
यह फैजान ने लिखा है.फैजान दसवीं में पढ़ रहे हैं.इसे पढ़कर ही आप अंदाज़ा लगाइए कि फैजान कैसे हैं.कितना सोचते और याद रखते है.उनके बारे में कुछ साधारण बातें यह हैं कि पढ़ने में अच्छे हैं.शिक्षकों के दिए काम नियत समय पर करते हैं.घर में इकलौते हैं.कभी किसी को शिक़ायत का मौका नहीं देते.इसे सुनकर कक्षा के छात्र-छात्राओं की टिप्पणी थी कि फैजान लेखक बनेगा.आप भी अपनी राय ज़रूर बताएँ.
तब मैं उड़ीसा में रहता था.हालांकि मेरा जन्म भिलाई,म.प्र. में हुआ.पिताजी के स्थानांतरण के बाद हम सब उड़ीसा आ गए थे.मैं उस समय छोटा था इसलिए इसलिए मेरी सारी यादें धुँधली हैं.मैं बहुत प्रेम और दुलार में रहा.मुझे अपने पड़ोस की उस बूढ़ी दादी की बहुत याद आती है जो 10 दिन तक अस्पताल में रहकर मेरी देखभाल करती रही थी.हमारा उनसे कोई रिश्ता-नाता नहीं था.वे हमारी कुछ भी नहीं लगती थी.मगर उन्होंने वह किया जो कोई सगा भी हमारे साथ नहीं करेगा.
मैं बचपन में हट्टा-कट्टा था.मेरी लंबाई अपनी उम्र के बच्चों से बड़ी थी.इसलिए जब भी मुझसे कोई मेरे साल पूछता तो मेरी दादी मेरी उम्र बढ़ाकर बतातीं थीं.मेरे शरीर पर कपड़े हों या न हों एक काला टीका ज़रूर होता था.मेरी दादी पुराने खयालात की थी.वे अँधविश्वासों में यक़ीन करतीं थीं.इसलिए मेरी एक कुंडली बनी.मैं सबका दुलारा था.खासकर अपने पापा का.पापा मुझसे कहा करते-पहली बार कोई बच्चा बोलता है तो मुह से माँ निकलता है मगर मैंने पापा कहा था.दुनिया से हटकर मैं काम करता था.मेरे पिताजी भी दुनियादारी से हटकर चलनेवालों में से हैं.वे चाहते थे कि उनका बेटा मज़बूत बने.दुनिया की हर परिस्थिति का सामना करे.चाहे वह दुख हो या सुख सबको क़रीब से देखे.मेरी दादी पिताजी को डाँटती रहतीं थीं.
मेरे पिताजी बहुत अनुशासनवाले थे.इसलिए उन्होंने एक बार मुझे चांटा मारा,ताकि मैं चुप हो जाऊँ.दादी मेरे पिताजी को कहती थीं-कोढ़ी तेरा हाथ जल जाए.मेरे पिताजी जाकर मेरी दादी का महँह सूँघकर उनका गुस्सा शांत करते थे.मैं पिताजी के दोस्तों का भी दुलारा था. मेरी माँ.मुझे दरवाजे पर छोड़कर काम पर लौट जाती थी.जब आती तो मुझे न पाकर हैरान हो जाती थी.बाद में देखती तो मैं पापा के दोस्तों के कंधों पर घूम रहा होता था..इंसपेक्शन का दिन होता तो मेरे पिताजी मुझे पुलिस की वर्दी पहनाकर DIG का स्वागत करने के लिए खड़ा कर देते थे.ट्रेनिंग ले रहे भैया लोग भी मुझे बैरकों में ले जाकर मेरे गाल खींचा करते.
सब कुछ अच्छा चल रहा था.मगर मैं उस रात को कभी नहीं भूल पाऊँगा.जब सरकार ने खबर दी कि पारादीप में बाढ़ आनेवाली है.समुद्र से ज्यादा दूर नहीं थी वह जगह इसलिए वहाँ खतरा बहुत ज्यादा था.मेरे चाचाजी तब साथ थे.वे उस खबर को टालकर सो गए.मगर पिताजी उस रात जागते रहे.ठीक 12.47 मिनट पर बरगद का पेड़ सामनेवाले मेस पर गिरा.मेस वह जगह थी जहाँ से ट्रेनीस खाना लेते थे.पेड़ गिरने की बात से मेरे पिताजी ने आपा खो दिया.उन्होंने जल्दी-जल्दी माँ और चाचा को जगाया.बोरी-बिस्तर बाँधकर सामने के दोमंजिला घर में घुस गए.वर्षा ज़ोरों से होने लगी.पिताजी जब घर लौटे तो उन्होंने देखा कि चोर घुस आए हैं.पिताजी को देखकर वे भाग गए.फ्रिज,खटिया,टीवी सब पानी में तैर रहे थे.पिताजी ने एक डंडा,टॉर्च और कुछ ज़रूरत की चीज़ें लीं और घर-घर जाकर बाढ़ की सूचना देने लगे.सब मतलब वे दो सौ आदमी जो वहाँ रहते थे..सब उसी पक्के घर में आ गए थे.मैंने देखा था कई फीट ऊँची पानी की लहर जब उस घर से टकराई तो सब कुछ हिल गया था.सब जगह पानी ही पानी था.न लोग बाहर जा सकते थे न बाहर .भीड़ इतनी ज्यादा थी कि कुछ लोग वहीं दबकर मर गए.उस समय लोगों में घृणा या नफ़रत नहीं थी.सब एक ही जगह एक-दूसरे की जान बचाने में लगे थे.
उस समय कुछ भी मुमकिन था.लोग दो दिन तक बिना खाए जी रहे थे.आलू के दाम आसमान छू रहे थे..एक किलो आलू सौ रुपये में मिल रहा था.मजबूरन कुछ लोग खरीदते तो कुछ चोरी करते.कुछ लोग दुकानों के ताले तोड़ सामान चुरा लिया करते थे.मुझे वह सब अब भी याद है जब मेरी बातों को सुन पिताजी की आँखें नम हो गईं थी.मैंने पिताजी को कहा बस दो मुह खाना दे दो.और मैं कुछ नहीं माँगूगा.पिताजी अपने मासूम बच्चे की बात सुन दोस्त से खाना मांग लाए थे और मुझे दिया था.पर खुद भूखे रहे.लोग भी इतने भूखे थे कि कच्ची मछली भी खा लेते थे.सारी जगह मौत का मंजर था.
एक आदमी की राशन की दुकान थी.वह इतना दयालु था कि अपनी दुकान से सबको चावल दाल दिया.और वह भी फ्री में.लोगों ने खिचड़ी बनाकर खायी.जब बाढ़ चली गई तब सबकुछ तहस नहस हो चुका था.वह मुसीबत पूरी तरह टली ही नहीं थी कि एक और हादसा हुआ.पास ही में सिलेंडर फट जाने से ज़हरीली गैस फैल गई.सब लोग जान बचाकर भागने लगे.पिताजी ने दरवाज़ा बंद कर लिया.खिड़की झरोखों में कपड़ा लगा दिया.मम्मी से बोले कि कपड़े से अपना और मेरा मुँह अच्छे से ढँक लो.जब यह घटना टली तो लोगों की क़दम-क़दम पर लाशें मिलीं.कोई अनाथ तो कोई विधवा थी.सरकार ने बचे हुए लोगों की मदद की.पिताजी को नवीन पटनायक द्वारा मेडल मिला.
उस जगह का पूरा नक्शा ही बिगड़ गया था.पूरी जगह को मुंडली नामक जगह में शिफ्ट कर दिया गया.वहाँ से मेरा स्कूल 29 किलोमीटर था.मैं बस से अपने स्कूल जाया करता.वह एक अच्छी जगह थी.उसे पहाड़ काटकर बनवाया गया था.इसलिए दूर दूर तक दुकानें नहीं थी.वहाँ मुझे पढ़ाई में भी दुविधा थी.वहां न तो कोई पढ़ानेवाला था न किताबें मिल पाती थीं.मैं पहले जिस स्कूल में जाया करता था वह उधर भवन में चलता था.लेकिन जब बच्चे ज्यादा आने लगे तो खुद का भवन बनवाया गया.वह एक बड़ी इमारत थी.उसके सभी कमरे हवादार थे.वहाँ मेरे बहुत अच्छे दोस्त बने थे.हम सब बहुत मज़ा करते.
फिर पिताजी की पोस्टिंग चेन्नई हुई.एक बार तो नाम सुनकर उसका मतलब ढूँढने की कोशिश की.मगर चेन्नई का कोई अर्थ नहीं मिला.पिताजी को जल्द ही वहाँ से आउट कर दिया गया.मगर चेन्नई आने पर पिताजी को रहने को घर नहीं मिला.इसलिए हमें पिताजी से दूर भाड़े पर घर लेकर रहना पड़ा.वहाँ से मेरा स्कूल पाँच मिनट की दूरी पर था.वहाँ मुझे बहुत अनुभव हुए .कुछ महींनों बाद हमें चेन्ई में घर मिल गया.और हम चेन्नई के लिए रवाना हो गए.यह मेरी ज़िंदगी की पहली ट्रेन यात्रा थी इसलिए मैं बहुत भावुक था.मुझे डर लग रहा था कि हादसा न हो जाए.मगर कुछ नहीं हुआ.मैं आखिरकार चेन्नई पहुँच गया.तब पता चला कि एक और लोकल ट्रेन पकड़नी है.कई घंटे ट्रेन में बैठे हुए जब मैं ज़मीन में उतरा था तो ऐसा लगा कि अभी भी ट्रेन चल रही है.मैं अपने घर गया और स्कूल में मेरा दाखिला हुआ.
मेरे लिए यह डरावना था कि मैं स्कूल पहुँचा तो मुझे पता ही नहीं था कि मेरी आठवीं कक्षा कौन सी है.मैं घबराया हुआ था.डरते हुए एक सर से पूछा-सर आठवीं कक्षा कहाँ है?वह मुझे कक्षा के पास ले गए और एक लड़के के पास छोड़ दिया.उसका नाम उन्नी कृष्णन था.वह मुझे कक्षा में ले गया.मैं जब कक्षा में गया तो हैरान रह गया कि इतने ही छात्र कक्षा में पढ़ते हैं...
सैयद फैजान अहमद
केन्द्रीय विद्यालय तक्कोलम