जिस समय रामफल पांडे की मित्रमंडली जिसे वे ‘गंजेड़ी स्वजन’ कहते थे; गांव के तालाब की मेड़ पर पुश्तों से खड़े पीपर के नीचे ताश का खेल बीच में रोक उन्हें ठिकाने लगा देने वाली बातों से कायदे से शाब्दिक सामाजिक तिलांजलि दे रहे थे उस वक़्त रामफल पांडे पगडंडी के किनारे खडे आम के पेड़ की ज़मीन से ऊपर निकली जड़ पर बैठकर अपनी रोज़ाना नोट बुक पर डायरीनुमा यह टीप लिख रहे थे-
"मूर्ख प्रतीत होनेवाला अफ़सर अत्यन्त दुष्ट होता है। ऐसा अफ़सर अपनी मूर्खताओं से जब सबसे अधिक मनोरंजन करता है तब सबसे अधिक खतरनाक होता है।
केवल वही व्यक्ति सज्जन होते हैं जिनकी समझ दुरुस्त होती है। जो मुर्ख नहीं होते। नासमझी दुष्टता की पहली सीढ़ी है। जिसे कोई अहमक चढ़ने लगे तो नीचता को उपलब्ध हो जाता है।
केवल वही गुरु नहीं होता जो हमें पढ़ाता है। वह भी गुरु होता है हम जिसे पढ़ते हैं। और ज़ाहिर सी बात है पढ़ा केवल आँख से नहीं जाता। समझदार इंसान को हर कहीं गुरु मिल जाते हैं। सचेत व्यक्ति हर किसी से सीख सकता है।"
रामफल पांडे ने इतना लिख चुकने के बाद। आखिरी पंक्ति के नीचे दायीं ओर हस्ताक्षर किये, तारीख़ लिखी और अपनी नोट बुक बंद कर दी। खडे हुए। बैठने में दबा हुआ कमीज़ का हिस्सा झाड़ा। साईकिल को स्टैंड से पहिए पर लाये। जांघो में सीट टिकाकार नोटबुक करियर पर दबायी। साईकिल को दौड़ाया और कूदकर चढ़ गए। जैसे ही दोनों पैर पैडल पर आये उन्होंने घंटी बजायी। सर को झटका दिया और एक गीत गुनगुनाने लगे। “कहाँ तक ये मन को अँधेरे छलेंगे...”
रामफल पांडे बेरोज़गार हैं। लिखा करते हैं। शोध करते हैं। कोई छोटा-मोटा रोज़गार ही पा जाएँ इसके लिए वे जितना परिश्रम करते हैं, जितना पढ़ते हैं, जितने इम्तहान देते हैं लाख उपमा दी जाये उतने उद्यम चींटी नहीं करती। रामफल पांडे प्रतिभाशाली होते हुए, इंसान रहते बेरोज़गार होकर खुद को चींटी-मटा से बदतर महसूस करते हैं। यह एहसास उन्हें दिन में तब सबसे अधिक होता है जब उनकी साईकिल की चेन उतर जाती है और सामने से साक्षात् यमराज की तरह कोई ट्रक आ रहा होता है।
रामफल ने साईकिल पटरी पर उतार ली। चेन चढाने लगे। उनके हाथ कालिख जैसी ग्रीस से काले हो गये। उन्होने बेशरम के पत्ते तोड़कर अपने हाथ पोछे। पत्ते मसले जाने से हाथ में चिपट गये लेकिन ग्रीस नहीं छूटी। रामफल पांडे ने सोचा आखिर बेशरम का पत्ता है। उम्मीद ही कितनी की जा सकती है। उन्होंने सुन रखा था इसे नेहरू जी ने बाड़ के लिए कहीं बाहर से मंगवाया था। कब और कहाँ से, बात सही भी है या नहीं जाँचने, पढ़ने का अवसर और सामग्री नहीं मिले। इसे उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में बेहया भी पुकारते हैं। बड़ी तेज़ी से पनपता है, जल्द ही धरती का बड़ा हिस्सा छा लेता है। मगर आता किसी खास काम में नहीं है। मजबूरी में लकड़ी की तरह चूल्हें में जलाओ तो विषैला धुआँ छोड़ता है। बेशरम के बारे में विधिवत जानना है रामफल कई बार तय कर चुके हैं। आगे नज़र दौड़ायी तो एक ओस भीगे अखबार का टुकड़ा दिखा। भीगकर अपनी खबरो की तरह बेकार हो चुका है उन्होंने सोचा। तभी रामफल को खयाल आया कल वाले उस नोट को देख लिया जाये एक बार। चेतना में अटका हुआ है तब से, लिखे जाने के पहले से। क्या पता रास्ते में सोचते हुए बेहतर हो जाये। लेखन ही है जो रामफल को आत्मतोष से भर देता है वरना उनकी बेरोज़गार ज़िंदगी में गर्व करने लायक है ही क्या? रामफल जाति शीर्षक से लिखा नोट देखने लगे-सड़क पर आवाजाही जारी थी।
एक थे बड़े लेखक। एक था छोटा लेखक। बड़े लेखक और छोटा लेखक जातिसूचक उपनाम नहीं लिखते थे। दोनों की भाषा एक थी। मातृभाषा एक थी। उसी नदी का पानी छोटा लेखक के कुएँ में झिरता था जिस नदी के पानी से बड़े लेखक का धान पकता था। राजभाषा अंग्रेज़ी में दोनों की दक्षता लेखकीय कद के अनुरूप थी। बड़े लेखक और छोटा लेखक परस्पर सब जानते थे। लेकिन एक दूसरे की जाति के बारे में नहीं जानते थे। बड़े लेखक छोटा लेखक से स्नेह रखते थे। छोटा लेखक के हृदय में बड़े लेखक के प्रति अपार श्रद्धा थी। यह वह दौर था जब भारत में किसी की जाति मामूली नहीं थी। किसी की भी नहीं। एक जाति का व्यक्ति अन्य जातियों के बारे में अलग-अलग घृणा रखता था। बड़े लेखक की जाति के बारे में एक दिन छोटा लेखक को बता दिया गया। बड़े लेखक को भी एक दिन छोटा लेखक की जाति बता दी गयी। बतानेवाले अलग अलग जाति के बिना जातिवादी लेखक थे। अपनी नज़र में बड़े लेखक और छोटा लेखक जातिवादी नहीं थे। समय ही ऐसा था जब कोई पढ़ा लिखा भूल से भी जातिवादी नहीं होना चाहता था। मगर शायद ही कोई था जो जातिवादी नहीं समझा जाता था। हर जाति चाहती थी उसे आरक्षण मिल जाये। सरकारें डरती थीं जाने कब किस जाति को आरक्षण देना पड़ जाये। इस डर के अलग अलग कारण थे। कभी भी जातिवादी नीचता हो सकती है एक ऐसा डर था जिससे बचने का उपाय नहीं था। एक दिन बड़े लेखक ने छोटा लेखक को भुला दिया। इस विस्मृति में सहजता थी। छोटा लेखक बड़े लेखक का आलोचक हो गया। इस आलोचना में खुद्दारी थी। बड़े लेखक की दुनिया में छोटा लेखक घट गया। छोटा लेखक का आलोच्य बड़ा हुआ तो कद भी बड़ा हो गया। इस घटना से साहित्य का भला हुआ। साहित्य के जातिसूचक नाम नहीं थे- हस्ताक्षर रामफल। बुरा नहीं है। ठीक ही लिख लेता हूँ। सुधार की गुंजाईश है। देखता हूँ और कितना मांजा जा सकता है। रामफल मन ही मन किंचित आश्वस्त थे। आगे चल पड़े।
मित्रमंडली के गंजेड़ी स्वजन में से एक बड़े गुरु कहे जानेवाले अधेड़ ने खांस चुकने के बाद आँखों का कोर गमछे से पोंछते हुए कहा-
“जिन्हें तुम सब रामफल पांडे, ज्ञानी, साधो और जाने क्या-क्या तोप-तलवार कहते हो घंटा कुछ नहीं हैं; न कुछ समझते हैं। वे बचपन से लड़बहेर हैं। मरते दम तक लड़बहेर ही रहेंगे। पोथियां बाँच लेने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता। उसके लिए लढ़ना पड़ता है। लिखकर दूँ कोरे काग़ज़ पर?”
छोट्टे भाई ने टोका- “रामफल दादा की एक ही बात बुरी है बाकी आस-पास के सत्तर गावों में उनके टक्कर का जानकार नहीं। साला कहाँ-कहाँ की बात खोद लाते हैं। झाड़े का लोटा माँजते रामफल दादा जो बात बोल जाते हैं माँ कसम टीवी वाले काँख कूँखकर वैसी बात नहीं कह पाते। लेकिन दादा असल में हैं बकचोद इसमें तनिक संदेह नहीं। वे अगर बकचोदी छोड़ दें तो बहुत कुछ कर सकते हैं।“
बहादुर काका ने मूँछ पर धार बनाते हुए छोट्टे भाई को तरेरा- “रामफल बकचोद हैं इसे क्लीयर करना होगा छोट्टे। वरना तुम्हारे बाप की कसम यहीं गाड़ देंगे। भले रिश्ते में भतीजे हो सारे क्रिया करम मुसलमानों वाले करेंगे। चलो शुरू करो”
पीके गुरू ने स्थिति सम्हाली। बरजने वाले मूड में उकसाते हुए बोले- “काका धीरज धरो। गरमी मत दिखाओ। छोट्टे ने कहा है तो साबित ज़रूर करेगा। अगर साबित नहीं किया तो यहीं भंडारा होगा। बुला लेंगे जिस बाप को बुलाना होगा।“
छोट्टे ताव खा गये। धमकी देते हुए कहा- “मेरे बाप को मरे अभी साल नहीं हुआ। बरषी बची है। मरे हुए बाप-दादा को बीच बतंगड़ में लाया गया तो लंका बार देंगे। भस्म कर देंगे। साला बिल्कुल खाक। अरे, कहा है तो साबित भी कर देंगे। लेकिन जरा इज्जत से। वरना चूड़ी नहीं पहनते हैं छोट्टे। सेर भर अन्न मैं भी खाता हूँ।“
रामशरण माटसाब बुजुर्ग थे। गांजे की लत के चलते लौंडे लपाड़ों के साथ लगे रहते थे। लेकिन उन्हें इज्जत का खयाल रहता था। जितनी ऐसी मंडली में संभव थी उतनी इज्जत उन्हें प्राप्त भी थी। माटसाब ने बीच बचाव किया- “गाली गुप्ता नहीं। बहन बेटियाँ निकल रही हैं। ज़रा कायदे से। गश्त वाला सिपाही भी आता होगा। चेला है अपना। लेकिन पुलिसवाला सगा बनेगा तो खायेगा क्या? थोड़ी तमीज़ से भोसड़ीवालो..वरना लेने के देने पड़ जायेंगे। किसी में इतना दम नहीं कि फिर बात बना ले। नाहक मेरी हुज्जत होती है।“
बड़े गुरु ने छोट्टे से कहा- “बोल छोट्टे। जल्दी बोल। वरना सब यही कहेंगे। जब गांड में नहीं था गूदा तो लंका में क्यों कूदा। बोल बे बोल”
छोट्टे ने सोचा था बात को बम की तरह फोड़ेंगे। लेकिन अकारण वातावरण ऐसा भारी, सतर्क, तनावपूर्ण हो गया था कि वह समझ गये थे शोर अधिक बढ़ गया है अब आवाज़ नहीं गूँजेगी। लेकिन पीछे हटने का कोई उपाय नहीं था। बात निकल चुकी थी।
“रामफल पांडे जिन्हें हम दादा कहते हैं एक शूद्र का नित्य आशीर्वाद लेते हैं इसी से वे बकचोद हैं। ब्राह्मण समाज पर कलंक हैं। ऐसा हमने सुना है। कोई वीडियो नहीं है हमारे पास।“
माट्साब चौंके – “क्या? शूद्र का आशीर्वाद लेता है? मने पाँव छूता है? मने चरण स्पर्श? कया कह रहे हो छोट्टे? रामफल मेरा चेला है। मैंने उसे पढ़ाया है। वह मेरे चरण नहीं छूता है। किसी शूद्र के पांव छुएगा? असंभव। यह लांछन है। तुम साबित न कर पाये तो कोई मुह नहीं देखेगा तुम्हारा। कौन है वह शूद्र? जल्दी बताओ “
छोट्टे भाई का निशाना लग चुका था। सब अचंभित थे। पाँव छूना वह भी रामफल पांडे के द्वारा। बिल्कुल अजूबे जैसी बात थी। साक्षात अनहोनी। जो शख्स कुल के गुरू महराज के पाँव नहीं छूता। बाप के पाँव छूते नहीं देखा गया। पाँव छूने के खिलाफ़ भाषण देता है। बच्चों को पाँव नहीं छूने के लिए समझाता है वह किसी दलित के पाँव छूता है! कैसा कलयुगी आश्चर्य है?
छोट्टे भाई ने कहा – “वह शूद्र, ब्राह्मण शिरोमणि उदभ़ट विद्वान अपने रामफल दादा का गुरू है।“
पीके गुरू ने पूछा- “गुरू? वो भी शूद्र? तुमने देखा पाँव छूते?”
छोट्टे ने बताया- “देखा नहीं है सुना है। लेकिन सही सुना है। रामफल का गाईड है। यूनीवर्सिटी में प्रोफेसर है। रामफल उसे अपना गुरू कहते हैं।“
बहादुर काका ने छोट्टे का कॉलर पकड़कर पीपर के तने में दचेड़ दिया- “भोसड़ी के सुनी सुनाई बातों पर ब्राह्मण को कलंकित करता है? रामफल शान हैं हमारी। ऐसा पढ़ोक्कर और सज्जन यहाँ न हुआ है, न दूसरा होगा। वह खुद ज्ञानी है। वह किसी को गुरू क्यों बनायेगा? उसका गुरू हो सकने लायक है कौन इस क्षेत्र की धरती पर? रामफल पर यह कलंक अगर साबित हो गया तो यह पूरे ब्राह्मण समाज पर कलंक होगा छोट्टे। अगर झूठ साबित हुए तो यही झूठ तुम्हारा काल होगा समझे। जबान सम्हालकर, ऊँच-नीच बूझकर बात करो। यदि सही है तो रामफल भले अजीज़ और आदरणीय हैं हमारे पनही से वंदना होगी उनकी। बायकाट होगा। साला कोई पानी पी लेगा उनके हाथ का तो खन के गाड़ देंगे। देखना।“
छोट्टे का दम घुटने लगा था। सिर में चोट भी लगी। सब सन्न थे। माटसाब ने बीच बचाव किया। माहौल में सन्नाटा फैल चुका था। जो व्यक्ति गाँव में किसी से पैलगी नहीं करता। बढ़कर अभिवादन नहीं करता। सगे नाते रिश्तेदारों के पाँव नहीं छूता वह किसी दलित प्रोफेसर के पाँव छूता है किसी के लिए हजम होनेवाली बात नहीं थी। समय कितना भी बदल गया हो। राजनीति कैसे भी रूप दिखा रही हो लेकिन रामफल जैसा पढ़ा लिखा प्रणाम विरोधी ब्राह्मण भी अपना ईमान छोड़ देगा गंजेड़ी स्वजन के लिए अनोखी बात थी। यद्यपि यह मित्र मंडली सुनती जानती सब थी। सब तरह के कुकर्मों में खुद भी मुब्तिला थी। रोटी बेटी उठा लेने तक में निंदित रह चुकी थी। जो गाँव में हो रहा था, जो देश में हो रहा था उन सबकी भागीदार थी। फिर भी किसी श्रेष्ठ समझे जानेवाले को नीच समझने का जो मज़ा गाफिली और निकृष्ट कोटि की खुद्दारी में है वह उदारता में कहाँ?
बड़े गुरू ने स्थिति को सम्हालने और शांत करनेवाले अंदाज़ में कहा- “संभव है। छोट्टे की बात संभव है। रामफल हमसे भी कह चुके हैं कि वे जात पाँत नहीं मानते। अब अगर वे जात पाँत मानते ही नहीं तो पाँव क्यों नहीं छू सकते? जो व्यक्ति जाँत पाँत नहीं मानता वह कुछ भी कर सकता है। लेकिन यह गलत और समाज विरोधी आचरण है इसमें दो राय नहीं।”
इधर रामफल पांडे रास्ते में पड़नेवाले मुसलमानों के एक मुहल्ले में सड़क पर आ गयी मुर्गी से टकरा जाने के कारण एक थप्पड़, दर्जन भर से अधिक गालियाँ खाकर, सौ रुपये हर्जाने के जमा कर और उससे पहले पिछली ट्यूब का एक पंचर बनवाकर शहर पहुँच गये थे। यूनिवर्सिटी चौक के एक बुक स्टॉल पर खड़े-खड़े पत्रिकाएँ उलटने-पलटने लगे। उन्हें खरीदना बीएड प्रवेश परीक्षा का फॉर्म था। लेकिन अब रुपये कम थे। सौ रुपये हर्जाने में गँवाये जा चुके थे। अच्छा होता कि वे उस बीमार मृत मुर्गी को ले ही आते तो यहीं किसी होटल में बेचकर बीएड के फॉर्म का जुगाड़ कर लेते। लेकिन मजबूरी में भी मांस के धंधे जैसी गयी बीती हरकत में नहीं पड़ गये वह यह तसल्लीबख्श बात लगी।
रामफल चलनेवाले ही थे कि एक सज्जन ने बीएड का फार्म ऑर्डर किया। रामफल ने सोचा देखा तो जा ही सकता है फॉर्म। माँगने की नौबत नहीं पड़ी। दुकान के भीतर से किताब पत्रिकाओं के ऊपर की जाली में फेंका गया फार्म उन्हीं के पास आ गिरा। रामफल ने उठा लिया। लिफ़ाफा खोलकर देखने लगे। ग्राहक चिढ़ गया।
“भाई मैंने लिया। जल्दी में हूँ।“
“देता हूँ। जरा देख लूँ। अपने लिए ही लिया या किसी और के लिए ?“
“लिफाफें में नाम लिखा है...“दुकानदार ने बताया।
रामफल ने देखा- डॉ. चंचला पाठक
“कैंडिडेट पीएचडी है ?”
“हाँ”
“पीएचडी के बाद बीएड?”
शख्स उखड़ गया।
तो क्या हुआ ?”
“सही कहते हैं। सॉरी।”
“एक से एक लोग पड़े हैं। भेजा चाट लेते हैं। दो फार्म। अपना लेना तो देखना।“
रामफल के माथे पर पसीना आ गया। अनायास खासा अपमान हो चुका। अगल-बगल लोग हँस पड़े थे। मन ही मन पछताये। ‘कैसे बेहूदे सवाल आ जाते हैं मेरे मन में। मैं भी तो रिसर्च कर रहा हूँ। बीएड भी करना चाहता हूँ कि नहीं। फार्म लेने आया कि नहीं। बेरोज़गारी ऐसी है। लगता है मंगल गृह में ही सही चपरासगीरी मिल जाये। चलूँगा यहाँ से या और कुछ बाकी है!’
रामफल पलटे ही थे कि प्रो. लक्ष्मण प्रसाद शर्मा मानो प्रकट हो गए। बगल में आकर दुकानदार से चार-पाँच पत्रिकाएँ मांगी। ताज़ा इंडिया टुडे के पृष्ठ पलटने लगे। सर्दियों के दिन थे। सालाना सेक्स सर्वे प्रकाशित हुआ था। रामफल ने पत्रिका के कवर से नज़र हटाते हुए अभिवादन किया। प्रोफेसर शर्मा ने पहचानकर कंधे में हाथ रखा। उनका दूसरा हाथ स्त्री तस्वीर के नितंब पर था। खुश होकर स्नेह से भरे बोले-
“ओहो हो पंडित कैसे हो ? कहां से यहाँ? आजकल क्या कर रहे हो?”
“रिसर्च कर रहा हूँ सर”
“रिसर्च ? किसमें??...नेट वेट किया या पहले ही?”
“जेआरएफ़ के लिए कोशिश कर रहा हूँ सर नेट हो गया है”
“वेरी गुड, सब करते हैं कोशिश। तुम भी करो। मैथ्स में नेट बहुत बड़ी बात है ! लेकिन कभी सुना नहीं। बताया नहीं तुमने। घर आओ तो मिठाई खिलाऊँगा। पेपर वेपर में देना चाहिए ऐसी अचीवमेंट। वेरी गुड।“
“धन्यवाद सर लेकिन मैथ्स में नहीं हिंदी में नेट हुआ है।“
“हिंदी में ? तुम हिंदी में कब- क्यों चले गये? मैथ्स में फेल हुए क्या?”
“नहीं सर फेल नहीं हुआ। पसंद से गया। बीएससी में अच्छे परसेंट थे। लेकिन मुझे हिंदी पढ़नी थी। फेलोशिप की ज़रूरत है।“
“हिंदी में कहाँ से ? कौन पढ़ाता है? तुम्हारी मति मारी गयी है? मैथ्स के बाद हिंदी? क्या करोगे आगे? किसने बहकाया तुमको? अच्छी पकड़ थी तुम्हारी। साहित्य वाहित्य बिना हिंदी पढ़े भी कर सकते थे।“
शर्मा जी हतप्रभ थे। रामफल सन्न। आस-पास खड़े लोग किसी खास मनोरंजन की उम्मीद में निकट सरक आये थे। दुकानदार जो कि प्रोफेसर साहब का विद्यार्थी रह चुका था मंद-मंद मुसकाए जा रहा था।
“किसी ने नहीं बहकाया। मैं खुद गया। यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग से रिसर्च कर रहा हूँ।“
“ओह हिंदी विभाग ? कौन है वहाँ? मेरा मतलब गाईड कौन है?”
रामफल ने नाम बताया। प्रोफेसर शर्मा ने घृणास्पद तरीके से तंबाकू थूक दी।
“वह दलित साहित्यकार ?”
“हाँ दलित साहित्यकार।“
“बकलोल है। ऐसे लोग जो राजेन्द्र यादव जैसे पौवा छाप, लौंडियाबाज़ संपादको के बल पर हंस या इधर-उधर छप जाते हैं आजकल दलित साहित्यकार निकल आये हैं। साहित्य में भी आरक्षण आने ही वाला है। खुद राजेन्द्र यादव को आता क्या है? एक कहानी बता दो यादव की? संपादकीय के नाम पर गाली लिखता है। जान बूझकर विवाद खड़ा करता है। उसने मन्नू भंडारी के साथ क्या किया? हंस में होता क्या है जातिवाद और सेक्स के सिवा? चले हैं अंबेडकर बनने। तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है?”
“मेरी बुद्धि भ्रष्ट नहीं हुई है सर लेकिन एक बात तय है।”
“कौन सी बात खुलकर कहो ?”
“आपकी समझ दुरुस्त नहीं हो सकती।”
“क्यों मेरी समझ को क्या हुआ है ? वह दुरुस्त ही है। तुम्हारी ही बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी है। एक बकलोल के चक्कर में मैथ्स छोड़कर हिंदी पढ़ रहे हो। माँ बाप की छाती के पीपर बन रहे हो। अभी साल दो साल में बेरोज़गार हो जाओगे और व्यवस्था को गाली देते फिरोगे। तुम छाती के पीपर हो। तुम्हारा गुरू बकलोल है। और भी बहुत कुछ है वह जिसे मैं अभी कह नहीं सकता।“
“लेकिन मैं कह सकता हूँ।“
“क्या ?”
“आपकी समझ ठीक नहीं है सर।“
“यह तो वक्त बतायेगा। तुम नोट कर लो। तुम्हें यूजीसी से फेलोशिप मिल भी गयी तो इस यूनिवर्सिटी में फेलोशिप की जगह बोकरी का बार मिलेगा। भारत में क्रांति होगी घंटा। तुम बेरोज़गार घूमोगे, बेरोज़गार।“
“जाने दीजिए सर जो होगा देखा जायेगा। अभी मुझे देर हो रही है। सलाह के लिए बहुत धन्यवाद”
रामफल चलने लगे। प्रोफेसर शर्मा ने हाथ पकड़कर लगभग खींच लिया।
“रुको, आज समझ लो अच्छी तरह। ये देखो पाँच उँगलियाँ हैं। पाँचो अलग-अलग। छोटी-बड़ी। इन्हें ऐसे की ऐसे विधाता ने बनाया। ये ऐसे ही रहती हैं अंत तक। लेकिन अब कम्युनिस्टबे इन्हें बराबर कर देंगे। तुम इंतज़ार करना। समझे। इंतज़ार करना। जब क्रांति हो जायेगी तुम प्रोफेसर ज़रूर बन जाओगे। क्रांति होने तक सब्र रखना। अब जा सकते हो। गधे कहीं के।“
रामफल की मनोदशा बेहद खराब हो चुकी थी जैसे सरेबाज़ार किसी ने नंगा कर दिया हो। लेकिन किया कुछ नहीं जा सकता था। किया कुछ नहीं जा सकता जैसे रामफल की नियति बन चुकी थी। इस नियति से मैं अकेला ही नहीं जूझ रहा यही एक बल था उन्हें। इससे घोर क्या होगा कि ऐसे क्षण एक बात तक ऐसी नहीं कही जा सकती थी जो प्रोफेसर शर्मा के लिए मुँहतोड़ हो या कम से कम चुभ ही जाये। प्राचार्य रहकर सेवानिवृत्त हो चुके प्रोफेसर शर्मा शहर में ऐसे संगठन के संरक्षक सदस्य थे जिसके गुंडा अनुयायी एक इशारे पर कुछ भी कर सकते थे। उनकी मित्रमंडली में ही कई ऐसे प्रोफेसर थे जो उग्र राजनीतिक संगठनों, सट्टा बाज़ार से लेकर अपहरण उद्योग तक में सक्रिय थे। पिछले साल देखते-देखते महाविद्यालय परिसर से कई विद्यार्थी गायब हो चुके थे। यही नहीं रामफल अपने गाईड को भी शर्मा जी का पर्याप्त सम्मान करते देख चुके थे। प्रोफेसर शर्मा रसायन शास्त्र के प्रोफेसर होने के साथ-साथ हिंदी के तुक्कड़ कवि भी थे। उनके छंदों पर शहर का पुलिस कप्तान ही नहीं विवि का कुलपति भी वाह वाह करता था। रामफल उनसे आखिरी प्रणाम कर विश्वविद्यालय पहुँचे जहाँ एक और सलाह उनका बेसब्री से इंतज़ार कर रही थी।
विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अभी-अभी एमए फाइनल की कक्षा छूटी थी। साक्षात कुलसचिव लेक्चर देकर यानी क्लास लेकर गये थे। एक सुंदर शोधार्थिनी से पितृवत स्नेह के कारण उन्होंने अध्यापन का यह गुरूतर भार ओढ़ रखा था। नियमित आया करते थे। बड़े विद्वान, बड़े छात्र वत्सल माने जाते थे। यद्यपि विभागाध्यक्ष की राय नितांत भिन्न थी। लेकिन अपनी सीमा और सामर्थ्य के मुताबिक वह केवल एक संशोधित लोकोक्ति ही कहा करते थे “आये हरिभजन को ओट रहे कपास।“
चपरासियों और क्लर्क को इधर उधर डोलते देख रामफल ने कुलसचिव के जाने के बाद की प्रशासकीय ढील लक्षित की। हिंदी के अस्त-व्यस्त गँवई लगने वाले विद्यार्थी परस्पर गप्प और चुहल कर रहे थे। रामफल के पहुँचते ही एक जूनियर ने दादा प्रणाम कर सूचना दी
“दादा आपको हेड सर ने बुलाया है।“
“अच्छा, खाली होने पर मिलता हूँ। और कैसे हो ?”
“आशीर्वाद दादा”
रामफल पहले अपने गाईड के कक्ष की ओर गये। वहाँ कोई न था। उन्होंने सोचा मिल लेता हूँ हेड से अभी। बाद में भूल जायें या कहीं चले जायें उससे पहले। एक अग्रेषण लेटर भी है। साईन हो जायेगा। कुछ किताबें भी लाईब्रेरी से निकलवानी हैं।
विभागाध्यक्ष का कमरा जिसे चपरासी चेंबर कहते थे एक छोटा कक्ष था जिसके आधे हिस्से में उनका टेबल और घूमनेवाली कुर्सी थी। शेष हिस्से में कुछ सोफ़े थे जिनमें कुछ विद्यार्थी बैठकर कभी-कभी कुछ पढ़ा करते थे। विभागाध्यक्ष कुछ उदार थे, कुछ विद्वान और कुछ ताकतवर। दुनियादार वह बहुत थे। सभी राजनीतिक दलों के लोगों से उनके संबंध थे। कुल मिलाकर उनके व्यक्तित्व और पद का निर्माण कुछ ऐसी परिस्थितियों, कुछ ऐसे पदार्थों से हुआ था जिनके मूल में कुछ ही बहुत कुछ होता है। भारत के विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों के संदर्भ में तो सब कुछ। वे डी लिट थे। प्रादेशिक पाठ्यक्रम निर्माण समिति के अध्यक्ष थे। पूरा देश घूमे हुए अपने अंत:प्रदेश के प्रधान सेवक थे।
जब रामफल ने दरवाज़ा खींचकर अंदर आने की अनुमति माँगी तब हेड साहब के कक्ष में कुछ सुंदर शिष्याएँ सोफ़े पर बैठी अध्ययन कर रही थीं। कक्ष से लगे हुए बाथरूम का दरवाज़ा खुला हुआ था। जिससे अंदाज़ा लगता था हेड साहब अभी अभी हलके हुए हैं। रामफल ने सौजन्यवश खड़े होने की जगह बनाते हुए दरवाज़ा बंद कर दिया। इस संस्कार प्रदर्शन से हेड साहब प्रसन्न हुए। उन्होंने धन्यवाद की जगह मुस्कुराहट प्रकट कर दी।
“कैसे हो ?”
“अच्छा हूँ सर”
“बैठो”
“ठीक हूँ सर आपने बुलाया ?”
“मैंने बुलाया ? नहीं तो..हाँ...हाँ... बुलाया था...बैठो...बैठो तुमसे कुछ बात करनी है।“
“जी धन्यवाद सर”
हेड साहब का इशारा पाकर एक लड़की ने खिसककर सोफे पर जगह बनायी। रामफल गलती से उसके दुपट्टे पर बैठ गये जिसे अचकचाई छात्रा ने जोर से खींच लिया। सब हँस पड़े। रामफल असहज हो गये। हेड साहब सीधा रामफल से मुखातिब हुए
“तुम्हारा घर कहाँ पड़ता है ?”
रामफल ने जगह का नाम बताया।
“तुम ब्राह्मण हो न ?”
“जी आप कई बार पूछ चुके हैं।“
“हाँ.. मैं भूल जाता हूँ। लेकिन ब्राह्मण हो तो कई बार बताने में भी क्या हर्ज़? कौन से ब्राह्मण हो ?”
“मैं समझा नहीं सर”
“मेरा मतलब है सरयू पारीण हो या कान्यकुब्ज ?”
“सरयूपारीण”
“अच्छा गोत्र कौन सा है ?”
“मालुम नहीं सर”
“गोत्र नहीं मालुम ?”
“नहीं सर”
“क्यों ?”
“कभी ज़रूरत नहीं पड़ी”
“जानना चाहिए। तुम विद्वान हो।“
“जी। पता कर लूँगा।“
“शादी हो गयी ?”
“नहीं”
“करोगे ?”
“जी ?”
“शादी करोगे ?”
“अभी इस बारे में सोचा नहीं”
“सोचो, जल्दी सोचो। शादी भी ज़रूरी होती है।“
“सोच लूँगा वक्त मिलेगा तो”
“अभी सोचो, क्या पता जब वक्त मिले लड़की ही न मिले”
सब हँस पड़े।
“आते कैसे हो ?”
“साईकिल से”
“कितने किलोमीटर होगा यहाँ से घर ?”
“18 किलोमीटर”
“दोनों तरफ़ का ?”
“नहीं एक तरफ़”
“कुछ चना चबेना लाते हो ? “
“नहीं”
“लाया करो”
“जी”
इसके बाद हेड साहब मुद्दे पर आये। इसके लिए उन्होंने मुँह की तंबाकू थूक दी। अपनी आवाज़ धीमी और गंभीर बनायी। दोनों हाथ जोड़कर उनमें ठुड्डी टिका ली। बारी-बारी से सभी छात्राओं को देखा। बोले
“मेरे कहने का, बुलाने का कुल मतलब यह कि तुम मेहनती हो। मज़बूत हो। अच्छे ब्राह्मण हो। विद्वान हो। लिखते हो। समर्पित हो। तुममे प्रतिभा और लगन दोनों हैं तो फिर वैसा ही आचरण भी क्यों नहीं करते? गरिमा हीन आचरण से सरस्वती रूठ जाती है। व्यक्ति प्रतिष्ठाच्युत हो जाता है। समाज मे अपयश मिलता है और अर्थ की हानि होती है। तुम यदि श्रेष्ठ आचरण करो तो एक दिन अवश्य प्रोफेसर बनोगे। वरना असंभव है।“
रामफल अचकचा गये। उन्हें सम्हलने तक का मौका नहीं मिला था। यह दूसरा आक्रमण था जिसे उन्हें झेलना था। वे कुछ विचित्र अपमानजनक कर बैठें इससे बचने के लिए उन्होंने बातचीत को खींचकर जगह बनानी चाही।
“मैं कुछ समझा नहीं सर”
“समझने जैसी कोई बात नहीं है। तुम मेरी इज्जत नहीं करते मत करो। तुम्हारे अध्ययन के क्षेत्र में मैं पारंगत नहीं तो इसका अर्थ यह नहीं कि मेरा पुरुषार्थ किसी से कम है। याद रखना विभागाध्यक्ष मुझे ही बनाया गया है। मैं तुम्हें केवल आगाह करना चाहता हूँ।“
“किस बात के लिए सर ?”
“बात कुछ खास नहीं है। सोचोगे तो है भी”
“बात क्या है सर ?”
“बात यह है कि तुम इतना सब होने के बावजूद किसी दलित साहित्यकार को अपना आदर्श मानते हो। एक ऐसा रिसर्च एसोसिएट जो ब्राह्मण की ही कृपा और अनुशंसा पर नियुक्त हुआ। दलित के पीछे-पीछे तुम ब्राह्मण होकर घूमते हो। यह ठीक नहीं है। यह इस विभाग में, यहाँ की धरती पर फलदायी नहीं हो सकता। इस विभाग में तो क्या पूरा विश्वविद्यालय ही न इसे पचा पायेगा न बर्दाश्त कर पायेगा। धोबी का कुत्ता हो जाओगे। अपने समाज के हो इसलिए आगाह कर दिया। आगे तुम खुद समझदार हो।“
रामफल कुछ बोलना ही चाहते थे कि हेड साहब ने टोक दिया
“इस विषय में बहस की गुजाईश नहीं है। मुझे कोई दलील नहीं सुननी। अब तुम जा सकते हो।“ रामफल बुरी तरह खिसिआये हुए बोले
“तुम्हारी क्षय हो...”
“क्या कहा ?”
“तुम्हारी क्षय कहा सर”
“तुमने मुझे गाली दी ?”
“गाली नहीं दी सर...मैं किसी को भी गाली नहीं दे पाता।“
“फिर तुम्हारी क्षय क्या है ? स्पष्ट करों अभी वरना मैं पुलिस बुलाता हूँ।“
“सर तुम्हारी क्षय राहुल सान्कृत्यायन की किताब का नाम है। “
“होगा। मैंने नहीं देखी सुनी। लेकिन अभी क्यों कहा तुमने ?”
“सर मैं यहाँ से निकल रहा था। कोई दूसरा है नहीं विभाग में तो सोचा आपसे पूछ लूँ आज कैसे निकलेगी ? संकोच और अपमान के कारण वाक्य पूरा नहीं कर पाया। आप अन्यथा न लें। मैं कल आ जाऊँगा सर।“
“बाहर निकल बत्तमीज़...”
हेड साहब चीखे। रामफल मन ही मन हँसते बाहर निकल आये। उन्हें अपने अपमान का बदला रचनात्मक रूप से लेने का किंचित अवसर मिल गया था। अपनी प्रत्युत्पन्न मति पर गर्व करते हुए रामफल अपनी साईकिल की ओर बढ़े। सड़क पर चलते हुए रामफल वापसी का गीत गुनगुना रहे थे- “नदिया चले चले रे धारा...चंदा चले चले रे तारा....तुझको चलना होगा...”
जिस वक्त रामफल अपनी साईकिल पर सवार इस बात से बेपरवाह कि इतनी स्पीड में अब किसी भी क्षण चेन उतर सकती है यह सोचते लौट रहे थे कि यदि मैं अपने विवेक के साथ रहा तो ज़िंदगी में उजले दिन अवश्य आयेंगे उसी वक्त उनके गंजेड़ी स्वजन में से एक रामशरण माटसाब इस प्रस्ताव के साथ संगत विसर्जित कर रहे थे-
“यदि रामफल पांडे ने स्वीकार कर लिया या किसी तरह यह साबित हो गया कि उन्होंने किसी दलित का चाहे वह प्रोफेसर ही क्यों न हो पाँव छूते आ रहे हैं तो उनका सामाजिक बहिस्कार किया जायेगा और अगर रामफल ने इस बहिस्कार का उचित सम्मान न किया तो उनका शुद्धिकरण किया जायेगा। शुद्धिकरण कब और कैसे होगा इसका खुलासा तभी होगा। किसी भी कीमत पर यह गोपनीय रखा जाये“
बड़े गुरू ने सबसे पहले प्रस्ताव का समर्थन किया। फिर सबने हाँ हाँ कर दी।
रामफल पांडे की साईकिल का चेन इस बार ढलान पर उतरा। उन्होंने पैडल से पाँव उठा लिए। साईकिल आगे की आधी चढाई अपने आप चढ़ गयी। शेष चढाई उन्होंने पैदल चढ़ी। ऊपर एक टपरे पर साईकिल सुधारने की दुकान थी। लेकिन वह थोड़ी दूर थी। रामफल को पास में एक पेड़ दिखा तो वे नोटबुक लेकर बैठ गये। दर्ज़ किया-
“सवर्ण या दलित घर में जनम लेना अजीब नहीं है। अजीब है दलित या सवर्ण समझे जाना। सबसे अजीब है खुद नहीं समझना लेकिन समझे जाते रहना। मैं अपने गाईड की नज़र में भी ब्राह्मण ही हूँ जबकि मेरी निगाह और बर्ताव में वे दलित नहीं है। आनेवाला समय दस्तक दे रहा है कि अब जो सवर्ण के घर पैदा होंगे वह सवर्ण जो दलित के घर पैदा होंगे वह दलित ही समझे जाते रहेंगे। भविष्य में छुआछूत विहीन जातिवाद विकराल होता जायेगा।“ “यह नहीं भी हो सकता है।“ कोष्ठक में लिखकर हस्ताक्षर किए और नोटबुक बंद कर दी।
दुकान पर पहुँचकर रामफल ने मिस्त्री से कहा- काट दो। मिस्त्री चौंका-क्या काटना है? रामफल बोले- चेन बढ़ गयी है उसे काट दो। मिस्त्री ने कहा-अच्छा, हो जायेगा लेकिन समय लगेगा।
-'बया' के उच्च शिक्षा विशेषांक: भारत की उच्च शिक्षा-1, जनवरी-मार्च 2017 में प्रकाशित
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