शिक्षा पर लोंगो की चिंताएँ अब केवल आयोजनी अवसरों पर ही सुनने में आती हैं.शिक्षा को लेकर कोई आंदोलन इतिहास की बात हो गईं.छात्र नेतृत्व भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की ऐशगाह बना हुआ है.मुझे कहने में लिहाज़ नहीं कि भारतीय शिक्षा मर चुकी है.स्कूली शिक्षा हो या उच्च शिक्षा इसे राजनीतिकों और तथाकथित शिक्षाविदों ने मिलकर मार डाला है.हत्यारे ही सबसे बड़े-बड़े आँसू रोते दिखाई देते हैं.यह सवाल उठाना कि अमुक नीति में ये कमी है बुद्धिविलास ही होगा जबकि एक छोटे से नियम के कार्यान्वयन में भ्रष्टाचार अपने वीभत्स रूप में प्रकट होता है.
मुझे उन विश्लेषणों को पढ़कर हँसी आती है जिनमें एक शिक्षाविद यशपाल कमेटी या ज्ञान आयोग की कमियाँ गिनाते हुए यह भूल ही जाता है कि उसने कैसे एड़ी चोटी का ज़ोर लगाकर इस जगह पर अपनी नियुक्ति कराई.जैसे सारे कसाई ही करुणा के उपदेशक बना दिए गए.शिक्षा की जड़ में ही भ्रष्टाचार है.मूर्ख और भ्रष्ट नेता-पूँजीपति विद्यालयों,विश्वविद्यालयों के मालिक हैं.कभी इस दौर की शिक्षा का इतिहास लिखा गया तो वह वैसा ही होगा जैसा अँग्रेजों के समय में किसानों का रहा है.
आप सोचिए तो सही.अध्यापक होने के लिए घूस देना बुरा नहीं.परीक्षा में नकल कराना गलत नहीं.अपने चेलों,सुपुत्रों को टाप कराने में अपराधबोध नहीं.नियुक्तियाँ कराने के ठेके लेने में शर्म नहीं.प्रेमिकाओं को शिक्षाविद घोषित कर देने में लज्जा नहीं.छात्राओं का यौन शोषण तक करने में ग्लानि नहीं.यह शिक्षा जगत का ही तो सच है.
बिना प्रयोगशालाओं के विज्ञान की पढ़ाई कैसे इस देश में संचालित हो रही है कभी आपने सोचा है?प्रयोगशाला के लिए सामग्री की ख़रीद कैसे कमाने,अपना घर भरने का ज़रिया बन चुकी है इसकी कोई चिंता है कहीं दिखाई देती है?प्रायोगिक परीक्षाओं में मिलनेवाले अंक कितने वास्तविक होते हैं इसे जानने का कोई ज़रिया बचा है?अवैज्ञानिक और सामंती सोच के दलाल कैसे समाजवादी वैज्ञानिक चिंतक का तमगा धारण करते हैं आपने ध्यान दिया है? विद्यालय भवन के लिए स्वीकृत पैसों से अपने घर का आधुनिकतम शौचालय बनवा लेनेवालों को जानते हैं आप?शोध के सिलसिले में अपनी पत्नियों के लिए भी गहने,यात्रा का खर्च लेनेवाले,पऱीक्षकों को लड़की,शराब मुहैया करानेवाले बौद्धिक-क्रांतिकारियों को देखा है आपने? डिग्रियाँ लेकर दर दर की ठोकर खाने वालों को तो ज़रूर दुतकारा होगा आपने भी पर फर्जी डॉक्टरेट से कुलपति बन जानेवालों पर थूकने की हिम्मत है किसी में?
जिस मीडिया की न्याय प्रियता पर कभी कभी हम भरोसा करने को मजबूर हो जाते हैं उसकी सच्चाई भी तो यही है-पैसा,पावर,प्रसिद्धि साध्य.संबंधाश्रित प्रतिभा, तिकड़म,बदले की भावना,और इस्तेमाल की मानसिकता साधन.अगर पत्रकारिता की तुलना समकालीन वकालत से की जाए तो बिल्कुल सही होगा.वकील चाहता है उसके मुकदमें बढ़ें,पत्रकार की कोशिश होती है ज्यादा से ज्यादा बिकाऊ खबरें हाथ लगें.बड़े-बड़े संस्थान वकीलनुमा पत्रकार ही तैयार कर पा रहे हैं.
मुझे लगता है इस देश में भ्रष्ट होने की प्रशिक्षणशाला शिक्षा ही है.वहीं से सारे अपराध पनप रहे हैं.जब हम कमेटियों की समीक्षा के लिए माथा खपा रहे होते हैं तभी हमारे आने-जाने का फर्जी बिल तैयार हो रहा होता है.नेता बुद्धिजीवियों की जाँघ में चुटकी काटकर ठहाके लगाते हैं आप मेरी जगह आ जाएँ तो ज्यादा कमाल करें.
शिक्षा के नियंत्रक और कर्ता-धर्ता किसी किस्म की जवाबदेही से मुक्त हो चुके हैं.जिसे शिक्षित जनता कहते हैं वह प्रतिरोधहीन हो चुकी हैं.विभिन्न कमाऊ संस्थानों में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे क़रीब क़रीब बेरोज़गार रह जाने को अभिशप्त मेधावी परीक्षार्थियों को छोड़ दें तो कक्षाओं में अच्छे विद्यार्थी मिलना मुश्किल होगा.
इसकी कोई भी ठोस रणनीति या व्यवस्था नहीं दिखाई देती कि गलत विद्यार्थियों को प्रमोट करते रहनेवाले मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालयों के सम्मानित अध्यापक और छात्रों को कस्टमर बना देनेवाले कोचिंग संस्थानों के संचालक कितने बड़े अकादमिक क्रिमिनल हैं. यह सब बिना रोक-टोक चलता आ रहा है कि कैसे भी डिग्री मिल जाए.आगे किसी तरह डिग्रियाँ हथिया लेनेवाले ही नौकरियाँ भी पाते हैं.फिर वही निर्णायक जगह पर आ जाते हैं.
शिक्षा जगत की ऐसी किसी नियुक्ति के बारे में आप क्या कहेंगे जो पहले से तय थी.पर लिखित पऱीक्षा साक्षात्कार आदि का बाकायदा निबाह किया गया.पैनल बनाये गए.प्रश्नपत्र निर्माण,मूल्यांकन आदि में धन और समय बर्बाद किया गया.मैं समझता हूँ इस जाल को भेदे बिना कमेटियों पर विचार विमर्श कोई अर्थ नहीं रखता.मुझे तो कोई भी सिंद्धांत तब तक स्वीकार्य नहीं जब तक उसके प्रतिपादक की ईमानदारी असंदिग्ध न हो.मैं कोशिश करके शिक्षा के संबंध में गंभीर बातें सोच सकता हूँ पर आजकल पूरी प्रणाली के प्रति ही गुस्से से भरा हुआ हूँ.मुझे शिक्षा में सुधार नैतिक मसला ज्यादा लगता है.अच्छी शिक्षा से निकले हुए लोग ही शिक्षा में सुधार ला सकते हैं.मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि मुझे जो शिक्षा मिली है उसने मुझपर भ्रष्ट होने के सारे तरीके आजमाए हैं.मैं ऐसे कई नामी गिरामी अध्यापकों को जानता हूँ जो अगर शिक्षा में सचमुच सुधार हो गया तो जेल पहुँच जाएँगे.चूँकि अभी शिक्षा को सुधारने का जिम्मा भी उन्हीं के हाथ है इसलिए वे आदरणीय हैं.महान हैं.भारतीय शिक्षा की शान हैं.
यह बहुत सोच समझकर किया जा रहा है कि शिक्षा को नष्ट होने दो.शिक्षा संस्थानों को उद्योग मे बदल दो.पाठ्यक्रमों को दलाली का औजार बना दो.अगर ऐसा हुआ तो लोगों में वे मांगे पैदा ही नहीं होगी जो मनुष्यता या राष्ट्र के विकास के लिए ज़रूरी हैं.
मैं सोचता हूँ इस प्रणाली में सुधार होने की आशा करने से बेहतर होगा इसका विरोध करना.इसलिए कि अंतत:शिक्षा से उम्मीद ही सच्ची उम्मीद होगी.शिक्षा का साफ़ सुथरा होना बुनियादी काम है.यह उन नागरिकों के लिए ज्यादा बड़ी ज़िम्मेदारी है जिन्हें अपने बच्चों को भविष्य में स्कूल,कॉलेज भेजना है.
(बया,जनवरी-मार्च-10 में प्रकाशित पत्र का संशोधित रूप)
बहुत गंभीर और महत्वपूर्ण विषय पर गंभीर चिंताएं हैं. समूची प्रणाली से गुस्से के तो न जाने और भी कुछ कारण होंगे पर कम से कम यहाँ यह गुस्सा जेनुइन है. इस में एक गुस्सा मेरा भी शामिल मानें. प्रतिरोध ज़रूरी है. अपने तईं मेरे कुछ प्रतिरोध हैं भी, ज़रूरी नहीं कि मैं उन्हें यहां गिनाऊं. हाँ, सहमत हूँ कि इस धंधेबाजी पर सबसे पहले ध्यान देना होगा क्योंकि ये पीढ़ियों को बरबाद कर रही है. हमारी जड़ों में मठ्ठा डालने की संगठित और कई बार सरकारी कोशिशों पर तो ध्यान दिया ही जाना चाहिए.. MCI के देसाई के ताजे उदाहरण के अलावा भी शायद हज़ारों बड़े-बड़े घोटालों के साथ बहुत निचले स्तर के घपलों को भी गौर से देखना और पकड़ना ज़रूरी है.
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट है....