आज फिर स्टैंड, बस खुलते-खुलते पहुंचा तो कंडक्टर ने मेरा हाथ पकड़ बिल्कुल आगे, गेट के पास की दो सीट खाली कराकर हमें देनी चाही। लेकिन बात नहीं बनी। पहले से बैठा शख्स नहीं माना। लेडीज आ रही की हेकड़ी दिखाई उसने। हमें हारकर आखिरी की दो सीट पर अलग अलग आना-बैठना पड़ा।
मेरी वाली सीट पर खिड़की की तरफ़ एक सज्जन बैठे थे। बिल्कुल ढीले-ढाले, हिलते-डुलते जैसे कोई बेल तनने-टिकने की कोशिश करे। पहले तो लगा नींद में बुरी तरह धंस चुके हैं। लेकिन एक मिनट भी न हुआ पता चल गया मस्त हैं।
मुझे मस्त लोगों को देखकर बड़ा मज़ेदार लगता है। मैंने आत्मीयता से कहा आप थोड़ा उधर सरककर खिड़की बंद कर उसमें टिका लीजिये खुद को। आराम रहेगा। उन्होंने मुझे ऐसे भोलेपन से देखा कि मैं समझ गया इंसान सज्जन है। भीतर ही भीतर मैंने तय किया अब इन्हें कोई तक़लीफ़ नहीं होनी चाहिए। इन्हें असुविधा न हुई तो मुंह बंद रखेंगे। केवल तभी गंध से रक्षा होती रहेगी। मैं अपनी गोद के लैपटॉप वाले बैग से पूरी तरह लिपट गया।
कुछ ही मिनट गुज़रे होंगे कि मूंगफली बेचनेवाला लड़का आया। उन्होंने मूंगफली की पुड़िया की ओर हाथ बढ़ाया जो मेरे कंधे से टकराकर झूल गया। लड़का समझदार और अनुभवी था उसने मूंगफली की पुड़िया उनकी हथेली फैलाकर धर दी। दस रुपये मांगे उसने। उन्होंने उसे 30 रुपये दिए। एक 20 का नोट दूसरा 10 का नोट। लड़का 20 रुपये लौटाने लगा तो इन्होंने 20 रुपये और बढ़ा दिए। हारकर लड़के ने 10 रुपये लेकर बाक़ी रुपये इनकी खाली हथेली में पकड़ाकर हथेली गोदी में रख दी। इनके चेहरे पर मुस्कान आ गयी। इन्होंने मुझे पुड़िया देनी चाही कि मैं पुड़िया खोल दूँ और कुछ ले भी लूं। मैंने मना कर दिया। मुझे उनकी आती-जाती सांस से भी दिक़्क़त हो रही थी।
लगभग आधी दूरी निकल जाने के बाद जब एक स्टॉप पर बस रुकी तो इन्होंने मुझे उठाना चाहा। आ गया उज्जैन। उतरूंगा। ऑटो चला जायेगा। जल्दी है। मैंने कहा बैठे रहिए। अभी नहीं आया उज्जैन। आएगा तो बता दूंगा। उन्होंने मेरी बात पर यक़ीन नहीं किया । खिड़की से बाहर आधे झूल से गये। इधर उधर गर्दन घुमाकर पहचानने की कोशिश करने लगे। मैंने अंदर खींचा। कट जाएगी गर्दन। नहीं आया अभी। इन्होंने अंदर सिर करके ऐसे मुस्कुराकर भोलेपन से देखा कि मुझे फिर इत्मिनान हुआ इंसान सज्जन है। जाने किस खुशी या गम में ऐसी हालत में आ पड़ा है और उज्जैन भी जा रहा है जहां बस से उतरते ही भांग घोटा की दुकान सामने होगी। अगर भांग भी चढ़ा ली तो भले पहुंच गए लौट नहीं पायेगा।
मैं चलती बस में सोचने लगा। कितना अपार कष्ट देता होगा छककर पीने के बाद किसी सज्जन का ढाई घंटे के लिए बस में बैठना। पीने के बाद बैठे रहना और हिचकोले खाना कितनी गंभीर शरारत होती होगी खुद के साथ? मुझे क्या मालुम मैं कहाँ पीता हूँ !!!
मेरे साथी मुझपर हँसने लगे- अच्छा है आपको कोई ख़याल रखने के लिए मिल गया। ख़ुशनसीब है बंदा। अच्छे से पहुंच जाएगा। मैंने कहा- क्या करे ऐसे में कोई। इंसान तो सज्जन ही लग रहा। पी ली है तो क्या बदतमीज़ी करें उसके साथ। मैं तो उज्जैन में छोड़ भी दूंगा जहां कहेंगे। मुझे शराबियों से दिक़्क़त नहीं होती। एक से बढ़कर एक पीनेवाले मैने देखे हैं। किसी ने मुझे कभी हर्ट नहीं किया पीने के बाद।
थोड़ी देर में क्या देखता हूँ कि उन्होंने माचिस और बीड़ी निकाल ली। कड़ाई किर्रने ही वाले थे कि मैंने टोका- क्या करते हैं आग लग जायेगी बस में! वे बोले- नहीं तो मैं सिर निकालकर पी लूंगा। एक ही पीनी है। मैंने कहा नहीं भाई यह ठीक नहीं। रख लो जेब में उज्जैन में पी लेना। उन्होंने माचिस और बीड़ी जेब में रख ली। मुझे देखकर मुस्कुराए। मैंने फिर सोचा आदमी सज्जन है। कितनी आसानी से मान गया।
मेरे साथी ने मुझे बातचीत में खींच लिया- आप सबका ऐसा ख़याल नहीं रखते ? उनका इशारा आगे बैठे किसी सहकर्मी की ओर था। मैंने कहा- मैं सांप को दूध नहीं पिलाता। साथी बोले क्यों? दुनिया तो पिलाती है। कटोरी में भरकर रख देती है। पूजा भी करती है। मैंने कहा- क्योंकि दूध सांप के लिए ज़हर होता है। मर जाता है सांप दूध पीकर। इसीलिए लौटकर नहीं आता। दुनिया कितनी क्रूर है कि दूध पिलाकर मार देती है और पुण्यात्मा भी बनी रहती है। पूजा भी करती है सांप की। मैं किसी को छल से नहीं मारना चाहता। बल्कि मारना ही नहीं चाहता। बस बचे रहना चाहता हूं। साथी हँसे-इतना सब किसे मालुम है। आप तो बग़ल में देखिए।
मैंने देखा उन्होंने फिर बीड़ी माचिस निकाल ली है। मैने फिर रोका। मान जाओ भाई। कंडक्टर बड़ा तेज़ है। मारिया है। मारेगा भी और उतार देगा बीच रास्ते में। लोगों को पता चल गया कि तुमने ढाल रखी है तो शराबी बोलकर उतरवा देंगे। कौन रोकेगा? कहाँ जाओगे ऐसी हालत में? मैं उज्जैन में सिगरेट पिलाऊंगा। बीड़ी, रख लो जेब में। उन्होंने फिर मेरी ओर देखा और मुस्कुराए। मैंने इस बार सोचा- सज्जन भले है, लेकिन है तो शराबी ही। मानेगा नहीं। खुदा न करे सख्ती करनी पड़े। लेकिन वे मान गए। बीड़ी माचिस जेब में रख ली।
थोड़ी देर बाद उज्जैन की सीमा पर साथी उतर गए तो मैं उनकी सीट पर आ गया। मुझे राहत की दरकार थी। आराम से बैठना था। फिर मैं मोबाईल में उलझ गया।
अचानक लाल सिग्नल पर बस धीमी हुई तो मैंने देखा वो उतरने के लिए सहसा खड़े हो गए। मैं कुछ सोच पाता कि बस में ब्रेक लगा और वे एक महिला के ऊपर गिर गए। दो तीन लोगों ने उन्हें उठाया। महिला ने समझकर माफ़ सा कर दिया। वो गेट से नीचे कूद से गए तो किसी ने उनका थैला, पॉलीथिन आदि उन्हें नीचे थमाया। मैंने उन्हें खिड़की से देखा। वे मुझे देखकर खुश हुए। मैं चीखा- सही जगह उतरे हैं न वरना मैं छोड़ दूंगा।
अफ़सोस बस चल दी थी। मैं उनका जवाब नहीं सुन पाया। चेहरे से यही लगा मानो कह रहे हैं- यह भी ठीक ही जगह है। मैं चला जाऊंगा।
अभी यह लिखते हुए मुझे लग रहा है कि दुनिया में निश्चिन्तता भी कितनी है ! कितने आराम से निकल पड़ते हैं लोग। न आगे की चिंता न पीछे की तैयारी। एक हम हैं पानी का बॉटल छूट जाए तो अंधेरा दिखने लगता है। खैर,
लेकिन मुझे पीने की ज़रूरत क्यों नहीं लगती यह भी पता चल गया आज। क्यों ? मुझे हर दूसरे तीसरे दिन कहीं भी लग जाता है आ गया उज्जैन।
एक दो बार तो मैं उतर भी चुका हूं। वो तो सब कंडक्टर पहचानने लगे हैं इसलिए मुझे कभी दूसरी बस नहीं पकड़नी पड़ी ।
-शशिभूषण
11 अगस्त 2017
फेसबुक वाल से
बहुत सुंदर महोदय
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