रविवार, 17 अक्तूबर 2010

होई भगति भें लोग बेहाला

आज दशहरा है.नौ दिनी भक्ति समाप्त होने को है.सड़क के किनारे घर की ठीक बगल में.दुर्गा विराजी हैं.आसपास के पेड़ों और कॉलोनी की ऊँची पानी की टंकी में लगे स्पीकरों को मिलाकर करीब सौ मीटर की सीमा में दस स्पीकर सेवाएँ दे रहे हैं.सुबह के छह बजे से रात के दस बजे तक सिर्फ़ भक्ति.भजनों का कोलाहल.

इतनी घनघोर निर्वेद ध्वनि कि घर के खिड़की दरवाजे जहाँ से भी प्रकाश आ सकता है बंद करने के बाद भी न तो टीवी का कोई चैनल समझ आए न फ़ोन पर किसी की ज़रूरी बात.कई बार भीतरी ग़ुस्सा इतना उफ़ना की बंगाल से केवल मंत्र पढ़ने-चीखने आए पंडितों के पास दौड़ता हुआ जाऊँ-चुप करो सालो....जीना हराम कर रखा है.

ज़ब्त किया.सब्र से काम चला रहा हूँ.आत्म निर्वासन के रास्ते चुने.कविता के साथ घर से निकल-निकल जाते रहे.विधर्मी दुआएँ की,काश मुसलमानों के मोहल्ले में अपना घर होता...उम्मीद यह थी कि आखिर दशहरा भी बीतेगा ही.सो हम मन ही मन खुश हैं कि आज रात आठ बजे के बाद हम पर भी राम जी की कृपा होगी.

पर मन धिक्कारना नहीं छोड़ रहा.छुट्टी बीती जा रही है.किसी से फ़ोन पर बात नहीं कर सका इन दिनों.दशहरे के बधाई एसएमएस पढ़कर जैसे मन सुलगा जा रहा है.टेंट हाउस के लड़के लाउड स्पीकर छोड़कर एक एककर सजावट उतार रहे हैं.मैं बड़बड़ा रहा हूँ.अब देर नहीं कर सकते.मालिक एक्स्ट्रा भुगतान के लिए लात मारेगा.

मन इतना खिन्न है कि यह भी नहीं कह सकता कि भक्तो इतनी बिजली,खाद्यान्न,संसाधन बर्बाद कर दिया.अब मूर्तियों से नदी,नाले पाट दोगे.इतने में तो गाँव के गाँव आबाद हो जाते.स्कूलों का जीर्णोद्धार हो जाता.यह कहना इस देश में उस मूर्खता से भी बड़ी उद्दंडता है जो नवरात्रि में बाक़ायदा अंज़ाम दी जाती है.खुलकर न बोल सकने के पीछे अपना डरपोक मन भी है कि बोल गए तो डंडे पड़ेंगे.

याद आता है इन्हीं दिनों का एक आंदोलन जो साधुओं ने किया था.हुआ यह था कि कुछ साधुओं ने जैन मंदिर क्षेत्र में अपना तोरण द्वार बना लिया.मना करने पर चमका दिया.तब कुछ साहसी जैनी पुलिस रिपोर्ट आदि का बेमतलब होता देख ज़िला कलेक्टर से मिले.कलेक्टर ने मौका देखा.साधुओं को गेट हटा लेने को कहा.साधु नहीं माने.कलेक्टर ने इच्छाशक्ति दिखायी.बल प्रयोग से गेट हटवा दिया.

फिर क्या था आंदोलन ही शुरू हो गया.राजवाड़े में मंच सज गया.धूनी जल गयी.माइक लग गए.अनशन शुरू हो गए.कम्प्यूटर,मोबाइल,इलेक्ट्रिक आदि नामोंवाले बाबा जुट आए.कलेक्टर मुर्दाबाद...अधर्मी को हटाओ...पुकार लगायी जाने लगी.या तो यहाँ धर्म रहेगा या कलेक्टर.दोनों नहीं रहने देंगे हम.

उसी आंदोलन में मैने मंच से अश्लील भाषण सुने.इसके पहले मैं ऐसे अनुभव से वंचित था.एक संत जो वक्तव्यों का संचालन कर थे उन्होंने कहा कि अब इलेक्ट्रिक बाबा यह समझाएँगे कि कलेक्टर अधर्मी क्यों है..वे साधु आए और समझाने लगे.जिसका कुलमिलाकर आशय यह था कि इस कलेक्टर की मां के संबंध ज़रूर किसी इसाई से रहे होंगे.इतना भ्रष्ट और हिंदू विरोधी ईसाई का मूत्र ही हो सकता है.

मेरी हिम्मत नहीं हुई थी कि मैं सभी साधुओं को सुन पाता.बाद में खबर मिल गई थी कि कलेक्टर का पत्नी बच्चों के साथ सकुशल तबादला हो गया.

जिस देश मे आई ए एस के रुतबे,अधिकारों का ढोल पीटा जाता है वहीं मैंने कलेक्टर की यह औकात देखी है.अगर आप भी सामाजिक प्राणी होंगे तो धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप का अंजाम जानते होंगे.

इस देश को बाज़ारवाद या साम्राज्यवाद से उतना खतरा नहीं है जितना धर्म और जाति से.अगरबत्ती का धुआँ सिगरेट के धुएँ से खतरनाक है.लेकिन कहीं इसकी वैधानिक चेतावनी नहीं.जिन्हें इस अप्राकृतिक न्याय से संतोष नहीं कि नगर निगम की बहुराष्ट्रीय कचरा गाड़ी में क्षत विक्षत अलौकिक मूर्तियाँ भी लादी जाती हैं.देवी-देवता अंत में नालियों में गंधाते हुए सड़ते रहते हैं उनकी कोई सुनवायी नहीं.

एक हम हैं कि अपने किसी भी महान नेता,लेखक,संस्कृतिकर्मी या किताब की ऐसी लोकस्वीकृत याद एक दिन के लिए भी नहीं आयोजित कर पाते.जबकि अलभ्य देवी देवताओं के लिए लोग महीनों नंगे पैर चलते हैं,व्रत रहते हैं,खुलकर चंदा देते हैं.हमारे किसी सच्चे साथी की हत्या के विरोध में भी बुद्धिजीवी शराब पीते हुए एयर कंडिश्नर यात्रा करते हैं.हमारे कवि-लेखक जानबूझकर आयटम स्क्रिप्ट,गीत लिखते हैं.वकालत जैसी पत्रकारिता करते हैं.पंडों जैसा अध्यापन करते हैं.

इस सांस्कृतिक शोर में मुझे सूझ ही नहीं रहा कि इस दशहरे में राम को जन्मभूमि मिलने की बधाई दूँ,अपने घर से भाग जाऊँ या आज रात तक शोर से मुक्ति पा जाने का इंतज़ार करूँ.


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें