शनिवार, 20 नवंबर 2010

अच्छा लगता है.....

अच्छा लगता है
सबके होंठों पर एक मुस्कान लाना
सबके दिलों को छूकर वहाँ घर बनाना
सबको खुशी के बदले खुशी देना
अच्छा लगता है

अच्छा लगता है
फूलों को देखकर साथ-साथ झूमना
उन्हें हथेलियों से सहलाना
उन पर बैठती तितलियों को देखकर
उनकी सुंदरता में खो जाना
अच्छा लगता है

अच्छा लगता है
बड़ों की डाँट सुनना
सुनकर अपने को सुधारना
सुधारना कि कुछ ऐसा कर सकूँ
जो सबकी खुशी का कारण बन सके
अच्छा लगता है

अच्छा लगता है
लहरें देखकर उनमें खो जाना
खोकर उनकी गहराइयाँ अनुभव करना
लहरें जो हमें ज़िंदगी के बदलते रूप को
दिखाती हुई आती हैं और चली जाती हैं

अच्छा लगता है
गाना,जो मेरी हर साँस में बसता है
अच्छा लगता है.

-अनुश्री घोष

बुधवार, 17 नवंबर 2010

सुनाऊँगा कविता


बहादुर पटेल कवि हैं.देवास में रहते हैं.उनका पहला कविता संग्रह बूँदों के बीच प्यास अंतिका प्रकाशन से छपकर आया हैं.यह हमारे समय के महत्वपूर्ण कथाकार प्रकाशकांत को समर्पित है.वे युवा कवि हैं कि नहीं यह बड़े लोग जानें पर मेरी नज़र में वे अच्छी कविताएँ लिखते हैं.उनकी कविताएँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं हैं.जब तक साहित्य में ऐसी धारणाएँ क़ानून नहीं बन जातीं कि महानगरों में ही अच्छी कविताएँ लिखी जाती हैं.अपनी तरफ़ का युवा ही अच्छा कवि होता है तब तक तो आपको भी यह कहने में हर्ज़ नहीं होना चाहिए कि कविता वहां भी है जहाँ तक विशेषांको की अनुक्रमणिका नहीं जाती.साहित्यिक केंद्रों की सिटी बसें नहीं पहुँचतीं.जिन्हें उदारता लाभ नहीं मिलता.एक ज़माने में इलाहाबाद में अच्छा साहित्य लिखा जाता था.अब वहां किसी प्राचीन स्मारक से अमरकांत जी के अगल बगल लोग अफसर होते हैं.फिर बनारस का साहित्य बढ़िया माना गया.अब वहां काशीनाथ सिंह जी जैसे स्तंभ की छोड़ दें तो प्रचुरता में टीकाएँ,कुंजियाँ,लिखी जाती हैं.आजकल तो जो दिल्ली से नहीं लिखता वह भी कोई साहित्यकार है?किसी आयोजन के निमंत्रण भी भेजने हों तो डाक दिल्ली ही जाती है.हालांकि कुछ ज़िद्दी,कहीं भी बस जाने को विवश यहां वहां भी साहित्य होने की तस्दीक करते रहते हैं.पर यह फुटकल है.नक्शे में लखनऊ,भोपाल,जबलपुर के आगे देखना नहीं हो पाता.सवाल उठता है साहित्य का केंन्द्र शहरों को कौन बनाता है?किसके भीतर कहीं से भी कविता सुनाने की धुन कम नहीं होती.बहरहाल यहाँ दो कविताएँ बहादुर पटेल की.इसी संग्रह से.इस उम्मीद के साथ कि आपको भी अच्छी लगेंगी.

सुनाऊँगा कविता


शहर के आखिरी कोने से निकलूंगा
और लौट जाउंगा गाँव की ओर
बचाऊँगा वहां की सबसे सस्ती
और मटमैली चीज़ों को
मिट्टी की खामोशी से चुनूंगा कुछ शब्द

बीजों के फूटे हुए अंखुओं से
अपनी आँखों के लिए
लूंगा कुछ रोशनी

पत्थरों की ठोकर खाकर
चलना सीखूंगा
और उन्हें दूंगा धन्यवाद
उनके मस्तक पर
लगाउंगा खून का टीका

किसान जा रहे होंगे
आत्महत्या के रास्ते पर
तब उन्हें रोकूंगा
सुनाउंगा अपनी सबसे अंतिम
और ताज़ा कविता
वे लामबंद हो चल पड़ेंगे
अपने जीवन की सबसे दुरूह पगडंडी पर।


टापरी


वो देखो वहां कभी हुआ करती
ठीक कुंए के बगल में टापरी
तब दादा भी हुआ करते
बनाई भी उन्होंने ही थी
अपनी मेहनत के मोतियों से

इकट्ठा किया था उन्होंने
ईंट, गारा और चूना
जिससे खड़ी की थीं चारों ओर दीवारें
सुरक्षा का एक घेरा बनाया था
बिछा दी थी दीवारों पर
कुछ सीमेंट की चादरें
नीचे से बल्लियों के टेकों पर

बहिन कमली अक्सर लीप दिया करती
पीली मिट्टी और गोबर से
कैसा दिपदिपाता था अंदर
जैसे सोने सा

धूप के कुछ पहिंए
मंडराते थे वहां दिन में कुछ ढूंढ़ते से
और रात में चांदनी
अपने करतब दिखाती

अमावस की रात जब भारी पड़ती
तो गुलुप जलता
या फिर किरासिन की चिमनी
ही होती आँखों का सहारा

यह तब की बात है
जब कुंए में हुआ करता था
लबालब सागर सा पानी
दादा अक्सर किस्सा सुनाते
कि कैसे जब चड़स में बैलों को जोतकर
निकाला जाता पानी

कैसे सोते फूट पड़ते
कल-कल संगीत के साथ
बैलों की कांसट करती उनकी संगत
यह कैसी कहानी थी
जिसमें कविता का वास था
संगीत का वास था
फिर कैषा हलवाहा अपनी
तान छेड़ता तो नहा जाती हवाएं
बहा ले जातीं दूर तक मिठास

कैशा तब भी गाता था जब
पहली बार बिजली से पानी निकाला गया
फिर वह गाने को
किस्से में बदलने लगा
ऐसे किस्से सुनाता कि कुंए के
सोते धार-धार रोते से लगते

इसे हम दूस रे टापरी कहते
और यदि होते पास तो खोली
गांव से दूर खेत पर थी यह
ऐसी कई टापरियां थीं
कई-कई खेतों पर
सबका मिजाज़ होता अलग-अलग
सबकी अलग-अलग थी गंध
सबका अलग-अलग था संसार

इनका उपयोग ऐसा कि
जैसे खाली पेट को खाना
प्यासे को पानी
मदन, मंशाराम, दादा, दादी,
माँ, पिता और हम भाई बहन कर रहे होते
खेतों में काम
तो बार-बार हर छोटे-मोटे काम के लिए
गाँव के घर न जाने की सुविधा
थी यह टापरी

काम करते तो सुस्ताते इसी में
थकान को धोते इसी की छाया से
मौसम की मार में हमेशा तैयार
गर्मी देती ठंडक
बारिश में छिपा लेती हमें
ठंड में रजाई सी होती गरम
हर मर्ज़ की दवा
सौ तालों की एक चाबी

गाँव के घर की उपशाखा
जिसमें कुछ खास चीज़ों को छोड़कर
था सबकुछ
जैसे एक लकड़ी का संदूक
जिसमें फुटबॉल, पाईप पर लगाने के क्लिप,
स्टार्टर की पुरानी रीलें, बिरंजी, नट-बोल्ट,
कुछ पाने, पिंचिस, पेंचकस, टेस्टर,
बिजली के तार, फेस बांधने का वायर,
सुतलियां, नरेटी, सूत के दोड़ले
और साइकिल के पुराने ट्यूब इत्यादि
ये सारे ब्यौरे किसी न किसी काम से नस्ती थे

यह एक ऐसा कबाड़खाना था कि
इससे बाहर कोई काम नहीं था
या कि किसी काम के लिए इसके
अलावा कोई विकल्प की ज़रूरत नहीं

कोने में पड़ी रहती खटिया
जिस पर दिन में एक तरफ ओंटा
हुआ चिथड़ा बिस्तर
जो रात में काम आता
रखवाली के समय
ठंड के दिनों में
पाणत करते तो इसी में दुबक जाते

खटिया के नीचे था रहस्यमय संसार
खाली बोरे, खाद की थैलियों के बंडल,
कुछ पल्लियां
जब अनाज पैदा होता तो
इन्हीं में बरसता
सब्जियां मंडी जातीं तो इन्हीं में
इनके सहयोगी होते
कुछ टोकनियां, छबलिये
और बड़े डाले, गेंती, फावड़े, कुल्हाड़ी
दरांते, सांग, खुरपियां
कितना कुछ था इस टापरी के भीतर
खेती किसानी का पूरा टूलबॉक्स

यही नहीं इसके पिछवाड़े
बल्लियां, बांस, हल, बक्खर, डवरे,
जूड़ा पड़े रहते
छांव में पड़ी होती पुरानी साइकिल

हां यहीं तो था यह सबकुछ
कैसे स्मृति में रपाटे मारती हैं सारी चीज़ें
कहां गया यह सब

देखो भाई
यह खोड़ली सड़क
जब से यहां से निकली है
सबकुछ खा गई यह डाकिन
यह देखो अपने साथ
कैसा विकास का पहिया लेकर आयी
कुचल दिया सबकुछ

यह पेट्रोल पंप
वह चौपाल सागर
ये बड़ी-बड़ी मषीनों से भरी फैक्ट्रियां
बड़ा भयावह दृष्य है यह
बाज़ार और पूंजी के पंजों को देखो
अदृष्य हैं ये
इनके वार ने खोद दी है
ऐसी कई टापरियों की जड़ें
एक सागर में तब्दील होता जा रहा है
सारा मंजर
जिसमें डूबता जा रहा है सबकुछ



-बहादुर पटेल

रविवार, 14 नवंबर 2010

कृति हमेशा नयी होती है और कसौटियाँ पुरानी


यह लेखक और चित्रकार प्रभु जोशी द्वारा ज्ञान चतुर्वेदी के नया ज्ञानोदय में प्रकाशित व्यंग्य लेखों की ज्ञानपीठ से छप रही किताब का ब्लर्ब है.गाढ़ा और व्यंजक.आलोचनात्मक संकेतों तथा सूक्तियों से गुँथा ऐसा ब्लर्ब मैंने नहीं पढ़ा अब तक.ज्ञान जी का मैं नियमित पाठक हूँ.कह सकता हूँ कि प्रभु जोशी जी की कही हुई एक भी बात झूठ नहीं है.जिस त्रयी की बात उन्होंने कही है सचमुच उसकी सिद्धि ज्ञान जी में मौजूद है.कृति हमेशा नयी होती है और कसौटियाँ पुरानी तो अद्भुत बात है.जितना एकल उद्धृत हिस्सा है वह सब तो अलग अलग लेखों की मांग करता है.थोड़ा लिखा है बहुत समझना की टेक को कहना चाहता हूँ बहुत को थोड़े में सचमुच कह दिया गया है.मुझे नहीं पता कि समकालीन आलोचना के पास ज्ञान जी पर ऐसी सार्थक बात समझने का भी कोई अभ्यास है.यह मेरा आरोप नहीं सदिच्छा है.समकालीन आलोचना सचमुच विरोधाभासों के आभासी उजाले में आसक्तों के दाग धो रही है.मुझे इस बात की भी खुशी है कि यह ब्लर्ब हमेशा किताब के साथ-साथ रहेगा.-ब्लॉगर

इस उत्तर-औपनिवेशिक समय में, ‘बाज़ार के आशावाद‘ को बेचती पत्रकारिता के आग्रह पर, इन दिनों अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं के व्यंग्य-स्तम्भों में, जो कुछ भी ‘लिखा‘ जा रहा है, आलोचनात्मक-विवेक से देखने पर, उसका ‘अधिकांश‘ मात्र एक ‘अभ्यस्त मसख़री का सतही उत्पाद‘ भर जान पड़ता है। ऐसे में कमोबेश उसके लिए ‘कृति‘ का दर्ज़ा हासिल करना, तो सर्वथा असंभव ही होगा। यदि, उसे ‘आलोचना की आँख‘ की थोड़ी-बहुत उदारता से भी खँखालने का उपक्रम करें, तो, हम पायेंगे कि उसे सिर्फ़ अपने पाठकों के मनोरंजन की टहल में जुटी पत्रकारिता के ख़ाते में ही दर्ज़ किया जा सकता है, जिसमें कभी-कभी और कहीं-कहीं, ‘साहित्यिक-संस्कार की छायाओं का मिथ्याभास‘ होता रहता है। अधिक-से-अधिक हम, उसे ऐसा प्रीतिकर और ‘पठनीय-वाग्जाल‘ भर कह सकते हैं, जिसमें ‘भाषा का मनोरंजनमुखी‘ मंसूबा ही, उसका आखि़री प्रतिपाद्य है। बस.... इसे ही अपनी सबसे बड़ी अर्हता मानने की वजह से, वह सारा का सारा ‘लिखा जा रहा‘, सृजन का वरेण्य पुरुषार्थ प्राप्त नहीं कर पा रहा है।

जबकि, ज्ञान चतुर्वेदी ने कमोबेश, एक दशक से भी अधिक के, अपने स्तंभ-लेखन में समझ, सामर्थ्य और शिल्प की ऐसी ‘त्रयी‘ गढ़ ली है, जिसके चलते उसने व्यंग्य-लेखन की एक अत्यन्त परिष्कृत-प्रविधि को अपना आश्रय बना लिया है। यही वह रचनात्मक युक्ति है, जिसके कारण रचना अपने आभ्यन्तर में, एक वृहद् ‘गल्प-संभावना‘ के विस्तृत मानचित्र को गढ़ने में उत्तीर्ण हो जाती है। प्रकारान्तर से कहूँ कि ज्ञान, ‘अधिकतम लोगों से अधिकतम तादात्म्य‘ बनाने में ही अपने सृजन की अन्तर्व्याप्ति देखता हैं। कदाचित्, इसी को वह अपनी पहली और अंतिम प्राथमिकता भी मानता हैं, जिसके कारण वह ‘भाषा से भाषा‘ में पैदा होने वाले अनुभवों का मायावी स्थापत्य नहीं गढ़ता, बल्कि, इरादतन किफ़ायत के साथ, यथार्थ के पार्श्व में खड़े ‘विसंगत यथार्थ का व्यंग्यात्मकता के माध्यम‘ से विखण्डन करता हैं।

कहने की ज़रूरत नहीं कि ज्ञान का लिखा हुआ आलोचना के आपात-कक्ष की प्राणवायु पर साँस लेता लेखन नहीं है, अलबत्ता इसके ठीक उलट कहा जाए कि वह जिन्दगी के हाट में भीड़ के बीच कंधे रगड़ कर, उम्मीद के लिए जगह बनाता, जन-जन को सम्बोधित सृजन है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उसमें एक ऐसी सम्वाद-क्षम ऊर्जा है, जो उसे अभिव्यक्ति की लड़ाई में पराजय से दूर रखती है। मुझे ज्ञान के व्यवसाय की चिकित्सीय-भाषा के रूपक का सहारा लेते हुए कहने दीजिए कि ज्ञान का इधर का सारा लेखन, जनतांत्रिकता की ड्रिप लगाकर लेटी रूग्ण-व्यवस्था के वक्ष में पलते नासूर की पहचान के लिए लगातार की जा रही मेमोग्राफी है।

ज़ाहिर है कि ज्ञान अपने लेखन में, राजनीतिक शब्दावलियों की कसौटियों से तय की गई प्रतिबद्धता से कतई लदा-फँदा नहीं है, अलबत्ता बहुत मानवीय समग्रता के साथ, पूरी कायनात को कुनबा मानकर चलते हुए, स्वप्न और दुःस्वप्न से भरी बेनींद रात में, अचानक उठ कर बैठ गये आदमी द्वारा, जख़्मी आँख से उस अँधेरे के पार देखने की ज़िद और जिहाद में मुब्तिला है, जहाँ मामूली जीवन जीते आदमी की उम्मीदें अकेली, आहत और लहू-लुहान है।

इसकी पुख़्ता तसदीक उसकी औपन्यासिक कृतियों से की जा सकती है। उसने अपनी अप्रतिम मेधा से ‘सर्वोत्कृष्ट और विपुलता’ के बीच वैमनस्य की धारणा को धराशायी किया है। ज्ञान के यहाँ ये एक-दूसरे में समाहित है। लगभग अन्तर्ग्रथित।

ज्ञान अपनी भाषा को सुविचारित तरीके से न तो मेटानिमिक बनाता है और ना ही कवियों की तरह मेटाफोरिक, बल्कि, इस सबसे अलग दुर्बोधता बनाम् कलात्मक महानता के विरूद्ध लगभग सभी तरह से विषयों को छूती हुई, उसकी एक किस्म की ऐसी भारहीन भाषा है, जो तितली की तरह उड़ती हुई फूल नहीं, उसकी खूबसूरती पर जाकर बैठती है और बाद बैठने के वह खु़द उसका हिस्सा लगने लगती है। यही वह मुश्किल है, कि उसकी भाषा को, उसके पात्र से बाहर निकालना यानी नसों और नब्जों सहित उसकी जीभ उखाड़ लेना है। यहाँ इस बिन्दु पर ख़ासतौर पर एकाग्र किया जाना चाहिए, कि, ज्ञान की तुलना न तो शरद जोशी से की जा सकती है और न ही हरिशंकर परसाई से। वह तो जीवन के निरबंक घसड़-फसड़ से रस-रस करती बस एक कलात्मक अन्तर्दृष्टि से प्राप्त की गई अभिव्यक्ति का अनुपम उदाहरण है।

मुझे ज्ञान को देखकर हमेशा लगता रहा है, जैसे वह ‘अपने ही आकाश के एकान्त‘ में अकेले और चुपचाप टिमटिमाते उस तारे की तरह है, जो आलोचना की आँख में, एक किरकिरी की तरह ‘अपनी‘ और ‘अपने होने’ की बार-बार याद दिलाता रहता है। उसके कान उधर हैं ही नहीं, जहाँ आलोचना अपने आसक्तों की अभ्यर्थनाओं में लगी हुई है और उनकी ऊँचे स्वर में गाये जाने वाले प्रशस्तिगानों के लिए कोई नया छंद गढ़ रही है। बहरहाल, इसे बस वक्त की विडम्बना ही कहें कि आलोचना की हमेशा से यह दिक्कत रही है कि वह अपने समय के सर्वोत्कृष्ट को समझने में हमेशा गफ़लत करती रही है।

अन्त में यही कि शायद, इतने वर्षों से लिखते हुए, ज्ञान ने यह जान लिया है कि कृति हमेशा नयी होती है और कसौटियाँ पुरानी। वे सूखे छिलके की तरह उतरती रहती हैं। इसीलिए, रचना में समग्रता को आत्मनिष्ठता के साथ नाथ कर, कल्पना के ज़रिये रचना-सत्य को खोजने के साथ ही उसे सामान्यजन के सोच के सम्भव मुहावरे में व्यक्त करने की अपनी एक प्रामाणिक-प्रविधि विकसित कर ली है और उसे इस पर पूरा भरोसा भी है। वह आलोचना के कृपासाध्यों की सूची से बाहर है और कृपांकों के सहारे उत्तीर्ण नहीं है, बल्कि लेखन की प्रवीणता उसकी अपनी आत्मसाध्य है।

वह साहित्य के इतिहास के फटे-पुराने मस्टर में अपना नाम दर्ज़ कराने के लिए होती आ रही धक्का-मुक्की से नितान्त दूर, वह वक्त की कोरी दीवार पर, जनता की जानकारी में बहुत परिश्रमसाध्य युक्ति के ज़रिये, व्यंग्य की कलम से, बहुत साफ और सुपाठ्य हर्फों में समकालीन-यथार्थ की एक मुकम्मल इबारत लिख रहा है। यह आकस्मिक नहीं कि उसके ‘रचे हुए‘ में व्याप्त लेखकीय ईमानदारी के चलते उसका लिखा हुआ, चाहे वह पत्र-पत्रिकाओं के साप्ताहिक स्तम्भों में हो या एक ‘औपन्यासिक आभ्यन्तर‘ में हो, निश्चय ही वह हिन्दी साहित्य के पाठकों की स्मृति का अविभाज्य हिस्सा बन कर हमेशा साँस लेता रहेगा और कदाचित् यही उसके लेखन की उत्तरजीविता का सर्वाधिक सशक्त और सार्वकालिक आधार भी होगा।

-प्रभु जोशी
4, संवाद नगर, इन्दौर

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

विनीत तिवारी की कविता:हमें पता है

विनीत तिवारी सामाजिक कार्यकर्ता,संस्कृतिकर्मी,कवि,अनुवादक और प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी हैं.अच्छे वक्ता,स्पष्ट विश्लेषक हैं.मार्क्सवादी दृष्टि के साथ खुशमिजाज़ और दोस्ताना स्वभाव रखते हैं.मैं उन्हें अच्छा वाचिक कथाकार भी मानता हूँ.अपने समय के किसी अच्छे तर्क या व्यक्तितव को यदि वे उद्धृत करने जा रहे हों तो बिल्कुल कथाकार जैसे निर्वाह में आ जाते हैं.रोचक शैली में विदग्धता के साथ किसी मामूली घटना को भी दृष्टांत बना देना उनकी बड़ी खासियत है.उन्हें देखकर मैंने जाना कि दिन रात का कोई भी पहर किसी विशेष काम के लिए नियत नहीं होता.काम करते हुए ये सिर्फ़ बीतते रहने के लिए होते हैं.मसलन शाम को जुलूस-धरने में जाना.आधी रात तक किसी सभा का संयोजन करना.किसी साथी को अस्पताल देखने जाना या रेलवे स्टेशन छोड़ना.रात में ही कोई पर्चा या कार्ड बनाना.फिर याद से कोई छूटा हुआ लेख या वक्तव्य पूरा करना यह सब करते हुए यदि सुबह सामान्य ही रहने की संभावना है तो तीन चार घंटे सो लेना उनका सामान्य रूटीन है.इसमें नहीं सोना और आठ दस घंटे की लगातार ड्राइविंग भी किसी क्षण जुड़ सकते हैं.मैंने उन्हें कविता लिखते,सुनाने की उत्सुकता और अपनी प्रशंसा की आकांक्षा में कभी नहीं देखा.सिर्फ़ निंदा के लिए किसी को याद करते हुए नहीं सुना.किसी तर्क में आकंठ डूबकर वाह वाह में चले जाने की श्रद्धा में नहीं देखा.विनीत तिवारी का संतुलन और तर्कक्षमता को इस अर्थ में देखा मैंने कि हर हाल में उनका एक पक्ष होगा.खुश करने के लिए सहमत या असहमत होनेवाले सहमति का सौजन्य और असहमति की विनम्रता विनीत तिवारी से सीख सकते हैं.उनके बारे में यह भी ज़रूर याद आ जाता है कि वे कम लिखते हैं ज्यादा करते हैं.

विनीत तिवारी की यह कविता मैंने कथाकार और अब बया के संपादक गौरीनाथ द्वारा संपादित हंस के विशेषांक में पढ़ी थी.तब से यह मुझे याद आती रहती है.विनीत तिवारी की एक और कविता है जिसे भुलाया नहीं जा सकता-जब हम चिड़िया की बात करते हैं.हमें पता है तथा जब हम चिड़िया की बात करते हैं ये दोनों कविताएँ यदि एक साथ पढ़ी जाएँ तो कवि के आयाम और ईमानदार कवि किसके लिए और कैसे कहता है बेहतर ढंग से समझे जा सकते है.मेरी नज़र में इस कविता की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह कवित्व और आलोचना दोनों की आत्मा अपने भीतर सम्हाले हुए है.यह कविता और आलोचना दोनो है.आप पूरी कविता पढ़ जाइए थोड़ी देर गुनिए फिर दोहराइए हमें पता है,देखिए हमको न बताइए.तब आप बिना हँसे नहीं रह सकेंगे.यह हँसी इस बात के लिए होगी कि कविता में जीवन के लिए क्या क्या किया गया.जीवन बचाए रखने वाले,समाज बदलने के दावे करनेवाले कवियों की एक बड़ी जमात झेंपती नज़र आएगी.मैं इसे अपनी समझ के अनुसार एक व्यंग्य कविता मानता हूँ.जो समाज जितना ही रचनाकार समाज के लिए है.
आपकी राय का मुझे इंतज़ार रहेगा.



हमें पता है

देखिए ,हमको न बताइए
कि एक हरी पत्ती बच गई
तो जीवन बचा है अब भी
जीवन के सबूत के लिए कई चीखें,
आँसू,सिसकियाँ,घाव,खून,गालियाँ वगैरह
काफ़ी चीज़ें हैं हमारे इर्द-गिर्द

जीवन का ही सबूत है
तानाशाह के होठों पर उभरी यह मुस्कान
जो सुबह बगीचे में खिलखिलाते फूलों और
सुंदर हरियाली दूब को देख आई है
अगर कविता से प्रेम अतिरिक्त सबूत है जीवन का
तो काफ़ी है सौम्यता में लिपटा
फूलों,पत्तियों,चित्रों,नृत्यों और कविताओं से
खासकर आपकी हरी पत्तीवाली कविता से
तानाशाह का प्रेम

हमें सुनाना बंद कीजिए आप
तितलियों,फूलों,रस,पराग
और जीवन की सुंदरता के लिए इनके मायने
कलियों को खिलता देख जो सम्मोहित हैं भद्रजन
पिछली क्यारी का पानी अभी तक लाल है
उनके हाथ धोने के बाद से
नाक पर रूमाल रखकर बतियाने वाले
इन लोगों की शक्लें हू-ब-हू वही हैं
जो कल रात ईराक में देखे गए थे
और उसके बाद सिर्फ़ मलबा और बारूद की गंध थी
परसों तो वे दिन में ही अफगानिस्तान में थे
जहाँ उन्होंने पिस्ता खाते हुए बयान दिया
कि हमें गुलमोहर,पलाश और बोगनबेलिया के साथ
लोकतंत्र भी बहुत पसंद है
हरी पत्तियो और खुशरंग फूलों के बीच
तरोताज़ा सांस लेकर
अपने भीतर भरकर कुछ बेहतरीन सिंफनियाँ
निकलना है उन्हें फिलिस्तीन,नेपाल
सीरिया,कोरिया,ईरान और,कई और ठिकानों पर

ऐसे में आप हमे बता रहे हैं कि
कविता ही बचाएगी दुनिया को
या बची रहेगी कविता तो बचा रहेगा जीवन
या प्रेम,या वग़ैरह-वग़ैरह
तो मुझे शक होता है
कि या तो आपकी मति मारी गई है
जिसे आप चाहें तो कोशिश करके दुरुस्त कर सकते हैं
या फिर आप उनकी तरफ़ के जासूस हैं
और एक दिन इन सब फूल,पत्तियों,तितलियों इत्यादि के बीच
आप न भी चाहें तो भी
पहचान लिए जाएँगे.

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

अँधियारे की बाढ़ में, चली दीप की नाव

धनतेरस के दिन बाज़ार नहीं जा पाया था.समय नहीं मिला.कुछ खरीदना भी नहीं था.सब्जियाँ बिना बनाए ही मुरझा रहीं थीं.बर्तन पहले से इतने हैं कि सबमें कैसे कैसे बनाया जाता है मुझे नहीं आता.यह अच्छा भी है.क्योंकि मुझे पक्का विश्वास है अगर अच्छा खाने अच्छा पहनने की लत लग जाए और सहारा अपना ही हो तो हो गई ज़िंदगी.

खैर,सुबह से लेकर दोपहर तक स्कूल के वार्षिक दिवस समारोह में रहे.कार्यक्रम अच्छा गया था.अपने को मिली ज़िम्मेदारी अच्छे से निभ गई थी.बच्चों ने अपनी मेहनत से खुश किया.इन्हीं सब की मिली जुली निश्चिंतता थी.सो मस्ती में आए और सो रहे.शाम को तरंग उठी तीन चार घंटे की कड़ी मेहनत की और एक सीधी सादी कविता लिख ली.फिर क्या था धनतेरस के बधाई संदेश आते रहे और हम बताते रहे कि हमने कविता लिखी है.दो तीन हिम्मतवालों को सुना भी डाली फोन पर ही.ले देकर पता चल गया कि ठीक-ठाक है.

आज दीवाली में भी घर से नहीं निकला हूँ.खाना बनाना पड़े इसलिए सुबह ही इडली खा ली.दो पैकेट बिस्कुट निपटा दिए.अमरूद खा चुका.राजपाल यादव की फिल्म कुश्ती देख डाली.नहाने के बाद झा़ड़ू लगाकर कचरा फेंकते हुए(दो दिन के जूठे बर्तन बाद में धोऊँगा) लौट ही रहा था सोचते कि अब क्या बचा है खाने को कि नीचे संगीत शिक्षक झा जी मिल गए.बोले शाम को खाना मत बनाइए.हमारे साथ खाइएगा.

मैं खुश हो गया.चैन से अपने लैपटाप के संग हो लिया.वरना इससे पहले तो जाने क्या क्या सोच रहा था.बड़ा आलसी हूँ.गोया टीवी देखना भी समाजवाद लाने की दिशा में एक कदम हो.मैं बुदबुदा रहा था मेरे सामने मेरे ही आलस्य और इच्छाओं का पहाड़ है.चढ़ चढ़कर लुढ़कता रहता हूँ.उस पार जलता दीया है.पहुँचे बिना ही उस तक सोचता रहता हूँ.उठा उठाकर लोगों की देहरी में रख दूँगा.

यह सब सोचते हुए ही फेसबुक की नाव पर सवार हो गया.समय की धार इससे बेहतर नहीं कटती किसी से.लगता ही नहीं कि समय काटा जा रहा है.वहीं आज दिखे ओम द्विवेदी.उनके कुछ दोहे.उन्हें पढ़ने के बाद बाक़ी पढ़ने दी गई लिंक पर आया.सारे के सारे पढ़ डाले.सच मानिए तबियत खुश हो गई.भीतर से आवाज़ आई अपनी दीवाली तो हो गई.इतना अच्छा लगा कि कुछ पूछिए मत.मन भर आया लगा कि ओम भाई को फ़ोन लगाऊँ.पर सोचा कुछ और करते हैं.संदीप को सुनाने की सोची तो खयाल आया बंदे ने क्या बिना पढ़े छोड़ा होगा अब तक.फिर लगा एसएमएस में दो दोहे लिखूँ और सब को दीवाली की शुभकामना बनाकर भेज दूँ.कुछ संतों,विद्वानों को भी जो प्यार कर करके उनसे दुश्मनी करते हैं.उन्हें छोटा-मोटा पत्रकार समझते हैं.खयाल आया यह बदमाशी समझ ली जाएगी.

कविता को फोन लगाया.वह सोने जा रही थी.मैने कहा अभी मत सोओ.वह बोली क्यों?मैंने कहा पहले दोहे सुनो.उसने कहा सुनाओ मैंने सुनाए.उसे बहुत पसंद आए.बोली ये तुम्हारे तो हैं नहीं.मैंने कहा ओम द्विवेदी के हैं.उसने कहा बहुत अच्छा लिखते हैं.कई बार बड़े कवियों की छुट्टी कर देते हैं.मैने कहा सही है.अब तुम सो जाओ मैं कुछ लिखना चाहता हूँ.वह कहती रह गई यह अच्छा है जगा जगाकर कविता सुनाओ. जब चाहे बोल दो अब सो जाओ.मैंने हँसते हुए फोन काट दिया और लिखने बैठ गया हूँ.लिखता रहूँगा जब तक कोई मनहूस फोन या दरवाजा नहीं खटखटा देगा.या मेरा ही आलसी मन नहीं उचट जाएगा.तो अब सीधे ओम द्विवेदी पर आते हैं.

ओम द्विवेदी कवि हैं,व्यंग्यकार हैं और पत्रकार हैं.सचमुच ओम द्विवेदी को कोई बहुत बुरी लगनेवाली बात कहनी हो तो बाक़ायदा भी लगाकर कह दीजिए कि ओम द्विवेदी रंगकर्मी भी हैं.अच्छे अभिनेता.निश्छल व्यक्ति.अभासी सौजन्य से भरे मित्रों में वास्तविक दोस्त.जो नाराज है तो प्यार से हर्गिज नहीं बोलेगा और खुश है तो दिल उड़ेल देगा.लड़ेगा तो हानि-लाभ सोचकर नाम नहीं छुपाएगा.आपके साथ खड़ा होगा तो धिक्कारने की भी हिम्मत रखेगा.छला जाएगा तो गली गली,रचनाओं में रोएगा नहीं.सबकुछ होते हुए जैसे जानबूझकर अपना क़द छोटा रखेगा.क्योंकि शायद उसे डर है अधिक महत्वाकांक्षा से गुलामी आती है.कृपा के वैभव में जीने से बेहतर है थोड़ी तंगी में जीना.मस्त और बेपरवाह.

एक बार मैने ओम भाई के घर से लौटते हुए कथाकार सत्यनारायण पटेल से पूछा था कि इस आदमी को आपने गौर से देखा.इतनी बात की कैसा है?सत्यनारायण पटेल जो हमेशा इस मुद्रा में रहते हैं कि प्रशंसा करना सबसे निकृष्ट कार्य है बोले-इस आदमी के भीतर आग है.यह कभी भूखा भी सोया होगा.इसने दुनिया देखी है वरना तो तुम्हारे रीवा में जी सर और मोनालिसा की मुस्कुराहट वाले बहुत हैं.जो देखे वही सोचे मेरे लिए मुस्कुरा रहा है.उन सबको ठेंगे पर रखता होगा जो रीवा में सफलता का ईनाम बाँटते हैं.इसीलिए असफल है.पर ठीक है यार सफलता से क्या उखड़ता है.अपना काम तो कर ही रहा है.

ओम द्विवेदी.आजकल नयी दुनिया इंदौर में सहायक संपादक हैं.मेरे मन में अभी बातों ,यादों,प्रसंगों का रेला रहा है.सबको सिलसिलेवार जमाने लायक सोच पाने का भी वक्त नहीं.इस सबको पोस्ट भी तो करना है.आकुलता में ज़रूरी छूटकर गौंण हो जाए इससे बेहतर है कम लिखना.मेरी रफ्तार बिल्कुल कम हो गई है.एक लाइन लिखने में कई कई लाइन मिटा रहा हूँ.अभी खयाल रहा है सबकुछ विस्तार से बाद में लिखूँ तो अधिक ठीक रहेगा.अभी दोहे आपसे बाँटू.

ये दोहे मैंने ओम द्विवेदी के ब्लॉग से छाँटे हैं.सारे पढ़ने के लिए आप इस लिंक मीठी मिर्ची पर जाएँ.ओम द्विवेदी संकोची हैं इसलिए यदि आप उन्हें बहुत अच्छे कवि के रूप में नहीं जानते तो आपकी ग़लती नहीं.ये दोहे पढ़िए और सोचिए कैसा कवि ऐसे दोहे लिख सकता है.मैं सिर्फ़ इतना कह रहा हूँ यह मेरे ब्लॉग की दीवाली पोस्ट है.


झालर, झूमर, दीप सब, सजकर हैं तैयार।
अँधकार के तख्त को, पलटेंगे इस बार॥

अँधियारे की बाढ़ में, चली दीप की नाव।
घर-घर पहुँची रोशनी, रोशन सारा गाँव॥

बंद आँख में रात है, खुली आँख में भोर।
पलकें बनकर पालकी, लेकर चलीं अँजोर॥

लक्ष्मी, दीप, प्रसाद सब, बेच रहा बाजार।
जिसकी मोटी जेब है, उसका है त्योहार॥

मावस ने है रच दिया, यह कैसा षडयंत्र।
कहे रोशनी ठीक है, अँधियारे का तंत्र॥

सूरज ने जबसे किया, जुगुनू के संग घात।
लाद रोशनी पीठ पर, घूमे सारी रात॥

पसरी है संसार पर, जब-जब काली रात।
एक दीप ने ही उसे, बतला दी औकात॥

सोता है संसार जब, बेफिक्री की नींद।
रात पालती कोख में, सूरज की उम्मीद॥

नहीं चलेगा यहाँ पर, अँधियारे का दाँव।
पोर-पोर में रोशनी, यह सूरज का गाँव॥

उँजियारे का है बहुत, मिला-जुला इतिहास।
कुछ आँखों के पास है, कुछ सूरज के पास॥

अँधकार के राज में, दीपक की हुंकार।
तुझसे लड़ने के लिए, आऊँगा हर बार॥

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

साहित्यिक संवेदना का राजनीतिक सन्निपात



एक लेखक के ’साहित्यिक संस्कार’, जिस तरह ’संवेदना को केन्द्र में रखकर रचना का प्रतिपाद्य गढ़ते हैं, उसमें वह देखे गये सामाजिक सत्य की ’वस्तुगतता’ को पार्श्व में रखकर अपने द्वारा रचे गये सच का ऐसा प्रतिरूप खड़ा करता है कि वह अपनी सम्पूर्णता में सर्वग्राह्य और प्रामाणिक जान पड़े। वहां उसके लिखे हुए में ’संवेदना का आवरण’, कवच की तरह काम करता है, और नतीजतन पाठक को लगता ही नहीं कि उसका वस्तुगत सत्य उससे कभी का बाहर हो चुका है।

कहने की जरूरत नहीं कि ’भाषा से भाषा में’ पैदा होने वाले अनुभवों के सहारे, सचाई के साथ फ्लर्ट करने में माहिर, अंग्रेजी लेखिका अरून्धती राय पिछले एक लम्बे अरसे से लगातार एक अराजनीतिक से जान पड़ने वाले मानववाद का लोक लुभावन मुखौटा लगाकर, कश्मीर समस्या पर अपने लिखे हुए से ’सत्यों को संवेदना के सहारे’ बुहारकर बाहर कर रही है। यह निश्चय ही एक लेखक की अभ्यस्त चतुराई है, जिसे बिला शक ’बौद्धिक-चालाकी’ के रूप में ही चिन्हित किया जाना चाहिए। जबकि, इस संदर्भ में हमारा टीआरपी-पीड़ित इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मोहाविष्ट-सा, जब-तब उनमें सुरखाब के पर लगाता चला आ रहा है।

याद करिये, बड़े बांधों के विरूद्ध बरसों से गांवों की गलियों और पगडंडियों पर धूल-धक्कड़ के बीच, धरम-धक्के खाती रहने वाली मेधा पाटकर, मीडिया के लिए अब मात्र एक ’बाइट’ बनकर रह गईं, जब अरून्धती राय ने इस परिसर में प्रवेश किया। अलबत्ता, कहना चाहिए कि ’नर्मदा बचाओ आंदोलन’ में प्रवेश करते ही वह ’बाइट’ नहीं, पूरा का पूरा ‘चंक‘ और ‘श्रेय‘ लूट ले गयीं हैं। प्रिण्ट मीडिया की हालत तो ये थी कि वहां मेधा की हैसियत अरून्धती के बरअक्स ’सिंगल कॉलम’ की रह गई थी। अखबारों ने अरून्धती के इतने-इतने बड़े छायाचित्र छापे, जितने कि भारतीय भाषा के किसी शीर्ष लेखक के छायाचित्र तो उसकी मृत्यु पर भी नहीं छपते।

पिछले दिनों कश्मीर के भूगोल की तफरीह से लौटकर अरून्धती ने अपने ’संवेदनात्मक-ज्ञान’ का भाषा में चतुर प्रविधि से ऐसा दोहन किया कि कश्मीर के अलगाववादी आंदोलन के कर्ता-धर्ता से कहीं ज्यादा चर्चा अरून्धती की होने लगी। उन्होंने जो और जैसा बोला, विगत में आतंकवाद के दौर में यदि वे पंजाब में भ्रमण कर रही होतीं, तो निश्चय ही खालिस्तान की मुक्ति की पटकथा की लेखक बन चुकी होतीं। क्योंकि, खालिस्तान बनाने का स्वप्न देखने वाले तमाम ’मरजीवड़े’ अपना सर्वस्व फूंकने पर तुले हुए थे। वे अपनी ही कौम की सत्ता की गोलियों के निशाने पर ठीक कश्मीरियों की तरह ही आ रहे थे।

दरअस्ल, यह अरून्धती के दुर्भाग्य की करूण कथा कही जाना चाहिए कि तब वे इतनी यशस्वी नहीं थीं और संयोग से यदि वे ऐसे ‘विखण्डनवादी‘ जुमले बोल रही होतीं तो उन्हें सुनकर पंजाब पुलिस का एक सामान्य दारोगा भी ‘भड़काऊ‘ वक्तव्यों के बिना पर हिरासत में लेने में सक्षम होता। लेकिन, बुकर-पुरस्कार (जिसकी घोषणा के पहले लंदन के पुस्तक प्रकाशन से जुड़े व्यवसायियों के बीच सट्टा लग जाता है) को प्राप्त करने के बाद, अंग्रेजों का गौरवगान करने वाली भारत सरकार के लिए अब अरून्धती एक ऐसी भयभीत करने वाली शख्सियत बन गई है कि उन्हें छूने का अर्थ ‘सत्ता का स्वाहा‘ हो जाना है। बन्दीगृह की बात तो सरकार के लिए आत्मध्वंस ही होगी। यह लगभग फ्रांस की सत्ता का-सा वह ‘चुना हुआ‘ भय है, जो सार्त्र की गिरफ्तारी के प्रश्न से तत्कालीन राष्ट्रपति द गाल को हुआ था। बहरहाल, भारत की ‘बुकर-धारिणी‘ अरून्धती राय, अब भारतीय पुरा-कथाओं की उस स्त्री-पात्र की मानिंद हो गई हैं, जिसने अपने तपोबल से ऐसी अलौकिक शक्ति अर्जित कर ली थी कि वह कुपित होने पर अपने श्राप से, सत्ता के सिंहासन को राख कर देती थी। वे अब उत्तर-आधुनिक युग की हाईली इन्फ्लेमेबल ऋषिकन्या हैं। वे ज्वालादेवी हैं। मीडिया भी उनके विवादग्रस्त कथनों में खोट देखने में अपनी ‘ज्ञानात्मक भीरूता‘ से भरा हिचकिचाता है। दरअस्ल, इस आर्यावर्त में बुद्धि के बलबूते पर जीवन-यापन करने वाली बिरादरी तो ऋषि एण्डरसन के उस आप्त-कथन से बेतरह डरी हुई है कि जो कहता है ‘राष्ट्र-राज्य तो एक काल्पनिक समुदाय है।‘

बहरहाल जो, निरा ‘काल्पनिक‘ है, उसके विरूद्ध की जाने वाली किसी भी बौद्धिक-अबौद्धिक किस्म की कार्यवाही की आलोचना करने के लिए आगे आना यानी ‘ज्ञान के क्षेत्र में लज्जास्पद‘ हो जाना है। ऐसे में एक काल्पनिक समुदाय के विखण्डन का बीजगणित तैयार करने वाली अरून्धती की आलोचना करने की हिमाकत भला कैसे की जा सकती है ? फिर चाहे उस काल्पनिक समुदाय के लिए दुनिया भर के राष्ट्रों के सत्ताधारी आर्थिक और सामाजिक योजनाओं के अरबों-खरबों के, बड़े-बड़े मानचित्र क्यों न बनाते रहें और सीमाओं के पार जाने के लिए पार-पत्र भी जारी करते रहें। यही वह स्थिति है, जब तर्कों की तूलिकाओं से एक साफ-साफ और राष्ट्र विरोधी कथन को ‘दार्शनिकता के आवरण‘ में रखकर ‘वेध्य‘ होने से बचा लिया जाता है। जबकि, हथियारों के जरिये राष्ट्र को क्षति पहुंचाई जाये, या कलम के द्वारा दोनों ही कार्यवाहियां, अपने मंसूबों में एक ही काम करती हैं। दोनों में फर्क करना और बताना, बौद्धिक-धूर्तता ही होगी। अरून्धती के मामले में यही अमोघ युक्ति काम कर रही है। चतुराई का यही वह ‘एब्स्ट्रैक्ट‘ और ‘कंक्रीट‘ है।

अब राष्ट्र-राज्य की अवधारणाओं के विमर्श से नीचे उतर कर जरा मीडिया महर्षि फ्रेडरिक जेमेसन के आप्त-कथन की ओर अग्रसर होते हैं। वे कहते हैं, ‘जनता एक काल्पनिक समुदाय है, जबकि असल में आबादी केवल जनसमूहों में ही होती है।‘ जनता शब्द अमूर्तन की तरफ ले जाता है। इसलिए संवाद और संचार के क्षेत्र में उसकी कोई अर्थवत्ता नहीं है। तो क्या यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि अरून्धती जो बात कर रही हैं, वह ‘जनता‘ नहीं मात्र ‘समूहों‘ की बात कर रही हैं। और वे समूह ‘अलगाववाद‘ की धधकती आग में अर्से से आपादमस्तक तपते आ रहे हैं। वे अपनी ही लगाई लाय में झुलसते हुए, उन समूहों की हताशा और निराशा को संवेदना के सहारे प्रश्न का रूप देते हुए, भारत के विखण्डन की एक सुविचारित ‘सिद्धान्तिकी‘ गढ़ रही हैं कि भूखे-नंगे हिन्दुस्तान से कश्मीर को आजादी की दरकार है। यह चिंतन उन नारों का ही अन्वय है, जिन्हें कश्मीर के अलगाववादी समूह रात में दीवारों पर लिख देते थे-‘भूखा-नंगा हिन्दुस्तान, जान से प्यारा पाकिस्तान।‘

कहने की जरूरत नहीं कि पिछले वर्षों में पाकिस्तान की ‘जमात-ए-इस्लामी‘ तथा ‘आई.एस.आई.‘ द्वारा कश्मीर की युवा और राजनीतिक भटकाव से भरी पीढ़ी के खून में, मजहबी कट्टरवाद का जहर डाल कर, उन्हें जंगखोर बना दिया जा चुका है, जिसके चलते हथियार उनके हाथों के खिलौने बन चुके हैं। और अरून्धती जंग के जोश और जुनून में झोंक दी गई इस बर्बाद पीढ़ी की पीड़ा और प्रश्नों को, करूणा से डबडबाती भाषा के आवरण में रख कर, निहायत निरूद्वेगी मुद्रा में ‘तथ्य-कथन‘ की तरह प्रस्तुत करने का छद्म रच रही है। या फिर यह एक महज साहित्यिक संवेदना का राजनीतिक सन्निपात है ?

उनके तमाम वक्तव्य मानववाद के पक्ष में ‘सारगर्भित लगने वाली वाचालता‘ का साहित्यिक संस्करण भर है। वे अपने लिखने और बोलने में कश्मीर की बिगड़ती हालत की तटस्थ सूचना नहीं दे रही है, बल्कि जंगखोर दहशतगर्दों की वकालत कर रही है। वहां छिद्रित सीमा से इस पार घुसपैठ कर आई, पाकिस्तान के आतंकवादी शिविरों की एक पूरी दीक्षित-प्रशिक्षित फौज है, जिन्हें अरून्धती अपनी भाषिक-युक्तियों से ‘जिहादी‘ के बजाय भोली और मासूम पीढ़ी बता रही है तथा उनके अनुसार विश्व की सबसे निर्दयी सैन्यशक्ति की गोलियों से भूनी जा रही है। मैं माओवादियों को देशद्रोही नहीं मानता, बल्कि उन्हें विचारधारा के द्वारा पैदा किये जा रहे ‘क्रिएटिव-क्रिमिनल्स‘ कहना चाहूंगा। लेकिन कश्मीर में मजहबी कट्टरपन से कुच्चम-कूच भर दिये गये विध्वंसकारी युवकों के ऐसे हिंस्र समूह हैं, जिन्होंने भारत के खिलाफ एक असमाप्त जंग छेड़ रखी है। ऐसे में अरून्धती तथा उनकी समझ के अनुयायियों के विरोध के कारण ‘सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून‘ में जरा भी हेरफेर करना अथवा सेना का कश्मीर से हटा लिया जाना, बेशक भारत सरकार की भयंकर भूल होगी। वैसे कश्मीर में आरंभ से ही गलतियों पर गलतियां किये जाते रहने का इतिहास रहा आया है। हो सकता है ऐसा करते हुए हम एक आखिरी और महाभूल करना चाहते हों।

बहरहाल, अब फिर उस मूल-प्रश्न की तरफ आया जाये कि माना कि अरून्धती इस नंगे-भूखे भारत में गोरांग प्रभुओं की भाषा की महानतम लेखिका है और अद्भुत स्वप्नदर्शी भी हैं, तो क्या वे अपने मन, वचन और कर्म से किसी ऐसे भावी राष्ट्र-राज्य के निर्माण में अपनी बौद्धिक ऊर्जा से स्वयं को झोंकने पर तुल गई हैं, जो घृणास्पद भारत देश से कहीं ज्यादा समृद्ध सम्पन्न और शांतिप्रिय देश होगा ? बड़े जनतांत्रिक आदर्शों वाला होगा ? क्या वह वर्ग, जाति और सम्प्रदायरहित होगा ? क्या वे ऐसे आदर्श राष्ट्र-राज्य के लिए नींव का पत्थर डाल रही है ? क्या उन पत्थरों पर ही उनकी इच्छा के हिसाब से सामाजिक, आर्थिक और भू-राजनीतिक घोर वैषम्य से भरे इस भारत के विखण्डन का नारियल फूटेगा ? वे अपने तर्कों की तिक्त तूलिका से जिस ‘भावी नवस्वतंत्र राष्ट्र का मानचित्र‘ रचने की धधकती रचना में ‘अग्निस्नान‘ कर रही हैं, क्या वहां इस भूखे नंगे भारत की तुलना में ज्यादा गैर-बराबरी बरामद होगी ? क्या वह दक्षिण एशिया में स्थायी शांति का गारंटी देने वाला महान राष्ट्र-राज्य होगा?

मेरे खयाल से मोराजी भाई देसाई के प्रधानमंत्री बनने की उम्र को छूने वाले, पाकिस्तान की ‘जमाते-ए-इस्लामी‘ से अपना रक्त-सम्बन्ध बनाये रखने वाले सैयद अली शाह गिलानी, जिनके साथ वे देश की राजधानी में मंच साझा कर रही थी, जब वे ‘राष्ट्रपिता‘ बनेंगे, तो क्या वे इस ‘भारत-पुत्री‘ के लिए उनके पास कोई मुकम्मल जगह होगी ? इनकी कल्पना का भावी कश्मीर जो कि निश्चय ही एक इस्लामिक राष्ट्र होगा और बेशक वहां भारत जैसी साम्प्रदायिक समस्या नहीं होगी, क्योंकि ‘जिसे कश्मीर में रहना है, उसे अल्लाह-ओ-अकबर कहना है।‘ इसलिए वह पूर्णतः वह मुस्लिम राष्ट्र ही होगा, जहां गैर-मुस्लिम आबादी होगी ही नहीं। और अभी तक का इतिहास तो हमें यही बताता आ रहा है कि इस विश्व के तमाम इस्लामिक राष्ट्र, ‘जनतंत्र‘ को बर्दाश्त ही नहीं कर पाते। पाकिस्तान जनतांत्रिक होने के दावे जरूर करता रहता है, लेकिन जनतंत्र को वह केंचुल की तरह उतार कर कभी का फेंक चुका है। उसके पास भी वही तानाशाही की फुंफकार है। इसलिए इनमें से किसी भी मुल्क में अभिव्यक्ति की आजादी की ऐसी बीन नहीं बजती, जैसी अरून्धती बिना डरे, ‘भर-मुंह सांस‘ से राग ‘देस-तोड़ी‘ बजा रही है।

अंत में कहना यही है कि अब अरून्धती की समझ और सोच की आरती उतारना बंद की जाना चाहिए। क्योंकि उनके मंतव्य बहुत खुल कर सामने आ चुके हैं कि वे क्या चाहती है? वे इतनी विराट नहीं है कि उनका कद देश से भी ऊंचा दिखने लगे। वे भारतीय भविष्य के संदर्भ में ‘गॉडेस ऑव स्माल थिंकिंग‘ है। वे इतिहास की ऐसी ‘रतौंध‘ की शिकार है, जिसकी वजह से उन्हें कश्मीर भारत के अभिन्न अंग की तरह दिखाई देना कभी का बंद हो चुका है। यह पूरी तरह इरादतन है और वे अपरोक्ष रूप से किन्हीं दूसरी शक्तियों के इरादों को सींचने के धत्करम में लगी जान पड़ती है। उन्हें भारत के विखण्डन के लिए ‘बीजगणित‘ तैयार करना है। वे अंध राजनीति के लिए ‘पैराडाइज लास्ट‘ का रफ ड्राफ्ट लिख रही हैं।

उन्हें कौन याद दिलाये कि फॉकलैण्ड के युद्ध के समय बीबीसी ने मार्गरेट थैचर की कार्यवाही की आलोचना में किसी का भी एक शब्द प्रसारित नहीं किया, जबकि वह तो सचाई और अभिव्यक्ति की आजादी को समर्पित होने का सबसे बढ़-चढ़कर दावा करता है। क्या ऐसी महान हस्ती को यह भी याद दिलाने की जरूरत है कि फॉकलैण्ड ब्रिटेन से ढाई हजार किलोमीटर दूर है और हमारे कश्मीर को ‘उत्तरी पाकिस्तान‘ बोलने-बताने वाला ब्रिटेन, वहां साढ़े सात सौ साल से लड़ रहा है, जबकि कश्मीर हमारे मानचित्र की गरदन की रक्तवाहिनी है। अभी तक हम वहां सिर्फ ‘रक्षात्मक-मुद्रा‘ में लड़ते रहे हैं, जबकि डॉ. फारूख भारत की संसद में भारत-सरकार से दहाड़ कर पूछते रहे हैं कि पाक अधिकृत कश्मीर आखिर हम कब लेंगे? क्योंकि यही वाजिब वक्त है, जब पाकिस्तान अपनी ही नीतियों से खुद को कमजोर बना चुका है।

क्या अरून्धती को यह दिखाई नहीं देता, कि पिछले कुछ वर्षों से कश्मीर को मुस्लिम बहुलता को सौ प्रतिशत बनाने की अदम्य इच्छा में अलगाववादियों द्वारा हिंसक कार्यवाही लगातार तेजी से बढ़ती गई और कश्मीरी पंडितों को खदेड़ कर बाहर करने के बाद उन्होंने साठ हजार सिक्खों को भी कश्मीर खाली करने की धमकी दे रखी है। कहने की जरूरत नहीं कि कश्मीर अब देश के भूगोल में राज्य नहीं, बल्कि पूरी तरह ‘इस्लामिक इथनोस्केप‘ बना दिया जा चुका है, जिसमें सीमा पार से उन शिविरों से पूर्णतः प्रशिक्षित आतंकवादियों के जत्थों के जत्थों को घुसपैठ द्वारा कश्मीर में भेजा जा रहा है, जिन्हें पाकिस्तान की आय.एस.एस. चला रही है। कश्मीर की तबाही में उनकी बहुत अहम् भूमिका है।

हमें यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि कश्मीर एक ऐसा सीमावर्ती राज्य है, जो संवेदनशील नहीं, अलबत्ता भयानक विस्फोटक स्थिति में है। रक्षा विशेषज्ञों की दृष्टि में तो इतनी चिंताजनक स्थिति पर पहुंच चुका है कि यदि वहां से सेना हटा ली जाये, तो मात्र पन्द्रह दिनों में भारत से कश्मीर अलग हो जायेगा। ऐसे समय में कश्मीर के बारे में अरून्धती के चिनगारी भड़काने वाले बयान देशघाती ही कहे जाने चाहिए। क्योंकि ऐसे बयान कश्मीरियों में विखण्डन के उन्माद में अनियंत्रित उफान पैदा करने वाले हैं। क्या हमारा ‘भीरू‘ राष्ट्र-राज्य अरून्धती के आशयों की अनसुनी करते हुए उसे मात्र अभिव्यक्ति की आजादी का मसला मानकर गूँगी बनी रही सकती है ? या कि अपनी कूटनीतिक समझ से इसे खतरनाक मानती है ? और इसके भावी परिणामों पर बहुत वस्तुगत ढंग से विचार कर रही है। दरअस्ल, यह एक बड़ी प्रश्नभूमि है, जहां खड़ा रह कर भारत का बहुत सामान्य नागरिक भी सरकार की तरफ कान लगाकर खड़ा है कि वहां से कोई उत्तर आने वाला भी है कि वे अभी राष्ट्रमंडलीय खेल राग में ही डूबे हुए हैं और झूम-झूम कर एक दूसरा कीर्तन करने में ही लगे रहेंगे ?


प्रभु जोशी
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