बुधवार, 9 जून 2021

डरो, डर पर जीत की प्रखर कविता

विष्णु खरे की एक कविता है, ‘डरो’। सेतु प्रकाशन, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित विष्णु खरे की संपूर्ण कविताओं में इस कविता के शीर्षक के नीचे 12 जुलाई 1976 की तारीख़ मिलती है।

मैं कविता और उक्त तारीख़ पढ़कर हैरान हूँ। 12 जुलाई 1976, मेरे जन्म से पहले और आज 6 जून 2021 से चौवालीस साल पहले की तारीख़ है। लेकिन कविता की विषयवस्तु के बारे में कहना ही होगा यह वर्तमान देशकाल का यथार्थ है। झकझोरता हुआ यथार्थ। सत्ता प्रवृत्ति पर घुप जाने वाला यथार्थवादी बयान।

कविता डरो आज का ऐसा बयान है जिसमें एक ओर राजसत्ता निर्मित डर के प्रमुख रूप चेतावनी बनकर प्रकट हैं वहीं दूसरी ओर जनता की निरुपायता, क्षोभ, घुटन और दुख प्रत्यक्ष हैं।

डर राज व्यवस्था का शक्तिशाली शोषक और दमनकारी हथियार है। इसके प्रभाव से जन प्रतिरोध अक्सर पैदा होने से पहले ही मर जाता है। कविता की प्रत्येक पंक्ति इसका प्रमाणिक दस्तावेज़ीकरण करती है। इसमें व्यक्ति मन से लेकर सांविधानिक माननीयों तक की दुनिया के डर वर्णित हैं। डर निपटान के प्रबंध संकेत रूप में चित्रित हैं। डर की बारिकियां कविता को प्रभावी के साथ-साथ अध्ययन-विश्लेषण के लायक बनाती है।

कविता के शीर्षक के नीचे 12 जुलाई 1976 की तारीख़ पहली बार में सोचने को विवश करती है कि देशकाल में आखिर क्या बदलाव हुआ ? कुछ भी तो नहीं। यदि देश में आज़ादी और अभिव्यक्ति अधिक ख़राब होते गये तो बिल्कुल आज का नागरिक बयान 12 जुलाई 1976 की तारीख़ में कैसे दर्ज़ होता है ? हमारी नागरिकता पीछे जा रही है या राजसत्ता आगे खिंच आयी ? राज व्यवस्था के लगातार भयावह होते जाने, बुरा वक्त आ गया कि वे सब चेतावनियाँ कहाँ हैं ?

जैसा कि कहा, यह पहली बार का मोटा-मोटी सोचना ही है। अधिक सोचने पर 1975 के राष्ट्रीय आपातकाल की याद आती है। तब पता चलता है कवि ने अपने दौर के हालात को केवल दर्ज़ किया था। संभव है कवि विष्णु खरे ने इस यथार्थ का काव्य दस्तावेज़ीकरण करते हुए यही सोचा हो कि इस घोर समय की स्मृति दर्ज़ होनी चाहिए। ताकि सनद रहे। साहित्य समाज या जन समाज भूलने की मार से बच-निकल पावे। कवि किसी अधिक भयावह भविष्य की आहट पाकर कविता को कालजयी बनाने का उपक्रम कर रहा था ऐसा सोचना बचकाना होगा। कविता में आत्मालाप सी पीड़ा अपने ही समय की सूचक है।

कविता ‘डरो’ को पढ़ते हुए बिल्कुल नहीं लगता कि इसमें नागरिक समाज का आज का कोई डर मसलन मॉबलिंचिंग को ही ले लें जोड़ देने से यह विशेष रूप से 2021 की काव्य स्मृति बन जायेगी। बल्कि गौर करें तो यह उद्घाटित होता है कि इसके डर में आज की मॉबलिंचिग की प्रायोजित हत्याएं और उसके प्रतिरोध के डर भी कविता के अभिप्राय में समाहित हैं। नि: संदेह यह 2021 के डरों को भी घनीभूत रूप में प्रकट कर रही है। 2021 में लिखे जाने पर करती या नहीं इस विषय में कहना मुश्किल है। बल्कि यह खुशी होती है कि कविता डर की महास्मृति और समकाल दोनो है। कविता की दीर्घजीविता का यही रहस्य है। कविता डरो जेब में रख लेने लायक है।

अब प्रश्न उठता है, क्या 2021 में भी कोई राष्ट्रीय आपातकाल है ? उत्तर है, आज तक इसकी घोषणा नहीं हुई है। यह कह सकते हैं 2021 में भी निर्वाचित सरकार पिछले कई साल से भारत को हर संभव जल्द से जल्द हिंदू राष्ट्र देखना चाहती है। कोरोना महामारी की आपदा से अवसरों में एक यह अवसर भी हासिल किया जाना प्रतीत होता है। पूरी तैयारी दिखती है। कोशिश है इस निर्माण का विरोध करने वाले स्वर मज़बूत-संगठित न होने पायें। लगता तो यही है कि यह असंभव है लेकिन इस असंभव की आकांक्षा से बहुत सी बातें निकल रही हैं, देश बदल रहा है। क्योंकि भारत धर्मनिरपेक्ष संघ गणराज्य है। 

एक धर्म निरपेक्ष संघ गणराज्य के सरकार प्रमुख चाहते हैं कि भारत हिंदू धर्म-राष्ट्र बने। ऐसा वह घृणा में नहीं लोकतांत्रिक कृतज्ञता-कर्मठता में चाहते हैं। क्योंकि वे ऐसी ही चाह वाले आंदोलनों से सरकार बनाने वाले लगभग अपराजेय दल बन सके हैं। उनके खाने के दाँत औऱ हैं दिखाने के और। उनके मुँह में सबका साथ सबका विकास है बगल में हिंदूराष्ट्र। यही करण है कि जानकार मानते हैं, आज परिस्थितियाँ आपातकाल से भी बदतर हैं। क्योंकि देश में बोलने वालों और असहमति रखने वालों की नागरिकता, सत्यनिष्ठा और देशभक्ति पर कभी भी सवाल उठ सकते हैं।

कमाल देखिये, सत्तारूढ़ दलों के सरकार प्रमुखों की निजी महत्वाकांक्षा हिंदू राष्ट्र के जो डर को अमोघ अस्त्र की तरह इस्तेमाल करती है सामने आते ही किस प्रकार एक कविता 1976 को इतिहास से निकालकर सामाजिक का 2021 बना देती है। कहना चाहिए सचेत कवि इस सार्वजनीनता को हमेशा पहचानता है। लिपिबद्ध करता है ताकि डर पैदा करने वाली ताक़त को पहचानने में चूक न हो। समय कोई दूसरा हो सकता है। आश्वासन विकास का भी हो सकता है दमन का फल देने वाला। जिसके बारे में जनता इतना ही जानती है, यही होता है। यही होता आया है। किसी का राज हो। यहीं कविता व्याख्या से अधिक सुनाये जाने की अधिकारी बन जाती है।

‘डरो’ कविता सुनते-पढ़ते हुए आप भी ध्यान दें क्या-क्या लगता है-

डर क्यों लगा कि बोल दिया ? नहीं बोलते तो किसके पूछने का डर था मुँह क्यों नहीं खोलते ?

क्या सुना कि अपने कान देने से डर गये ? ऐसा-इतना सुनने को क्यों है कि नहीं सुन पाये तो ग्लानि होगी ? कौन पूछेगा सुनते क्यों नहीं ? क्या बहरे हो ?

कौन हैं कर्ता-धर्ता ? कितना हृदय विदारक फैला है कि लगता है मेरे साथ भी हो जायेगा अगर देख लिया ? न देखो तो किनके लिये डर है गवाही देकर बचा लेने लायक कैसे मुँह बचा रहेगा ?

ऐसा क्या सोचते हो जो दिल में है मगर चेहरे पर लाने से डरते हो ? चेहरे पर आ गया सोचना तो किस बात का डर है ? चेहरा सम्हाल लेने पर और अधिक सोचने की परीक्षा से क्यों गुज़रना पड़ेगा ?

क्या पढ़ने लगे जिसे सबके सामने नहीं पढ़ते ? किताबों के ख़िलाफ़ कौन गवाही देंगे ? नहीं पढ़ते दिखना भी ख़तरनाक क्यों है ? क्यों पढ़ने की तलाशी ली जायेगी ?

किसको लिखने से डरते हो ? मनचाहे अभिप्राय निकालने वाले सत्ता में कैसे हैं ? शिक्षा विमुख कैसे है ? दूसरी पहचान थोपने के काम क्यों आती है ?

तुम डरते हो ? क्यों डरते हो ? डर तो कोई है नहीं अब। क्यों डरते हो का डर कौन ला रहा है ? नहीं डरने वालों को आदेश क्यों मिलेगा डर ? डर वरना जेल में सड़।

अंत में कहा जा सकता है कि कविता केवल डर नहीं बताती बल्कि ऐसे सवाल पूछती है जिनके जवाब देने वाले का डर ख़त्म हो जायेगा। कविता ‘डरो’ डर के वर्णन की कविता नहीं है। कविता का लक्ष्य है डर को डराने वाली सत्ता के मुँह पर दे मारो। डर पर जीत की प्रखर कविता है ‘डरो’। पूरी कविता इस प्रकार है-


डरो
(12 जुलाई 1976)


कहो तो डरो कि हाय यह क्यों कह दिया
न कहो तो डरो कि पूछेंगे चुप क्यों हो

सुनो तो डरो कि अपना कान क्यों दिया
न सुनो तो डरो कि सुनना लाज़िमी तो नहीं था

देखो तो डरो कि एक दिन तुम पर भी यह न हो
न देखो तो डरो कि गवाही में बयान क्या दोगे

सोचो तो डरो कि वह चेहरे पर न झलक आया हो
न सोचो तो डरो कि सोचने को कुछ दे न दें

पढ़ो तो डरो कि पीछे से झाँकने वाला कौन है
न पढ़ो तो डरो तलाशेंगे क्या पढ़ते हो

लिखो तो डरो कि उसके कई मतलब लग सकते हैं
न लिखो तो डरो कि नयी इबारत सिखायी जाएगी

डरो तो डरो कि कहेंगे डर किस बात का है
न डरो तो डरो कि हुकुम होगा कि डर

सेतु समग्र : कविता, विष्णु खरे
संपादक : मंगलेश डबराल

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