सोमवार, 14 दिसंबर 2009

समझौता

दिवाकर पत्नी से दुखी रहनेवाले किंतु दांम्पत्य से संतुष्ट व्यक्ति हैं.एक ही बेटा है जो इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए हैदराबाद में रहता है.

दिवाकर की तकलीफ़ है कि करुणा मोबाईल पर ही टिकी रहती है सारा समय.हालांकि तसल्ली की बात ये है कि वह अपने काम,ज़िम्मेंदारियाँ समय से पूरे कर लेती है.उन्हें यह अखरता है कि उनकी पत्नी जिससे वे मनुष्य होने के नाते कभी कभी एकनिष्ठता की उम्मीद कर बैठते हैं पुरुष मित्रों के संपर्क में ज़्यादा रहती है.यह भी वे बर्दाशत कर ही लेते हैं क्योंकि उनकी भी कई महिला मित्र हैं.

उनके लिए असह्य यह आरोप होता है कि करुणा का यह स्वभाव नहीं.उसने तो प्रतिक्रिया में,बदला लेने के लिए यह सब शुरू किया है.

करुणा को लगता रहा है कि समर्पण के सहारे दिवाकर को सिर्फ़ अपना बनाकर नहीं रखा जा सकता.वह अपनी सारी स्वाभाविक एकांत फंतासियों का गला घोटते आते आखीर में वहीं तो पहुँची जहाँ एक अन-अपेक्षित करवट भी संदेह का वनवास रच देती है.वैवाहिक जीवन में एक समय के बाद पत्नी के आँसुओं से भी निस्पृह रहने लगता है पुरुष.यह जानकर ही तो उसने अपने भावात्मक एकांत चुनने शुरू किए.समझते हुए कि मरीचिका ही है यह.पर भरोसे ही कहाँ रहे अमिट?

पर करुणा की ज़िंदगी में कुछ पुरुषों की दोस्ती गहरे अर्थ रखती है,ऐसा दिवाकर सोचते हैं.सोच लेते हैं तो विचलित हो जाते हैं कभी कभी.दिवाकर यह भी सोचने से खुद को रोक ही लेते अगर उन्हें यह पता नहीं होता कि करुणा ने अपने मोबाईल में कुछ दोस्तों के नाम लड़कियों के नाम से सेव कर रखे हैं.कई बार उनके सामने आ जाने पर करुणा पुरुषों को लड़कियों की तरह संबोधित भी करने लगती है.
-जब मैं दकियानूस नहीं तब यह छल क्यों?
दिवाकर आपे से बाहर हो जाते हैं तब.फिर उनके झगड़े मार-पीट तक खिंच जाते हैं.ज़ाहिर है कमज़ोर ही हारता है के सिद्धांत से करुणा के हिस्से चोटें आती है.जीत से खिसियाया हुआ विजेता होते हैं दिवाकर.

दिवाकर दूरसंचार विभाग में असिस्टैंट इंजीनियर हैं.उन्हीं के ऑफ़िस में गोविंद राव इंजीनियर हैं.दिवाकर,गोविंद राव से नज़दीकी बढ़ाना चाहते हैं.इस कोशिश में वे कई उपहार दे चुके हैं.कई बार घर खाने पर बुलाया.लेकिन गोविंद राव पर्याप्त दुनियादार हैं कोई न कोई बहाना करके टाल जाते हैं.दिवाकर की ज़िद है कैसे भी गोविंदराव का भरोसा हासिल हो.ऐसा हुआ तो उनकी दफ़्तर की मुश्किलें आसान हो जाएँगी.लाभ होंगे जो दिवाकर की नज़र में इस नये ऑफ़िस में करियर की दृष्टि से शुरुआती और अहम होंगे.

एक शाम वे करुणा के साथ मित्र के घर बेटे की जन्म दिन पार्टी में थे.कैसे भी यह बरकरार रखा है दिवाकर ने कि किसी भी दोस्ताना या पारिवारिक आमंत्रण में हों करुणा के साथ होंगे.महीने की एक फ़िल्म भी साथ साथ बिना नागा देखी जाती रही है.हालांकि इसमे कई वजहों से अब दोनों की रुचि घटती जा रही है.वहाँ गोविंदराव का होना अप्रत्याशित था.पर दिवाकर खुश हो गए.उन्होंने आगे बढ़कर गोविंद राव का अभिवादन किया.
-सर आपके यहाँ होने से रौनक बढ़ गयी है.
-थैंक्स.
-सर कभी मेरे घर भी पधारिए.करुणा कई बार कह चुकी है आप कभी घर नहीं आते.

गोविंद राव यह सुनकर संभ्रांत हँसी हँसते हैं.करुणा की त्यौरियाँ चढ़ जाती हैं और दिवाकर करुणा को देखकर सिमट जाते हैं.माहौल असहज न हो जाए यह सोचकर करुणा ही परिस्थिति सम्हालती है.
-हाँ सर कभी आइए न.अच्छा लगेगा.
-देखिए समय निकालूँगा.
अच्छा लगेगा को चुभलाते हुए गोविंद राव आश्वासन दे देते हैं.

लेकिन वहाँ से निकलते निकलते करुणा ने झगड़ना शुरू कर दिया.
-मैंने कब कहा कि उस मराठी चिरकुट को घर बुलाओ?
दिवाकर की कमज़ोर आवाज़ में शर्मिंदगी थी.
-मेरे मुँह से ऐसे ही निकल गया था.
-नहीं तुम मेरा इस्तेमाल करते हो.
करुणा उग्र और रुआँसी हो रही थी.दिवाकर कोई कड़वा जवाब,कोई भेदक ताना सोच ही रहे थे कि अचानक करुणा के चेहरे का भाव ही बदल गया.वह हँसमुख हो उठी.सामने मुस्कुराता हुआ एक युवक था.
-हलो,शुभेश कैसे हो?
-नमस्ते मैडम.बिलकुल अच्छा हूँ.
दिवाकर ने गौर किया चेहरा अपरिचित है पर नाम तो सुना सुना है.उन्हें याद आ गया.करुणा के मोबाईल में यह नाम कई महीनों से है.वे अन्यमनस्क हो गए.दिवाकर ध्यान से सुन रहे थे कि इस थोड़े वक्त में करुणा शुभेश को घर आने का आग्रह कई बार दुहरा चुकी है.उन्होंने यह भी नोट किया कि युवक के बर्ताव में अनिच्छा है पर नज़रों में अभ्यस्त लालसा. इस अभ्यस्त लालसा देख लेने को जीत लेना चाहते हैं दिवाकर.पर जाने कैसी आदिम दुर्बलता उन्हें परास्त करती आ रही है.

वे अपने छोटे से परिवार के प्रति काफ़ी कल्पनाशील होते हैं आमतौर पर.लेकिन घर के बारे में बिल्कुल नहीं सोचना चाहते जब करुणा अकेली होती है वहाँ.कई बार जब वे साथ होते हुए ही उसके अकेले घर में होने को सोच लेते हैं तो ख़ुद को खोखला महसूस करते हैं.विक्षिप्ततों से दिखने लगते हैं. सहसा.करुणा घर में उनकी कमी को पूरी ज़िंदादिली से जीती है जानते हैं वे.यह जानना अपने लिए उनका कवच भी है पर कभी कभी इसके समेत वे कहीं इस तरह विसर्जित हो जाना चाहते है जहाँ किसी की पहुँच न हो.

आमतौर पर स्मृतियों से भरे होते हैं दिवाकर.पर करुणा की कोई याद नहीं कौंधती उनके भीतर.साथ रहना और याद का अनुपस्थित हो जाना.इसे सुलझाना भी नहीं चाहते अब वे.जैसा है चलता रहे तो ही ठीक.
-अब चलो भी.
वे करुणा को झल्लाहट से घूरने लगे. युवक से कहना नहीं भूले
-माफ़ कीजिए ज़रा जल्दी में हूँ.

अब घर लौटते हुए वे झगड़ नहीं रहे थे.उनके व्यवहार में एक दूसरे को माफ़ कर देने का चिर परिचित समझौता उभर आया था.

2 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर कहानी है शशि, हमारे समय की दुखती रग पर हाथ रखती हुई। कहानी का शिल्प मुझे उतनी गहराई से नहीं पता लेकिन इसे और डिटेल्स के साथ लिखा जाना चाहिए था । तुम्हें वो किस्सा पता ही होगा कि कैसे रीवा का एक बड़ा व्यवसायी मोबाइल के कारण अवसाद में चला गया था। अगर इसे आउट लाइन माना जाए तो यह एक बड़ी कहानी का बनेगी दोस्त वो भी एक दम नए और मौजूं विषय पर। अगर यह जीवन में मोबाइल के हस्तक्षेप विषय पर आधारित हो तो भी अच्छी कहानी होगी

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  2. Aaj ke parivesh me dampatya ke badalte swarup
    ka barik vishleshan hai.kshama-bhav bhi swarth se pare nahi hota...sunder rachna ki badhai.
    laghu-kathaon ki prasangikta aur prabhav ko badhane ki bhi.

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