गुरुवार, 4 नवंबर 2010

साहित्यिक संवेदना का राजनीतिक सन्निपात



एक लेखक के ’साहित्यिक संस्कार’, जिस तरह ’संवेदना को केन्द्र में रखकर रचना का प्रतिपाद्य गढ़ते हैं, उसमें वह देखे गये सामाजिक सत्य की ’वस्तुगतता’ को पार्श्व में रखकर अपने द्वारा रचे गये सच का ऐसा प्रतिरूप खड़ा करता है कि वह अपनी सम्पूर्णता में सर्वग्राह्य और प्रामाणिक जान पड़े। वहां उसके लिखे हुए में ’संवेदना का आवरण’, कवच की तरह काम करता है, और नतीजतन पाठक को लगता ही नहीं कि उसका वस्तुगत सत्य उससे कभी का बाहर हो चुका है।

कहने की जरूरत नहीं कि ’भाषा से भाषा में’ पैदा होने वाले अनुभवों के सहारे, सचाई के साथ फ्लर्ट करने में माहिर, अंग्रेजी लेखिका अरून्धती राय पिछले एक लम्बे अरसे से लगातार एक अराजनीतिक से जान पड़ने वाले मानववाद का लोक लुभावन मुखौटा लगाकर, कश्मीर समस्या पर अपने लिखे हुए से ’सत्यों को संवेदना के सहारे’ बुहारकर बाहर कर रही है। यह निश्चय ही एक लेखक की अभ्यस्त चतुराई है, जिसे बिला शक ’बौद्धिक-चालाकी’ के रूप में ही चिन्हित किया जाना चाहिए। जबकि, इस संदर्भ में हमारा टीआरपी-पीड़ित इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मोहाविष्ट-सा, जब-तब उनमें सुरखाब के पर लगाता चला आ रहा है।

याद करिये, बड़े बांधों के विरूद्ध बरसों से गांवों की गलियों और पगडंडियों पर धूल-धक्कड़ के बीच, धरम-धक्के खाती रहने वाली मेधा पाटकर, मीडिया के लिए अब मात्र एक ’बाइट’ बनकर रह गईं, जब अरून्धती राय ने इस परिसर में प्रवेश किया। अलबत्ता, कहना चाहिए कि ’नर्मदा बचाओ आंदोलन’ में प्रवेश करते ही वह ’बाइट’ नहीं, पूरा का पूरा ‘चंक‘ और ‘श्रेय‘ लूट ले गयीं हैं। प्रिण्ट मीडिया की हालत तो ये थी कि वहां मेधा की हैसियत अरून्धती के बरअक्स ’सिंगल कॉलम’ की रह गई थी। अखबारों ने अरून्धती के इतने-इतने बड़े छायाचित्र छापे, जितने कि भारतीय भाषा के किसी शीर्ष लेखक के छायाचित्र तो उसकी मृत्यु पर भी नहीं छपते।

पिछले दिनों कश्मीर के भूगोल की तफरीह से लौटकर अरून्धती ने अपने ’संवेदनात्मक-ज्ञान’ का भाषा में चतुर प्रविधि से ऐसा दोहन किया कि कश्मीर के अलगाववादी आंदोलन के कर्ता-धर्ता से कहीं ज्यादा चर्चा अरून्धती की होने लगी। उन्होंने जो और जैसा बोला, विगत में आतंकवाद के दौर में यदि वे पंजाब में भ्रमण कर रही होतीं, तो निश्चय ही खालिस्तान की मुक्ति की पटकथा की लेखक बन चुकी होतीं। क्योंकि, खालिस्तान बनाने का स्वप्न देखने वाले तमाम ’मरजीवड़े’ अपना सर्वस्व फूंकने पर तुले हुए थे। वे अपनी ही कौम की सत्ता की गोलियों के निशाने पर ठीक कश्मीरियों की तरह ही आ रहे थे।

दरअस्ल, यह अरून्धती के दुर्भाग्य की करूण कथा कही जाना चाहिए कि तब वे इतनी यशस्वी नहीं थीं और संयोग से यदि वे ऐसे ‘विखण्डनवादी‘ जुमले बोल रही होतीं तो उन्हें सुनकर पंजाब पुलिस का एक सामान्य दारोगा भी ‘भड़काऊ‘ वक्तव्यों के बिना पर हिरासत में लेने में सक्षम होता। लेकिन, बुकर-पुरस्कार (जिसकी घोषणा के पहले लंदन के पुस्तक प्रकाशन से जुड़े व्यवसायियों के बीच सट्टा लग जाता है) को प्राप्त करने के बाद, अंग्रेजों का गौरवगान करने वाली भारत सरकार के लिए अब अरून्धती एक ऐसी भयभीत करने वाली शख्सियत बन गई है कि उन्हें छूने का अर्थ ‘सत्ता का स्वाहा‘ हो जाना है। बन्दीगृह की बात तो सरकार के लिए आत्मध्वंस ही होगी। यह लगभग फ्रांस की सत्ता का-सा वह ‘चुना हुआ‘ भय है, जो सार्त्र की गिरफ्तारी के प्रश्न से तत्कालीन राष्ट्रपति द गाल को हुआ था। बहरहाल, भारत की ‘बुकर-धारिणी‘ अरून्धती राय, अब भारतीय पुरा-कथाओं की उस स्त्री-पात्र की मानिंद हो गई हैं, जिसने अपने तपोबल से ऐसी अलौकिक शक्ति अर्जित कर ली थी कि वह कुपित होने पर अपने श्राप से, सत्ता के सिंहासन को राख कर देती थी। वे अब उत्तर-आधुनिक युग की हाईली इन्फ्लेमेबल ऋषिकन्या हैं। वे ज्वालादेवी हैं। मीडिया भी उनके विवादग्रस्त कथनों में खोट देखने में अपनी ‘ज्ञानात्मक भीरूता‘ से भरा हिचकिचाता है। दरअस्ल, इस आर्यावर्त में बुद्धि के बलबूते पर जीवन-यापन करने वाली बिरादरी तो ऋषि एण्डरसन के उस आप्त-कथन से बेतरह डरी हुई है कि जो कहता है ‘राष्ट्र-राज्य तो एक काल्पनिक समुदाय है।‘

बहरहाल जो, निरा ‘काल्पनिक‘ है, उसके विरूद्ध की जाने वाली किसी भी बौद्धिक-अबौद्धिक किस्म की कार्यवाही की आलोचना करने के लिए आगे आना यानी ‘ज्ञान के क्षेत्र में लज्जास्पद‘ हो जाना है। ऐसे में एक काल्पनिक समुदाय के विखण्डन का बीजगणित तैयार करने वाली अरून्धती की आलोचना करने की हिमाकत भला कैसे की जा सकती है ? फिर चाहे उस काल्पनिक समुदाय के लिए दुनिया भर के राष्ट्रों के सत्ताधारी आर्थिक और सामाजिक योजनाओं के अरबों-खरबों के, बड़े-बड़े मानचित्र क्यों न बनाते रहें और सीमाओं के पार जाने के लिए पार-पत्र भी जारी करते रहें। यही वह स्थिति है, जब तर्कों की तूलिकाओं से एक साफ-साफ और राष्ट्र विरोधी कथन को ‘दार्शनिकता के आवरण‘ में रखकर ‘वेध्य‘ होने से बचा लिया जाता है। जबकि, हथियारों के जरिये राष्ट्र को क्षति पहुंचाई जाये, या कलम के द्वारा दोनों ही कार्यवाहियां, अपने मंसूबों में एक ही काम करती हैं। दोनों में फर्क करना और बताना, बौद्धिक-धूर्तता ही होगी। अरून्धती के मामले में यही अमोघ युक्ति काम कर रही है। चतुराई का यही वह ‘एब्स्ट्रैक्ट‘ और ‘कंक्रीट‘ है।

अब राष्ट्र-राज्य की अवधारणाओं के विमर्श से नीचे उतर कर जरा मीडिया महर्षि फ्रेडरिक जेमेसन के आप्त-कथन की ओर अग्रसर होते हैं। वे कहते हैं, ‘जनता एक काल्पनिक समुदाय है, जबकि असल में आबादी केवल जनसमूहों में ही होती है।‘ जनता शब्द अमूर्तन की तरफ ले जाता है। इसलिए संवाद और संचार के क्षेत्र में उसकी कोई अर्थवत्ता नहीं है। तो क्या यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि अरून्धती जो बात कर रही हैं, वह ‘जनता‘ नहीं मात्र ‘समूहों‘ की बात कर रही हैं। और वे समूह ‘अलगाववाद‘ की धधकती आग में अर्से से आपादमस्तक तपते आ रहे हैं। वे अपनी ही लगाई लाय में झुलसते हुए, उन समूहों की हताशा और निराशा को संवेदना के सहारे प्रश्न का रूप देते हुए, भारत के विखण्डन की एक सुविचारित ‘सिद्धान्तिकी‘ गढ़ रही हैं कि भूखे-नंगे हिन्दुस्तान से कश्मीर को आजादी की दरकार है। यह चिंतन उन नारों का ही अन्वय है, जिन्हें कश्मीर के अलगाववादी समूह रात में दीवारों पर लिख देते थे-‘भूखा-नंगा हिन्दुस्तान, जान से प्यारा पाकिस्तान।‘

कहने की जरूरत नहीं कि पिछले वर्षों में पाकिस्तान की ‘जमात-ए-इस्लामी‘ तथा ‘आई.एस.आई.‘ द्वारा कश्मीर की युवा और राजनीतिक भटकाव से भरी पीढ़ी के खून में, मजहबी कट्टरवाद का जहर डाल कर, उन्हें जंगखोर बना दिया जा चुका है, जिसके चलते हथियार उनके हाथों के खिलौने बन चुके हैं। और अरून्धती जंग के जोश और जुनून में झोंक दी गई इस बर्बाद पीढ़ी की पीड़ा और प्रश्नों को, करूणा से डबडबाती भाषा के आवरण में रख कर, निहायत निरूद्वेगी मुद्रा में ‘तथ्य-कथन‘ की तरह प्रस्तुत करने का छद्म रच रही है। या फिर यह एक महज साहित्यिक संवेदना का राजनीतिक सन्निपात है ?

उनके तमाम वक्तव्य मानववाद के पक्ष में ‘सारगर्भित लगने वाली वाचालता‘ का साहित्यिक संस्करण भर है। वे अपने लिखने और बोलने में कश्मीर की बिगड़ती हालत की तटस्थ सूचना नहीं दे रही है, बल्कि जंगखोर दहशतगर्दों की वकालत कर रही है। वहां छिद्रित सीमा से इस पार घुसपैठ कर आई, पाकिस्तान के आतंकवादी शिविरों की एक पूरी दीक्षित-प्रशिक्षित फौज है, जिन्हें अरून्धती अपनी भाषिक-युक्तियों से ‘जिहादी‘ के बजाय भोली और मासूम पीढ़ी बता रही है तथा उनके अनुसार विश्व की सबसे निर्दयी सैन्यशक्ति की गोलियों से भूनी जा रही है। मैं माओवादियों को देशद्रोही नहीं मानता, बल्कि उन्हें विचारधारा के द्वारा पैदा किये जा रहे ‘क्रिएटिव-क्रिमिनल्स‘ कहना चाहूंगा। लेकिन कश्मीर में मजहबी कट्टरपन से कुच्चम-कूच भर दिये गये विध्वंसकारी युवकों के ऐसे हिंस्र समूह हैं, जिन्होंने भारत के खिलाफ एक असमाप्त जंग छेड़ रखी है। ऐसे में अरून्धती तथा उनकी समझ के अनुयायियों के विरोध के कारण ‘सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून‘ में जरा भी हेरफेर करना अथवा सेना का कश्मीर से हटा लिया जाना, बेशक भारत सरकार की भयंकर भूल होगी। वैसे कश्मीर में आरंभ से ही गलतियों पर गलतियां किये जाते रहने का इतिहास रहा आया है। हो सकता है ऐसा करते हुए हम एक आखिरी और महाभूल करना चाहते हों।

बहरहाल, अब फिर उस मूल-प्रश्न की तरफ आया जाये कि माना कि अरून्धती इस नंगे-भूखे भारत में गोरांग प्रभुओं की भाषा की महानतम लेखिका है और अद्भुत स्वप्नदर्शी भी हैं, तो क्या वे अपने मन, वचन और कर्म से किसी ऐसे भावी राष्ट्र-राज्य के निर्माण में अपनी बौद्धिक ऊर्जा से स्वयं को झोंकने पर तुल गई हैं, जो घृणास्पद भारत देश से कहीं ज्यादा समृद्ध सम्पन्न और शांतिप्रिय देश होगा ? बड़े जनतांत्रिक आदर्शों वाला होगा ? क्या वह वर्ग, जाति और सम्प्रदायरहित होगा ? क्या वे ऐसे आदर्श राष्ट्र-राज्य के लिए नींव का पत्थर डाल रही है ? क्या उन पत्थरों पर ही उनकी इच्छा के हिसाब से सामाजिक, आर्थिक और भू-राजनीतिक घोर वैषम्य से भरे इस भारत के विखण्डन का नारियल फूटेगा ? वे अपने तर्कों की तिक्त तूलिका से जिस ‘भावी नवस्वतंत्र राष्ट्र का मानचित्र‘ रचने की धधकती रचना में ‘अग्निस्नान‘ कर रही हैं, क्या वहां इस भूखे नंगे भारत की तुलना में ज्यादा गैर-बराबरी बरामद होगी ? क्या वह दक्षिण एशिया में स्थायी शांति का गारंटी देने वाला महान राष्ट्र-राज्य होगा?

मेरे खयाल से मोराजी भाई देसाई के प्रधानमंत्री बनने की उम्र को छूने वाले, पाकिस्तान की ‘जमाते-ए-इस्लामी‘ से अपना रक्त-सम्बन्ध बनाये रखने वाले सैयद अली शाह गिलानी, जिनके साथ वे देश की राजधानी में मंच साझा कर रही थी, जब वे ‘राष्ट्रपिता‘ बनेंगे, तो क्या वे इस ‘भारत-पुत्री‘ के लिए उनके पास कोई मुकम्मल जगह होगी ? इनकी कल्पना का भावी कश्मीर जो कि निश्चय ही एक इस्लामिक राष्ट्र होगा और बेशक वहां भारत जैसी साम्प्रदायिक समस्या नहीं होगी, क्योंकि ‘जिसे कश्मीर में रहना है, उसे अल्लाह-ओ-अकबर कहना है।‘ इसलिए वह पूर्णतः वह मुस्लिम राष्ट्र ही होगा, जहां गैर-मुस्लिम आबादी होगी ही नहीं। और अभी तक का इतिहास तो हमें यही बताता आ रहा है कि इस विश्व के तमाम इस्लामिक राष्ट्र, ‘जनतंत्र‘ को बर्दाश्त ही नहीं कर पाते। पाकिस्तान जनतांत्रिक होने के दावे जरूर करता रहता है, लेकिन जनतंत्र को वह केंचुल की तरह उतार कर कभी का फेंक चुका है। उसके पास भी वही तानाशाही की फुंफकार है। इसलिए इनमें से किसी भी मुल्क में अभिव्यक्ति की आजादी की ऐसी बीन नहीं बजती, जैसी अरून्धती बिना डरे, ‘भर-मुंह सांस‘ से राग ‘देस-तोड़ी‘ बजा रही है।

अंत में कहना यही है कि अब अरून्धती की समझ और सोच की आरती उतारना बंद की जाना चाहिए। क्योंकि उनके मंतव्य बहुत खुल कर सामने आ चुके हैं कि वे क्या चाहती है? वे इतनी विराट नहीं है कि उनका कद देश से भी ऊंचा दिखने लगे। वे भारतीय भविष्य के संदर्भ में ‘गॉडेस ऑव स्माल थिंकिंग‘ है। वे इतिहास की ऐसी ‘रतौंध‘ की शिकार है, जिसकी वजह से उन्हें कश्मीर भारत के अभिन्न अंग की तरह दिखाई देना कभी का बंद हो चुका है। यह पूरी तरह इरादतन है और वे अपरोक्ष रूप से किन्हीं दूसरी शक्तियों के इरादों को सींचने के धत्करम में लगी जान पड़ती है। उन्हें भारत के विखण्डन के लिए ‘बीजगणित‘ तैयार करना है। वे अंध राजनीति के लिए ‘पैराडाइज लास्ट‘ का रफ ड्राफ्ट लिख रही हैं।

उन्हें कौन याद दिलाये कि फॉकलैण्ड के युद्ध के समय बीबीसी ने मार्गरेट थैचर की कार्यवाही की आलोचना में किसी का भी एक शब्द प्रसारित नहीं किया, जबकि वह तो सचाई और अभिव्यक्ति की आजादी को समर्पित होने का सबसे बढ़-चढ़कर दावा करता है। क्या ऐसी महान हस्ती को यह भी याद दिलाने की जरूरत है कि फॉकलैण्ड ब्रिटेन से ढाई हजार किलोमीटर दूर है और हमारे कश्मीर को ‘उत्तरी पाकिस्तान‘ बोलने-बताने वाला ब्रिटेन, वहां साढ़े सात सौ साल से लड़ रहा है, जबकि कश्मीर हमारे मानचित्र की गरदन की रक्तवाहिनी है। अभी तक हम वहां सिर्फ ‘रक्षात्मक-मुद्रा‘ में लड़ते रहे हैं, जबकि डॉ. फारूख भारत की संसद में भारत-सरकार से दहाड़ कर पूछते रहे हैं कि पाक अधिकृत कश्मीर आखिर हम कब लेंगे? क्योंकि यही वाजिब वक्त है, जब पाकिस्तान अपनी ही नीतियों से खुद को कमजोर बना चुका है।

क्या अरून्धती को यह दिखाई नहीं देता, कि पिछले कुछ वर्षों से कश्मीर को मुस्लिम बहुलता को सौ प्रतिशत बनाने की अदम्य इच्छा में अलगाववादियों द्वारा हिंसक कार्यवाही लगातार तेजी से बढ़ती गई और कश्मीरी पंडितों को खदेड़ कर बाहर करने के बाद उन्होंने साठ हजार सिक्खों को भी कश्मीर खाली करने की धमकी दे रखी है। कहने की जरूरत नहीं कि कश्मीर अब देश के भूगोल में राज्य नहीं, बल्कि पूरी तरह ‘इस्लामिक इथनोस्केप‘ बना दिया जा चुका है, जिसमें सीमा पार से उन शिविरों से पूर्णतः प्रशिक्षित आतंकवादियों के जत्थों के जत्थों को घुसपैठ द्वारा कश्मीर में भेजा जा रहा है, जिन्हें पाकिस्तान की आय.एस.एस. चला रही है। कश्मीर की तबाही में उनकी बहुत अहम् भूमिका है।

हमें यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि कश्मीर एक ऐसा सीमावर्ती राज्य है, जो संवेदनशील नहीं, अलबत्ता भयानक विस्फोटक स्थिति में है। रक्षा विशेषज्ञों की दृष्टि में तो इतनी चिंताजनक स्थिति पर पहुंच चुका है कि यदि वहां से सेना हटा ली जाये, तो मात्र पन्द्रह दिनों में भारत से कश्मीर अलग हो जायेगा। ऐसे समय में कश्मीर के बारे में अरून्धती के चिनगारी भड़काने वाले बयान देशघाती ही कहे जाने चाहिए। क्योंकि ऐसे बयान कश्मीरियों में विखण्डन के उन्माद में अनियंत्रित उफान पैदा करने वाले हैं। क्या हमारा ‘भीरू‘ राष्ट्र-राज्य अरून्धती के आशयों की अनसुनी करते हुए उसे मात्र अभिव्यक्ति की आजादी का मसला मानकर गूँगी बनी रही सकती है ? या कि अपनी कूटनीतिक समझ से इसे खतरनाक मानती है ? और इसके भावी परिणामों पर बहुत वस्तुगत ढंग से विचार कर रही है। दरअस्ल, यह एक बड़ी प्रश्नभूमि है, जहां खड़ा रह कर भारत का बहुत सामान्य नागरिक भी सरकार की तरफ कान लगाकर खड़ा है कि वहां से कोई उत्तर आने वाला भी है कि वे अभी राष्ट्रमंडलीय खेल राग में ही डूबे हुए हैं और झूम-झूम कर एक दूसरा कीर्तन करने में ही लगे रहेंगे ?


प्रभु जोशी
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