सोमवार, 22 मई 2023

पवित्रता का विकास दूषण

रविवार, 21 मई को फिर से रामघाट में क्षिप्रा के पवित्र नर्मदा जल में उज्जैन शहर के नालों का सबसे गंदा काला ज़हरीला बदबूदार पानी मिल गया।

उज्जैन में पवित्र क्षिप्रा नदी दशकों से अत्यंत खर्चीले असफल शुद्धिकरण और सदियों से सफल सिंहस्थ कुंभ का केंद्र है।

उज्जैन में क्षिप्रा में ऐसा होता ही रहता है। सुधार भी होता है। फिर कुछ समय बाद दुर्घटना घट जाती है। लेकिन यह केवल पवित्र नदी क्षिप्रा की कहानी नहीं है।

सबसे पवित्र नदी अगर किसी महानगर या महान धार्मिक-सांस्कृतिक नगर से गुज़रती है, तो उसका पानी पीने लायक नहीं होता या रह जाता।

यह असल दुर्व्यवहार या अधर्म है जो शहर, शासन, विकास और सभ्यता किसी पवित्र नदी के साथ अनिवार्यतः करते हैं।

नदी को ग्रंथों और अध्यादेशों में पवित्र बनाये रखना लेकिन उसे दूषित से भी अधिक दूषित कर देना यह आजकल राज्य और राजनीति के सबसे बड़े छल में से है।

क्या लोग ऐसी माँग कर सकते हैं कि सभी प्रमुख नगरों के सर्वप्रमुख लोगों को पवित्र नदियों का जल पीना अनिवार्य हो?

लेकिन कुछ लोग शायद समझेंगे यह सौभाग्य होगा। क्योंकि किसी ने भी यह देख ही रखा है कि पवित्र नदी के सबसे दूषित जल में स्नान के साथ-साथ श्रद्धालु उसे पी भी लेते हैं।

नदियों की पवित्रता पर भारतीयों का अगाध विश्वास अपरिवर्तनीय सच्चाई है। भले आँखों के सामने ही कुछ भी क्यों न घट रहा हो।

सवाल उठता है भारत में शिक्षा ने क्या किया? क्या उसने जनता को यह समझा पाने में सफलता पाई कि सबसे पवित्र नदियों का पानी सबसे पवित्र घाटों में पीने योग्य नहीं है। बल्कि सबसे ज़हरीला है।

भारत में दरअसल शिक्षा फ़ेल हुई थी। विश्वविद्यालय ही नष्ट हुए तो जनशिक्षण कहाँ रहता! फलस्वरूप पवित्र जल राजनीतिक जल हो गया। जिसके बिना सत्ता की भूख प्यास नहीं मिट सकती।

इसे किन शब्दों में कहा जाए कि समाज के मूर्खतम लोग मीडिया-शिक्षा संचालक हैं। अनपढ़ शासक हैं। और कथित एक्टिविस्ट-सुधारक समझते हैं कि किसी चुनाव से सब ठीक हो सकता है।

मूर्खता को बर्दाश्त न कर पाना भी क्या अब किसी पवित्र नदी में डुबकी लगाने की ही तरह अकेलेपन, दंड या आत्मघात की ओर बढ़ जाना नहीं है?

शशिभूषण

चित्र: एबीपी न्यूज़ और नई दुनिया ऑनलाइन से साभार

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