बुधवार, 29 दिसंबर 2010

कहानी का अपहरण संभव नहीं



हाईजैक की गई युवा कहानी इस शीर्षक से पाखी के पिछले अंक में एक बातचीत है.इस बातचीत में काशीनाथ सिंह,रोहिणी अग्रवाल,बलराज पांडेय,गोपेश्वर सिंह,राकेश बिहारी,प्रेम भारद्वाज और आशीष त्रिपाठी शामिल वार्ताकार हैं.नामवर सिंह की मौजूदगी में हुई इस पूरी बातचीत में न केवल उनकी राय अनुपस्थित है बल्कि कहानी की विवेचना की वह पद्धति भी ग़ायब है जिसे कहानी:नयी कहानी में उन्होंने विकसित करने का प्रयास किया था.

इस शिकायत के बारे में भी कहा जा सकता कि यहाँ नयी कहानी पर नहीं युवा कहानी पर बात हो रही है.हालांकि पूरी बातचीत में नयी कहानी की उपेक्षा नहीं की गई है.उसी को आधार मानकर निष्कर्ष निकाले गए हैं.यह युवा कहानी कैसी है इसके बारे में पूरी बातचीत का निष्कर्ष यह है कि इसे कुछ कहानीकारों ने हाईजैक कर लिया है.इसे सच मान लें तो एक नये क़िस्म की आधुनिक समस्या से परिचय होता है कि कहानी भी हाईजैक की जा सकती है.वह भी तब जब कहानीकार और संपादक के रूप में राजेन्द्र यादव,ज्ञानरंजन,संजीव,अखिलेश,स्वयं प्रकाश,प्रियंवद जैसे मील के पत्थर कहानी के विकास में अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह बखूबी कर रहे हैं.यदि इस संकट को सच मान लिया जाए तो फिर कहानी को बचाने की अपील भी वैसी ही होगी जैसा विमान अपहरण के बाद यात्रियों को बचाने संबंधी अटल बिहारी वाजपेयी के सामने लगायी गई गुहार थी.

दुर्भाग्य से पूरी बातचीत उन्हीं पर केन्द्रित है जिन्हें युवा कहानी का हाईजैकर कथाकार कहा गया है.रोहिणी अग्रवाल ने कुछ कहानियों के हवाले से सन्दर्भ सहित नतीजे निकालने का प्रयास भी किया तो पूरी बातचीत में उसे बढ़ाने की कोशिश नहीं की गई.बल्कि इस तरह के चालू,महत्वाकांक्षी खयालों को प्रश्रय दिया गया कि हाईजैकर कथाकारों का इस्तेमाल इन्सट्रूमेंट की तरह कथा परिदृस्य से उदय प्रकाश,अखिलेश जैसे महत्वपूर्ण कथाकारों को हटाने के लिए किया गया और इन हाईजैकर कथाकारों ने अपना इस्तेमाल होने दिया.एक भिन्न विधा के हवाले से इस दूर की कौड़ी लगनेवाली वाचालता को समझने की कोशिश करें तो बकौल उदय प्रकाश प्रगतिशील वसुधा द्वारा ज़ारी पिछले तीस वर्षों की कवियों की सूची में उनका नाम नहीं है.तो सवाल है उन्हें मुख्यधारा से हटाने की कोशिश कहा हो रही है?ये हाईजैकर कथाकार तो संयोग से उदय प्रकाश को अपना आदर्श ही मानते हैं.

मैं मानता हूँ कि युवा कहानी जिसे मैं कथाकार के अतिरिक्त विद्यार्थी की तरह भी देखता हूँ के अच्छे कहानीकारों की सूची लंबी है.उन कहानीकारों और कहानियों से किसी भी तरह इन तथाकथित हाईजैकर कथाकारों को भी नहीं अलग किया जा सकता.लेकिन जिसे काशीनाथ सिंह कहानीकारों का ग्लोबल होता देशज समूह कहते हैं उनकी चर्चा किसी बड़े मंच पर,धारावाहिकता में कहानी का न कोई हरकारा करता है,न सुरक्षाकर्मी करता है और न ही कहानी का कोई सुरक्षा अधिकारी.सिर्फ़ संन्दर्भ बन चुके ऐसे कहानीकार केवल तब याद आते हैं जब कथित हाईजैकर कथाकारों को कोई संदेश देना हो.सच तो यह है कि कहानी का रक्षा मंत्रालय ही निर्दोष नहीं रहा.यदि इस पर यक़ीन कर लें कि युवा कहानी हाईजैक हो गई है तो इसमें उसकी भूमिका पर भी सवाल उठेंगे ही.

पूरे प्रसंग में मैं एक उदाहरण से बात रखना चाहता हूँ.पिछले दिनों वसुधा के संपादक और आलोचक कमला प्रसाद ने एक बात कही थी(शायद जनसत्ता में) जिसका आशय था कि रवींद्र कालिया के द्वारा एक ग़ैर प्रतिबद्ध,लगभग व्यावसायिक कथाकार पीढ़ी तैयार हुई है,जिसने सरोकारों की बजाय सफलता को मुख्य मान लिया है.उनके इस कथन के आलोक में मुझे वसुधा का समकालीन कहानी विशेषांक याद आया जिसे जयनंदन संपादित कर रहे थे.जब वह अंक छपकर आया तो उसमें वही सब कथाकार थे जो रवींद्र कालिया के संपादन में अमूमन होते हैं.चाहे वह वागर्थ हो या नया ज्ञानोदय.

कई बार विश्लेषण की शक्ल में महज समर्थक टिप्पणी भी बहुत कुछ सोचने पर विवश करती है.मसलन काशीनाथ सिंह के समर्थन में जिस साईकिल कहानी को यहाँ लगभग मनुष्य विरोधी ही मान लिया गया है उसी कहानी के बारे में यह भी जाँचने का अवकाश नहीं दिखता कि स्वयं काशीनाथ सिंह उस कहानी के बारे में क्या लिख चुके हैं.ये आलोचक कहानी आलोचना में भी सक्रिय नहीं हैं.तब इनकी स्थापना की वैधता क्या सिर्फ़ समर्थन की ही है?एक तरफ़ देवेंन्द्र की कहानी क्षमा करो हे वत्स को महत्वपूर्ण बताया जा रहा है.दूसरी तरफ़ चंदन पाण्डेय को हाईजैकर कहा जा रहा है इसी बीच मुझे याद आ रही है काशीनाथ सिंह की रेखाचित्र में धोखे की भूमिका कहानी की देवेन्द्र की कहानी क्षमा करो हे वत्स से ही तुलना.

मैं काशीनाथ सिंह पर बहुत भरोसा करता हूँ.वे मेरे प्रिय लेखक हैं.कोई अनुवाद निर्भर या पलटवार विवेचना उन्हें हिंदी में अवमूल्यित नहीं कर सकती.मैं जानता हूँ कि वे आधारहीन,ध्यानखींचू जुमलों पर यक़ीन भी नहीं करते.फिर भी चाहे इसे भी अनादर ही क्यों न समझ लिया जाए पर मैं कहना चाहता हूँ कि जैसे पूरी बातचीत में उनकी खीझ ही मुख्य है.उनके जैसे साहित्यकार का यह आरोप भी चंदन या कुणाल को ज़रूरत से ज्यादा बड़ा आँकना है.युवा कहानी में आज सबकी अपनी अपनी पसंद है और इस मिली जुली पसंद के चंदन और कुणाल भी कथाकार हैं.दोनों ने अच्छी कहानियाँ लिखी हैं.अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई है.मैंने पढ़ने से पहले सोचा तक नहीं था कि पूरी बातचीत इन्हीं दोनों पर सिर्फ़ खारिज करने के लिए सिमट जाएगी.उस सोद्देश्य अपेक्षा पर भी हँसी आई जिसमें नामवर सिंह जी से आग्रह है कि वे चंदन पाण्डेय पर कुछ अवश्य कहें.

इस पूरी बातचीत में गीत चतुर्वेदी का कहीं नाम नहीं है.कैलास वनवासी,अरुण कुमार असफल का ज़िक्र नहीं है.रणेन्द्र,गौरीनाथ,भालचंन्द्र जोशी,मनीषा कुलश्रेष्ठ,राकेश मिश्र,दिनेश कर्नाटक,विपिन कुमार शर्मा का कोई स्मरण नहीं है.क्या ऐसा किसी उपेक्षा की भावना के तहत है?क्या वजह है कि विचारधारा की अपेक्षा के साथ कहानी पर बात शुरू होती है और सबसे ज्यादा उन्हीं पर केन्द्रित हो जाती है जिन्हें बाज़ारू कहकर खारिज करने की कोशिश की जाती है.महिला कथाकारों में भी क्या वजह है कि सुधा अरोड़ा, मधु कांकरिया और उर्मिला शिरीष तक बात आने ही नहीं पाती.

इतना ही नहीं मैं पूछना चाहता हूँ कि आपमें से कितने लोगों ने प्रभु जोशी की कहानी पितृ ऋण पढ़ी है.किसने कथाकार कैलास चन्द्र का नाम भी सुना है? जबकि कैलास चन्द्र सारिका की कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत होने से लेकर आज तक निरंतर लिख रहे हैं और हंस,पहल आदि पत्रिकाओं में छपते भी रहे हैं.जब कहानी के हाईजैकरों की चर्चा हो रही हो तब यह बताना और ज़रूरी हो जाता है कि कौन कौन गुमनाम रहकर भी कहानी को बचाए हुए हैं.

मैं तो यह भी जानना ही चाहता हूँ कि कहानी की सारी प्रतिबद्ध मांगों के बीच कब कब हरिशंकर परसाई या राहुल सांकृत्यायन जैसा कहानीकार होने की ज़रूरत बताई गई ?ये कहानीकार थे और माफ़ कीजिए लोग इन्हें आप सबकी मौजूदगी में ही भूलते जा रहे हैं.

इस पूरी बातचीत से मेरी अपेक्षा सिर्फ़ इतनी थी कि सार्थक कहानियों की बात होगी.इसी बहाने अच्छी कहानियों को अपनी डायरी में नोट किया जा सकेगा.पर यह कुछ नहीं मिला.वर्तनी की ग़लतियाँ भी ऐसी की हर वह कहानी जिसका ज़िक्र है या तो शीर्षक ही ग़लत है या अधूरा.मेरी मांग है कि ऐसे खतरों की ओर लोगों का ध्यान न मोड़ा जाए जो अगर हों भी तो नुकसान पहुँचाने ज्यादा समय नहीं टिकते.सबक सिखाने की भावना साहित्य को नुकसान ही पहुँचाती है.

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