गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

एक रंग ठहरा हुआ




युवा कवि आशीष त्रिपाठी का कविता संग्रह एक रंग ठहरा हुआ के पन्नों को उलटते हुए जिस पहली बात ने मेरा ध्यान आकर्षित किया वह है इन कविताओं की शांत बनावट जिसमें कहीं कोई हड़बड़ी या अतिरिक्त आवेश नहीं है.इस प्रकार का शिल्प साधना और उसमें अपनी सारी भावात्मक मनोदशा को व्यक्त कर पाना कला की दृष्टि से चुनौती भरा काम होता है पर मुझे खुशी हुई यह देखकर कि यह युवा कवि एक विलक्षण आत्मसजगता और खास तरह की प्रतिबद्ध मानसिकता के साथ अपने आस-पास की चीज़ों को देखता है और उन्हें कविता में दर्ज़ करता जाता है.

संग्रह का नाम एक रंग ठहरा हुआ ज़रूर है पर इन कविताओं में ठहराव नहीं एक गति की निरंतरता है.कवि की नदी शीर्षक कविता से लेकर कहें तो यह कथन स्वयं इस युवा कवि की कविता के स्वभाव पर भी एक टिप्पणी लगता है.

नदी के चुपचाप बहने में
चुप्पी पर नहीं
उसके बहने पर ग़ौर करना चाहिए


यह आकस्मिक नहीं है कि संग्रह की अनेक कविताओं में नदी बार-बार आती है और अलग-अलग संन्दर्भों में आती है.

संग्रह की एक अन्य कविता इन्कार में इस युवा कवि का एक अलग तेवर दिखाई पड़ता है जिसमें उसका कवि सुलभ साहस भी देखा जा सकता है-

यह धर्म है
या किसी धूर्त बूढ़े बेबस बाघ के हाथ
सोने का कंगन
यह धर्म है
तो मैं इसे मानने से इंकार करता हूँ
.

चार उपखंडों में विभाजित यह संग्रह कवि आशीष त्रिपाठी की सम्भावनाओं का आईना है और उनके अब तक अर्जित जीवनबोध का काव्यात्मक प्रमाण भी.

-केदारनाथ सिंह



दो कविताएँ
(इसी संग्रह से)

तुम

तुम
जैसे भीतर बसा गहरे कोई मौन कोई दुख
जैसे देहरी पर आकर ठहरा कोई सुख

जैसे
तीज का चाँद
पीठ पीछे

जैसे मेरे नाम का कोई हिस्सा
खोया हुआ

तुम
जैसे एक रंग ठहरा हुआ.



मैं

मैं
जैसे तुम्हारी ओर बढ़ते-बढ़ते ठिठका एक कदम
तुम्हें निहारते
पीछे आती आवाज़ को सुनता मुड़-मुड़

जैसे
ना बीतने का ठान चुकी एक दुपहरी
एक बोल गूँगे का

जैसे
अपने को निरर्थक में खो देने की एक ज़िद

जैसे
दीवारों की तरह के दरवाजों को खोलता एक मानुष.

-आशीष त्रिपाठी
रीडर,हिंदी विभाग
बी.एच.यू.वाराणसी,उ.प्र.
ashishhindibhu@gmail.com


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