शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

पीपरताल



एक गाँव के तालाब की मेड़ पर घना,ऊँचा पीपल था.उसे पीपल का पेड़ इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि पीपल पेड़ के अलावा भी बहुत कुछ होता है.यह मुझे किताबों ने नहीं पुरखों की चली आती हुई बातों ने सीख लेने को मजबूर किया..दादी कहतीं थीं ईश्वर को भी साँस लेने की ज़रूरत पड़ी इसलिए उसने पीपल बनाया.दादा जो नास्तिक जैसे थे और दुर्भाग्य से गाँव के अलावा कोई दूसरी दुनिया उन्होंने देखी नहीं कहा करते थे यह पीपल अब से सात पुश्त पहले पैदा हुए गाँव के सबसे बूढ़े ईमानदार आदमी जगतधारी का सीना है.उन्होंने जगतधारी के बारे मे कभी पूरा बताया न उनकी यह उपमा मेरी समझ में पूरी तरह कभी बैठी पर कभी भूली भी नहीं.हमेशा लगता है दादा को भाषा की सोहबत नहीं मिली वरना इस बात को वे किसी और तरह कहते.

पीपल की स्थिति ऐसी थी कि आधे तालाब को उसकी शाखें ढकती थीं.बाक़ी बच गए तालाब को उसकी छाँव का आँचल पूर लेता था.पीपल और तालाब इस तरह एकमेक हो गए थे कि बघेली बोलनेवाले अनपढ़ लोगों ने ही उसके लिए एक सुंदर शब्द खोज लिया था पीपरताल.पीपरताल की बगल में एक कुटिया थी जो कई लोगों के नियमित बैठने तथा एक नि:संतान शख्श के रात को सोने की वजह से कुटिया कहलाने लगी थी वरना उसकी हालत झोपड़े से भी बदतर थी.उसमें बिना गृहस्थी की एक ऐसी ज़िंदगी रह रही थी जो दीन होकर भी किसी को बोझ नहीं लगती थी.सब उसे खिलाकर खुश होते थे. उसमें रहनेवाला साधू जैसा आदमी जिसने पूरे जीवन कभी कोई उपदेश नहीं दिया एक दिन बूढा होकर मर गया.तब कुछ महीनों में ही यह एक छोटे मंदिर में बदल गई.जिसमें कुछ सालों तक पूजा वगैरह होती रही.एक समय के बाद यह भी बंद हो गया.गँजेड़ी और जुआँड़ी वहाँ रमने लगे.शाम या भोर में लड़कियाँ,औरतें वहाँ से गुज़रने में डरने लगीं.होते होते वह जगह बिल्कुल निर्जन हो गई.इसके पीछे दो हादसे भी कारण बने.एक बच्चा जो इकलौता था की तालाब में डूबने से और एक जवान जो बूढ़े माँ-बाप का सहारा था की पीपल से गिरकर मौत हो गई.

लेकिन जाने किस धुन में एक भला समझा जानेवाला मानुष जो यहाँ अपनी ननिहाल में रहने आया था तालाब में नहाने रोज़ आता रहा.वह पहले तालाब का पानी साफ़ करता था.इसके लिए वह चुपचाप गले तक पानी में उतर जाता.पीपल की सूखी,पीली,बीट सनी पत्तियाँ,छोटी-मोटी टहनियाँ,घोंसलों की उजार अपने दोनों हाथों से तालाब के किनारे तक बुहार आता.तब थिर जल का सूरज को अर्घ्य देता.उसकी यही पूजा थी.तालाब का पानी थिराना,लौटकर पीपल की शांत छाया में आखें मूँदकर देर तक बैठे रहना.पता नहीं वह कोई वरदान चाहता ही नहीं था या उसे मिला नहीं.उसके घर तथा ननिहाल दोनों में विपत्तियों के पहाड़ टूटते रहे.एक-एक कर उसके सभी संबंधी अकाल मौत मर गए.पीपल भी सयाना होता गया.इस समय तक गाँववाले इतने निर्लिप्त हो चुके थे कि पीपल के आसपास क्या हो रहा है धीरे धीरे भूलने लगे.एकदिन उस मानुष को भी पीपल से विरक्ति हो गई वह जाने क्या-क्या बड़बड़ाता हुआ कुल्हाड़ी ले आया.उसी ने पीपल के तने पर पहली कुल्हाड़ी चलायी.वह दुष्प्रचार जो पीपल को अशुभ समझा रहा था तब तक इतना बलशाली हो चुका था कि गाँववालों ने यह सोचा तक नहीं पीपल काटने को पुरखे पाप समझते रहे हैं.

पीपल धराशायी हुआ.हफ़्तों लकड़ियाँ हटाने में लग गए.तालाब में धूप पड़ी तो उस मानुष की आँखें चमक उठीं.उसे जल्दी ही अपनी वाचाल ज़बान में पीपल के नहीं रहने को उपयोगी समझा देने में सफलता मिल गई.महीनों बाद एक दिन वह बाज़ार से मछलियों का बीज ले आया.सबसे सहमति ले लेनेवाला कुशल मशविरा किया और बीज पानी में डाल दिए.कुछ ही महीनों में पानी में मछलियाँ खेलने लगीं.

अब पीपरताल की मेड़ पक्की हो चुकी.उसकी मछलियाँ बड़े लोगों की पहली पसंद हो गईं.गाँव में भी विकास हो चुका वहाँ नई-नई गाड़ियाँ दौड़ती हैं.सुना है वह कभी का फटेहाल अभागा पुजारी काफ़ी अमीर हो गया है.उसने गाँव में नया सुविधायुक्त मंदिर बनवा दिया.लोंगों को उससे तक़लीफ़ होगी पर शिक़ायत कोई नहीं करता.बल्कि उसके अपने क्षेत्र का नेता होने को सहारा-समर्थन दे रहे हैं.सिर्फ़ कुछ अशक्त सी बूढ़ियाँ गुस्से में आ जाने पर अपनी उसी मातृभाषा बघेली में जिसमें पीपरताल कहा गया था उसे पपिट्ठा बोलती हैं जिसका मतलब होता है लगातार पाप करनेवाला.उसे जब यह बात कभी बता दी जाती है तो वह हँस देता है. उसका मुह बने शागिर्द बोलते हैं- डोकरियां कब तक बोलेंगी...

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