कल महाराष्ट्र विधान सभा में हिंदी में शपथ लेने के लिए समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आज़मी पर एमएनएस के विधायकों ने हमला किया.उनके साथ मारपीट की.
ये ख़ुद को मराठी मानते हैं.जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हैं और महाराष्ट्र में हिंदी नहीं चाहते.हालांकि इन्हें अंग्रेज़ी से परहेज़ नही है.इन्हे किसी का डर है न लिहाज़.इनकी शिक्षा,लोकतांत्रिक संस्कार इन्हें यह कुकृत्य करने से रोक सकते थे लेकिन इन्होंने इस अनुशासन या किसी तरह की सहिष्णुता का गला घोट लिया है.
इस देश में जब हिंदू चरमपंथ बढ़कर विघटनकारी होता जा रहा है तब एक मुसलमान विधायक का हिंदी में शपथ लेने की ज़िद करना हमारी ताक़त बन सकता था.लेकिन उल्टे उन्हें अपमानित होना पड़ा.यह बेहद शर्मनाक है.
सवाल उठता है कि ये तथाकथित मराठी प्रेमी हिंदी क्यों नहीं चाहते ?जवाब वही पुराना है.धार्मिक उन्माद,क्षेत्रीयतावाद और भाषायी चरमपंथ ही इन्हें ले देकर सत्ता तक पहुँचा सकते हैं.इसके लिए ये कोई भी क़ीमत चाहे वह संविधान की हो या राष्ट्रीय अस्मिता की जेब में लेकर चलते हैं.
यह राजनीति में अचानक आ गई गुंडागर्दी नही है.लोकतांत्रिक तरीके से आए निरंकुश गुंडों की फैलती हुई राजनीति है.इतिहास में इस राजनीति ने बड़ी हत्याएँ की हैं.अनगिन सच्ची आवाज़ों को हमेशा के लिए कुचल दिया है.
सवाल ये भी है कि भारत में हिंदी कौन चाहते हैं? एक उदाहरण काफ़ी होगा.अपने देश में किसी भी शब्द के लिए संविधान संमत अठारह भाषाओं के कम से कम इतने ही शब्द होते हैं.उपभाषाओं तथा बोलियों को मिलाकर यह संख्या सौ के लगभग होगी.फिर क्या वजह है कि अंग्रज़ी का शब्द पहली जगह ले लेता है?प्रभु जोशी जैसे लेखक,चित्रकार जब हिन्दी के हिंग्लिश होते जाने,अखबारों आदि के इस षडयंत्र में शामिल होने को बार बार रेखांकित करते हैं तो सहमति के स्वर क्यों नहीं उठते? हिंदी शब्दों के विस्थापन के ख़िलाफ़ हमारी लड़ाई शांत क्यों पड़ गई?हिन्दी शब्दों का पुनर्वास हमारे हिंदी प्रेम में क्यों शामिल नहीं है?
मैं मानता हूँ दक्षिण भारत में खासकर तमिलनाडु में बिना संस्कृत की सहायता के हिंदी का व्यापक प्रसार असंभव है.समूचे देश में संस्कृत की क्या स्थिति है? अब तो यह पूछना भी दकियानूसी होना है.लेकिन यह तय है अगर संस्कृत नहीं रही तो दक्षिण में हिंदी भी नहीं बढ़ पाएगी.
तमिलनाडु में अगर कोई हिंदी बोल रहा है तो दो ही बातें हो सकती हैं वह या तो मुसलमान है या केंद्र सरकार का कर्मचारी.तमिल हिंदू हिंदी जानते भी हों तो बोलने से बचते हैं.आपको मजबूर करते हैं अंग्रेज़ी बोलने के लिए.यह कहने में कोई मिलावट नहीं है कि तमिलनाडु में हिंदी मुसलमानों की वज़ह से ज़िंदा है.जिन्हें हिंदी-उर्दू की लड़ाई का ज्ञान है,जिन्हें उर्दू मुसलमानों की भाषा लगती है उन्हें मुसलमानों के इस अवदान को अवश्य याद रखना चाहिए.
महाराष्ट्र विधान सभा में हिंदी बोल रहे विधायक पर हमले को कोई दूसरा स्वार्थी रंग दे दिया जाए इससे भी हमें लोगों को बचाना होगा.
यह कहने की ज़रूरत नहीं कि महाराष्ट्र में हिंदी नहीं रही तो कल महाराष्ट्र भी भारत में नहीं रह सकता..यह एक भारत विरोधी विघटनकारी प्रवृत्ति है जो सत्ता के लिए भाषा की भी आड़ लेती है.विधायकों के चार साल के निलंबन से आगे जाकर इसके सूत्रधारों को कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए.
ये ख़ुद को मराठी मानते हैं.जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हैं और महाराष्ट्र में हिंदी नहीं चाहते.हालांकि इन्हें अंग्रेज़ी से परहेज़ नही है.इन्हे किसी का डर है न लिहाज़.इनकी शिक्षा,लोकतांत्रिक संस्कार इन्हें यह कुकृत्य करने से रोक सकते थे लेकिन इन्होंने इस अनुशासन या किसी तरह की सहिष्णुता का गला घोट लिया है.
इस देश में जब हिंदू चरमपंथ बढ़कर विघटनकारी होता जा रहा है तब एक मुसलमान विधायक का हिंदी में शपथ लेने की ज़िद करना हमारी ताक़त बन सकता था.लेकिन उल्टे उन्हें अपमानित होना पड़ा.यह बेहद शर्मनाक है.
सवाल उठता है कि ये तथाकथित मराठी प्रेमी हिंदी क्यों नहीं चाहते ?जवाब वही पुराना है.धार्मिक उन्माद,क्षेत्रीयतावाद और भाषायी चरमपंथ ही इन्हें ले देकर सत्ता तक पहुँचा सकते हैं.इसके लिए ये कोई भी क़ीमत चाहे वह संविधान की हो या राष्ट्रीय अस्मिता की जेब में लेकर चलते हैं.
यह राजनीति में अचानक आ गई गुंडागर्दी नही है.लोकतांत्रिक तरीके से आए निरंकुश गुंडों की फैलती हुई राजनीति है.इतिहास में इस राजनीति ने बड़ी हत्याएँ की हैं.अनगिन सच्ची आवाज़ों को हमेशा के लिए कुचल दिया है.
सवाल ये भी है कि भारत में हिंदी कौन चाहते हैं? एक उदाहरण काफ़ी होगा.अपने देश में किसी भी शब्द के लिए संविधान संमत अठारह भाषाओं के कम से कम इतने ही शब्द होते हैं.उपभाषाओं तथा बोलियों को मिलाकर यह संख्या सौ के लगभग होगी.फिर क्या वजह है कि अंग्रज़ी का शब्द पहली जगह ले लेता है?प्रभु जोशी जैसे लेखक,चित्रकार जब हिन्दी के हिंग्लिश होते जाने,अखबारों आदि के इस षडयंत्र में शामिल होने को बार बार रेखांकित करते हैं तो सहमति के स्वर क्यों नहीं उठते? हिंदी शब्दों के विस्थापन के ख़िलाफ़ हमारी लड़ाई शांत क्यों पड़ गई?हिन्दी शब्दों का पुनर्वास हमारे हिंदी प्रेम में क्यों शामिल नहीं है?
मैं मानता हूँ दक्षिण भारत में खासकर तमिलनाडु में बिना संस्कृत की सहायता के हिंदी का व्यापक प्रसार असंभव है.समूचे देश में संस्कृत की क्या स्थिति है? अब तो यह पूछना भी दकियानूसी होना है.लेकिन यह तय है अगर संस्कृत नहीं रही तो दक्षिण में हिंदी भी नहीं बढ़ पाएगी.
तमिलनाडु में अगर कोई हिंदी बोल रहा है तो दो ही बातें हो सकती हैं वह या तो मुसलमान है या केंद्र सरकार का कर्मचारी.तमिल हिंदू हिंदी जानते भी हों तो बोलने से बचते हैं.आपको मजबूर करते हैं अंग्रेज़ी बोलने के लिए.यह कहने में कोई मिलावट नहीं है कि तमिलनाडु में हिंदी मुसलमानों की वज़ह से ज़िंदा है.जिन्हें हिंदी-उर्दू की लड़ाई का ज्ञान है,जिन्हें उर्दू मुसलमानों की भाषा लगती है उन्हें मुसलमानों के इस अवदान को अवश्य याद रखना चाहिए.
महाराष्ट्र विधान सभा में हिंदी बोल रहे विधायक पर हमले को कोई दूसरा स्वार्थी रंग दे दिया जाए इससे भी हमें लोगों को बचाना होगा.
यह कहने की ज़रूरत नहीं कि महाराष्ट्र में हिंदी नहीं रही तो कल महाराष्ट्र भी भारत में नहीं रह सकता..यह एक भारत विरोधी विघटनकारी प्रवृत्ति है जो सत्ता के लिए भाषा की भी आड़ लेती है.विधायकों के चार साल के निलंबन से आगे जाकर इसके सूत्रधारों को कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए.
आज दिन भर विचलित रहा.लोगों से बहस करता रहा.राज ठाकरे के समर्थक भी मिले.अभी आपका लेख पढा तो लगा मेरे दिल की बात को जुबाँ मिल गई.लेकिन यहाँ मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ कि यह आवाज़ कब तक केवल वैचारिक ही रहेगी?इसके लिए कौन कब आगे आएँगे?राज ठाकरे जैसे असमाजिक तत्वों को हमारा लोकतंत्र कब तक बर्दाश्त करता रहेगा?इस संबंध में कोई व्यावहारिक उपाय सुझाएँ जिसे अपनाया जा सके तो बेहतर होगा.खैर ब्लाग जगत में हमारी आवाज़ के साथ आगमन की बधाई.मैं तो चाहता हूँ जब तक नेट रहे तब तक व्लाग जगत में आपकी पैठ रहे.-सुरेश कुमार
जवाब देंहटाएंहमें यह भी याद रखना होगा कि देश के पहले विघटन की धूरी भी महाराष्ट्र और मुंबई ही थी !
जवाब देंहटाएंIt is very pathetic situation that has arisen in Maharastra. Hindi being national language ,has been neglected in some states of our country esp. Tamil Nadu. But I wish to state that Hindi is neglected not by the people of Tamil Nadu but by the leaders who play the political game to tarnish the name. In fact Dhakshin Bharath Hindi prachar sabha was established long back ago in Tamil Nadu (around 40 - 50 years before Where my father extended his service as a guide and lecturer. I am proud to say that I had the privilaedge of learning Hindi and I wished that I would extend my service in North India. My dream came to be true as I got posted in Kendriya vidyalaya Sangathan that gave me oppourtunity to serve in North India.Due to which I could learn more and still I have got the passionate to learn and thirst for learning this langugage. I don't agree with Mr.sashibooshan's view on Hind language being neglected in Tamil Nadu.As far as I am concerned Hindi is not at all neglected rather interest in learning the language has got increased, and keep on escalating.
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