मेरी उनसे वह अन्तिम मुलाकात, किसी कि़स्म का एक अप्रत्याशित संयोग भर ही कही जा सकती थी, क्योंकि मैं बिना कोई पूर्व जानकारी एकत्र किये कि ‘वे वहाँ, अपने आवास पर हैं भी कि नहीं, सहसा पहुँच गया था। हाँ, उज्जैन, जहाँ वे अपनी बड़ी बेटी कनुप्रिया के साथ, जीवन के उत्तरार्ध के आखि़री वर्ष, गिन-गिन कर काट रहे थे। क्योंकि, उन्हीं ने बताया कि उन्हें एक असाध्य-रोग से लड़ते रहने के लिए, एक निर्धारित अवधि के भीतर, ब्लड-ट्रांस्फ्यूजन करवाना लाजमी हो जाता है। कदाचित् बोन-मेरो की कमी सम्बन्धित कोई रोग था, जो उनको शनैः शनैः, मृत्यु की तरफ़ खींचता हुआ ले जा रहा था। मुझे उनके इस रोग से ‘हड्डियों में ज्वर’ वाली, उनकी पहली कविता पुस्तिका की याद हो आती थी, जिसे अशोक वाजपेयी ने पहले-पहल, एफ. आर. लेविस की ‘स्कू्रटनी’ मैगजीन की तर्ज़ पर निकाली गई, अपनी ‘पहचान‘ श्रृंखला के अंतर्गत छापा था। हालाँकि, उन्हें किसी ऐसे घातक ज्वर ने कभी नहीं पकड़ा था, लेकिन उनकी आत्मा किसी अज्ञात से ज्वर से ग्रस्त हो कर, निरन्तर तपती ही रहती थी। शायद यही वजह रही आयी होगी कि ‘ताप’ शब्द से उनकी एक अज्ञात-सी आसक्ति थी और वह गाहे-ब-गाहे, चुपचाप उनकी कविताओं में ख़ासतौर पर, और बातचीत में आमतौर पर आ ही जाया करता था। यों भी वे अपनी ‘आत्मा के भूखंड’ में लगातार तपते हुए, ही बरामद होते थे। गजानन माधव मुक्तिबोध की चर्चित और लम्बी कविता, ‘अंधेरे में’ का-सा डिलीरियम, उन्हें हमेशा घेरे रहता। हालांकि, वह उनका ही चुना हुआ था। वे उखड़ी हुई नींद के सताये हुए थे। बरसों से। लेकिन, अपनी उन ‘बेनींद’ रातों में, उन्होनें कभी कोई ऐसी ‘उचापत’ कभी नहीं की कि ‘जो किसी तरह सोये हैं’ उनकी नींद हराम हो जाये। वे कहते ही थे- ‘अगर नींद नहीं आ रही है तो थोड़ा झांकों, शब्दों के भीतर। ख़ून की जांच करो।’ यह एक आत्म-परीक्षण पर ज़ोर था।
उस दिन, उनके सामने बैठते ही मैंने गौर किया कि उनकी काया, पहले से कहीं ज़्यादा ही दुर्बल हो आयी है। उनकी काया की दुर्बलता को देखते हुए, ‘रेत, ज्यों तन रह गया है’, नेह निर्झर बह गया है...’, निराला की यह पंक्ति, उसी तरह का एक अफ़सोस मेरे भीतर भर रही थी। हालाँकि, काया क्षीण थी, लेकिन उनकी बड़ी-बड़ी दीप्त आँखों में, जीवन को जीने की जि़द, उसी तरह झाँकती दिखाई दे रही थी। रूग्णता ने, उनकी आंखों की, उस पुरानी दीप्ति को पूर्णतः छीना तो नहीं था, पर उसे थोड़ा धूमिल ज़रूर कर दिया था। मुझे आया देख कर, जब वे हलके से मुसकराये तो लगा कि बावजूद इस सब के, उनकी वह दीप्ति कौंध उठती है। ठीक ऐसे, जब हवा की हरक़त पर, कभी कभी छुपी हुई चीज़ें दिख जाती हैं। तसदीक़ करती हुई कि वे वहां हैं। मरी या नष्ट नहीं हुई हैं।
वे विदा हो रहे दिन के आखि़री छोर पर रह जाने वाले, धूप के टुकड़े के गोल दायरे में, घर के पिछवाड़े, दालान में पड़ी रहने वाली कुर्सी पर सिमटे हुए से बैठे थे, सिर पर गन्दुमी रंग की कैप लगाये हुए। कमज़ोर धूप के उस टुकड़े में, वे मुझे कुछ ज़्यादा ही कमज़ोर दिख पड़ रहे थे। मुझे एक हल्के से विस्मय ने घेर लिया- क्योंकि हर बार मुझे ही नहीं, किसी को भी देखते ही ‘तपाक से बोलकर स्वागत करने’ की, उनकी अपनी चिर-परिचित आदत को, जैसे उन्होनें ख़ुद रह कर ही बरज दिया था, और वह उनके पास आते-आते ठिठक कर कुछ दूर ही खड़ी रह गई थी।
“कैसे हो...?, प्रभु...तुम...?” उन्होनें बहुत धीमी लेकिन अपेक्षया काफी गाढ़ी आवाज़ में, वाक्य को टुकड़े-टुकडे़ में तोड़ते हुए, ऐसे स्वर में कहा, गालिबन वह कोई सवाल नहीं हो बल्कि अपनी ही किसी कविता की कोई प्रश्न-पंक्ति हो, जिसे उन्होंने बहुत निस्पृहता के साथ बोल दिया है। एक ठण्डे स्वगत-कथन की तरह, रूक-रूक कर। कुछ क्षणों तक उन्होनें मुझे बहुत आत्मीयता के साथ देखते रहने के बाद, सहसा ख़ुद को समेट लिया। उनकी वह रुचि, जो मुझको लेकर उनकी आँखों में अभी-अभी झलक रही थी, एकाएक झड़ गई थी और वे बिल्कुल ही, एक निरे अपरिचय के घेरे में बैठे हुए, एक ऐसे अन्य व्यक्ति जान पड़ रहे थे, जिनका मुझसे जैसे कभी कोई निकट का परिचय रहा ही नहीं है।
वे शायद ब्लड-ट्रान्स्फ्यूजन के बाद अस्पताल से लौटकर, शाम में घर के बाहर आकर बैठे थे। मैं, इन्दौर से चलकर, उज्जैन उनके पास बैठ कर, उनसे कुछ देर, लम्बी गपशप करने के इरादे से आया था। पर, उनकी ऐसी मनोदशा देखते हुए, मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि अब उनसे आगे क्या बात की जाये...? क्योंकि, एक अचूक ढंग से हरेक को ‘सम्मोहित कर के रखने वाले अपने बतरस’ से, जैसे उन्होनें अब हाथ झाड़ लिये हैं और अब वैसा बतरस उनके पास कभी लौट नहीं पायेगा। उनकी खुली हुई मुट्ठियाँ उनकी गोद में कुछ इस रखी हुई थीं, जैसे पहले उनमें कुछ दबा हुआ था, जो अब वहाँ नहीं है। फुर्र हो गया है।
उनके व्यक्तित्व की आरम्भ से ही यह एक अलभ्य विशिष्टता रही आयी थी कि आप उनसे किसी भी तरह की बेतुकी बात करना शुरू करें, वे उसमें न केवल पर्याप्त तुक खोज लेते थे, बल्कि उसको पूरी तरह तुक और तर्क वाली बात बना दिया करते थे। उनका, यह एक बहुत प्रीतिकर कौशल था, जो उन्हें सबके लिए अनौपचारिक और आत्मीय बना देता था। मैं उनसे अमूमन मनो-विनोद के मालवी मुहाविरे में कहा करता था- ‘देवताले जी, आप अड़ंग-बड़ंग में, बायबड़ंग मिला कर, उसे एक नुस्खे में बदल देते हैं। नतीज़तन, एक बहुत साधारण-सी बात, अकारण ही सारगर्भित हो जाने का भ्रम भर देती है।’ वे मेरी इस टिप्पणी पर बच्चों की तरह हंसने लगते।
इस वक्त, उनके सामने बैठा हुआ मैं, उनसे बतियाने से रुका हुआ, छोटे से अफ़सोस से भर गया था कि यह एक कैसी स्थगित मुलाकात है, जो शुरू होते ही समाप्त हो गई। वे लगभग भाषाच्युत से हो गये थे। एक विचित्र-सी विडम्बना यह थी, जिसे मैं चुपचाप देख रहा था कि एक कवि, जो अपने अल्फाज़ों के अखूट जख़ीरे को आलचाल करने में निरन्तर लगा रहा हो, उसकी मुट्ठी से शब्द छूट कर बिखर गये हैं और अब उसमें, अपने आसपास बिखरे में से, कुछ भी उठाने की, उसकी रुचि ही नहीं रह गई है। वे दाने-दाने हो कर बिखरी भाषा के बीच बैठे, उस बीमार परिन्दे की तरह जान पड़ रहे थे, जो दानों के ढेर पर बैठ कर भी, चुगने की ज़रूरत को खो चुका है। उनकी ऐसी अवस्था, मुझे भीतर ही भीतर बेतरह बैचेनी से भरने लगी।
बहरहाल, मैंने अपनी अभी तक की, थोड़े बहुत शरीर-विज्ञान की अर्जित जानकारी के सहारे ख़ुद को समझाने की कोशिश की कि निश्चित ही, यह सब उनके रक्त में, सोडियम-पोटेशियम के निर्धारित अनुपात में एक विकट असन्तुलन का डराने वाला परिणाम है। इसीलिए ‘बतरस’ को, अपने कवि की फितरतों और युक्तियों से अतिरिक्त आशय-गर्भित बना डालने वाला, वह दक्ष-शब्दकार, इतना निशब्द हो गया है। कोई कचोट किरच की तरह मेरे अन्तस में चुभकर, एक गाढ़ी लकीर-सी खींचने लगी थी।
बहरहाल, मैंने उनसे बजाय कोई बात करने के, आहिस्ता से अपना हाथ बढ़ाया और उनके दाहिने घुटने पर रख दिया, जहाँ जीवन की इतनी लम्बी यात्रा की जाने कितनी कथायें छुपी हुई थीं। कालपात्र की तरह, ‘नी-कैप’ के नीचे। और सिर पर लगी धूसर रंग की कैप के नीचे तो उनका वह बहुत उर्वर कल्पना के उद्दाम से भरा मस्तिष्क था। जो इन क्षणों में सर्वथा प्रशान्त था। लगा, महासागर, एक खामोश झील में बदल गया है। एकदम स्थिर। मैं डर गया कि नीत्शे की तरह, वे भी किसी दिन कहीं वेजि़टेटिव तो नहीं हो जायेगें...? संसार में रहते हुए भी, संसार से नितान्त पृथक...और स्वयम् से भी एकदम विलग। अपरिचित।
“देवताले जी, मेरी आपसे एक शिक़ायत है.....बताइये, आपने इन्दौर को तो एक सौतेले शहर की तरह बिलकुल अनाथ छोड़ दिया- अब आप वहाँ आते ही नहीं हैं...।’ मैंने बात का गुम हुआ सिरा खोज कर बोलना शुरू किया। उम्र के इस पड़ाव पर, अभी तक भी, बड़ी-बड़ी बनी रहने वाली अपनी आँखों को, हल्के से विस्फारित करके, वे मुझे एकटक देखने लगे। मुझे नहीं, जैसे मेरे द्वारा किए गए प्रश्न को, जिसके पीछे पूरा एक शहर था। उनका अपना शहर......जिसकी गलियों में आवारागर्दी करते हुए, उन्होनें काफी कच्ची उम्र में सहसा और सरेआम, एक दिन कविता का हाथ पकड़ लिया था। शायद, उनका यह पहला प्रेम था। नौवीं कक्षा का किशोरवय वाला प्रेम, जब आँखें आंसुओं नहीं, बल्कि स्वप्न-जल से धुली-धुली रहती हैं।
मैंने अमूमन यही पाया था कि यदि आप उनके सामने इन्दौर की बात छेड़ दें तो, वे इस शहर को ऐसे याद करने लगते थे जैसे कि वे इन्दौर में ही रहकर भी सहसा, किसी और इन्दौर में चले गये हैं और वहाँ से वे ज़ल्दी लौटना नहीं चाहते। मुझे लगता, वे इन्दौर को ऐसे याद करते हैं, जैसे प्राग को कभी काफ्का याद करता होगा, या वॉन गॉग अपने पेरिस को। या विलियम फॉकनर मिसीसिपी को।
मेरी उनसे अक्सर ही फोन पर बात होती रहती थी। वे उज्जैन से फोन लगा कर, बात करते हुए, बहुत भावुक होकर इन्दौर को याद करने लगते थे, जैसे अब सैंकड़ों मील दूर है, उनसे, उनका प्रिय शहर इन्दौर। वे स्वर्गीय प्रभाष जोशी की ही तरह, याद करते थे, अपने बचपन से रस-रस करती इन्दौर की तमाम जगहों और लोगों को। मसलन, इन्दौर के प्रेमी-युगलों की सैरगाह की तरह ख्यात वह सामन्तयुगीन फूटी-कोठी, बियाबानी, ओल्ड पलासिया, छावनी या वह जूनी इन्दौर, जिसकी किसी संकरी गली में खड़े रह कर, मक़बूल फि़दा हुसैन ने अपनी कच्ची उम्र में, एक लैंडस्केप बनाया था, जो दस रुपयों में बिकने वाली उनकी पहली चित्रकृति का कीर्तिमान बन गया था। देर रात गये तक, रौशनियों के बीच जगमग करने वाला वह सराफा भी, उनकी आंखों के नीचे घूमने लगता, जिसमें मैं प्रीतिश नन्दी को घुमाने ले गया था तो उन्होनें कहा था--‘ओह! आय एम फालिंग इन लव विथ दिस प्लेस...इट्स अ ग्रेट ट्रेज़र ऑफ ओरिजिनल इण्डियन फास्ट फूड’!
इन्दौर ना आने की मेरी शिकायत को सुनने के बाद, कुछ क्षणों तक आँखों को विस्फारित करके वे मुझे देखते रहे फिर उन्होंने आहिस्ता से अपनी आँखें मूँद लीं। मुझे अंग्रेज़ी की एक कविता की पंक्ति याद हो आई- ‘एज़ द आइलिड क्लोजेस आउटवर्डली, द आई ओपन्स इनवर्डली...’ पता नहीं यहाँ से आँख, मुँदने के बाद, भीतर से वह कहाँ खुल गई होगी...? क्या देख रही होंगी...?, भीतर खुलने के बाद...? पता नहीं जगहों को...? लोगों को...?, या पूरे उस इन्दौर को, जो महानगर होने की होड़ के नीचे कुचल कर, कभी का नष्ट हो चुका है। और उस नष्ट इंदौर को याद करते हुए, वे कवि नहीं रह जाया करते थे, बल्कि, किशोरावस्था के बच्चे में बदल जाते थे। एक बच्चा निकर पहन कर उनके भीतर प्रदक्षिणा करने लगता था। हो सकता है, वहां......अतीत में कोई चन्दू कहके उन्हें ऊँची आवाज़ में शायद पुकार रहा होगा। वे लगभग समाधिस्थ से हो गये थे। मैंने कहा-‘ आपने मेरी बात का जवाब नहीं दिया...।’
उन्होंने अपनी आंखें खोल लीं। पर, उनकी वे आंखें, निश्चय ही सन् स़त्रह में नहीं ही थीं बहुत दूर थे, वे। मुझे लगा, वे वहां कुछ खोज या देख नहीं रहे हैं, बल्कि कुछ भूलने की कोशिश में लगे हैं। जैसे कोई पुरानी रेखाएँ हों, जिन पर वे बार-बार रबर फेर रहे हैं। हो सकता है, वे उन्हीं की बचपन की किसी कॉपी में खींची हुई रेखाएँ हों। या आकार हों। वो पहले की तरह किसी मामूली-सी भी बात पर सहसा दहाड़ उठने वाला स्वभाव कहीं बिसरा कर छूट गया था। एक निर्विकार तटस्थता का वास, बन गया था उनका अन्तःकरण। जैसे, शेर की मांद गोशाला में बदल गयी हो।
‘इन्दौर मेरे लिये अब किसी पुरानी तसवीर की तरह है.....क्या तसवीर में दाखि़ल हुआ जा सकता है..?’ उन्होंने बहुत धीमी आवाज़ में कहा तो लगा, वे इस वक़्त किसी और ही धरातल पर टहल रहे हैं। जहां उनसे जि़रह नहीं की जा सकती। मैंने उनके प्रति-प्रश्न को सुनकर, उनसे सम्वाद की, जो इच्छा मेरे भीतर थी, उसका का हाथ छोड़ दिया और कुर्सी में थोड़ा-सा मैं धंस कर बैठ गया।
वैसे, यह बात बहुत कम लोगों को पता होगी कि वे चित्रकारी भी करते थे और वे इतनी सशक्त रेखाएँ खींचनें में कुशल थे कि कला के इस ‘घसड़-फसड़’ वाले युग में, जबकि काग़ज़ और कैनवास पर खींची गई कैसी तो भी रेखाएँ, धंधई कला आलोचकों द्वारा, ‘अद्भुत चित्रकृति’ की तरह प्रचारित हो सकती हैं, ऐसे में वे तो एक ख्यात कवि-चित्रकार हो सकते थे। उनके सम्वाद-नगर वाले घर की बैठक में, उनके द्वारा तैलरंग में बनाई गई, निराला की मुखाकृति फ्रेम की हुई लगी थी, जो मेरे इस कथन की पुष्टि के लिए पर्याप्त है। हालाँकि, वे अपनी इस चित्रकारी के शौक को ‘झक’ कहा करते थे। कभी-कभी अपने कविता कर्म को भी, इसी संज्ञा से पुकार दिया करते थे। मैंने, उन्हें ‘झक्की-कवि’ कहते हुए एक दिन कहा था- “देवताले जी, निराला आपके प्रिय कवि नहीं हैं, पर, ये कैसी ‘झक्क’ है, हिन्दी कवियों में कि निराला को अपने फक्कड़पन की फितरत के चलते, कबीर की तरफ़ जाना चाहिए था, मगर वे तुलसी की तरफ लपक गये। मुक्तिबोध को निराला की तरफ़ जाना चाहिए था- लेकिन वे प्रसाद की कविता के प्रासाद में दाखि़ल हो गए। बताइये कि आपकी दौड़ किस तरफ है....?’
‘मुक्तिबोध की तरफ...।’ उन्होनें कहा नहीं, घोषणा की और अपनी घोषणा के असर को मुझमें पढ़ने के लिए मेरे चेहरे की तरफ़ एकटक देखते रहे थे। मैं किसी ‘ब्लिंकिंग ईडियट’ की तरह आँखें मिचमिचाकर उन्हें देखने लगा ताकि वे मेरी आँखों में, अपनी उस घोषणा की असली प्रतिक्रिया को बरामद ही न कर पाये। मैं कई बार ऐसी चतुराइयों का कुशल इस्तेमाल उनके समक्ष इरादतन किया करता था।
यों देवताले जी मुक्तिबोध की तरफ मुँह करके उस दिशा में चलने लगे थे, लेकिन वे उनके उत्तराधिकारी नहीं थे। वे मुक्तिबोध की तरह मराठी-भाषी भी नहीं थे, लेकिन मराठी कवि और कविताओं से उनका बहुत निकट का सम्पर्क था और, वे मराठी कवियों के बीच, केवल लोकप्रिय भर नहीं थे, बल्कि मराठी कविता को उन्होनें अपनी कविता से ठीक उसी तरह प्रभावित किया था, जैसे कभी धूमिल के काव्य-मुहावरे ने हिन्दी की युवा कविता को।
दरअस्ल, देवताले जी की ‘आरंभिक कविता’ का अपना कोई ‘पृथक व्यक्तित्व’ नहीं बन पाया था। तब तक राजकमल चौधरी की लम्बी कविता ‘मुक्ति-प्रसंग’ की भाषा और उसके स्थापत्य पर, अपना अघोषित उत्तराधिकार प्राप्त कवि धूमिल का काव्य-मुहावरा, हिन्दी की युवतर कविता पर एक नशे की तरह तारी हो रहा था। एक अप्रत्याशित ढंग से अचानक पहली पंक्ति से ‘दबोच’ लेने या ‘चौंकाने वाली’ इस कविता ने, आस्तीनें चढ़ाने पर उतारू युवा कवियों को लगे हाथ अपनी तरफ़ खींच लिया था। हालाँकि, वे युवा कवि, कोई ‘एंगस विल्सन’ की तरह ‘एंग्री यंग मैन’ नहीं थे, क्योंकि प्रतिरोध की समग्रता की समझ उनमें नहीं थी। केवल सत्ता-विरोध को ही वे कविता का प्राथमिक सरोकार समझ रहे थे। देवताले जी की कविता को थोड़ी-थोड़ी हवा, अकविता की भी लग चुकी थी और ताप, संताप, त्रास-संत्रास तथा ‘देह के अंधेरे’, उनकी कविता को घेरने लगे थे। लेकिन, उनके भीतर की एक आत्म-सजगता ने, उन्हें उस ओर अपने कदम बढ़ाने से यथा समय बरज दिया।
बहरहाल, मुझे उस दिन उस मुलाकात की उन अवसन्न घडि़यों में पहली बार कवि के अकेलेपन में जीते हुए भी, वे इतने अधिक ‘अकेले’ लग रहे थे, जैसे कि वे अकेले है नहीं, बल्कि, ‘निरबंक अकेले पड़ गये’ हैं और अब उन्होंने उस ‘अकेलेपन’ से पिण्ड छुड़ा-छुड़ाकर भागने के बजाये, उसके साथ रहना सीख लिया है। यद्यपि, एक ‘अकेलापन’ उन्हें अपनी जीवन-सहचरी ने संसार से विदा मांग कर, कुछ समय पहले ही सौंप दिया था। लेकिन, उस ‘अकेलेपन’ को उन्होनें ‘रचनात्मकता’ में बदल कर, उसमें दुख का एक भिन्न ‘अंतर्निवेश’ कर लिया था। कई सारी कविताएं उन्होनें लिखीं, जिसमें हमें स्त्री की एक अलग ही उपस्थिति मिलती है। मैंने तब ही उनसे एक बार पूछा भी था-‘देवताले जी, क्या दाम्पत्य-प्रेम से अलग भी आपके पास कोई प्रेम है...? लेकिन, उसका उन्होनें कोई उत्तर नहीं दिया था। उनकी मुस्कान ही इस प्रश्न का उत्तर था। कुछ प्रश्न, ‘प्रश्नवत मुद्रा’ में ही आते हैं-लेकिन, वे उत्तर नहीं मांगते क्योंकि वे जानते हैं कि उत्तर के मिल जाने का अर्थ उनकी मृत्यु है। इसलिए, उत्तर उनकी तरफ़ पीठ फेर लेते हैं। देवताले जी की वह कोई मुस्कान नहीं थी, उनके उत्तर की पीठ थी।
यह एक अनिवार्य सच है कि कला, साहित्य, और संगीत में स्त्री की उपस्थिति का आलोक चतुर्दिक है। इसलिए देवताले जी की कविता में भी स्त्री है लेकिन वह ‘कविता से निकाल कर कविता’ में आई स्त्री नहीं है, जो प्रेम से भरी हुआ करती है। नख से शिख तक। भाषा की लाण्ड्री से निकले प्रेम के दिव्य परिधान पहने आती है। उनकी कविता में जीवन के घन-मथन से निबटती हुई स्त्री थी, जो भारतीय मध्यम वर्ग के दाम्पत्य की प्रतिनिधि छवियों को अपना अलंकरण बनाती हुई है।
अपनी जीवन-संगिनी की मृत्यु के बाद, वे बहुत अकेले हो गए थे। इन्दौर के सम्वाद-नगर में, वे मेरे पड़ोसी ही थे और नतीज़तन, उनके यहाँ मेरा आना-जाना लगा ही रहता था। वे उस घर में ज़्यादातर अकेले ही रहा करते थे। वे सबको अकेले ही दिखाई देते थे। घूमते-फिरते। गली के मोड़ से अंधेरे में मुड़ते हुए। या किसी जगह पर ठिठके हुए। पर, मुझे हमेशा लगा करता था, जैसे उनके साथ कोई है, जिसे अन्य लोगों की आँखें ठीक से देख नहीं पा रही हैं, कि आखि़र वह कौन है, उनके साथ...?
मैं बेनोविट्ज के ‘नेकेड टेक्स्ट’ की तर्ज़ पर मुक्तिबोध की लम्बी कविता, ‘अंधेरे में’ पर, एक इन्नोवेटिव प्रोग्राम बनाकर आकाशवाणी का ‘नेशनल अवार्ड’ हासिल कर चुका था। उसका, एक नया रूपान्तर करके, उसे बर्लिन महोत्सव में भी भेज कर पुरस्कार भी प्राप्त कर चुका था, अतः कहना यह चाहता हूं कि मैं ‘अंधेरे में’ के उस काव्य-पात्र को, कई-कई तरह से पढ़ चुका था।
“देवताले जी, मुक्तिबोध की कविता का एक बौखलाया हुआ आदमी, वहाँ से निकल कर, आपके साथ हो लिया है...।’ मैंने एक दफ़ा यह कहा, तो उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी ‘बल्जिंग’ आँखों से सन्देह के साथ देखा। बात को भी और मुझे भी। इस बात की तस्दीक़ के लिए कि मेरे कथन के पीछे कोई उपहास तो नहीं दुबका हुआ है। लेकिन, उन्हें मेरे कथन पर ज़ल्दी ही यक़ीन आ गया। क्योंकि, मैंने लगे हाथ, उनकी सद्य प्रकाशित कविता ‘भूखंड तप रहा है’ का उल्लेख करते हुए, उसे हिन्दी की लम्बी कविताओं के क्रम में, ‘अंधेरे में’ से बिलकुल सटा कर रख दिया था। उन्होनें भीतर से उठते सन्देह और खिन्नता दोनों को वहीं दबा दिया था, जहाँ से वे उठते थे।
जो लोग उनके निकट रहे हैं, वे जानते थे कि उनकी खिन्नता को खोलकर, उससे खेलने का एक अलभ्य आनन्द है, जिसके उपसंहार में उनकी हंसियाँ छुपी रहती हैं। कभी-कभी, मैं इरादतन और शरारतन भी उन्हें कुरेद दिया करता था- ‘देवताले जी, कुछ लोग आपकी कविता का रिश्ता, शायद वैमनस्यवश ही, साठ के दशक की ‘अकविता’ से जोड़ देते हैं। केवल प्रवृति के स्तर पर। पता नहीं ये कमबख्त, ऐसा क्यों करते हैं...?’ यह बात सुनते ही उनके चेहरे की हर कोशिका से तिक्तता तैरती हुई बाहर आने लगती। फिर, खिन्नता की उनकी धारावाहिक छवियाँ प्रकट होने लगती। अगर, ऐसी बात उनसे, ‘संध्या आचमन’ के समय कर दी जातीं, तब वे यह प्रमाणित कर देते कि उन्होनें अभद्रता पर से अपना ‘स्वामित्व’ खोया नहीं है और वे अपशब्दों में पर्याप्त आत्मनिर्भर हैं। लेकिन, आपने उनसे ऐसे प्रश्न अकेले में कर दियें हों तो फिर वे उस लांछन को पोंछने के लिए हड़बड़ी में भर कर, खुरपी सरीखे तीखे और नोंकदार शब्द लाते और सब कुछ को खुरच-खुरच कर इतना साफ कर देते कि वहाँ ‘अकविता’ का छींटा तक उस पर दिखाई नहीं देता। फिर, अपनी बिगड़ैल और बनैली भाषा को, फल खाने के बाद फेंक दिए जाने वाले छिलके की तरह छोड़ कर, किसी यारबाश की तरह हंसने लगते।
मुझे याद है, एक दफ़ा मैंने उनकी खिन्नता से खेलने के लिए कहा-‘देवताले जी, मुझे आकाशवाणी पर आपका एक ‘इंटरव्यू’ करना है, उसमें एक सवाल यह भी रहेगा कि मुक्तिबोध तो मराठी-भाषी थे, लेकिन, उन्होनें तुकाराम को हाथ पकड़ कर अपने साथ चलने के लिए कभी नहीं पुकारा। आप तो मराठी-भाषी भी नहीं हैं, फिर आपने सन्त तुकाराम को अपने साथ क्यों कर लिया...? क्या आपको, हिन्दी की पुरानी कविता-परम्परा का कोई कवि नहीं मिला...?’ कहीं ऐसा तो नहीं कि कुछ लोग कबीर-तुलसी को अपने ढंग से अपहृत कर चुके हैं- आप इसीलिए ही कुछ अलग-से कवि को अपने साथ लेना चाहते थे। जबकि, आप जैसे मार्क्सवादी कवि की सन्त तुकाराम से संगति कैसे बैठ गई...?
बस क्या था, उनके तेवर ऐसे हो गए जैसे मालवी की मीठी-चुक्क मावा-बाटी में किसी ने मिर्ची मिला दी हो। वहाँ सन्त के साहचर्य की स्थित-प्रज्ञता तिरोहित हो गई। वे कुछ ऐसे शब्द भी उठा लाए, जिन्हें उनके अलावा कोई और उठाले तो फफोले पड़ जाएँ। अन्त में, इस सबका विसर्जन इस धमकी पर हुआ कि यदि ‘तुम मेरा इण्टरव्यू करने बैठ गये तो मैं माइक छोड़ कर स्टुडियो से भाग जाऊंगा।’ फिर हंसते हुए कहने लगे- ‘तुम बहुत शातिर हो, प्रभु.....मैं तुमसे डरता हूँ।’ यह डर की बात भी उन्होंने डर-डर के बतायी। डर के अपने अभिनय के साथ। फिर ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे।
हक़ीक़तन, मेरे और उनके दरमियान कई खीझ और कई असहमतियाँ थीं, जो बात करते हुए, सभी एक साथ वहाँ एकत्र हो जातीं। लेकिन, खीझ को उन्होंने इतना सिर कभी उठाने नहीं दिया कि वह हमारे सम्बन्ध की मिठास को निगल जाये। खीझ प्रकट होते ही, वे जेब से बटुआ निकालने लगते। फिर ज़र्दा चबाने के बाद थूंकते हुए, गुस्सा थूंकते जान पड़ते। बाद इसके तो सम्वाद की सहजता का सैलाब आकर उन्हें आपादमस्तक डुबो लेता। असल बात तो ये ही थी कि वे बहुत भरे हुए थे, भीतर से। प्रेम से। बस उनके प्रेम का पात्र बन कर उस भरे हुए को, ढंग से उलीचने वाला कोई उन्हें अपने निकट नहीं मिला। मैं पहली बार, जब उनसे मिला था, सत्तर के साल में तो वे मुझे हास्य के पात्र लगे थे। अपनी बातों और पहनावे में। लेकिन ज़ल्द ही वे मेरे प्रेम के पात्र कब बन गए, यह पता ही नहीं चला। हक़ीक़तन, वे शुरू से ही प्रेम के ही पात्र थे, लेकिन तब मेरी ही आँख, उन्हें ठीक से चीन्ह पाने में चूक गई थी।
यों भी वे युवा कवियों के अधिकतम प्रेम पात्र रहे। हरेक युवा, जो उनसे मिल लेता था, बहुत ही अल्पावधि में, वह यह दावा करने की वैध स्थिति में खुद को पाता था कि वही उनके सर्वाधिक निकट है। बात यह थी कि उनकी अन्तरंगता बहुत ही पनीली और पारदर्शी थी- वे अपने से, थोड़ा भी नैकट्य पैदा कर लेने वाले को, अपना वह सब कुछ खोल-खाल कर, बोलने और बताने की उतावली से भर उठते थे, जिसे चतुर लोग अपनी आत्मा के तलघर में छुपा कर रखते हैं, और उसमें ताला जड़े रखते हैं। वे न तो वैमनस्य छुपा पाते थे, ना ही प्रेम। उनमें उम्र और अहम् की दुतरफा सीढि़यों को तेज़ी से उतर सकने का अभ्यास नहीं, बल्कि एक ऐसी आदत थी, जिसके आगे वे हार जाते थे। वैसे, अपने हमउम्रों की कतार में, वे विष्णु खरे को हमेशा अपना ईमानदार दोस्त मानते थे। जबकि, उनके दूसरे सबसे निकट मित्र, विट्ठल त्रिवेदी थे।
लेकिन, यथार्थ में, सूक्ष्मता के साथ देखा जाये तो वे किसी के निकट नहीं थे। वे अपने ही निकट थे और अपनी कविता के और अधिक निकट। वे अपनी कविता के नैकट्य में ही जागते-सोते और साँस लेते थे। इसलिए, उनके पास कविता और कविता थी। कविता के अलावा भी कविता ही थी। साहित्येतर ज्ञान को अर्जित करने की उनमें कोई अनियंत्रित-सी पड़ती ललक कभी दिखाई नहीं देती थी। वे अपने अनुभव और संवेदना की रौशनी के मैदान में टहलते रहते थे। उनकी भाषा में, एक अनुपम क्रीड़ा भाव था, लेकिन, उनकी कविता केवल कोई भाषा-क्रीड़ा नहीं थी। तमाम बड़े कवि की तरह उनकी भी कविता का वंश-वृक्ष ‘नैतिक क्षय’ से भी जुड़ता था। एक अतार्किक अतिरंजना को, कविता में अपने काव्य कौशल से, पश्चिम के कवियों की-सी, एक विशिष्ट तराश देने में समर्थ थे।
कहना न होगा कि रचना में निर्विवाद रूप से, कल्पना ही सत्य की सामग्री जुटाती है और उनके भीतर कल्पना का तो क्षितिज इतना बड़ा था कि उसमें ‘उपस्थित’ अनुपस्थित में बदल जाते थे और ‘अनुपस्थित’ उपस्थित में। यही कांक्रीट और एब्स्ट्रैक्ट का खेल, वे मलार्मे और पाल वेलेरी की तरह, बहुत प्रावीण्य के साथ खेलते थे, लेकिन उसमें अपनी वामपंथी विचारधारा का आश्रय लेकर, वे उस खेल को किसी छापामार युद्ध की दृश्य-भाषा में उलट दिया करते थे। हालांकि, यह बात भी है कि वे ‘विचारधारा’ की चकाचौंध से, कथित प्रतिबध्द कवियों से अलग और बचे हुए थे, क्योंकि वे जानते थे कि उसका असन्तुलित आधिक्य रचना की गरिमा के गौरव को गिरवी रख देना है। अधिक चकाचौंध में ‘डिटेल्स’ दिखना बन्द हो जाते हैं।
यों तो उन्होनें आलोचना के भय से मुक्त रहने की घोषणाएँ अपनी तरफ़ से बहुतेरी बार कहीं हैं, लेकिन वे खुल्लम-खुल्ला होकर, कभी सामने नहीं आये। यह बात बहुत दिलचस्प है कि हिन्दी की आलोचना की पीठ पर दो तरह लोग कोड़े बरसाते बैठे हुए हैं। वह सवार, या तो संस्कृत का पण्डित है या अंग्रेज़ी का पण्डित। लेकिन, आलोचना की लगाम इन पंण्डितों के बजाये मार्क्सवाद के ठाकुरों ने पकड़ ली थी। देवताले जी की इन तीनों से कभी कोई लम्बी भिड़न्त हुई हो, अपने मित्र विष्णु खरे की तरह, यह मुझे याद नहीं पड़ता।
“यहाँ उज्जैन में, कहाँ आये हो...? उन्होंने, एक लम्बी चुप्पी के बाद पूछा।
‘कवि चन्द्रकान्त देवताले के यहाँ।’ मैंने आने की वजह और पता बताया, जो जगह नहीं व्यक्ति का नाम था। मुझे लगा वे अपने नाम को किसी मुकाम की तरह पा रहे हैं। वहाँ हम दोनों ठिठके हुए और आमने-सामने थे। सुमन जी, नरेश मेहता के बाद, देवताले जी का आवास भी, उज्जैन के साहित्यिक जगत के किसी शक्तिपीठ की तरह ही था। मैं उनके घर को साहित्य की ‘हरसिध्दि’ कह देता तो वे घूर कर देखने लगते।
पर, प्रभु...! तुम्हारा चन्द्रकान्त देवताले तो अन्दर है, उसने खदेड़कर मुझे घर से बाहर कर दिया है। मैं घर-बदर हूँ।’ उन्होनें कहा। पर जैसे उसमें से हास्य निथरा हुआ था और वे किसी के द्वारा बेलिहाज़ होकर, अपने से की गई किसी की बदसलूकी का बखान कर रहे हों। वे हँसे नहीं। होठ स्थिर। और नज़र मेरे चेहरे में पूरी तरह धँसी हुई थी। मैंने परिहास की मंशा से बात को बढ़ाया-‘ देवताले जी, चाय से ज़्यादा केतली गरम होती है। उसमें आपका ‘आत्म’ भरा हुआ है, जो खौलता-खदबदाता है। कोई आलोचक आपके यहां आ जाये तो, उसको कहना ‘मेरा ये पोर्ट्रेट छूकर देखना, ज़रा...देख लेना उसका तो पंजा ही भुन जायेगा...वो जीवन में आपके खिलाफ़ एक शब्द भी लिखने से डरेगा...।’ मुझे लगा कि वे मेरी इस बात पर ज़रूर हंसने लगेंगे। वे हंसे नहीं। मुझे लगा, हंसी को भी उन्होंने किसी, बहुत-बहुत बार इस्तेमाल करने के बाद अनुपयोगी हो चुकी चीज़ की तरह कहीं रख दिया है और भूल गये है।
बहरहाल, यह हिन्दी की कविता की दुःखदायी विडम्बना ही है कि वह आलोचना के आतंकवाद से काफ़ी हद तक संचालित होती रही। साठ के दशक से ही मार्क्सवादी ‘समझ में अपमिश्रण’, इस हद तक हो गया कि जिस मार्क्स ने खुद प्रेम पर कविताएँ लिखी थीं- हिन्दी कविता में मार्क्सवाद से स्वयम् को नालबध्द मानने वाले रचनाकारों के लिये, ‘प्रेम’ एक उच्छिष्ट की तरह त्याज्य विषय होने लगा था। तब कविता का ‘एण्टी-रोमेण्टिक’ बनाने का मूढ़-आग्रह अपनी शिखरस्थ अवस्था में था। प्रेम कविता लिखने वाले कवि की पीठ पर, वह कोड़े की तरह पड़ने लगता था, क्योंकि प्रेम को, हिन्दी साहित्य में, उसकी एक ‘मेटाफिजिकल ग्रेविटी’ से अपदस्थ करके खारिज़ कर दिया जा चुका था। कहानी में तो ऐसा प्रेम एक धोखादेह कि़स्म की चतुराई की तरह चित्रित हो रहा था। कहना चाहिये कि प्रेम की उपस्थिति, कविता में संदिग्ध हो गई थी। उसकी प्रविष्टि कविता के ‘जेनुइन’ होने की वैधता खो देती थी। जैसे एक प्रेम और क्रान्ति के मध्य कोई पुश्तैनी शत्रुता हो। जबकि, प्रेम तो सदा से ‘अरिहन्ता’ रहा है। बल्कि वह प्रेम ही है, जो अगर ‘विचारधारा’ से जुड़ने जाने के बाद, उसे वह क्रान्ति तक पहुंचा देता है। यह विचार, एक तरह से, मार्क्सवाद को एक ‘एडवेंचरिज़्म’ से जोड़ने वाली ‘सीमित-समझ की बुद्धि का डबरा’ था, जिसमें कई डूब मरे। जबकि ‘दुनिया ऐसी है और उसे ऐसी होना चाहिए’, एक महास्वप्न सरीखे , प्रेम का ही पर्याय है। तब चे ग्वेवारा और टी, जिसका असली नाम तमारा बंक था, के प्रेम की चर्चा को भी सी.आई.ए. का षडयंत्रवादी प्रचार कह दिया गया था।
यहाँ यह कहना जरूरी है कि देवताले जी, भी प्रेम के उस कॉस्मिक रूप को निर्भीकता के साथ कविता में आने से, सुविचारित ढंग से रोकते रहे। जबकि, वे प्रेम से नख-शिख तक भरे हुए व्यक्ति थे। मैं यह भी कह सकने की स्थिति में हूं कि वे अपनी माँ को इतना प्रेम करते थे, सॉंमरसेट माम की तरह, कि जब एक बार मैंने उनसे माँ के बारे में पूछा, तो लगा कि वे बिल्कुल बच्चे हो गये हैं। एकदम निश्चछल और अबोध। जैसे अभी तो उनके दूध के दांत ही नहीं गिरे हैं। अब उन्हें न मुक्तिबोध का नाम याद है और ना ही नामवर सिंह का, ना ही अशोक वाजपेयी का ना दिलीप चित्रे या तुकाराम का। शिशुओं की-सी निष्कलंक मुस्कान ने, उनके पूरे चेहरे को अपने में ढँक लिया था। वे सच ही स्वीकारते थे कि मैं माँ को लेकर एक मुकम्मल कविता नहीं लिख सकता। माँ के प्रेम में होना, भाषा से बाहर निकल कर खड़ा होना है। उन्हें भाषा का आयतन छोटा जान पड़ता है, माँ के समक्ष। जैसे मां के समक्ष सर्वस्व ही विसर्जित हो गया है। क्या यह नहीं कह सकते हम कि जहाँ भाषा अपनी अनुलंघ्यता को, एक ईमानदार पश्चाताप की तरह स्वीकार कर ठिठक जाती है, बस ‘प्रेम’ वहीं से शुरू होता है। भाषा से बाहर रह जाना नहीं, भाषा से बाहर हो जाना है, प्रेम। और हरेक व्यक्ति का प्रेम, माँ से ही शुरू होता है। रिल्के, जो संसार के प्रेमियों की कतार में बहुत विशिष्ट स्थान पर खड़ा है, उसका कहना था कि जो माँ को प्रेम नहीं कर सकता, उसमें प्रेमी हो जाने की शून्य पात्रता है।
माँ के बारे में एक दिन उन्हो़ंने कई बातें बोली-बतायी थी। शायद, उस दिन मां की मृत्यु तिथि आसपास रही होगी। वे बोलते हुए किसी सीपिया रंग में बनाये गये मेरे पोर्ट्रेट में बदलने लगते थे। वहाँ स्मृतियों का धारासार बहने लगता था, जो सैलाब बन कर उनको डुबोये दे रहा था। ऐसा नहीं है कि उन्होनें प्रेम कविताएँ लिखी ही नहीं। छुट-पुट लिखीं, लेकिन वे घरेलू भूगोल में भटकती-खटती रहने वाली ‘मध्य वर्ग के वलय’ में अपने छोटे-छोटे सुखों और दुखों की प्रदक्षिणा करती स्त्रियाँ हैं, जिसमें माँ है, पत्नी है, बेटियाँ हैं, कोई अकेली विवाहिता या फिर बालम ककडि़याँ बेचती हुई, या वह सनातन स्त्री है, जो आकाश और पृथ्वी के बीच सदियों से कपड़े पछीट रही है, या मनों आटा गूँथ रही है। बिना शिकायत किये, वह जीवन को, उसके दैनंदिन में स्वीकार रही है। लेकिन, उनके यहाँ ‘कॉस्मिक बिलव्ड’ नहीं है, जैसा कि पश्चिम की प्रेम कविताओं में मिलती हैं, जैसे वेलेरी, मलार्मे, या नेरुदा की कविताओं में है। मैं यहां अशोक वाजपेयी की निर्भीकता को सराहना की दृष्टि से देखता हूं कि उन्होंने अपनी वय के चौथेपन में खूब सारी प्रेम कवितायें लिखीं।
देवताले जी की एक कविता में असंभव आकाश में वह आज़ाद चिडि़या की तरह खेलती हुई बरामद होती है, जिसके लिये वे चंद्रमा को गिटार की तरह बजाते हुए उजली रातों में आने का कहते हैं। और उसके लिये वसन्त को रुई की तरह धुनकते रहने का संकल्प भी बताते हैं।
जब उन्होनें कहा कि उन्हें खदेड़कर घर से बाहर कर दिया गया है। वे घर-बदर हो गए हैं, तो मुझे पोर्ट्रेट भेंट करने के कोई पन्द्रह दिन बाद की एक टेलिफोनिक बातचीत याद आ गयी। उनकी उस दिन, फोन पर परिहास के अभीष्ट से कही गई बातें अचानक बहुत संजीदगी से भरी हुई लगने लगीं। उन बातों को सुन कर लगने लगा था, गालिबन, इस समय वे अपने ही ‘आत्म’ की प्रदक्षिणा में हैं। क्योंकि, इस समूचे संसार को उसकी बहुत गहरी ऐन्द्रिकता के साथ जीने की अतृप्त कामना से भरे एक कवि को इस संसार के छूट जाने की मर्मान्तक पीड़ा कहीं ना कहीं घेरती तो होगी ही...क्योंकि बीसवीं सदी में जन्मे एक कवि और एक सन्त का संसार से रिश्ता बहुत अलग होता है। यह सब उनका उनका घनमथन ही कहा जाना चाहिये। एक पर्सनल ब्रूडिंग। हालांकि, मुझे तो उनकी सारी कविता का ढाँचा ही ब्रूडिंग का लगता है। जैसे एक-एक शब्द और उसके समूचे इतिहास से संघर्षरत है, यह कवि। उनकी, अपनी कविता और जीवन दोनों में ही ईश्वर, मृत्यु, और सत्ता से एक असमाप्त लड़ाई चलती रही। उन्होंने मृत्यु को ‘दार्शनिकता’ या ‘आध्यात्मिकता’ से नाथ कर देखने के बजाय, मनुष्य के ‘होने’ के द्वंद के रूप में देखा। क्योंकि जिस आग को हर बताई गई जगह वे देखते हैं, उसी आग से वे पैदा हुए हैं और वही उनको एक दिन खा भी जाने वाली है, इस सत्य की प्रतीति उन्हें बखूबी थी। वे नियति से अच्छी तरह वाकि़फ थे । वे मृत्यु के विरुद्ध जीवन को अधिक से अधिक प्रेम करने के लिए आकुलता से उफनते जान पड़ते हैं। लेकिन जीवन भी सचमुच ही क्रूर है, क्योंकि, वह अन्त में उसी को खत्म करने में जुटा रहा, जिसको वह बेहद प्यार करता रहा। हमें ख़त्म करने के बाद ही तसल्ली पाता है।
एक बार जब मैंने उनसे कहा कि मैं आपकी कविता को ‘स्ट्रक्चरल-ग्रामर’ के सहारे विखण्डित करना चाहता हूँ, तो वे तपाक से बोले थे- ‘प्रभु...! तुम इसके बजाय अगर मेरा कभी एक पोर्ट्रेट बना दो, तो वह मुझे ज़्यादा खुश करेगा’। और मैंने उनके इस प्रस्ताव का सम्मान करते हुए, तैलरंगों में उनका एक पोर्ट्रेट बनाया और कवि मित्र प्रदीप मिश्र, प्रदीप कान्त, और देवेंद्र रिणवा के साथ उज्जैन, उनके आवास पर जाकर ‘जनवादी लेखक संघ इंदौर’ की इकाई की तरफ़ से भेंट किया। वे काफी भावुक हो उठे। अगर भाभी जिंदा होती तो मैं वह पोर्ट्रेट निश्चय ही उनको ही भेंट करता और विनोद में कहता- “भाभी, एक देवताले पर, एक देवताले मुफ्त”। लेकिन यह परिहास की घड़ी नहीं थी, क्योंकि देवताले जी हल्के से उदास भी हो आये थे। पता नहीं उन्होनें क्या सोचा होगा, जिसने उनके चेहरे पर एक अव्यक्त और अछोर-सा कोई ऐसा भाव भर दिया था कि जैसे पीड़ा की पटकथा का कोई पृष्ठ उनके समक्ष रख दिया गया हो और वे चुपचाप उसके आगे के पृष्ठों को पलटने में लग गये हैं।
मैंने उनके चेहरे के अवसाद को पोंछ फेंकने के लिए कहा-“यह प्रभु जोशी का देवताले है, जो अब आपके घर में रह कर, आपके ‘दैनंदिन’ पर निगरानी रख कर मुझे रिपोर्ट करेगा। फिर,‘अंधेरे में’ कविता की पंक्ति उठा कर उल्लेख किया था कि मैंने उसे कह दिया है- “क्रॉस एक्ज़ामिन हिम थॉरोली”! उस रात हम सब लोग, इन्दौर की तरफ लौटते हुए, पूरे रास्ते उनके कमज़ोर होते जाने की चिंता करते रहे थे।
लगभग, पन्द्रह दिन बाद, उन्होनें मुझे फोन किया। एक नकली स्वराभिनय से खुद को छुपाते हुए बोले- “कौन प्रभु जोशी जी बोल रहे हैं...? जोशी जी, सुनिए मुझे आपसे एक बहुत ही ज़रूरी बात करना है। मैं आपको सारी सच्चाई बताना चाहता हूँ, सुनकर आपको ज़रूर बड़ा धक्का लगेगा। असल में, चन्द्रकान्त देवताले कवि का मुखौटा लगाये हुए घूमता है, लेकिन वह बहुत दोगला मनुष्य है, न वह एक अच्छा पिता है, न एक अच्छा पति। और वह दोस्त तो किसी का भी नहीं है। वह एक घटिया अवसरवादी और मिथ्या-मार्क्सवादी है। उसने कविता के नाम पर आधी शताब्दी से, एक बहुत बड़ा छल किया है। क्योंकि, वे कविताएँ उसने इस संसार से ही चुराई और अपने नाम से छपवा लीं- उन कविताओं को जलती होली में डाल दिया जाना चाहिए। वह अहंकारी और दग़ाबाज़ है। चाहो तो आप उसकी एफ.आई.आर. लिखवा दो। जल्दी करो, वर्ना वो किसी दिन, या किसी रात, चकमा देकर यहाँ से चुपचाप फरार हो जाएगा”।
मैं उनको आवाज़ से पहचान चुका था। फोन के इस छोर पर, मैंने ज़ोर का ठहाका लगाया और कहा- “मैं पहचान गया हूँ...देवताले जी। अब बन्द कर दीजिये एक्टिंग, मैंने रेडियो में बीस साल काम किया है। आवाज़ के किसी झीने पर्दे के पीछे, आप पांच फीट सात इंच के आदमी को छुपा नहीं सकते।’
“नहीं जोशी जी, आप पहचान नहीं पाये। मैं तो चन्द्रकान्त देवताले को ‘क्रॉस एक्ज़ामिन’ करके आपको रिपोर्ट दे रहा हूँ- मैं प्रभु जोशी का ‘क्रिएटेड’ चन्द्रकान्त देवताले हूँ...जिन्होंने मुझे ये असाइन्मेण्ट दिया था कि इस देवताले की गुप्त रिपोर्ट मुझे भेजना...।’
मैंने इस बात पर फिर ज़ोर से ठहाका लगाया। लेकिन, फोन के उस छोर पर, कहीं कोई हंसी नहीं थी। एक सन्नाटा था, जो कुछ क्षण चुपचाप गुज़रता चला गया। फिर कण्ठ से, एक थकी और खुरदुरी-सी कफ़ में फंसी आवाज़ आई।
“प्रभु, तुम ठीक कहते हो, यह तो मेरे घर में जम गया है। अब इसने यहां पूरी तरह कब्ज़ा जमा लिया है। और अब मैं डर रहा हूं कि एक दिन ये मुझे खदेड़ कर, इस घर से बाहर कर देगा- मैं तो चला जाऊंगा, यह मेरे घर में हमेशा डटा रहेगा। सबको मेरी याद दिलाता हुआ। क्योंकि ये इतना जीवन्त लगता है कि मेरी अन्तिम सांस जब निकलने लगेगी तो, उसे ये अपने भीतर खींच लेगा...।
फिर फोन अचानक ही, बात पूरी किये जाने के पहले ही बीच में कट गया। मैंने अपनी तरफ से फिर से डॉयल किया तो उधर से, केवल ‘एंगेज्ड टोन’ सुनाई देने लगी। उनकी अब पता नहीं किससे बात शुरू हो गई थी..., मुक्तिबोध से या कि तुकाराम से...?, या कि मृत्यु से ही...? फिर, पता चला कि उन्होनें अपना ताज़ा कविता संकलन तैयार किया है, उसका नाम ही यही रखा है--‘खुद पर निगरानी का वक्त’। क्या वे चाकू सवालों को हाथ में लिये, जीवन के आखि़री हिस्से को, केक की तरह काट-काट कर देख रहे थे...? इन्दौर में रहते हुए, वे या तो उज्जैन जाते थे या फिर दिल्ली। मैंने उनको एक बार कहा था-‘ मुक्तिबोध के भीतर एक द्वन्द्व था-‘ मैं उज्जैन जाऊं कि दिल्ली..? उनके लिये ये दोनों शहर, शहर नहीं, मेटाफर थे। धर्म और राजनीति के प्रतीक। परन्तु आपके लिये ये दोनों शहर, आपके ममत्व और प्रेम के दो ध्रुवान्त हैं।’ दरअसल, उनकी बड़़ी बेटी कनुप्रिया उज्जैन में थी और छोटी बेटी अनुप्रिया दिल्ली में। इनके बीच ही उनके प्रेम का अन्तरिक्ष था।
कल, जब मैं उनके उठावने में शामिल होने के लिए उज्जैन गया तो मैंने देखा कि वहाँ उनके चित्र की जगह मेरा बनाया हुआ वही पोर्ट्रेट ही रखा था और उस पर ढेरों फूल मालाएँ चढ़ी हुई थीं। फूलों की जैसे कोई एक कंटीली बाड़ थी, जिसके पीछे ख़ामोश आँखों में देवताले जी उतर आये थे। बे-आवाज़ ढंग से सांस लेते हुए। क्या आखिरी सांस, जो उन्होंने छोड़ी, वह इसी में आकर समा गयी है...? तभी मुझे लगा, जैसे वे कह रहे हों--‘ प्रभु...! मैं मरा नहीं, हमेशा के लिए तुम्हारी रंग रेखाओं से बने, इस चन्द्रकान्त में छुपा हुआ हूँ। पहले शब्द की आड़ में छुपा रहता था, अब रंग की आड़ में...मुझे आन्द्रे ब्रेतॉं की कविता की एक पंक्ति याद हो आयी--‘ सुनो, जब भी फूलों के रंग कहीं दिखे मुझे याद कर लेना...।’ एक पछतावा-सा घिर आया। वे अभी कुछ वर्ष और रह लेते, हमारे और अपनी दोनों बेटियों के साथ। लगता है, यह हमारे ही नहीं, ईश्वर के भी पछताने का प्रकरण है।
मेरा मन हुआ, उनकी बेटी कनुप्रिया को कहूँ, देवताले जी के इस पोर्ट्रेट की बगल में घर की बैठक में, निराला का वो पोर्ट्रेट लगा देना, जो देवताले जी ने बनाया था और यह समझना कि तुम्हारे कुनबे के दो दिवंगत तुम्हारी बैठक में बैठे हैं और जब तुम सो जाओगी और बैठक में अंधेरा हो जायेगा, तब देवताले जी, निराला से अंधेरे में, ‘वे सारी बात करेंगें, जो जीवन भर, उनकी संवेदना और समय को घेरे हुए रहीं और अभी कहना शेष थीं।
प्रभु जोशी,
303, गुलमोहर-निकेतन, वसन्त-विहार, इन्दौर, म.प्र.
दूरभाष 0731-2551719 मोबाइल- 94253-46356
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (04-11-2017) को
जवाब देंहटाएं"दर्दे-ए-दिल की फिक्र" (चर्चा अंक 2778)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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कार्तिक पूर्णिमा (गुरू नानक जयन्ती) की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'