गुरुवार, 26 नवंबर 2009

रहना मां से दूर

जाने कितनी पुरानी बात है
मैं कहीं से आता था घर
तो साँकल से दरवाज़ा पीट पीटकर
ज़ोर ज़ोर से चिल्लाता था
अम्मा ओ..
काफ़ी देर बाद अम्मा दौड़ती हुई आती थी
उसके हाथों में हमेशा कोई अधूरा काम होता था
चेहरे में जल्दी नहीं सुन पाने का अपराधबोध
कभी कभी वह बिना वज़ह नही सुन पाती थी मेरी आवाज़
तो भागकर आते हुए रो पड़ती थी
सहमी होती थी दरवाज़ा खोलते हुए
जाने कितनी पुरानी बात बता रहा हूँ मैं
माँ को अब देखना सुनना दोनों कठिन हो गए हैं
वह कभी कभी बताती है सकुचाकर
उसे किसी किसी दिन मेरे पुकारने की आवाज़ सुनाई देती है
वह घुटकर रह जाती है
मैं अनसुनी करता हूँ उसकी यह बात
क्योंकि भावुक हो जाने में मुझे हल्कापन सा लगता है आजकल
पर एक दिन ऐसा हुआ जिसकी मुझे ख़ुद से उम्मीद नहीं थी
मैं शाम को ऑफ़िस से आया अपने सरकारी क्वार्टर
जैसे किसी ने धकेल दिया मुझे पुराने दिनों में
मैं ज़ोर ज़ोर से चिल्लाया कई बार
अम्मा ओ...
बाद में मैं पसीना पसीना था इस डर से
ऐसा सपने में नही किया मैंने
क्या होगा अगर पड़ोसियों ने सुन ली होगी मेरी पुकार
मैं घंटों बिसूरता रहा अकेले घर में
जाने कौन सा ऋण चुकाने मैं पैदा हुआ
रहता हूँ माँ से इतनी दूर....

5 टिप्‍पणियां:

  1. माँ के लिये सच्ची तडप और माँ के प्यार की सुगँध से सुन्दर बन पडी है रचना शुभकामनायें

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  2. ये हमारी साझी पीड़ा है शशि। हमारे लिए जो एक औपचारिक फोनकाल है वह मां के लिए संजीवनी है। क्या सचमुच तुम्हें भावुक होने से डर लगने लगा है। अगर ऐसा है तो यह ठीक नहीं

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  3. माँ -बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति!!

    भावुक कर दिया आपने!

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  4. मार्मिक सच्चे बयान सी कविता,पाठक को जो अनुभूत कराना चाहती थी उसमे सफल हुई ..दुःख है दर्द है विवशता है ..

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