पवन करण के काव्य संग्रह ‘स्त्रीशतक’ को पढ़ते हुए बचपन में सुनी हातिमताई कहानी का एक संवाद याद आता है- एक बार देखा है दूसरी बार देखने की तमन्ना है।
वास्तव में पुस्तक एक बार पढ़कर खत्म कर दी जाने वाली नहीं लगती। यह बार-बार लगातार पढ़ने को बाध्य करती है। इसे सिर्फ़ काव्य पुस्तक कहना भी इसकी व्याप्ति को बहुत संकुचित कर देना है मेरी नज़र में। दरअसल यह किताब की शक्ल में दर्द का अनवरत प्रवहमान एक दरिया है जो सदियों से सदियों तक न थमने के लिए जीवंत हुआ है। पवन करण के भीतर गहरे तक पैठे हुए उस स्त्री-मन को मेरा दिली सलाम जिसने इतिहास, मिथक, पुराण और अध्यात्म में समायी तमाम स्त्रियों की पीड़ा, सिसक, चीख़, पुकार और क्रंदन को सुना और उन्हें वर्तमान का हिस्सा बना दिया। यह स्त्री-मन बहुधा स्त्री लेखकों में भी देखने को नहीं मिलता। ऐसा लगता है कि कवि ‘स्त्रीशतक’ की हर स्त्री की माँ की भूमिका निबाह रहा है। बेटी को कोई कष्ट आने पर माँ को जो छटपटाहट और अकथ दुख होता है वही दुख, संवेदना, चिंता ‘स्त्रीशतक’ की कविताओं में समायी हुई हैं।
किताब की एक-एक कविता दुखांत गाथा है। यह पुस्तक मुझसे जल्दी-जल्दी नहीं पढ़ी गयी। कारण, यही था कि एक दुख से उबरकर दूसरे में डूबने के लिए मोहलत की ज़रूरत रही। ‘स्त्रीशतक’ की कविताएँ मोहभंग सृजित करती हैं हमारे उन ऋषियों, मुनियों, देवों, तपस्वियों, मनीषियों, राजपुरुषों के प्रति जिनकी वंदना और अनुगमन हमें संस्कारों में मिले हैं। जिन पर आज कोई सवाल तक पूछना ख़तरे से खाली नहीं। यह एक तरह का कवि की चेतस संवेदनशील, मानवीय, आँखों एवं प्रज्ञा से किया गया महान प्राचीनता का स्टिंग ऑपरेशन है उन सभी महापुरुषों के आश्रमों, महलों, झोपडियों, गुफ़ाओं, तपस्थलों, शयनागारों और चारदीवारियों के भीतर का जहाँ स्वप्रतिष्ठा और आत्मसंतोष के लिए स्त्रियां बेची गयीं, खरीदी गयीं, नीलाम की गयीं, दान में दी गयीं, परोसी गयीं, बलात्कृत हुईं, प्रेम, श्रद्धा, साहचर्य में छली गयीं, अपहृत हुईं, बलिवेदी पर चढायी गयीं। यह उन तेजस्वी, वीर, धीर, व्रती, सन्यासी, त्यागी पुरुषों के मन की कालिख को जो समाज के चेहरे पर अदृश्य पुती ही हुई है, जिसे हम आँखों में अंजन समझकर बसाये लगाये बैठे थे या नज़र न लगने के लिए डिठौना बनाये बैठे थे का उद्घाटन है।
स्त्री की पीड़ा तो ‘स्त्रीशतक’ का मूल स्वर है ही उसके भीतर भी पीड़ाओं की अनेक श्रेड़ियाँ हैं जिसमें जातिभेद, वर्गभेद, रंगभेद की यातनाएँ झेल रहीं अलग अलग महिलाएँ हैं। यह प्रचीन भारत के स्त्री मन से संवाद है। यहाँ उन सौ स्त्रियों के नाम गौण हो जाते हैं जिन पर कविताएँ लिखी गयी हैं। क्योंकि उनका दुख प्रमुख होकर सभी स्त्रियों को समदुखिनी बनाकर एक सूत्र में बाँध देता है।
लोक प्रचलित धारणाओं, प्रथाओं, मान्यताओं एवं श्रेष्ठताओं को खंड-खंड करने वाला हथौड़ा ‘स्त्रीशतक’ लोक चित्त में बसे राम और रावण के व्यक्तित्व को ही उलट-पलट कर रख देता है। राम की बहन शांता का पिता दशरथ द्वारा ऋष्य श्रृंग को यज्ञ दान में दे दिये जाने को राम-सीता द्वारा शांति पूर्वक सह जाना और रावण की विधवा बहन बज्रमणि( शूर्पनखा) को सती होने से भाई रावण द्वारा रोका जाना, उसको प्रेम की स्वतंत्रता दिया जाना, उसके नाक कटी होने के बावजूद ससम्मान घर में रहने देना इन दोनों पौराणिक पुरुषों की लोकमान्य भूमिकाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। मन में सवाल उठता है स्त्री के प्रति किसका आचरण सही है ?
संग्रह की प्रत्येक कविता के अंत में शामिल फुट नोट कवि की अनन्य दक्षता एवं संपादकीय दूरदर्शिता है जो पुराणों से अनभिज्ञ पाठक को भी कविता एवं कथा का हिस्सा बना लेते हैं। इनसे ही पता चलता है कि भारत के ऋषि, मुनि, देव, राजा, और ब्रह्मांड के ग्रह नक्षत्र शुक्र, बृहस्पति, चंद्र, बुध जैसे अनेकानेक पुरुष या तो नाजायज़ रिश्तों के सूत्रधार रहे या स्वयं अवैध संतति। धर्म की आड़ में किस प्रकार प्राचीन काल से पुरुषों ने स्त्रियों का भोग और शोषण किया और इस साज़िश में समूचा ब्रह्मांड शामिल रहा यह इस पुस्तक को पढ़कर ही मैंने जाना।
‘स्त्रीशतक’ प्राचीन भारत का एक्स रे है, वर्तमान भारत का लिंग जाँच करने वाला सोनोग्राफ़ी टेस्ट और भविष्य के भारत की ब्लड रिपोर्ट जो अनेकानेक भयावह संक्रमणों से ग्रस्त है।
- कविता जड़िया
शिक्षिका, के.वि. उज्जैन
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