नयेपन की रचनात्मकता ही मौलिकता है
क्लब फ़नकार आर्ट गैलरी, उज्जैन में म.प्र. प्रलेसं, उज्जैन की ओर से 'बातचीत और रचना पाठ' अंतर्गत सुप्रसिद्ध लेखक कुमार अम्बुज से अनौपचारिक-आत्मीय संवाद संभव हुआ। छह मई की शाम छह बजे एकत्र उज्जैन के साहित्यकार एवं विद्वानों ने अपनी जिज्ञासाएँ रखीं।
कार्यक्रम की शुरुआत कुमार अम्बुज की मानीखेज़ कविता "दैत्याकार संख्याएँ" की शशिभूषण के वाचन में डिजिटल प्रस्तुति से हुई। 'उपशीर्षक' काव्य-संग्रह से संक्षिप्त काव्य-पाठ के बाद मौलिकता विषयक सवाल पर कुमार अंबुज ने कहा कि नयेपन का रचनात्मक प्रयास ही मौलिकता है। किसी विषय पर आप जिस नयेपन से लिखते हैं वही मौलिकता है। हमारी भाषा और विश्व साहित्य सहित अन्य कलाओं के सानिध्य से लेखक को अपनी चुनौतियों का भी अहसास हो सकता है।
सिनेमा चयन संबंधी प्रश्न पर उन्होंने कहा, मेरे लिए सिनेमा साहित्य का ही एक विस्तार है। कौन-सी फ़िल्म देखें यह हम अपनी रुचि अनुसार ख़ुद ही कुछ खोज और चयन की दिलचस्प यात्रा पर निकल सकते हैं। चित्रकार अक्षय आमेरिया के सवाल का जवाब देते अम्बुज ने सहमति व्यक्त की कि विश्व सिनेमा देखने की शुरुआत ईरानी सिनेमा से की जा सकती है। इस खोजने-देखने के क्रम में कुछ फ़िल्मों को देखते हुए सहसा मुझे लगा कि कुछ फ़िल्मों पर लिखा जाना चाहिए। लेकिन यह लेखन समीक्षा या कथासार न रह जाए। इसलिए कोशिश रही कि उनसे समकालीन समय और यथार्थ का एक संबध रेखांकित हो सके। यही कारण है यह लेखन सर्जनात्मक निबंध की तरह है।
पिलकेन्द्र अरोरा और नरेंद्र जैन ने कुमार अम्बुज को अतीत स्मृतियों(नॉस्टेल्जिया) में गोते लगवाये। चालीसेक साल पुरानी बातें और संदर्भ उकेरे-उरेहे गए। पूरक कथन के रूप में नरेंद्र जैन ने उन्हें कई प्रसंग, बीच-बीच में स्मरण कराये। कुमार अम्बुज का कृतज्ञता भरा स्वर, रु-ब-रु हुए श्रोताओं को महसूस हुआ। व्यंग्यकार पिलकेन्द्र अरोड़ा ने कुमार अंबुज के एक जवाब पर टिप्पणी करते हुए कहा कि हमने अभी तक पढ़ा था कि दो पंक्तियों के बीच मायने होते हैं। लेकिन आज जाना कि दृश्यों के पीछे भी अनंत अभिप्राय होते हैं। इसे अंबुज जी के सिनेमा पर लेखन में एक महत्वपूर्ण पक्ष की तरह हर कोई अनुभव कर सकता है।
कुमार अंबुज ने एक प्रश्न के जवाब में कहा कि अराजनीतिक कुछ भी नहीं है। जो कहता है मैं राजनीति में नहीं हूँ वह भी परोक्षत: या चतुराई पूर्वक राजनीति में है। राजनीति न करना भी राजनीति है। मुक्तिबोध की पंक्ति- जो है उससे बेहतर चाहिए के संदर्भ से देखें तो व्यवस्थाओं में मनुष्योचित, बेहतर बदलाव हमेशा संभव हैं।
लेखन में बचपन की, स्मृति की भूमिका होती है। हम लगातार सीखते हैं। यह प्रक्रिया अनवरत जारी रहती है। लेकिन हमें अध्ययन द्वारा अधिक से अधिक सीखने की कोशिश करनी चाहिए।
एक सवाल के उत्तर में कुमार अंबुज ने कहा- लेखन के लिए सबसे प्रेरक है व्यग्रता। कुल मिलाकर तीन चीज़ें आवश्यक हैं- पहली, व्यग्रता। मेरे लिए यह मूलभूत है। दूसरा, सामाजिक ग्लानिबोध और तीसरा, हमारे समय की विडंबनाएँ। साहित्य एक सर्जनात्मक हस्तक्षेप भी है।
हमेशा ही जितना सोचते हैं उतना नहीं कर पाते। मैंने सोचा था शताधिक फिल्मों पर लिखूँगा। लेकिन अभी तक बीस-बाईस फिल्मों पर ही लिख पाया हूँ।
बातचीत के अंत में राजनीति, साहित्य और समाज तथा देश से अपेक्षा करते हुए कुमार अम्बुज ने कहा कि जैसे किसी की आस्था को ठेस लगती है तो अनेक लोगों की वैज्ञानिक चेतना को भी ठेस लगती है। आस्तिकता बची रहे तो नास्तिकता के लिए भी जगह बची रहे। लोकतंत्र और स्वतंत्रता बनी रहे।
इस बातचीत में उज्जैन के प्रमुख और चयनित साहित्यिक, बुद्धिजीवी आमंत्रित थे। प्रगतिशील लेखक संघ के इस आयोजन में मुख्य अतिथि या अध्यक्षता की औपचारिकता से पूर्णतः मुक्त बातचीत तृप्तिदायक रही और समय सीमा के कारण कुछ चीजें छूट भी गईं। कुल मिलाकर यह एक अभिनव उपलब्धि रही।
उपन्यासकार प्रमोद त्रिवेदी, साहित्यकार प्रो. अरुण वर्मा, पत्रकार देवेंद्र जोशी, चित्रकार वासु गुप्ता, कविता जड़िया ने भी जिज्ञासा या सवालों के साथ हिस्सा लिया। कार्यक्रम में चित्रकार मुकेश बिजोले, प्रो गुप्ता, पांखुरी जोशी आदि की उपस्थिति उल्लेखनीय रही। कार्यक्रम का संचालन-संयोजन कवि-कथाकार शशिभूषण ने किया। वरिष्ठ कवि राजेश सक्सेना ने आभार प्रकट किया।
- शशिभूषण,
उकेरे तो ठीक है,पर उरेहे के लिए गूगल की मदद ली। प्यारा शब्द है
जवाब देंहटाएंहरनाम
बहुत शुक्रिया आपका
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