एनडीटीवी के कार्यक्रम 'हम लोग' में नासिरा शर्मा को उनके उपन्यास पर मिले साहित्य अकादमी सम्मान के उपलक्ष्य में; मृदुला गर्ग, अल्पना मिश्र और संजीव कुमार को सुनने का मौक़ा मिला।
नासिरा जी अंत तक सबसे संतुलित लगीं। मृदुला जी का तंज तार्किकता के अभाव में निष्प्रभावी लगा। उन्होंने बोलते बोलते मन्नू भंडारी के उपन्यास 'महाभोज' के बारे में बोल दिया इसमें कुछ नहीं। यह सामान्य राय नहीं बल्कि अपनी पसंद नापसंद के अतिरेक में किसी कृति को भी ख़ारिज कर देना है।
यदि, यही दूसरे अन्य सन्दर्भ में कर रहे हों तो फिर शिकायत कैसी? प्रायोजित और गन्दी साहित्यिक राजनीति किस तरह?
मुझे इस बात से बड़ी निराशा हुई कि मृदुला जी की यदि अशोक वाजपेयी से असहमति हो भी तब भी सम्मान वापसी के पूरे दौर को, इससे जुड़े सभी महत्वपूर्ण लेखकों को जो गैर हिंदी भाषी भी रहे; इस तरह ख़ारिज कैसे कर सकती हैं?
एम एम कलबुर्गी की नृशंस हत्या के बाद साहित्य अकादमी की उदासीनता और सरकारी अनुगामिता से व्यथित होकर सम्मान लौटाने से शुरू हुए व्यापक प्रतिरोध और बहस को उन्होंने लेखकों की परस्पर असहिष्णुता या गुटबाज़ी में ग़र्क़ कर दिया।
ऐसे अवसरों पर यह जानना काफ़ी तकलीफदेह होता है कि हमारे उम्रदराज़, सफल लेखक भी विचारहीनता की रचनात्मक स्वायत्तता के लिए कैसे बौना, आत्मकेंद्रित होना स्वीकार कर लेते हैं!!!
मृदुला जी यदि काशीनाथ सिंह से सहमति रखती ही हैं, उन्हीं के शब्दों में वे अकादमी की जूरी में रहते उनकी वकालत भी कर चुकी हैं तब क्या उन्हें यह याद कर लेना सचमुच कठिन था कि काशीनाथ सिंह जी भी सम्मान वापस कर चुके हैं? नामवर जी से नासिरा शर्मा जी को भी आपत्ति है माना लेकिन काशीनाथ सिंह से किसी को क्या नाराज़गी हो सकती है? वे तो लेखन में भी आज तक शिथिल नहीं हुए हैं बल्कि कठोर नियमित रचनात्मक और नयी ज़मीन तोड़नेवाले हैं।
बात यदि महिला लेखन या दलित लेखन या अल्पसंख्यक लेखन तक सीमित नहीं रहकर लेखकीय गरिमा की बहाली की ही हो रही हो तब मृदुला जी जैसे कथित तटस्थ वक्तव्य और उलझा ही देते हैं।
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