बुधवार, 25 नवंबर 2009

कविता लिखने से नहीं आती

जिन्हें हमारे समय में अंत की घोषणाओं पर यक़ीन नहीं है वे भी इन घोषणाओं को पूरी तरह खारिज नहीं कर पाते.मेरा वास्ता कविता के अंत की घोषणा से पड़ता रहा है.मैं इस घोषणा के इंकार में ही ज़्यादा सोचता हूँ.मुझे नहीं लगता कि कविता का अंत हो सकता है.यह सबसे ज़्यादा बरती जानेवाली विधा है.मुझे कई बार तो लगता है कि कविता विधा नहीं जीवन स्थिति है.जब प्रकट होती है हम स्वीकार या अस्वीकार के आनंद से भर जाते हैं.जब कविता जीवन स्थिति का ही प्रतिरूप होती है तो लिखे हुए या कहे हुए रूप में यादगार हो जाती है.पर कविता अनलिखे रूप में ज़्यादा संप्रेषणीय होती है.किसी को कोई कविता याद हो तो सुने हुए का योगदान इसमें अधिक होगा.लिखना,हमेशा से गतिशील समाज में दस्तावेजीकरण का अंग रहा है.इसीलिए कवियों की भी लेखन पर निर्भरता रही.बाद में लेखकों ने ही खुद को कवि घोषित कर दिया.वाचिक और असल कवि पीछे छूट गए.
इसे आप मेरा अनुमान लगाना समझ सकते है.पर अनुमान करने में हर्ज़ ही क्या है.कविता के बारे में अनुमान और कल्पना के बगैर क्या बात होगी?लिखते हुए छूटते छूटते कितना कम बच पाता है यह लिखनेवाले बेहतर जानते हैं.आज अगर लोग कविता से विमुख हो रहे हैं तो इसका एक कारण यह भी है कि कविता लेखकीय हो गई.लेखकीय होते जाने से ही कविता में एकरूपता का दोष आया जो वास्तव में भावलोक की कठोरता है.लेखन में लाख खूबियाँ हों पर इसमें स्वत:स्फूर्तता का सबसे अधिक नुकसान होता है.हम जानते हैं स्वत:स्फूर्त वस्तु आसानी से प्रिय बन जाती है.यह मौलिकता का प्रस्थान बिंदु भी है.व्यक्ति एकरूपता खाने में भी बर्दाश्त नहीं करता.और आज लिखी हुई सारी कविताएँ क़रीब क़रीब एक सी होतीं हैं.शिल्प की जो थोड़ी बहुत निजता दिखती है वह असल में विचारों का अनोखापन है.
आप चाहें तो इस पर विचार कर सकते हैं कि अधिकांश कविताएँ एक सी क्यों लगती हैं?कविताओं से अगर कवि का नाम हटा दिया जाए तो शोधार्थी ही बता पाएँगे किसकी कविता है.मुझे लगता है यह कवियों का लेखक होते जाना है.लेकिन एक बात दिलचस्प है लेखक,कविता लिखना चाहते हैं और कवि लेखक हुए जा रहे हैं.कहानियों में चली आ रही कविता कवियों की ही देन है.
सब जानते हैं कि लिखी हुई बात में संवादधर्मिता लानी पड़ती है.क्योंकि लेखक इस वक़्त खुद के साथ होता है.अपने आप से कितना बोला जा सकता है. पर बोली हुई बातों में सबसे ज़्यादा संवाद ही होता है.तो क्या कविता संवाद है जिसे बोलने की बजाय लिखकर लोग नीरस,चुप्पा बना रहे हैं?या फिर अच्छा बोलनेवाले सब कवि हैं?क्या कविता बोली ही जानी चाहिए?इन प्रश्नों का जवाब देने से यह उदासी भली...लेकिन बोलनेवाले रहे कहां अब!..
यह संतोष की नहीं आत्मालोचन की बात है कि बोली हुई बातें ही आज भी श्रेष्ठ कविता की मिसाल हैं.कबीर पूरे वाचिक थे.पक्के कवि.सूरदास जब अंधे ही थे तो लिख क्या पाते होंगे.लेकिन सच्चे कवि.पाश,नाज़िम हिक़मत आदि की बातें ही गूँजती हैं चेतना में.धूमिल कह ही चुके हैं कविता पहले सार्थक वक्तव्य होती है.कुल मिलाकर बोलने का गुण अगर बात में आ जाए तो वह कविता हो जाती है.यहीं यह नाजुक बात भी समझ में आ सकती है कि बोली कभी एक सी नहीं होती.कविता में अगर बोली शामिल हो तो वह एकरूप,नीरस हो ही नहीं सकती.बड़े बड़े दावे करने की बजाय यह कोशिश हो कि कविता से एकरूपता विदा की जाए.लोग कविता पढ़ने लगेंगे.यहाँ यह कहने की भी ज़रूरत नहीं की आज भी सबसे ज़्यादा कविता ही लिखी जाती है.कवि लिखने में व्यस्त नहीं होते तो अपना देश बना डालते.जहां सुननेवालों,रहना चाहनेवालों का तांता लग जाता.
कविता में बोलने को लेकर इतना कहने के बाद अब लग रहा है एक अ-लेखक कवि की कविता गुनी जाए.यह कविता इसलिए भी कि इसे पूरा पढ़ पाने का अवसर कम ही मिलता है.इसे पढ़ते हुए मैं सोचा करता हूँ कबीर कैसे कहते होंगे इसे.उनकी भंगिमाएँ कैसी रहती होंगी तब.आवाज़ का उतार चढ़ाव मैं चाहकर भी कल्पना में सुन नहीं पाता.पर एक बात अवश्य अपनी आपसे बांट रहा हूँ कबीर हमेशा इसे कहते हुए ही मुझे सुनाई देते हैं.इस कविता के साथ ही कोष्ठक में हजारी प्रसाद द्विवेदी की शुरुआती व्याख्या(व्याख्या करने से ठीक पहले की ज़रूरी टिप्पणी) देते हुए बहुत खुशी हो रही है.अलग अलग समय में कहने और समझनेवाले क्या दो लोग हुए!...
हमन हैं इश्क मस्ताना,हमन को होशियारी क्या.
रहें आजाद या जग से,हमन दुनिया से यारी क्या.
जो बिछुड़े हैं पियारे से,भटकते दर-बदर फिरते.
हमारा यार है हम में,हमन को इंतज़ारी क्या.
खलक सब नाम अपने को,बहुत कर सिर पटकता है.
हमन गुरुनाम सांचा है,हमन दुनिया से यारी क्या.
न पल बिछुड़े पिया हमसे,न हम बिछुड़े पियारे से.
उन्हीं से नेह लागी है,हमन को बेकरारी क्या.
कबीरा इश्क का माता,दुई को दूर कर दिल से.
जो चलना राह नाजुक है,हमन सिर बोझ भारी क्या.

(वे सिर से पैर तक मस्त-मौला थे.मस्त-जो पुराने कृत्यों का हिसाब नहीं रखता,वर्तमान कर्मों को सर्वस्व नहीं समझता और भविष्य में सबकुछ झाड़ फटकार निकल जाता है.जो दुनियादार किए-कराए का लेखा-जोखा दुरुस्त रखता है,वह मस्त नहीं हो सकता.जो अतीत का चिट्ठा खोले रखता है वह भविष्य का क्रांतदर्शी नहीं बन सकता.....कबीर जैसे फक्कड़ को दुनिया की होशियारी से क्या वास्ता?).

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