गुरुवार, 8 सितंबर 2011

कहानी: आत्मकथ्य

यह कहानी ‘कथादेश’ के जुलाई 2011 अंक में प्रकाशित हुई। इस पर जितनी राय मिलीं उनसे मुझे खुशी और अचरज दोनो हुए। खुशी की वजह तो वही थी जो किसी रचनाकार के लिए वास्तव में होती है कि कहानी अच्छी है, साहसिक है अच्छे से लिखी गयी है वगैरह....अचरज इस बात का हुआ कि यदि अपने समय की किसी ख़तरनाक प्रवृत्ति पर भी कहानी लिखी जाय तो कुछ ख़ास पाठक उसे व्यक्तिगत बनाकर पेश कर ही देते हैं। बहरहाल ज़रूरत तो नहीं है फिर भी यहाँ अपने ब्लॉग में आनेवालों से स्पष्ट कर दूँ कि यह कहानी केवल और केवल हमारे इस साहित्यिक दौर पर है। इसमें जो चेहरे दिखाई देते हैं वे हांडी के कुछ चावल भर हैं। -शशिभूषण



(यह आत्मकथ्य किसी पत्रिका में छपने या समारोह में पढ़ने के लिए मैंने नहीं लिखा है।यह मेरी और उनकी बात है।केवल उनके लिए है जो मेरे अंतरंग हैं,मेरे बारे में सब जानते हैं।मेरी अप्रकाशित रचनाओं के साझीदार हैं।किसी ग़लती से यदि यह सार्वजनिक हो जाए और किसी को इसमे अपना चेहरा दिख जाए तो मैं बिल्कुल जवाबदेह नहीं हूँ।यह शिल्पहीन झूठ जो कहानी या व्यंग्य बनकर कभी भी सच जैसा हो सकता है मैंने खुद को पहचानने के लिए लिखा है।कोई भी मुझे ढूँढने निकला,उन्हें पहचानने की कोशिश की तो मैं अभी से बता दूँ-मैं कोई नहीं हूँ।कही नहीं हूँ।जो इसे प्रकाश में लाएगा उसके दिमाग़ की कोरी उपज हूँ- बेनामी)

सुबह-सुबह मोबाईल स्क्रीन पर श्री.......कॉलिंग देखकर लगा मोबाइल मेरे हाथ से छूट जाएगा।यह पहली बार था।इसकी कल्पना तक नहीं की थी मैंने।सोचा यदि मैंने अभी रिसीव कर लिया तो बात ही नहीं कर पाऊँगा।काँपती आवाज़ और बढ़ी हुई धड़कने मुझे कुछ का कुछ बोलने को मजबूर कर देंगी।मैंने हड़बड़ी में साइलेंट की जगह लाल बटन दबा दिया।सोचकर काँप उठा कि उन्हें पता चल गया होगा!...उधर सुनाई दे रहा होगा….जिस उपभोक्ता को आप कॉल कर रहे हैं वह अभी व्यस्त है।मैं पसीने में नहा गया।सब खुशी की वजह से मेरे साथ हुआ।मैंने उन्हें तुरंत अपनी तरफ़ से फ़ोन लगाना चाहा।ऐसा नहीं है कि मैंने कभी उनसे फ़ोन पर बात नहीं की।की थी।अनगिन बार।पिछले छह सालों से मेरे मोबाइल रखने के गुज़रे वक्त में उनसे बातचीत का समृद्ध इतिहास है।उनके कई साक्षात्कार किए।किताबों की समीक्षाएँ लिखीं।पर हमेशा मैंने ही उन्हें फ़ोन लगाया।वे आ रहे हों तब भी मैं ही फ़ोन करके रेलवे स्टेशन उन्हें लेने गया।

मोबाइल में उधर जो व्यक्ति थे उन्हें साहित्य का सिपाही कहेंगे।जीवन में मैंने ज्यादा यात्राएँ नहीं की हैं।सच कहें तो की ही नहीं।परीक्षा,साक्षात्कार आदि के लिए दो-चार जगहों में गया हूँ।इन्हें यात्रा की कोटि में नहीं रखा जा सकता।सिर्फ जाना,लौट आना यात्रा नहीं होती।उसे आना-जाना ही कहेंगे।पर जाने क्यों मेरी हमेशा उनकी तुलना भारतीय रेलवे से करने की होती है।लोगों में लंबी दौड़ का घोड़ा आदि कहने की अनुकरणशील लत है।काफ़ी हद तक ख़ास मक़सद के लिए दौड़नेवालों को घोड़ा आदि कहना ठीक होगा।मैं उन्हें कम स्टॉप वाली लंबी दूरी की ट्रेन कहता हूँ।वह ट्रेन जिस पर सफ़र किए जाते हैं,माल की ढुलाई होती है।जिसकी पटरियाँ उखाड़ देने की कोशिश भी अनवरत होती रहती हैं।यह तुलना करते हुए मैं इस संभावना से भी इंकार नही कर रहा कि कोई विदग्ध टिप्पणीकार तुरंत कह देगा “सही कहा ट्रेन जिसे हमेशा घाटे में सरकार चलाती है।”मैं इसकी परवाह नहीं करता।विरोधियों में विलक्षण विपरीत तर्कशक्ति होती ही है।

वे पूरे देश में पैठे हैं।उनकी जड़ें अकादमिक जगत,सत्ताकेन्द्रों से लेकर जनता तक गहरी और विस्तृत हैं।प्रसिद्ध आलोचक,एक साहित्यिक संगठन के अध्यक्ष तथा लोकप्रिय,लाभकारी प्रकाशन से निकलनेवाली देशव्यापी पत्रिका के कार्यकारी संपादक हैं।उन्होंने अपनी सारी क्षमता-प्रतिभा;संगठन,पत्रिका और साहित्यकारों को एकजुट करने में लगा दी।युवाओं की नई पौध तैयार की।साहित्यिक कार्यक्रमों के अद्वितीय युद्धक संयोजक।रचना या विचार गोष्ठी जैसे आयोजन तो वे ट्रेन की शयनयान बोगी में ही कर डालें।उनके आमंत्रण पर कोई भी तत्काल गुटनिरपेक्ष हो जाए।यानी आने से इंकार न कर सके।सांप्रदायिकता और हर किस्म के साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपराजेय संस्कृतिकर्मी।मैं उनका नाम नहीं बता रहा हूँ,अंत तक बताऊँगा भी नहीं तो इसका कारण यह है कि मुझे लगता है आपके आस-पास आपका समकालीन भी कोई ऐसा व्यक्ति ज़रूर होगा।जिसके बारे में अभी से लिख लिया गया होगा कि उनके चले जाने के बाद उनकी जगह कोई नहीं ले पाएगा।उनके काम हमेशा आनेवालों का पथ आलोकित करेंगे।वे अभूतपूर्व हैं।लेकिन मैं इतना ही नहीं मानता।इससे हल्की प्रशस्ति या श्रद्धांजली हो ही नहीं सकती।मेरा दृढ़ मत है उनका अंत नहीं होगा।वे हर समय,पूरे देशकाल में रहेंगे।एक बात और उनके संबंध में इतनी बातें सुनकर कोई यह न समझ ले कि वे बहुत सयाने व्यक्ति हैं।उनकी उम्र अभी केवल पचपन साल है।

मैं उन्हीं के संगठन का छोटा-मोटा कार्यकर्ता हूँ।उनका अतिप्रिय भी हूँ। मेरी आंतरिक राय यह है कि वे साहित्य के अजेय योद्धा हैं।एक कस्बे से निकला साहित्य साधक जिसने रचनाकारों के शहर बसाए।कुछ प्रतिक्रियावादी और फासीवादी ताक़तें उन्हें साहित्य का दरोगा बोलती हैं।मैं समझता हूँ यह एक सामाजिक-सांस्कृतिक बेशर्मी है।लोगों के यह कहने का क्या तुक कि वे समझौतापरस्त हैं,मार्क्सवाद के चोले में कांग्रेसी हैं।प्रगतिशील अध्यात्मिक हैं,सिफारिशी चिट्ठियाँ लिखते हैं।नियुक्तियाँ करवाते हैं।पुरस्कार समितियों को प्रभावित करते हैं।कहीं से भी अनुदान वगैरह ले लेते हैं।उनके बेटे-दामाद उच्च पदों की लोकसेवा में लाखों करोड़ों के हेर-फेर करते हैं।हालांकि इसमें भी मुझे गरिमा दिखती है।नमक के दरोगा की तरह साहित्य का दरोगा।यह वैसी ही बात है कि निंदक भी कभी कभी कोई गहरी बात बोल जाता है।उनको क्या कहें जिनके पास निंदा के सिवाय कोई काम नहीं।कुंठा किसी का अवमूल्यन नहीं कर पाती।सच तो यह है उनके जैसे संघर्षशील प्रगतिकामी की अवमानना फलीभूत हो ही नहीं सकती।एक वही हैं जो विरोधों से और निखर आते हैं।उनके विरोधी धीरे-धीरे क्षीण होकर विलुप्त ही हो गए।उन्हें कोई अब पूछता तक नहीं।

और आज के साहित्यिक विवाद-विरोध में रखा ही क्या है ? उनकी असलियत किसे नहीं पता।इसी शहर की बात है।इसे कोई जानेगा तो बहुत कुछ साहित्यिक बहिष्कारों कि छुद्रता पता चल जाएगी।लोग मुझ पर सीधा प्रहार न करें इसलिए मैंने इसे एक कथास्थिति बनाकर लिख लिया है।मैं जानता हूँ चाहूँ तो अच्छी कहानियाँ लिख सकता हूँ।जैसी मध्यवर्गीय,फिल्मी प्रेम कहानियाँ आजकल चलन में हैं उनसे बेहतर।ज्यादा सरोकारों से युक्त।लेकिन नहीं मैंने जान-बूझकर व्यंग्य तथा समीक्षा को चुना है।मैं समझता हूँ हम किस तरफ़ के हैं जितना ही यह भी महत्वपूर्ण होता है कि हम किस विधा के हैं।सारी विधाओं में केवल मुँह मारते रहना खास तरह की लंपटई है।मैं पहले ही बता दूँ इसमें आपको मेरी भाषा थोड़ी बदली नज़र आएगी।तो यह होता ही है।सीधे मुखातिब होने और लिखने की भाषा में फर्क रखना ही पड़ता है।यह फर्क बातचीत के दैरान सबसे ज्यादा दिखाई पड़ता है।दूसरे,मैं इसे व्यंग्य की तरह दोबारा लिखूँगा।खैर,प्रसंग यह है।

जिस शहर में प्रसिद्ध युवा कवि जगन्नाथ जलज रहते थे उसी शहर में मशहूर वरिष्ठ साहित्यकार दीनबंधु उपाध्याय का घर था।दोनों ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे।दोनों मे सिर्फ़ उम्र और देखी हुई दुनिया का फर्क था।लगन,मेधा,संघर्ष क्षमता और सफलताएँ क़रीब-क़रीब एक सी।इन्हीं समानताओं के आधार पर किसी समय दोनों साहित्यकारों में गजब की एकता थी।आपसी संबंधों में मैत्रीपूर्ण अनौपचारिकता थी।जिसमें लिहाज तथा सम्मान का पूरा खयाल रखा जाता है ऐसा हार-जीत का अपनापा था।पर हवा का रुख देखते हुए तथा जलज की युवकोचित महत्वाकांक्षाओं के चलते छोटी-मोटी बहसों से टकराहटें बढ़ीं, मतभेद हुए और बढ़ते गए।

एक दिन यह देखने में आया कि लगभग समान प्रगतिवादी विचारधारा के दो अलग-अलग लेखक संगठनों में से एक ने जलज को राष्ट्रीय कमान सौंप दी।और निष्क्रिय होते जा रहे दूसरे संगठन के शिथिल संरक्षकों ने दीनबंधु को अपना मनोनीत सदस्य प्रचारित कर दिया।ऐसा होते ही दोनों के आपसी आरोप-प्रत्यारोप भी साहित्य की कोटि मे आ गए।चर्चा के विषय हो गए।नये कार्यकर्ताओं के बीच इनके पक्ष-विपक्ष की तत्परता मुख्य हो गई।

ऐसा नहीं था कि जलज को अवसरों की कमी थी।उनकी किताबें मशहूर हो रहीं थी।ईनाम भी भरपूर दिये जा रहे थे उन्हें।संगठन प्रेरित कार्यक्रमों मे वे सम्मानित हो रहे थे।वे समर्पित कार्यकर्ता भी थे।उत्साही युवकों की नयी फौज उनके कहने पर कोई भी नारा लगा सकती थी।कहीं भी विरोध प्रदर्शन कर सकती थी।पर समस्या यह थी कि उसी शहर में दीनबंधु भी रहते थे।उनकी विनम्रता तथा अहर्निश चिंतन-सृजन उन्हें एक सम्मानित बुजुर्ग की गरिमा देते थे।उनमें जल्दी जवाब देने की फिक्र नहीं थी।वे तो इसका इंतज़ार करते थे कि ऐसा विरोध हो मेरा जो सचमुच का इंटेलेक्चुअल थ्रिल पैदा कर सके।अभद्र कथन में उनकी प्रवृत्ति थी ही नहीं।उपेक्षा को अपना लेने की वजह से उनमें आ गया संतुलन उन्हें डिगा नहीं पाता था।उनके भीतर टूट-फूट होती थी लेकिन उसे भांप लेना आसान नहीं था।काफ़ी हद तक इसी से जलज के सम्मान में वहाँ कुछ कमी थी।उनके आतुर विरोधों को भी लोग जल्द ही भुला देते थे।

पर जलज की भी खासियत थी वे हार नहीं मानते थे।यह गुण उन्होंने विकराल शत्रुओं साम्राज्यवाद तथा फासीवाद से लड़ने के लिए किताबें पढ़-पढ़कर अपने भीतर पैदा किया था।चूंकि पूरे देश में ही कोई बड़ी प्रकट राष्ट्रीय लड़ाई नहीं बची थी।कानू सान्याल आत्महत्या कर चुके थे।इरोम शर्मिला को धीरे-धीरे मरते हुए सारा देश देख रहा था।इसलिए दीनबंधु या ऐसे ही मुद्दे एक प्रयोगशाला की तरह हो गए थे।उनकी अन्य बाहरी प्रयोगशालाएँ भी थीं पर हम यहाँ वो भी संक्षेप में केवल उनके ही शहर की बात कर रहे हैं।

जलज को कोई ठोस वजह नहीं मिल रही थी जिसके आधार पर दीनबंधु का नाम साहित्य के रजिस्टर से खुरचने की कार्यवाही शुरू की जा सके।या उन्हें ज़ोर का झटका ही दिया जा सके।पर जैसा कि हर बड़ी शुरुआत मामूली घटना से होती है।कुशल व्यक्तिगत विरोध को सैद्धांतिक विरोध की पहचान मिल जाती है।यहाँ भी वैसा ही हुआ।

जलज एक बार दीनबंधु को शहीदे आजम भगत सिंह पर आयोजित होनेवाले एक कार्यक्रम में निमंत्रण देने गए।दीनबंधु उन दिनों काफ़ी व्यस्त होते तो भी ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।पर वे इसलिए निमंत्रण स्वीकार न कर सके कि अगले दिन उनका व्रत था।वे सप्ताह में एक दिन व्रत रखते थे।लोगों का कहना था वे धीरे धीरे आस्तिक होते जा रहे हैं।इतना ही नहीं पूजापाठ का पाखंड भी शुरू कर दिया है उन्होंने।अच्छे वक्ता होते हुए भी वे व्रत के दौरान बोलने आने में असमर्थ थे।जलज ने इसे निराश लौटते ही मुद्दा बना दिया।ज़ोर देकर प्रस्ताव रखा कि यह भगत सिंह का अपमान है।दीनबंधु का बहिष्कार होना चाहिए।वे धार्मिक किताबें पढ़ते हैं,व्रत रखते हैं।सांप्रदायिक लोगों के साथ मंच शेयर करते हैं।मिथकों आदि की लोक स्वीकार्यता के कारणों की पड़ताल में गंभीर रूप से लिप्त हैं।वास्तव में पुनरुत्थानवादी हैं।कुल मिलाकर साम्राज्यवादी ताक़तों के साथ कबका हाथ मिला चुके हैं।

जलज द्वारा उठाए गए इन मुद्दों को राष्ट्रीय स्वीकार्यता मिली।क्योंकि दीनबंधु से असंतुष्ट रहनेवालों की खासी तादाद हो चुकी थी।फिर यह शुरू हुआ कि दीनबंधु अपनी हर रचना के साथ विवादित होने लगे।रचना छपते ही विभिन्न पतों से उन्हें अश्लील चिट्ठियाँ भी मिलने लगीं।शहर का पूरा बौद्धिक समाज उन्हें दबे-छुपे सुरुचिवादी और जनविरोधी मानने लगा।उनकी आदत नहीं थी पर मजबूरन हर बार लगभग सफाई देनी पड़ती।पलड़ा जैसा कि जलज चाहते थे उनकी तरफ़ भारी हो गया।उन्हें विरोध की ज़मीन मिल गई थी।

जिन लोगों ने जबरन दीनबंधु को अपने संगठन का महत्वपूर्ण सदस्य घोषित कर लिया था ऐसे मौकों पर उनसे देर हो जाती थी।वे थोड़ा कम सक्रिय रहनेवालों का समूह भी था।इसकी वजह वह लापरवाही भी थी कि दीनबंधु का साहित्यिक प्रताप देर से भी जलज जैसों के आरोंपों को चूर कर ही देता है।

लेकिन अब तो हद हो चुकी थी।उनके शहर में भी एक महत्वपूर्ण स्तंभ को वैसे ही लांछित करके हाशिए पर धकेला जा रहा था जैसे देश के तमाम बड़े लेखकों को साहित्य के प्राध्यापक और शिष्य-मित्र आलोचक खदेड़ने में सफल हो रहे थे।

अपने सम्मानित बुजुर्ग साथी के प्रायोजित हनन को देखकर एक बिल्कुल नये कार्यकर्ता का खून खौल उठा।जनकवि त्रिलोचन पर बड़े सम्मिलित आयोजन का लाभ उठाकर उसने विषयांतर की खतरनाक छूट लेते हुए जलज के खिलाफ़ बदले की उत्तेजना को भाषा में उल्था कर दिया।

वह बोला-“जलज जैसों को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए।वे मां-बाप का दिया अपना मूल नाम छोड़कर क्रांतिकारी नाम रख लेने में पहले ही उदघाटित हो चुके थे।साथियों,अब जलज का आशय वह बिलकुल नहीं रहा हैं जो आज़ादी की लड़ाई के समय था।जोंक भी जलज का पर्याय होता है।जलज साहित्य की जोंक हैं।अगर वे सचमुच क्रांतिकारी कवि हैं तो उन्हें आज के संदर्भों में अपना नाम कुकुरमुत्ता रखना था।रहा सवाल उनकी कविता का तो वह कैसी है? यदि विचारधारा को शिल्प की मिट्टी में गाड़ दिया जाय।उसके ऊपर कला का रंग पोत दिया जाए।फिर कोशिश की जाए कि वहाँ नीम या पीपल का पौधा न उगने पाए जो सबसे ज्यादा आक्सीजन छोड़ते हैं तो जो कविता पैदा होगी वही जलज की कविता है।जलज जैसे लोग विचारधारा के सूदखोर हैं।

युवा लेखक के इस वक्तव्य से हंगामा हो गया।पूरे आयोजन को चौपट होने में देर न लगी।अध्यक्ष महोदय की इस पेशेवर गुहार को किसी ने सुना ही नहीं कि-साहित्य को ऐसे विवादों से बचाएँ।हालांकि वे मन ही मन इस बात से काफ़ी खुश थे कि सबसे विवादित कार्यक्रम की अध्यक्षता करनेवालों में उनका नाम जुड़ गया है।यह वह दौर था जब विवादित होना ही साहित्यकार होना था।कंट्रोवर्सी सबसे ज्यादा बिक रही थी।

सभी आमंत्रितों जिनमें अधिकांश साहित्यकार ही थे तथा किसी न किसी संगठन से जुड़े हुए थे।मन ही मन अगले कार्यक्रम की तैयारी करते हुए लौटने लगे।

जलज ने गौर किया नये कार्यकर्ता में जबरदस्त जोश था।काश,ऐसे युवा अपने संगठन में होते।फिर उन्होंने ध्यान से देखा-दीनबंधु का चेहरा भी उतना ही उतरा हुआ था।उन्होने डरते हुए अनुमान लगाया कि जैसे दीनबंधु कह रहे हैं इस मौके को भी मत छोड़ना।आज से ही अभियान चला दो कि मैंने ही ऐसे व्याकुल युवा तैयार करने में लिप्त हूँ।जलज आप ही झेंप गए।

ऐसी घटनाएँ जानने के बाद भी आप मेरी स्थिति,उपलब्धियों पर पक्षपात की मुहर लगाएँगे ? उनमें चेलावाद की गंध सूँघेंगे ? जबकि मैं अपने बारे में बेहतर जानता हूँ।इस समय के हिसाब से मैं काफ़ी भावुक और भोला हूँ।मुझे अध्ययन तथा शोध से ही फुरसत नहीं।जो मुझमें चालाकी तथा योजना की बू सूँघते हैं वे दरअसल मुझसे ईर्ष्या रखनेवाले,उनके दुश्मन हैं।उन्हें खुद कुछ नहीं करना।जब सबसे ज्यादा प्रगतिशील ताक़तों को एकजुट होने की ज़रूरत है,तब कुछ तथाकथित प्रतिभाशाली या तो किसी के फटे में टांग अड़ा रहे है या अपनी मेधा के दुरुपयोग से छिद्रान्वेषण करने में लीन हैं।

मुझे इस पर भी हँसी आती है कि एक तरफ़ लोग कहते हैं मैं पढ़ता कम हूँ।दूसरी तरफ़ आरोप लगाते हैं मेरी रचनाओं में चोरी की हद तक अन्य रचनाकारों के प्रभाव हैं।भई,साहित्यिक परंपरा भी कोई चीज़ होती है कि नहीं ? यदि मेरी किसी रचना से किसी पूर्ववर्ती रचना की याद आ जाती है तो इसका आशय यही तो नहीं होता कि मैं नकलची हूँ।किसी समय में सारे अच्छे लोग एक जैसा सोचते हैं।अक्सर श्रेय स्थापितों के ही खाते में चला जाता है।

लिखने पढ़ने का शौक मुझे बचपन से था।मैंने ग्रेजुएशन में ही उनकी सारी लाइब्रेरी पढ़ डाली थी।उनकी लाइब्रेरी के बारे में मैं क्या बताउँ ? वह कई हिंदीभाषी राज्यों की राजधानियों के केन्द्रीय पुस्तकालय से बड़ी है।उसमें श्रेष्ठ आडियो-वीडियो सामग्री भी है। मैं पूर्णकालिक संस्कृति कर्मी बिल्कुल शुरुआत से बनना चाहता था।मैं सोचता हूँ कि यदि साहित्य का मेयार न भी बदल सकूँ तो कम से कम उसे एक मुकाम तक तो पहुँचाऊँ ही।बाद में मुझे थोड़ा समझौता करना पड़ा कि स्वतंत्र सृजन,आर्थिक कठिनाइयों के चलते व्यवहार में दुखद बनकर रह जाता है।आर्थिक स्वावलंबन प्रेरणाओं के लिए संजीवनी है।नौकरी को एक आवश्यक बुराई की तरह ग्रहण करना चाहिए।यदि अवसर मिले तो महाविद्यालय आदि में अध्यापन में कोई बुराई नहीं।प्रतिष्ठा,पैसा और साहित्य सेवा के लिए पर्याप्त समय के लिहाज से इससे उपयुक्त नौकरी नहीं।

मैं जानता हूँ कि आज साहित्यकार होने के लिए,महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में हिंदी की सेवा करने के लिए,किसी साहित्यिक गुट से जुड़ना ज़रूरी है।किसी विशिष्ट आचार्य,संपादक,साहित्यकार का आशीर्वाद मिलना अनिवार्य है।यह बाक़ी लोगों का भी मानना है।जिसमें मुझे सिर्फ़ यह अति खटकती है कि हर नियुक्ति केवल ऐसे ही होती है।लेकिन मैं उनसे इसलिए जुड़ा कि मुझे अपने सोच का विस्तार करना है।अपनी साहित्यिक संवेदना को विचारधारा की पटरी पर लाना है।खुद को सिद्धहस्तों के बीच रखकर मांजना है।इसका मुझे सचमुच लाभ हुआ।मेरे सम्पर्क बढ़े।मैं आधुनिक श्रेष्ठताओं से परिचित हुआ।इसने मेरी यह सहायता भी की कि मेरा रिसर्च के लिए एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में चयन हो गया।छह हज़ार रुपये महीने की फेलोशिप मिल गई।रिसर्च क्या लिखने-पढ़ने,सभा-संगत की सुविधा और मोहलत मिल गई।

तब से मैं पारिवार के छोटे सदस्य की तरह उनके सौंपे गए कामों को निष्ठा से करता आ रहा हूँ।इसमें कार्यक्रमों की रिपोर्ट बनाने,कार्ड में पते लिखने,रेलवे का टिकट करवाने से लेकर उनकी दवाइयाँ पहुँचा आना तक शामिल है।मुझे सचमुच गर्व होता है कि वे मुझे प्यार,मान,सेवा का अवसर देते हैं।मेरा खयाल रखते हैं।मेरा फोन अवश्य रिसीव करते हैं।एक बार तो मैंने उन्हें तब फोन कर डाला जब वे संगठन की कार्यकारिणी की आपात बैठक में असंतुष्टों को लताड़ रहे थे।उन्होंने पूरी बात करने के बाद बताया कि मैं अभी मीटिंग में हूँ।बाद में कोई रास्ता निकालता हूँ।मैं अपराध बोध से भर गया था।इतना सौजन्य किसी वरिष्ठ साहित्यकार में होना दुर्लभ है।इसीलिए वे अद्वितीय हैं।हिंदी में एक युग की तरह हैं।

उनका बड़प्पन देखिए कि वे कभी भी अन्यों द्वारा की गई मेरी चुगली,निंदा पर यकीन नहीं करते।कभी मेरी सार्वजनिक प्रशंसा करके दुष्टों को नहीं उकसाते।मुझ पर वे कभी अविश्वास करें यह तो सोचा ही नहीं जा सकता।दीर्घकालिक,दूरगामी संबंध के लिए ऐसा ही विश्वास चाहिए होता है।वे मेरे व्यक्तित्व की रीढ़ हैं।मेरे निर्माण में उन्हीं का हाथ है।मैं ज़ोर देकर कहता हूँ कृतज्ञता चापलूसी नहीं होती।

यद्यपि वे बड़े सहृदय,वत्सल और क्षमाशील स्वभाव के हैं पर जाने क्यों उनकी छवि का आतंक हर कोई मानता हैं।मैंने उनमें देखा कि उपेक्षा और कृपा विरोधियों,रुष्टों को चित करने के अचूक गुण हैं।अपना काम करो।उपेक्षा या कृपा में से जिसका उचित अवसर हो इस्तेमाल करो कभी पीछे नहीं लौटना पड़ेगा।लोग हाथ मलते रह जाएँगे।मैं भी इसे सीखना चाहता हूँ।उन्होंने इसी से बड़े बड़े विरोधियों का अहिंसक दमन किया है।

मै उनकी व्यावहारिकताओं से हमेशा सीखता हूँ।मुझे व्यंग्य विधा में जो थोड़ी बहुत सफलता मिली हैं वह उनके मार्गदर्शन की कृतज्ञ है।उन्होंने ही एक दिन कहा था कि खूब पढ़ो,अपने आसपास के लोगों को जोड़ो।स्थायी काम के लिए अपना समूह होना आवश्यक है।फुटकल व्यंग्य लेखों को कब तक सहेजोगे।पांडुलिपि तैयार करो।बुजुर्गों की कृतियाँ बचाने में योग दो।मैं उन्हीं के निर्देश से छोटी वय के सुबुद्ध युवकों को लगातार प्रोत्साहित करता रहता हूँ।अब मेरा तैयार किया हुआ एक छोटा मोटा साथी समूह भी बन गया है।हालांकि उसमें ज्यादा लद्धड़ ही है अभी।पर इंसान तो इंसान होता है।उसमें अनंत संभावनाएँ होती हैं।

मुझे उनकी सलाह हमेशा आदेश लगती है।उनके सिर पर हाथ रख देने भर से मेरे रोम-रोम में पौरुष और आत्मविश्वास का संचार होने लगता है।यह दुनिया मुझे बहुत छोटी प्रतीत होती है।लगता है वे कह दें तो अभी पृथ्वी के चार फेरे लगा आऊँ।मैं उसी दिन जुट गया था।मैंने दो हफ्ते में सारी रचनाएँ टाइप करा डाली थीं।उनको स्पाइरल बाइंड करा लिया।वे किसी आयोजन में मुख्य वक्ता बनकर मेरे शहर आए थे कि मैंने उन्हें लौटते समय अपने घर चलने का निवेदन किया।उन्होंने यह कहते हुए कि इतने सालों के तुम्हारे आग्रह को आज ठुकराना असंभव है मेरा आमंत्रण स्वीकार कर लिया।इस तरह मैं यह कह सकता हूँ आज कि वे मेरे इस घर में पधार चुके हैं।मेरे बहुत से विरोधी इतनी निश्छल बात को भी मेरा आत्मप्रचार समझते हैं।

वे न केवल मेरे घर आए उन्होंने मेरे बच्चों को प्यार भी किया।पत्नी को आगे पढाई ज़ारी रखने,हो सके तो शोध कर डालने की सलाह दी।यदि नौकरी करना चाहे बहू तो आवेदन करने के पहले एक बार मुझे सूचित करने में संकोच मत करना।चलते हुए बच्चों की मिठाई के लिए पांच सौ रुपये का नोट बिटिया की गदोरी में रख दिया।जो उनकी इस पारिवारिक उदारता से परिचित नहीं होगा वही उन्हें कोरा शहरी बुद्धिजीवी कहेगा।वे प्रगतिशील और पारंपरिक दोनों हैं।यह उनकी सीमा नहीं भारतीय अर्थों में प्रतिबद्धता है।

तभी मैंने सकुचाते हुए पांडुलिपि उन्हें दिखायी थी।उन्होने उसे उलटा पलटा था लेकिन मुझे लौटाना भूल गए थे।मांग लेने में मुझे संकोच हुआ था।बाद में मैने जो सुना उस पर मुझे यकीन ही नहीं हुआ।उस दिन मैंने यों ही उनका एक वक्तव्य जो दक्षिणपंथी ताक़तों के विरोध में था पढ़कर फोन किया था।उन्होंने एकदम विषय बदलते हुए मुझे चौंका दिया।“कोई कह रहा था तुम्हारा व्यंग्य संग्रह छपकर आ गया है।उसकी दो प्रतियाँ मुझे जल्दी भेजो।पत्रिका के इसी अंक में रिव्यू चला जाएगा तो ठीक होगा।वरना फिर लगातार विशेषांक निकालने की योजना है।यदि फलाने ने अपनी अराजकता के चलते बीच में ही छोड़ दिया तो उनमें से एक की ज़िम्मेदारी तुम्हें भी सम्हालनी पड़ सकती है।यद्यपि यह सही वक्त नहीं है कहने का,इसे अपने तक ही रखना।सभी लोगों की राय है कि आगे तु्म्हे ही पत्रिका सम्हालनी है।सहायता के लिए मैं रहूँगा।दरअस्ल मैं कुछ दिनों का रचनात्मक एकांत चाहता हूँ।इसके लिए विदेश यात्रा ही ठीक रहेगी।”

मैं संकोच और दोहरे उल्लास में स्तब्ध था।यह बताना भी भूल गया था कि मुझे तो मालूम तक नहीं।यद्यपि मुझे भरोसा था वे कह रहे हैं तो झूठ नहीं हो सकता।फिर मैं याद करने लगा था कि किस प्रकाशक को भेजने की बात उन्होंने कही थी।जब मुझे याद आया तो मेरी प्रसन्नता असीम थी।और खुश संयोग भी देखिए उसी के तीसरे दिन किताबों का बंडल मेरे घर आ गया।बेटे ने कक्षा में टॉप किया।पत्नी उसी दिन नौकरी की बजाय घर में ही रहकर पढ़ाई-लिखाई में मेरा सहयोग करने को राज़ी हो गई।मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा और प्रगाढ़ हो गई थी।

मेरी आत्मा ने दोहराया मैं कभी उऋण नहीं हो सकता।सब कुछ उनका ही दिया तो है मेरे पास।मैं अपनी पूरी निष्ठा से उनका आजीवन साथ दूँगा।उनके सौंपे कामों, दी गई ज़िम्मेदारियों को आगे बढ़ाऊँगा।लोग मेरी इस कृतज्ञता को नहीं समझ पाने के कारण मुझे चाटुकार की गाली देते हैं।लेकिन मन ही मन उनकी निकटता चाहते हैं।मैं परवाह नहीं करता ऐसे पिछड़े निंदकों की।मेरा मानना है यह श्रद्धा को चाटुकारिता समझनेवाले मूढ़ों की संख्या बढ़ जाने का दुष्परिणाम हैं।संक्रमण के दौर में जब कोई बड़ा ध्येय साथ न हो,लोग अपनी सारस्वत परंपरा को भूल जाएँ तो यही होता है।यह हमारे समय का खोट है।यहाँ भी ब्राह्मणवाद तथा बाज़ार ही हावी है।जबकि मैं जनवादी वर्तमान का सच हूँ।उनकी उम्मीदों का सबसे निस्वार्थ लेखक,कार्यकर्ता हूँ।

यह क्या वे दुबारा काल कर रहे हैं…मैं फोन उठा लेता हूँ।हलो,प्रणाम सर,पैर छू रहा हूँ।वे कह रहे हैं-“सुनो अपनी किताब लोग अब भी जीते हैं की दो प्रतियाँ अमुक पुरस्कार के लिए भेज दो।समय ज्यादा नहीं बचा है।आजकल में ही भेज दो तो विचार करने में सहूलियत होगी।”जी,जी सर।मेरे मुह से निकला।लेकिन अपनी किताब को तो मैं ही इस पुरस्कार के लायक नहीं मानता सर।ढंग से किताब को आए छह महीने भी नहीं हुए हैं और इसकी ज्यादातर रचनाएँ अप्रकाशित हैं।मैं समझ रहा हूँ ऐसा बोलकर अपनी किसी किस्म की महत्वाकांक्षा से उनको अपरिचित रखना चाहता हूँ।पर इतनी समझदार आत्मरक्षा बुरी नहीं।वे समझाते हैं “रचना के संबंध में पाठक लेखक से बड़ा जज होता है।एक बार पुरस्कार मिल गया तो लोगों का ध्यान जाएगा।समीक्षा और पुरस्कार में ज्यादा फर्क नहीं।दोनों लोगों का ध्यान खींचने का काम करते हैं।तुम किताब भेजो बाकी बातें बाद में करेंगे।”

मैं मन ही मन गहरे आत्मतोष में था।लेकिन जानबूझकर विलंब किया।फिर यह सोचकर कि उस दिन तक ज्यादा देर नहीं कहलाएगी सोमवार को किताब भेज दी।

आपको विश्वास नहीं होगा ठीक एक महीने बाद उनकी पत्रिका के प्रूफ़रीडर और मेरे बचपन के मित्र ने मुझे फोन करके बताया कि तुम्हारी किताब को पुरस्कार मिलने की सूचना संगठन की ओर से प्रेस में जा रही है,बधाई हो…मैं उससे चहककर कहता हूं घर आओ तो साथ-साथ मुह मीठा किया जाए।तुम्हारी भाभी भी यही कह रही है।मेरे इस मित्र पर भी वे बहुत विश्वास करते है।हालांकि संकोची होने,खराब स्वास्थ्य,लेट लतीफ़ स्वभाव की वजह से वह अपना हक़ आज तक नहीं पा सका है।उसकी निष्ठा ही है कि वह पत्रिका के प्रचार प्रसार में भी कोई कसर नहीं रखता।कई बार खुद ही बंडल बुक स्टालों में पहुँचाता है।रचनाएँ भेजने के लिए लेखकों को याद दिलाता है।अपनी नौकरी और परिवार के साथ उसके इस समर्पण को समझने लायक यह समाज अभी तक हो ही नहीं पाया है।उसके संबंध में भी लोग गंदी बातें करते है।मज़ाक उड़ाते हैं-अवसरवादी है,हकलाता है।किसी भी तरीक़े से हमेशा उनके कृपाकांक्षियों की सूची में खुद को सबसे ऊपर रखता है।

जैसा कि उन्होंने कहा था मेरे चारों ओर बधाइयों का तांता लग गया है।मैं मन ही मन महसूस कर रहा हूँ।सर,सब आपका ही आशीर्वाद है।दुनिया जिसे पुरस्कार समझ रही है वह वास्तव में आपका आशीष है।पर बिना आशंसा के कोई भी बौद्धिक मार्ग तय भी तो नहीं होता।बहुत संभव है उनकी अनुशंसा ने ही मुझे यह सम्मान समय रहते मिलने में मदद की हो।यह सच भी हो तो भी यह मेरी प्रतिभा का ही प्राप्य है।इस संबंध में उन लोगों की ईर्ष्यालू निंदा की मुझे परवाह नहीं जो ऐसे ही किसी अवसर के लिए मुँह फाड़े रहते हैं।मैं क्या देख नहीं रहा हूँ कि मेरे दुश्मनों,प्रतिद्वंदियों के चेहरे उतर गए हैं।दुबक गए हैं सब।एक बधाई तक देने में छाती फट रही है।इधर उधर से निंदा की गंध फैला रहे हैं।

आरोप लगा रहे हैं कि उन्होने पहले ही तय कर लिया था।औपचारिक पुष्टि के लिए मुझसे पुरस्कार चयन समिति को किताब भिजवायी।क्योंकि बिना किताब भेजे तो अब भी किसी को पुरस्कृत नहीं किया जा सकता।कैसी कैसी कहानी,फैंटेसी गढ़ने में माहिर हैं लोग।मसलन उन्होंने मुझसे कहा कि तुम किताब भेजो।और हाँ मैं कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहा हूँ।निर्णायक मंडल के लिए किन्हीं तीन लोगों को पत्र भेज दो और साथ ही लिख दो कि निर्धारित मानको के आधार पर प्रारंभिक छँटनी हमने खुद कर ली है।यह एकमात्र पुस्तक इस योग्य हमें लगी है सो आप लोगों की स्वीकृति या अस्वीकृति जैसा आप उचित समझे के लिए भिजवा रहा हूँ।प्रारंभिक चयन में अयोग्य पायी गयी किताबों को इसलिए नहीं भेजा जा रहा है कि आपका समय और डाकव्यय व्यर्थ न जाए।ध्यान रखना कि पत्र मेरे लेटर पैड पर ही लिखना।हस्ताक्षर की जगह मेरी सील का प्रयोग करना।

अब आपही सोचिए ऐसी कलुषित भर्त्सनाओं को क्या जवाब दें।समय मुझे सिद्ध करेगा।मैं निश्चिंत हूँ।मेरा काम आगे भी बोलता रहेगा।मैं हमेशा यह लाइने दोहराता हूँ-काल तुझसे होड़ है मेरी…


-शशिभूषण
मो.-09436861488

4 टिप्‍पणियां:

  1. एक आनंददाई कथा ..शुक्रिया वंदना जी ..बधाई शशिभूषण जी ..
    - alakh pandey

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  2. बहुत अच्छा गद्य लिखा है. बधाई.

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  3. रंगनाथ जी, मुझे सचमुच खुशी होती अगर आपकी ओर से बहुत अच्छी कहानी की बधाई मिलती। पर आप तो बहुत अच्छा गद्य लिखने की बधाई दे रहे हैं! आप बताइगा तो अच्छा लगेगा-यह गद्य क्यों कहानी क्यों नहीं?

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  4. माफ कीजियेगा, मैंने आपका कमेन्ट अभी देखा. न जाने क्यों आपकी टिपण्णी मेरे मेल पर नहीं आयी !!

    शायद यह मेरी परंपरागत सोच हो लेकिन मुझे यह संस्मरण या आत्मकथ्य के करीब लगा. जाहिर है कि आपने यह शिल्प सोच-समझ कर चुना होगा. यह बढ़िया उतरा भी है. बस इतनी सी बात थी...

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