जब ब्लॉग, फेसबुक, ट्विटर, टीवी या वाट्सअप आदि नहीं थे तब भी लोग अपना समय, ज्ञान और ऊर्जा नष्ट करते थे। तब भी लोग बुलाने पर न कहीं आ जाते थे न दूसरों की मदद को तैयार रहते थे। इंसान खाली कभी रहा ही नहीं। काम का आदमी हमेशा से कोई कोई होता है। किसी किसी को बड़े काम करने होते हैं। हर ज़माने में लोगों ने उमर काटी है। की बोर्ड से स्क्रीन पर लिखनेवाले यदि महान नहीं हैं तो मोरपंख को स्याही में डुबो डुबोकर भोजपत्र पर लिखनेवाले भी शैतान रहे हैं। यदि किसी को इंटरनेट या फेसबुक पर समय नष्ट करना बुरा लगता है तो अपनी पसंद की जगह पर समय काट सकता है। किसी ने आपको फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी होगी, इंटरनेट पैक थोड़े ही डलवाया था। रही बात तेज़ी से बदनामी फैल जाने की, या फोटो बदल जाने की तो पता लगाईए पृथ्वी पर शादी में लड़कियां कैसे बदल जाती थीं? जब ज़िंदा मनुष्य स्वर्ग जा ही नहीं पाता था तो स्वर्ग की बुराई धरती पर कैसे चर्चा का विषय बनी? सब जगहें बकवास से भरी पड़ी है। सपने में गाली पड़ जाये तो क्या नींद लेना छोड़ दें?
शशिभूषण
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-07-2016) को "इस जहाँ में मुझ सा दीवाना नहीं" (चर्चा अंक-2399) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'