधी रात के विचार।
शशिभूषण:
ब्राह्मण की गाली के बारे में
(डिस्क्लेमर: मूर्ख का अभिप्राय मूर्ख ही है। मूर्ख राजनीतिक कहना जाति की गाली देना नहीं है।)
गाली मारक होती हैं; जाति की गाली मूर्ख की दुष्ट मार है। मूर्खता का सम्बंध जन्म से कदापि नहीं यह शिक्षा की विलोम ही है।
गाली की मारक क्षमता तत्कालीन सामाज व्यवस्था पर निर्भर करती है। गाली प्रचलन की आज़ादी की दृष्टि से भी स्वीकार्य या त्याज्य होती है।
जाति की गाली सभ्यता का दोष है। जाति की गाली देता हुआ मनुष्य संस्कृत नहीं हो सकता।
किसी गाली का प्रचलन शासन प्रणाली पर भी निर्भर करता है। राज समाज में जहां कभी गाली का कोई शब्द प्रतिबंधित होता है वहीं गाली का कोई शब्द बड़ी स्वतंत्रता प्राप्त होता है।
कभी कभी गहराई में कोई गाली अघोषित वैधता प्राप्त भी होती है। फिर भी इसका यह अर्थ नहीं कि कोई भी शासन प्रणाली गाली का अधिकार देती है।
जब गालियों पर सख़्त और व्यापक पाबंदी हो तब चुटकुलों का प्रचलन बढ़ता है। शासन जितना कठोर हो उतने ही चुटकुले पनपते हैं।
गाली दमन का मनो मरहम है। दमनकर्ता के लिए भी और दमित के लिए भी।
गाली व्यक्ति का सामाजिक राजनीतिक अधिकार नहीं व्यक्तिगत छूट है। राज्य का दायित्व है कि गाली की उचित शिकायत होने पर शिकायतकर्ता को न्याय मिले।
गाली को डिफेम करने के प्रयत्न में गिना जाता है, गिना जाना चाहिए। इससे व्यक्ति की गरिमा का हनन होना भी माना जाता है, माना जाना चाहिए।
आज ब्राह्मण और शूद्र दोनों शब्दों का प्रयोग गाली की तरह होता है। चूँकि किसी भी युग में गाली के प्रयोग की स्वतंत्रता सीमित होती है इसलिए आज जहां एक ओर ब्राह्मण की गाली दी जा सकती है वहीं दूसरी ओर शूद्र की गाली नहीं दी जा सकती।
शूद्र अब एक प्रतिबंधित शब्द है। आज की परिस्थितियों में शूद्र का गाली की तरह या संज्ञा की तरह इस्तेमाल करना घोर आपराधिक है।
ऐसी ही युगीन अवस्थाओं को देखते गाली के प्रयोगों में पलटकर उसी शब्द का प्रयोग होता आया है। जैसे कोई चोर कहे तो उसे पलटकर चोर ही कहेंगे, साह नहीं।
ठीक इसी प्रकार आज कोई ब्राह्मण की गाली दे तो उसे गाली के जवाब में शूद्र नहीं कहा जा सकता; पलटकर यही कहा जायेगा, तुम भी ब्राह्मण। भले यह गाली-गलौज दलित-सवर्ण जाति पहचान वालों के बीच हो रहा हो।
जब कोई किसी को जन्मना आधार पर गाली दे रहा हो तो भूलकर भी उसे वैसी ही गाली नहीं देनी चाहिए। क्योंकि यह व्यक्ति की अवमानना हो सकती है व्यक्ति को गरिमा से च्युत कर सकती है और राजकीय सज़ा का कारण बन सकती है।
फिर ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिए? वही पुराना प्रत्युत्तर, मूर्ख को मूर्ख ही कहना चाहिए। परम मूर्ख भी कहा जा सकता है।
हाँ भाई हाँ भाई कहकर थाली में साथ खाने वाला, भाईजी भाईजी कहकर सम्मानजनक तस्वीर खिंचवाने वाला भी एक दिन जाति की गाली दे सकता है। उस दिन विचलित नहीं होना चाहिए।
जिस दिन बंधु समान मित्र जाति की गाली दे उस दिन कबीर की साखी उधार लेकर उसका सामना करना चाहिए। ध्यान रहे मनुष्य हर हाल में बने रहना है।
कबीर की उस साखी की पैरोडी क्या है?
मित्र कुम्हार मित्र कुम्भ है गढ़ गढ़ काढ़े खोट।
राजनीति पै प्रहार दे मूर्खता पे मारे चोट।।