‘किताबों का भविष्य’ विषय पर शहर में चल
रहे दो दिवसीय अखिल भारतीय परिसंवाद के पहले दिन की रिपोर्ट संपादित करते
हुए मेरी नज़र एक वक्तव्य पर ठहर गयी। मैं जानी शैली में लंबा कथन पढ़कर और वक्ता
का नाम देख सन्न रह गया! पत्रकार ने लिखा था नयी पीढ़ी के चर्चित साहित्यकार सुबोध कुमार ने अपने
आधार वक्तव्य में कहा-
किताबों का भविष्य
कैसा होगा?
एक ओर लेखन की सार्वभौम ज़रूरत दूसरी तरफ़ बड़े-बड़े प्रकाशन, लेखक संगठन, हिंदी
सम्मेलन, अकादमियाँ, पीठ, परिषद, संस्थान, किताबों की सरकारी खरीद और
पुस्तकों को लोगों के बीच ले जाने की निगरानी एवं जवाबदेही रहित सरकारी योजनाएँ! इन योजनाओं का
केवल व्यक्तिगत लाभ उठाते बुद्धिजीवी। हालात बदतर होते जा रहे हैं। सभी महानगरों समेत
देश के किसी भी शहर में चले जायें किताब की दुकान, पुस्तकालय खोजने से मिलते हैं।
समाज में तेज़ी से पढ़ने का चलन कम हो रहा है। पाठकों तक किताबें पहुँचानेवाले
बेहद स्वार्थी! इन सबके बीच ख़बरें यह कि प्रकाशन उद्योग बढ़ रहा है, पत्रिकाएँ ज़ोर
शोर से निकल रही हैं। किताबें छपकर आ रही हैं। जलसों में विमोचित हो रही हैं।
यक़ीन नहीं होता यह सच है। साथियो, इतना तो साफ़ है कि प्रकाशन व्यवसाय है और आज घाटे
में इसे कोई नहीं चलायेगा। तब किताबें कहाँ जा रही हैं? किताबों का मुनाफ़ा
कहाँ से आ रहा है? सोचिए तो परते उघड़ने लगती है। यह साज़िश है या
भ्रष्टाचार? इसे ठीक-ठीक समझा जाना चाहिए।
यह तो वही है। मैं क्षोभ से विचलित हो गया।
परिसंवाद कवर करने गये पत्रकार को बुलाता हूँ। वह हड़बड़ाया हुआ सामने खड़ा है। ‘तुम इस कार्यक्रम
में गये थे?’ ‘जी सर, आपके सामने
ही तो मुझे भेजा जाना तय हुआ था।’ ‘यह सुबोध कुमार सचमुच ऐसा बोला था?’ ‘जी, बोला तो कुछ खास नहीं
था। मुझे उनका लिखित वक्तव्य मिला था। रिपोर्ट में मैंने उसी का उपयोग किया है।‘ ‘साला, किताबों का
उद्धारक बन गया, बेईमान कहीं का। उठाओ यह रिपोर्ट और फाड़कर उस कूड़ेदान में डाल
दो।‘ पत्रकार घबरा गया।
उसे मेरे ग़ुस्से की वजह समझने में मुश्किल हो रही थी। इसका क्या दोष! अगले ही पल मैं
सँभला। खुद पर क़ाबू पाते हुए मैंने कहा। ‘ठीक है जाइए आप। पर आगे से वही रिपोर्ट ले आयें जो
सुनें और देखें।‘ वह हतप्रभ कमरे से
बाहर चला गया।
मैंने तय कर लिया था कि यह रिपोर्ट नहीं छपेगी। अतीत का अनुभव पाँव में लंबे समय से बिंधे हुए
काँटे सा स्मृति में कसक उठा।
मेरा सुबोध कुमार से परिचय पुराना था।
उस दिन रास्ते में भेंट हुई। प्रसन्न दुआ
सलाम हुआ। वे जल्दी में थे। अपना दो पहिया वाहन स्टार्ट करते हुए उन्होंने मनुहार
की ‘मित्र, किसी रोज़
घर आओ तो फुर्सत से बैठेंगे।‘
लंबे समय तक मेरा उनके घर जाना नहीं हुआ।
फिर एक रोज़ गाँव लौटते हुए मैं उनके मोहल्ले से गुज़र रहा था तो इच्छा हुई चलो मिलते
चलें। पूछा तो नहीं था पर वक़्त देखकर उम्मीद लगायी थी कि घर में मिलेंगे। मेरा उन दिनों का
यही क्रम था। किसी के यहाँ जाना हो, किसी से भी मिलना हो तो बिना पूर्व सूचना के
सीधे पहुँचता था।
मैं सुबोध कुमार के घर पहुँचा। मेरे खुद
ही गेट खोल लेने की आवाज़ पर वे खिड़की से झाँककर आश्वस्त और खुश हुए हैं मैंने
देख लिया था। बड़ी स्नेहिल आवभगत की उन्होंने। भरपूर नाश्ते, मिठाई और चाय ने दिन
भर की मेरी भूख को काफ़ी हद तक शांत कर दिया। मीठी तसल्ली हुई। वे बात करते हुए,
पलँग में पालथी मारे गोद में रखे कुशन पर कुहनी टिकाये मुस्कुराते और हँसते रहे।
मैं उनकी आत्मीयता में सराबोर रहा। मेधा तो उनमें थी ही खनकदार आवाज़ और कहन का
सलीका भी रखते थे। उनकी मेधा एक दिन प्रतिभा बनेगी ऐसा मैंने उनके बारे में अनुमान
कर उनसे नज़दीकी बढ़ाई थी। उनका आत्मविश्वास, सक्रियता देखने लायक होते थे।
साहित्य से सिंसियर जुड़ाव। हालांकि थे स्थायी रूप से अध्यापन के पेशे में। उनके
द्वारा इसे अपने परिचय में कभी न बताने में मुझे शंका तो होती थी मगर लगाव के कारण
मैं इसे ज़ाहिर नहीं करता था।
हम दोनों में दुनिया भर की बातें हुईं।
शहर के साहित्यिक माहौल, चेलाई, चाटुकारिताओं से लेकर राष्ट्रीय साहित्यिक
गुटबाज़ियों, समझौते, पुरस्कार प्रबंधन, विश्वविद्यालयीन नियुक्तियों में
भ्रष्टाचार सब पर अद्यतन, विनोदपूर्ण और विदग्ध बातें। वे खुश थे कि मैं उनके घर
आया। मैं संतुष्ट था कि चलो आगे से यहाँ भी कभी जमकर बातें हो सकेंगी।
जब मुझे चलने की सुध आयी तो मैंने देखा
बाहर अँधेरा घिर रहा है। शहर के बाहर साइकिल चलाने में अब मुश्किल होगी। मेरी
परेशानी का अनुमान कर उन्होंने कहा ‘साइकिल यही खड़ी कर दो। टैक्सी से चले जाओ या रात
यहीं रुक जाओ।‘ उनके सुझाये दोनो
विकल्प मेरे लिए उपयुक्त नहीं थे। मुझे अगले दिन फिर शहर आना था। इसके लिए साईकिल
ही मेरा संबल थी। मैंने हड़बड़ी में झुककर अपने जूते बाँध रहा था। मुँह उठाकर बात
करने में मेरा शरीर लहरा जाता था।
लेकिन रौ थी कि मुझे उनसे इजाज़त लेने में
भी समय लगाना पड़ रहा था। बातों के सिरे निकल ही आ रहे थे। इसी बीच मैंने ग़ौर
किया कि वे मुझसे कुछ कहना चाह रहे हैं। मैं उस संकोच को भाँप रहा था। पर अभी
उपेक्षा ही मेरे काम की थी। आखिर उन्होंने साहस किया और बोले ‘तुम्हे देर तो हो
ही गयी है थोड़ी देर और सही एक छोटा सा काम है अगर रुक सको। सिर्फ़ काम समझने
के लिए। करना तुम बाद में ही।‘ मैंने कहा ‘अरे देर तो होती ही रहती है आप बताइए।‘ उन्होंने कहा ‘ज़रा बैठो फिर..कोई
बात नहीं जूते पहने रहो।‘ मैं बैठ गया। वे आहिस्ता आहिस्ता अंदर गये।
धीरे-धीरे लौटे।
पास आये तो उनके हाथ में किताबें थी। नयी
और अछूती। अभी-अभी छपकर आई सजिल्द किताबें। मैं उनकी सुगंध से भर उठा। ये वे दिन
थे जब किताबें मेरे सपने में आती थीं। कोई मनपसंद किताब पढ़ने के लिए लेने और
लौटाने में मैं पचीसों किलोमीटर साईकिल दौड़ाता था। मन ने कहा- बेटा आज क़िस्मत
मेहरबान है। वे उन्हें रखकर भीतर से और किताबें ले आये। मैं किताबों को उलट-पलटकर
देखने लगा। राजकमल, वाणी, राधाकृष्ण और नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित किताबें थीं।
भरोसेमंद प्रकाशन से प्रिय लेखकों की नयी किताबें। मेरे मुँह से अनायास वाह! निकल गया।
वे मेरे नज़दीक सोफ़े पर बैठ गये। अधिक
देर खड़े रहने में उन्हें तक़लीफ़ होती थी। मेरी जिज्ञासा बढ़ गयी थी। ‘इतनी किताबें कहाँ
से आयीं?’ वे बोले ‘तुम्हें पता नहीं
शायद। मैं यहाँ के रीडर्स क्लब का संयोजक हूँ। ये किताबें प्रदेश की अकादमी मुझे हर
महीने गोष्ठियाँ करने के लिए भेजती है। तुम मेरी सीमाएँ जानते हो यह काम मैं कर
नहीं पाता। कहीं आना-जाना मेरे लिए सरल नहीं। अपना घर इस सबकी सीमित अनुमति ही
देता है। वैसे भी अपने यहाँ पढ़ने, किताबों पर बहस करने वाले कहाँ हैं? शुरू में एक-दो गोष्ठी ठीक-ठाक
हुईं। बाद में प्रोफ़ेसर टाईप लोग बिना पढ़े ही बोलने चले आये। अध्यक्षता की,
विशिष्ट अतिथि बने कुल मिलाकर किताबों को ठेंगा दिखाकर चले गये। चाय नाश्ते में
खर्च करों और विद्वत जनों को बिना पढ़े ही किताबों पर बोलते सुनो मुझसे अधिक न चल
सका।‘ ‘तो आजकल?’ मेरा सवाल था। ‘पिछले कई साल से
मैं गोष्ठी की रपटें बनाकर भेज देता हूँ। लेकिन इस साल यह भी नहीं हो पाया। सप्ताह
भर पहले रिमाइंडर आया कि रपट भेंजें। अगर इसी सप्ताह रिपोर्ट नहीं गयी तो कुछ लोग
पीछे भी पड़े हैं मेरे। संयोजक पद से मुझे हटा दिया जायेगा। मैं हटना ही चाहता हूँ
पर ये जो साल में चौबीस किताबें मिल जाती हैं इनका मोह नहीं छूटता। मैं हटा तो किन्हीं
अपढ़ों के यहाँ पहुँचने लगेंगी। वहाँ इनका निरादर होगा यही सोचकर यह बेईमानी कर
रहा हूँ। एक बात और है जो तुम बेहतर समझ सकोगे अकादमी का संचालक एक घोर दक्षिणपंथी
अयोग्य व्यक्ति है। वह लोगों को चुन-चुनकर हटा रहा है।‘
मैं उनकी बेईमानी के पक्ष में इन तर्कों
को ध्यान से सुनते हुए भी अपनी निजी जल्दी और किताब मिलने की उम्मीद में कुछ नहीं
सोच पा रहा था। मैंने पूछा ‘आप मुझसे क्या चाहते हैं?’ वे बोले ‘तुम इन किताबों पर
गोष्ठी रपट बना दो। जितनी जल्दी हो सके। उपस्थित लोगों की
कल्पना तुम कर लोगे। कुछ में किसी को अध्यक्ष बना देना कुछ में किसी और को‘ मैंने किताबें छाँट ली थीं। ‘इन्हें ले जाता
हूँ। आप चिंता मत कीजिए। इनकी अलग-अलग रिपोर्ट मैं बना दूँगा। इसी बहाने ज़रा जल्दी
पढ़ लूँगा।‘ वे खुश हुए ‘मुझे तुमसे यही
उम्मीद थी। लेकिन मित्र, किताबें अभी न ले जाओ।‘ ‘क्यों?’ मैं चौंका। ‘कोई खास कारण नहीं
तुम इन्हें पढ़ने लग जाओगे तो काफ़ी देर हो जायेगी। अभी केवल ब्लर्ब पढ़ लो। तुम
इतने से ही रिपोर्ट बना लोगे। रिपोर्ट जब ले आना तो जितनी पसंद हैं सब किताबें ले
जाना।‘
मुझे यह शर्त शातिरपना लगी। अपनी क्षमता का यह
ऊँचा आकलन बुरा लगा। लेकिन मैं भी लोभ से भर गया था। और उन दिनों मेरी हैसियत भी
इस तरह के बेग़ार करते रहने से ज़्यादा नहीं थी। रपट कौन पढ़ता होगा। अखबारों में
श्रद्धांजली सभाओं में अनुपस्थित लोगों के बयान पढ़कर भी कोई आपत्ति नहीं आयी आज
तक तो किसी परिषद की पत्रिका में छपने वाली इन रिपोर्टों पर क्या होगा? किताबें तो इन्हें
देनी पड़ेंगी। चलो बाद में ही सही।
रिपोर्ट बना लेने के बाद मुझे तीन दिन तक उनके
घर जाने का समय नहीं मिला। चौथे दिन जब मैं गया तो साथ में झोला भी लेता गया था कि
किताबें ले आने में सुविधा होगी। मगर वे उस दिन घर पर नहीं थे। मैं बुझे मन से
सारी रपटें उनकी माता जी को देकर लौट आया। गयी मेहनत पानी में। मैं अवसाद से भरा
हुआ घर लौटा।
उन्होंने मुझे बेवक़ूफ़ बनाया यह मेरा
भ्रम साबित होता यदि वे बाद में हुई अनेक मुलाक़ात में से किसी एक में कहते कि चलो
घर और अपनी किताबें उठा लो। तुम आये नहीं दुबारा। लेकिन यह तो दूर की बात है मेरे
इशारों पर वे मुझसे नज़र चुराते और जानबूझकर विषय बदलते पेश आये। फिर भी मुझे उनसे
उम्मीद रही आयी क्योंकि मैं व्यक्तियों पर नुकसान उठाने की हद तक भरोसा करने का
आदी हूँ।
यह याद कर मुझे ग्लानि होती। मेरा
इस्तेमाल किया गया। सुबोध कुमार के बारे में सोचता हूँ तो बदले की भावना से भर
जाता हूँ। ठगना नहीं था उसे। लेकिन सब्र कर जाता हूँ। अगर मैं भी किसी बुरे में
भागीदार रहूँ तो केवल ईमानदारी के उबाल में किसी को ललकारना मुझे उचित प्रतीत नहीं
होता। दूसरे शब्दों में कहूँ तो आत्मा ही गवाही नहीं देती।
इस घटना को कई साल हो गये। सुबोध कुमार से
संपर्क तो टूटा ही पत्रकारीय आपाधापी और विस्थापन में अपना वह शहर छूट गया। मगर उसने
आज तक मुझे किताबें नहीं दी। मैंने बाद में जाना था कि मेरी बनायी रपटों का
पारिश्रमिक भी लिया था उसने। वह बिना गोष्ठियाँ किये रीडर्स क्लब का संयोजक बना रहा।
महज संबंधों के बल पर। उसके निजी पुस्तकालय में किताबें बढ़ती रहीं।
अब तक मैं सुबोध कुमार को भूला हुआ था
जैसे उससे कोई परिचय ही नहीं था। वह साहित्य में अपनी जगह बनाने में सक्रिय था और
मैं मज़बूर दिनों की छद्म रपटों के अभ्यास के बल पर कम से कम पत्रकार बनने में सफल
रहा। इन दिनों एक प्रतिष्ठित अखबार में वरिष्ठ संपादन सहयोगी हूँ। सुबोध कुमार तुम
याद भी आये तो उसी पुरानी शक्ल में। जिस पर वक़्त धोखे और अवसरवाद की परतें चढ़ाता
रहा। मगर इस बार तुम मुझे छल नहीं सकते।
मैं वर्तमान में लौटता हूँ। रात के दस बज
रहे हैं। शाम से उखड़ गये मन को मैं पृष्ठ हेतु अन्य प्रकाशन सामग्री में लगाने की
कोशिश करता हूँ। फ़ोन की घंटी बजी। मेरा हाथ रिसीवर पर गया। ‘हलो...s...s...’ उधर प्रधान संपादक
हैं। ‘वर्मा जी, एक
परिसंवाद की रिपोर्ट आपको मिल गयी होगी। उसे प्रमुखता से लगा दें। कार्यक्रम का आयोजक
हमारा मित्र है।‘
‘जी..जी..देखता हूँ..’ मेरे मुँह से निकलता है। कॉल डिसकनेक्ट होती है। मैं
सिर थामकर बैठ जाता हूँ।
-शशिभूषण
(बया जुलाई-सितंबर 2012 में प्रकाशित)
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