'मुर्दे
का बदला'
( तलाश ) बेहद खराब फिल्म है. धारावाहिकों
जैसे कभी न खत्म होने वाले लम्बे लम्बे शॉट्स वाली यह फिल्म न सिर्फ उबाती है बल्कि
आस्था से पीड़ितों को एक बार पुन: आत्मा पर्मात्मा जैसी वाहियात बातों पर
यकीन करने पर मजबूर करती है. बेसिर-पैर की कहानी, जो 'इंसोमनिया' और 'द सिक्स्थ सेंस' की कूड़ा मॉकटेल है, उन लोगों पर भी सवाल
खड़ा करती है जो न जाने किस भय-भाव
से इस खराब फिल्म की शिकायत कर पा रहे
हैं.
Neha Chauhan agree....
Chandan Pandey Read like
this:shikayat nahi kar paa rahe hain
Suraj Prakash हम आज ही भुक्तभोगी बने। आना जाना,
फिल्म,
चार घंटे और कई सौ रुपये बरबाद करने के बाद
पूछना चाहते हैं कि क्या माल खराब होने
पर पैसे वापिस की गारंटी का कोई प्रावधान है। जो नहीं गये वे न
जायें और इसके बदले कोई भी
ऊल जुलूल काम करके धन और समय बचायें
Shekhar Suman अपनी अपनी पसंद, अपनी अपनी सोच... हमें अच्छी लगी.. डायरेक्शन, और एक्टिंग का तो जवाब नहीं है.. कहानी थोड़ी पीछे छूट सकती है लेकिन उतना तो
मार्जिन ले सकते हैं...
Kumar Ashutosh Jha
Mujhe achhi lagi. Khas ko puri film me jo antardwand jee hai aamair ne
Shekhar Suman wahi to,
ye to depend karta hai aap film mein kya dekhne jaate hain... film ka achha
lagna ya na lagna ye to apne oopar hai...
Kumar Ashutosh Jha
Sahi kaha Shekhar ji. Ye zyada khud ko talashte ek admi ki kahani hai jo apne
aap ko kahi kho chuka hai
Shekhar Suman एक बात तय है, फिल्म में कोई मसाला नहीं है... अभिनय और तकनीकी दृष्टि से
फिल्म को पूरे अंक दिए जा सकते हैं...
Chandan Pandey Matlab,
bhoot pret aatma parmatma wali baat achchhi lagi?sabko kareena ka bhoot dikhta
hai, my god. Yah cid serial ki kahani bhi nahi thi.
Ajit Harshe ek
samajhdaar darshak aur pratishthit lekhak ki sameeksha.
तलाश
– एक जादुई यथार्थ
वीरेन्द्र
जैन
आज आमिरखान की फिल्म तलाश देख कर आया और थोड़ा चमत्कृत हूं। उनकी
हर नयी फिल्म नयी ही होती है और वे न तो कहानी के चयन में और ना ही
भूमिका में अपने को दुहराते हैं। उनकी फिल्म नये विषय और ट्रीटमेंट के साथ
सामने आने के कारण उन्होंने अपना दर्शक वर्ग तैयार किया है। लगान हो, तारे ज़मीं पर हो, थ्री ईडियट हो,
रंग दे बसंती हो, पीपली लाइव हो या
टेलीविजन के लिए तैयार किया गया ‘सत्यमेव जयते’ हो, सब एक नये आमिर से परिचित कराते हैं। सत्तर अस्सी के दशक
में आम व्यावसायिक हिन्दी फिल्मों के बारे में किसी ने कहा था कि वे रामलीला
की तरह हैं जिस एक ही कथानक को हर रामलीला मन्डली अपनी अपनी तरह से
खेलती है। आमिरखान की फिल्मों से यह आरोप निरस्त होता है क्योंकि उनकी फिल्में
कलात्मक सिनेमा, समानांतर सिनेमा,
आफबीट सिनेमा आदि के खांचे में भी नहीं
आतीं अपितु उन्हें अच्छी हिन्दी फिल्में कहा जा सकता है। यही कारण है कि
उनकी बहुत सारी फिल्में आस्कर के लिए नामांकित हुयी हैं।
तलाश को एक रहस्यपूर्ण फिल्म की तरह प्रचारित किया गया और टीवी पर
चलने वाले सीआईडी आदि जासूसी सीरियलों या जासूसी फिल्मों की तरह होने की
कल्पना में दर्शक सिनेमा हाउस में प्रवेश करता है। पर यह फिल्म
श्यामबेनेगल के त्रिकाल की याद दिलाती है। साहित्यिक भाषा में इसे जादुई यथार्थ की
कहानी कह सकते हैं। यह फिल्म एक रहस्य सुलझाने के बहाने हमारे सामाजिक यथार्थ
को रेखांकित करती है। इस फिल्म में एक युवा दम्पत्ति की वे आहत सम्वेदनाएं
हैं जो एक दुर्घटना में अपने बच्चे को खो देते हैं और अपने आप को दोषी
मानते हुए एक गहरे अपराधबोध से ग्रस्त हैं। यह फिल्म बताती है कि अवसाद की
दशा में कैसे विवेक शिथिल हो जाता है और सुशिक्षित लोग भी अन्धविश्वासों या
अतियों के शिकार हो जाते हैं। फिल्म में मुम्बई के वैभवपूर्ण जीवन के साथ
साथ वहाँ के रेडलाइट एरिया की असलियत को भी सामने लाया गया है। देह बेचने वाली
रोजी के सम्वादों के माध्यम से कहा गया है कि सामाजिक अपराध होने देने
और उनके होने से इंकार करने वाली व्यवस्था के लिए उन अपराध के मोहरों
का कोई अस्तित्व ही नहीं होता इसलिए उनके जीने और मरने का कानून की
दृष्टि में कोई महत्व नहीं है। जब फिल्म का नायक इंस्पेक्टर शेखावत कहता है कि
कानून सबके लिए बराबर है तो रोजी कहती है कि आप अच्छा मजाक कर लेते हैं।
फिल्म में उच्चवर्ग के वैभवपूर्ण जीवन और हाशिए के लोगों के अति साधारण
जीवन की विसंगतियों का कंट्राडिक्शन बखूबी रखा गया है। फोटोग्राफी की
दृष्टि से भी यह एक बेहतरीन फिल्म है जिसमें कार दुर्घटना के दृष्य बहुत
जीवंत हैं। बेहद सधे हुए निर्देशन में सारे कलाकारों का बहुत मंजा हुआ अभिनय
है। हमारे गहरे मनोभाव जो दृष्यरचना कर लेते हैं वे कई बार दुखों को सहने
की शक्ति भी देते हैं। फिल्म के अंत को रह्स्य रहने देने का अनुरोध आमिरखान
ने किया था ताकि दर्शकों की उत्सुकता बनी रहे।
Shekhar Suman अगर आपको सिर्फ और सिर्फ इस लिए फिल्म अछि नहीं लगी की इसमें करीना
का रोल क्या था, फिर तो बात करने का कोई मतलब ही नहीं है... मेरे लिए लिए फिल्म
का मतलब होता है सब कुछ..
१.
क्या आमिर, करीना या किसी भी किरदार की एक्टिंग बुरी थी,
२.
क्या फिल्म के गाने अच्छे नहीं थे,
३.
क्या फिल्म में कहीं भी कैमरा-वर्क कमतर था...
Shekhar Suman itna
behtareen direction to aajkal dekhne ko bhi nahin milta, aisa lagta hai isse
behtar to camera main hi ghooma loon..
Chandan Pandey Shekhar
ji, kahani ki kendra bindu hi kamjor hai, koi kahani hi nahi hai, ant me yah
ehsas ki aatmaaye aapse sampark karti hai, nihayat hi buri baat hai. Acting v
kuchh khas nahi hai. Close ups se darshako ko bhayabheet karne ki koshish hai.
Beintiha close ups. Lambe lambe ubaau shots hain.
Sheshnath Pandey
तलाश मैं भी पहला दिन पहला शो देख कर आया. आज तीन दिन हो गया जब भी
खाली होता हूँ या कभी कभी तो इसलिए खाली हो जाता हूँ कि वो सिरा तलाशा कर
सकूँ, या कोई कड़ी जोड़ पाऊँ कि कइसे का हुआ. लेकिन बेहद खटकने वाली बात
है आत्मा परमात्मा और जीवन के आपसी संबंध को लेकर पात्रों के अवसाद में
दखल देना. यह एक इकाई हो
सकता था लेकिन आखिर में भी इसी के सहारे
कहानी खत्म होगी, एक तरह से बकवास जैसा कुछ हो गया. शायद इसी बकवास में मैं आमिर की
एक्टिंग या किसी और की कुछ और नहीं देख पाया. ऐसा जादुई यथार्थ हमने नहीं
देखा. त्रिकाल के केंद्र में यह नहीं है वो बस कथा विस्तार के लिए
है. जो भी हो ऐसा जादुई यथार्थ देखना भी नहीं चाहूँगा.
Mithilesh Priyadarshy
नवाजुद्दीन सिद्दकी के अलावे इस फ़िल्म
में है क्या? और कायदे से तो अंधविश्वासों को बढ़ावा देने वाली सामग्री पर
रोक लगनी चाहिए...
Shashi Bhooshan चंदन, तलाश देखकर दो कहानियाँ याद आईं। एक बुद्ध की सरसों खोजकर लाने
वाली और दूसरी जिसमें एक पिता के अवसाद से मुक्ति का वर्णन है कि किस
तरह रोने से उसकी दिवंगत बेटी की मोमबत्तियाँ स्वर्ग में बुझ जाती हैं।
दोनो कहानियाँ में दुख से उबरने की बात है। फिल्म तलाश की कहानी भी एक पिता
के दुख तथा अपराध बोध से से मुक्त होने बात कहती है। इसी कहानी में सत्ता
सेक्स और अपराध के मकड़जालों को खोला गया है। पूरी फिल्म प्रतीकात्मक है
और यह पहली हिंदी फिल्म है जिसमें भूत नहीं है। वह एक अकेले की स्त्री के
साथ होने उसका साथ पाने की फैंटेसी है। कमाल यह कि पत्नी भी इतनी एकाकी
है कि वह पति के अकेलपन में भी अफेयर खोजती है। फिल्म शानदार है। मार्मिक।
इससे बड़ा सच क्या होगा कि न्याय व्यवस्था ऐसी हो चली है कि मरने वाला ही
सज़ा दे रहा है। जो वास्तव में है नहीं।
Chandan Pandey Shashi Bhooshan
ji: yah atireki vyakhya hai. Film ke shuru me hi amirkhan kahta hai ki marne
wala jarur kisi ko bachane ki koshish kar raha tha, jo ki baad me kareena ka
bhoot nikalata hai. Agar yah kalpanik hoti to uski lash ko jameen khod kar nahi
nikalte, aur vo kalpanik hai v nahi kyonki sanjay kejriwal bakayda us ladki ko
simran ke naam se janta hai. Yah vikram bhatt ki film hai jahan bhoot ki
angoothi kabr se nikalti hai, jahan ojha ki tarah aatma bulaai jaati hai, jo
likhna janti hai.aap jo kah rahe hain wah filmkar ki mansha rahi ho shayad par
film ek bhootha kahani jisme jalne ke baad hi rosy ki aatma ko shanti milti hai
Manoj Rupda meri beti
bohot zeed kr rhi thi talash k lea par mujhe pehle se hi malum tha ki talash
behuda film h ......
Shashi Bhooshan फिल्म
तलाश मेरी देखी पहली हिंदी फिल्म है
जिसमें भूत नहीं है। रोज़ी भूत या
आत्मा नही जीने की कोशिश में ही जीवन
खत्म करते चलने वाले एक आदमी की
स्त्री के साथ होने उसका साथ पाने की
फैंटेसी है। रोज़ी भूत नहीं उस समाज
की त्रासदी की फैंटेसी है जिसमें उनकी
गिनती ही नहीं। जहाँ न्याय यह है कि
मारे गये लोग ही सज़ा दें तो दें। वरना
हत्या भी दुर्घटना है।
Digamber Ashu Dekhni
padegi.
Chandan Pandey Aap
shayad overread kar rahe hain. Jaise raani mukhari ko jhansa dene wali wo
mahila hai aur jiske bahane wo apne bete se baat karti hai, use apne yahan
ojhaiti kahte hain. Yah bhoot pret ko badhawa dena hi hai ki gaadi paani me
kudi to saare gate lock ho gaye fir .....angothi nikalna
Chandan Pandey !uski
lash jalana, my god...aur ek to itni slow hai ki lagta hai koi dharawahik dekh
rahen hain.
Praveen Pandey IS MOVIE
ME EK CHIZ PE PONT OUT KIYA H KI AGER KAREENA KAPOOR JINDA BHI HOTI TO KYA FRK
PADTA , BECOZ , C HAS NOT ANY IDENTITY, JAB WO HAMARUUE CENSUS KA HISSA HI NI
HOTE , UNKE LIYE TO BHART ABHI AAJAD HI NI ..... AUR AISI ROZI KITNI MRTI HONGI
ROOZ PATA ni ......
Shrikant Dubey यह फिल्म नास्तिक और छद्म नास्तिक (तमाम रैशनल बातों का सफल ढोंग
कर लेने के साथ साथ भूत-प्रेत के वजूद को भी मानने वाले) लोगों के बीच की
विभाजक लकीर भी है. इस तरह के मेरे चंद द्विविधाग्रस्त दोस्त इस घटिया
प्लाट के चयन को 'एक बिलीफ' का डेवेलप किया जाना बोल रहे हैं. पूरी फिल्म में न तो कोई सस्पेंस बनता नजर आया और न ही थ्रिल. आमिर महोदय भी अब यह मान
बैठे हैं कि वो जो करते हैं उसी को अभिनय कहा जाता है और वो हर जगह सत्यमेव
जयते का एपीसोड ही कंटीन्यू करते नजर आ रहे थे. सस्पेंस और थ्रिल की
इनसे सौ गुनी बेहतर समझ सस्ती जासूसी उपयासों के 'घोस्ट राइटर्स' तक को होती है. हर
आयाम से असफल फिल्म!
Anurag Arya फिल्म
पसंद आना न आना अलग बात है पर कोशिश यही
रहनी चाहिए अगले दो दिन में
पबिलिक प्लेटफोर्म पर
समीक्षा करते वक़्त उसका " ससपेंस " उन दर्शको के लिए न खोले
जिन्होंने न देखी हो.
Roli Misra maine
nahi dekhi hai bhai...par aap log itni charcha kar rahe hain to dekhni
padegi....
Shashi Bhooshan Shrikant Dubey
जी मुझे डर है कि कहीं कल कोई भोलाराम
का जीव (हरिशंकर परसाई) और दुविधा
(विजयदान देथा) कहानियों को भी यम लोक, आत्मा, भूत, आदि को स्थापित करने वाली कहानियों के रूप में न पढ़ने लगे। यदि मैं सस्पेंस और
थ्रिल को फिल्म का कोई बड़ा मूल्य मानने लगूँ तो मुझे कहना पड़ेगा
कि मैं फिल्म कम ही देखता हूँ। भूत की फिल्मों में अब तक की स्वीकृतत
खासियत यह है कि वह डराता है। तलाश में रोज़ी बिल्कुल नहीं डराती। बोलते हुए पशु
पक्षी। मन चाहा आकार धरते लोगों पर कहानियाँ हमेशा से हैं। मुझे आमिर
महोदय उतने समस्याग्रस्त नहीं लगते जितने आप रूढ़िग्रस्त हैं। आपकी समस्या
साहित्यिक है। आप उस विवाद को याद कर सकते हैं जिसमें पृथ्वीराज रासो को
विद्वानों ने इतिहास है या काव्य की तरह वर्षों जाँचा था।
Shashi Bhooshan सत्यमेव
जयते के बाद एक बात तो आप मानेंगे ही कि
आमिर खान के पास कहानियों की कमी
नहीं। उन्होंने इसके बावजूद यदि यह
प्लाट चुना तो कहना चाहिए कि वे कलाकार
के रूप में यह जानते हैं कि विश्वासों
और अंध विश्वासों वाले समाज में
यथार्थ कैसे कहना है। इस फिल्म में एक पिता है जो अब इसलिए नहीं सोता कि उसके सो जाने से बेटा
पानी में डूब गया था। और जो सोता ही नहीं है उसे अपराधियों को तलाशना है।
पूरी दुनिया में गवाह कोई बचा नहीं। तब वह कैसे खोजेगा? अंत में वह यदि इस
नतीज़े पर पहुँचता है कि हमारी मदद मारे गये लोग ही कर सकते हैं साथ ही
मेरी ज़िंदगी में सब भूत था तो इससे यह अर्थ निकलता है कि ज़िंदा समाज
ज़िंदा नहीं है। जैसे कोई सरकारी नौकर होने या कंपनी का मैनेजर होने से
पूँजीवाद या व्यवस्था का समर्थक नहीं हो जाता वैसे ही इस फिल्म पर सोचना
चाहिए। केवल इस बात से कि कुछ लोग अपने अंधविस्वास का समर्थन निकाल लेंगे तो
वह तो हमेशा से कर ही रहे हैं लोग। चाहे कबीर, चाहे बुद्ध, चाहे महिषासुर या
चाहे जिसकी भी पूजा हो ही रही है न समाज में तो क्या ये अप्रासंगिक हो गये?
Shashi Bhooshan चंदन आप कहानीकार हैं और आपसे मैं यह कह सकता हूँ कि फिल्म तलाश
रोज़ी की ही तलाश की कहानी है। जो किसी गिनती में नहीं। लेकिन हीरो उसे
तलाशते तलाशते अपराधियों के पास पहुँचता है। उसे कंकाल और अँगूठी मिलते हैं।
हालांकि फिल्म में इसके कोई स्पष्ट संकेत नहीं है लेकिन यह सोचा जा
सकता है हीरो नौकरी करते करते अपनी उस साथी लड़की को खोज रहा है जो उस दुनिया
के लिए नहीं बनी थी जहाँ वह थी और एक दिन लापता हो गयी थी। हम सब भी तो
अकेले में अपने जीवित मृत लोगों से बातें करते हैं। सपनों में उनके साथ
होते हैं। तो क्या समझें कि हम सब बीमार हैं और या तो ओझा या मनोचिकित्सकों
का धंधा चमकाने वाले हैं। कोई उस बेटे की बात कर सकता है जो अब इस दुनिया
में नहीं है यही उस साधारण औरत का दुख और ग़लत राह है जिसे हम फिल्म को
बिना ग़लत कहे समझ सकते हैं।
तलाश के जरिए कथा - रचनाशीलता के एक विशेष प्रकार ( जॉनर ) पर बात
होती दीख रही है. अपनी बुनावट में बेहद उबाऊ और आँख-फोडू क्लोज अप्स वाली इस
फिल्म के जरिए तीन घंटे मिलने वाली सजा को दरकिनार कर अगर इसके सन्देश
और शिल्प पर ही केवल बात करें तो भी मुझे यह एक भूतिया किस्म की "चीप"
फिल्म लगी पर एक अनन्य और समझदार मित्र
Shashi Bhooshan
जी ने इस फिल्म की अलग व्याख्या रखी है
जो काबिल-ए-गौर है. अपनी मुश्किलों
का हल काल्पनिक पात्र में ढूँढना, यह एक भली बात है और रचना-संसार
में पहले भी इस पर बात होती रही है. आपको अपराधबोध या अनिद्रा या
दोनों के सम्मिश्रण में जो दिन देखने पड़ते हैं वह हमारे दैनन्दिन का
हिस्सा है ( हालाँकि मेरे अनुसार वो भी काम इस फिल्म वालों ने फूहड़ तरीके
से किया है ). बात आगे यह है कि शशिभूषण जी कहते हैं : फिर परसाई भोलाराम का
जीव या देथा की दुविधा जैसी रचनाओं का पाठ कैसे होगा ? मैं कहता हूँ कि फिर
विक्रम भट्ट, राम गोपाल वर्मा और कांति शाह ने किसी का क्या बिगाड़ा है ? मेरी समझ में सारा फर्क किरदार के इस्तेमाल का है. बड़े रचनाकार जहाँ
आत्मा परमात्मा को बतौर टूल इस्तेमाल करते हैं और उनके जरिए सामान्य
दुनिया की बात करते हैं वहीं कमजोर किस्म के रचनाकार सुपरनेचुरल किस्म के
किरदारों को ही कहानी का केन्द्र बना देते हैं. तलाश में भी जिस किस्म की
ओझईती आदि दिखाई गई है वह न सिर्फ इसे हास्यास्पद बना देती है बल्कि 24 X 7 की
उदासी और रोँदूपना झेल रहे किरदार मुश्किलों से
मुकाबिला करने में इतने कमजोर बन
पड़े है कि दूसरे सारे किरदारों को आगे
लाकर निर्देशक ने अपनी जान बचाई है.
कभी कभी यह भी होता है. कहानी इतनी उलझ
जाती है कि समझ नहीं आता इसका अंत
क्या करें ? कई भूतहा फिल्में, जिनके प्लॉट से मैं
सहमत नहीं रहता, मुझे पसन्द हैं जैसे रामू की रात,
श्यामलन की द सिक्स्थ सेंस, पोलिंस्की की रोजमेरी'ज बेबी, ड्रैकुला ..पर वो अच्छी इसलिए लगी क्योंकि इन पात्रों को एक बार स्वीकार कर लेने के बाद रचना आपको बाँध लेती है. तलाश
के मामले में यह उलट है. इसी तर्ज पर सोडेरबर्ग की इंसोमनिया थी पर उसका
प्लॉट इतना अच्छा था कि अनिद्रा और अपराधबोध वहाँ टूल बन कर आते हैं, बोझ नहीं.
Sheshnath Pandey
sahi baat....
Shailendra Singh Rathore
perfect analysis.
Meher Wan 'Duvidha' ke zariye Mani kaul
darshako ke samaksh naye zaruri sawaal rakhte hain, bahut impressive tarike
se....'Talash' bahut fuhad tarike se kuch naye answers rakhti hai darshako ke
samne...
Shrikant Dubey खुद पर इतना भी लिखा जाना डिजर्व नहीं करती 'तलाश'. 'भूत' के विधान को रूपक बताने वाले शरनाज पटेल के उस भुतहा किरदार को भी कोई महारूपक
साबित कर देंगे जो ये चिल्लाती फिरती है कि 'आत्माएं भी बात कर
सकती हैं, और तुम्हारा बेटा तुमसे बात करना चाहता है' और जो ओझाओं को
आत्माओं की बात कागज़ पर लिखते जाने का नया तरीका बताती है...
Bodhisatva Vivek
अब इन सब बातो से कोई
फायदा नहीं, हमें एक दूसरे की मदद करनी चाहिए ताकि हम 'तलाश' को एक बुरे सपने की
तरह भूल सके....गलती तो सबसे होती है ...मुझसे भी हुई ,मैंने भी हॉल में
जाके देखी, फॉरवर्ड भी नहीं कर सकता था...सदमे से उबरने के लिए कुछ
फिल्मे सजेस्ट कीजिये और इस फिल्म पर बात ही बंद कीजिये !!!!
Rakesh Chaturvedi
shudh aur pavitra hindi shahitya ke sansathagat alochak kavi shasi bhooshan
bhai ko dar satane deejiye darasal wo aamir prem hai ......
Shashi Bhooshan फिल्म
तलाश के अंतिम दृश्य में सीढ़ियों पर
पति पत्नी साथ बैठे हैं। वे रो रहे
हैं। आलमारी में चिट्ठी और अँगूठी साथ
हो गये हैं। फिल्म की कहानी में पति,
पत्नी से कहता है कि तुम उसकी मत मानो
वे पैसे के लिए कुछ भी कर सकती हैं।
तुम दवाई नियमित खाओ। और पत्नी कहती है कि तुम घर में रुको। हम साथ रहें। तुम्हारी गलती नहीं है।
हमारे दूसरा बेटा हो सकता है। ऐसे पति पत्नी जो अब इस नतीजे में आ पहुँचे
हैं कि उन्हें एक दूसरे का खयाल रखना है। पति ओझइती को बुरा मानता है और
पत्नी साईंस की स्टूडेंट थी और पति का साथ चाहती है ऐसे दंपति क्या आगे एक
दूसरे को नहीं सम्हाल लेंगे? क्या फिल्म की कहानी यह नहीं सूचित करती कि ये पति पत्नी अब अपने विगत दुख को भूलने की कोशिश करेंगे? और यदि वे ऐसा करेंगे
तो उनकी ज़िंदगी में अंधविश्वास किस रास्ते से आ सकेगा?
दूसरी बात यह फिल्म वेश्याओं के उस हक़ की बात करती है जिसमें उन्हें नागरिक माना जाये। उनकी गणना हो।
अब सवाल उठता है कि यह भूत प्रेत के माध्यम से अपनी बात कहती फिल्म अंधविस्वास को कितना बढ़ावा देगी? तो इस संबंध में कहानी के सावधान दर्शकों से भी हमेशा यह अपेक्षा की जाती है कि वे यह मानकर चलें कि कहानी के पात्र किसी न किसी देशकाल में होते हैं। वे उस देशकाल की सभ्यता और संस्कृति के अंग होते हैं। तलाश के पति और पत्नी भी इसी दुनिया के नागरिक हैं। जहाँ मुंबई है जहाँ कारे चलती हैं और पढ़े लिखे लोग भी भूत प्रेत मानते हैं। यह वही समय है जिसमें हर चैनल पर भक्ति और बाबा हैं। भक्ति भी ऐसी जिसमें संतों के लिए कोई जगह नहीं। देवी देवता और पीर मजार ही हैं। ऐसे में यदि कोई फिल्म अपनी बात कहने के लिए ऐसे ही पात्र उठाती है तो उसकी नीयत पर संदेह करना उचित नहीं।
मैं भूत प्रेत की कहानी को क्यों बुरा मानूँ यदि वह हमारे समय के विकराल संकटों को वड़ी संवेदनशीलता से उठा रही है।
मुझे ओह माई गॉड फिल्म पसंद नहीं आई थी। यदि इस फिल्म का उत्तरार्ध इतना व्यावसायिक नहीं होता कि उसमें कृष्ण को अवतरित होना पड़े। तलाश एक मार्मिक कथा कहती है। अन्याय की। प्रेम की। नागरिकता की माँग की और कानून व्यवस्था सम्हाल रहे लोगों की असहायता की।
अगर अभिधा में देखा जाये तो कबीर भी राम ही चाहते थे। लेकिन उनका राम दूसरा था। व्यवस्था जो हमें देती है उसी का उपभोग करने की विवशता के साथ हमें व्यवस्ता का विरोध करना होता है। नया पुराने से आता है।
भोलाराम राम का जीव या दुविधा को हम इसलिए मानते हैं कि इनके लेखकों पर हमारा विश्वास है। मुक्तिबोध की फैंटेसी हमें इसलिए प्रगतिशील बनाती है क्योंकि हम लेखक की प्रतिबद्धता से वाक़िफ़ हैं। गुज़ारिश यह कि हमें अपरिचित लेखकों को भी पहले ध्यान से पढ़ना – देखना चाहिए।
पहली शर्त की हम कहानी या कला को पहले वैसे देखे सुनें जैसे वह चाहती है वरना हमसे निर्णय करने में जल्दी हो जाती है।
साहिब बीवी और ग़ुलाम जैसी फिल्में हैं जिन्हें यह मानकर देखना चाहिए कि वे क्या कहना चाहती हैं। कैसे कहती हैं कहानी में हमेशा यह देखना सही नहीं होता। क्योंकि तब तो हम यह चीककर कह सकते हैं यह उसी सामंती समाज पर समय और धन लगाती है। इसी में जनता की कोई कहानी दिखायी जा सकती थी।
Shashi Bhooshan चंदन, आप ध्यान देना कि अल्बेयर कामू की कब्र पर जो लिखा है उसी को
ओशो ने अपनी समाधि पर लिखने को कहा कि मैं न जन्मा न मरा। बस दुनिया में
....तक घूमने आया। ऐसे विश्वास मार्मिक होते हैं। लोग ऐसे भी विश्वासों से हँसते- रोते
हैं। भूत और मसीहा उसी दिमाग़ की उपज हैं जिसमें से एक को हम खराब मानते हैं। वरना इंसान को दोनो की
ज़रूरत नहीं। पशु पक्षी कहीं नहीं जाते। हमारी शिक्षा हमारी दी हुई
शिक्षा है। यदि कोई दूसरी शिक्षा पाये तो वह हमारे जैसा नहीं होगा। पवित्र
जगहें हों या भुतही जगहें हमारे ही डर से पैदा हुई हैं। मैं कहानीकार होकर
दोनों को ही नहीं मानता। मगर यदि मैं कहानी सुनाने बैठूँगा तो हर जगह
जाऊँगा। हमारे पास पात्रों का देश होना चाहिए। क्या खूब हो कि किसी कहानी में
मेरे बचपन का कोई दोस्त मेरे साथ रहे। वर्तमान में मैं उसे खोजते कब्र पहुँच
जाऊँ तो लोग मुझे पागल न मानें।
(फेसबुक से..)
(फेसबुक से..)
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