रविवार, 7 फ़रवरी 2010

इसे डायरी की तरह नहीं लिखा जा सका

सुबह जल्दी जाग गया था
दिन भर किसी से बहस नहीं हुई
पिता ने गालियाँ नहीं दी
सहानुभूति नहीं दिखाई किसी ने
न ही दोस्तों ने कोई काम कराया
अपने ही छोटे-मोटे काम निपटा पाया
मसलन
कपड़े धोना
दाढ़ी बनाना
साइकिल का टेढ़ा हैंडल सुधरवाना
दवाइयों की उधारी चुकाना
सिरदर्द कम रहा
आँखों की जलन थमी रही
थकान,कमज़ोरी का भान कम रहा
शाम को पढ़ाकर लौटते हुए स्कूल से
एक ढाबे पर बैठकर दो समोसे खाए
चाय पी
खाया पान
पढ़ लिया अख़बार
अपने रेडियो पर सुना बीबीसी
देखने में नहीं आया कोई विज्ञापन
जो इस संविदा अध्यापकी से बेहतर होता
कहीं से परीक्षा का प्रवेश पत्र भी नहीं आया
रुके रहे सारे रिजल्ट
करप्शन
डोनेशन
रिजर्वेशन के मुहाने पर
रात की रोटी
आलू की तरकारी के साथ निबट गयी
अम्मा देना नहीं भूली गरम पानी
सो सोने से पहले खा लिया त्रिफला चूर्ण
उसकी यादों की हूक उठी दिल में
मगर मिलने की तड़प पी गया
वह भी घोटती ही रही फ़ोन पर अपनी बेचैनी
नहीं सोचा भावी दाम्पत्य के बारे में
इसलिए डर भी नहीं लगा ज़माने से
छपने के खयाल ने नहीं मज़बूर किया
सो नहीं भरमाया प्रसिद्धि के सपनों ने
अपनी सीमाएँ मुखर रहीं
मगर हीनताबोध नहीं हुआ
कल के बारे में तय करते हुए
कि इस सब के साथ
बनानी हैं कुछ नहीं हुई गोष्ठियों की रपटें
जाँचनी हैं विश्विद्यालय की कॉपियाँ
आकाशवाणी में ड्यूटी पता करनी है
लिखनी है कथादेश
और काशीनाथ सिंह जी को चिट्ठी
चादर तानकर सोने जा रहा हूँ
कानों में भजन गूँज रहा है
तुम ढूँढो मुझे गोपाल मैं खोई गैया तेरी....

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