पितृऋण, प्रभु जोशी
की कहानियों की किताब है। आत्मकथ्य, ‘अभी तय करना है हँसना’ और ‘किरिच’, ‘मोड़ पर’, ‘उखड़ता हुआ बरगद’, ‘कमींगाह’, ‘एक चुप्पी क्रॉस पर चढ़ी’, ‘शायद ऐसे ही’ तथा ‘शुरुआत से पहले’ को मिलाकर कुल आठ
कहानियाँ। ये आठ कहानियाँ यथार्थ और संवेदना की धरती की उपग्रह हैं। स्वायत्त कथा
सृष्टि।
इस किताब को पढ़ना
भारतीय मनुष्यों की बस्ती में रमकर गुज़रना है। कहीं कहीं तो ठीक वैसे जैसे इन
दिनों अरुणाचल के एक कस्बे में मुझे अपनी बीती उमर पिछले जनम की बात लगती है।
प्रभु जोशी के पात्रों की दुनिया इतनी विविध, बहुरंगी और स्वत:स्फूर्त तथा स्वायत्त है कि
लगता है जैसे भाषा के कैमरे से काग़ज़ पर उतारा हुआ बहुत अपना देश। अपनी ही
स्मृतियाँ, सपने और आकांक्षाएँ। अपना ही जीवन और जिजीविषा।
‘पितृऋण’ एक सादा कहानी संग्रह है
जिसमें वे सारे वैभव हैं जो किसी सच्ची किताब में होते हैं। जिन्हें चमत्कार या
आश्चर्यलोक की दरकार है अच्छा है कि वे दूसरी किताब खरीद रहे हैं। कहानी की उत्कृष्टता
के विज्ञापनी समय में कहानियों की यह किताब समय, समाज, मनुष्य और संवेदनाओं के
प्रति हमारे ऊपर चढ़े ऋणों का पता देती है।
बहुत से समर्थ और
अति प्रसिद्ध कहानीकारों के संबंध में इस किताब के बहाने एक बात दर्ज़ करने लायक
है कि साहित्यिक सत्ताकामी उद्यमों से हमेशा दूर प्रभु जोशी जैसे कहानीकार यदि कुछ
दिन के लिए भी उस फलदायिनी राह पर चल पड़ें तो उनका क्या होगा? पर नहीं, प्रभु जोशी ने
सदैव खुद से माँगा जो माँगा, चाहे दृश्य श्रव्य कार्यक्रम हों, चाहे चित्र, चाहे
कहानियाँ या फिर सालों गूँजने वाले लेख। इस कलाकार को मिली प्रसिद्धि और
अंतर्राष्ट्रीय सफलता फूलों के साथ चली आती खुशबू जैसी है।
प्रभु जोशी शब्द,
वचन और रंगो के सिद्धहस्त कलाकार हैं। त्रिविमीय सर्जक। भाषा, रंग, दृश्य, दर्शन,
राजनीति, सपने, विचार और संवेदना ये सब जब एक जगह गलते-ढलते हैं तो प्रभु जोशी का
रचनाकार प्रकट होता है।
प्रभु जोशी की
कहानियों में रंग, दृश्य, संवेदना और विचार इस तरह घनीभूत होते हैं कि कोई पारखी
बता सकता है कि वे अपनी कहानियों से जब विरत हुए होंगे तो उन्हें चित्रों में बदल
दिया होगा। कहानियों में चित्र खींच देनेवाला यह कथाकार जब विचार की दुनिया में
उतरता है तो व्यंग्यकार होता है। भाषा का साधक, दृष्टा और चित्रकार तीनो मिलकर
प्रभु जोशी का कथाकार हैं।
कथाकार से कम से कम
मेरी अपेक्षा आज भी वही है कि उसके पास सच हो, दर्शन हो और अबूझ से रोज़ बीतते
जीवन को समझ लेने, उसे पा लेने और उसके मर्म में गोते लगा लेने की कूव्वत हो। कहानी
कौशल नहीं है। डूबते को तिनके का सहारा है। कहानी के व्यावसायिक लेखन या महज़ कला
हो जाने से पहले के कहानीकार ऐसे ही थे। संत से, दार्शनिक जैसे और कभी कभी तो
बिल्कुल दीवाने।
तकनीकि मनुष्य को
चाहे जितना नया बना ले आयी हो पर कहानियाँ यही बताती हैं कि वह आँसू और सपनों से
रचा हुआ वही है सबसे पुराना। जब किसी कथाकार में ऐसी कहानियों की धारिता दिखती है
तो वह अपना लगता है। प्रभु जोशी होना नयी दुनिया में, नये लिबास में उसी पुराने
मनुष्य की किस्सागोई है। यह मानुष जितना देहात का है उतना ही नगर का।
प्रभु जोशी के भीतर भारतीय
कहानीकार है। कहानीकार, जिसे नगर और गाँव दोनो की नब्ज़ पता है। उन्होंने भले कम
कहानियाँ लिखीं, पहले खूब लिखीं, फिर बंद कर दीं अब लिखना चाहते हैं पर नहीं लिखते
लेकिन जो लिखीं वे इतनी गाढ़ी हैं कि यदि समकालीनता या कथित प्रसिद्धि की रोशनी से
हटकर उनमें उतरा जाये तो वे एक विवेकपूर्ण दुनिया में ले जाती हैं। जहां संबंध
हैं, सवाल हैं तो इंसानी समाधान भी हैं। यथार्थ प्रभु जोशी की कहानियों में वैसे
ही है जैसे बकरी के थन में दूध होता है। जिन्हे दूध मोल मिलता है वे इस यथार्थ के
राग को पकड़ नहीं पायेंगे।
कहानीकार की उम्र
होती है। कहानियाँ बूढ़ी नहीं होती। भाषा कभी अपनी चमक नहीं खोती यदि उसमें
संवेदना हो मर्म हो और जीवन के सच हों। भाषा के मामले में प्रभु जोशी पूरे कुम्हार
हैं दिया, घड़ा, ईंट और सुराही सबके लिए एक ही मिट्टी कैसे अलग अलग रूँधी जाती है
उनसे बेहतर कौन जानता है? ‘शुरुआत से पहले’ कहानी को लें तो यह जितनी कहानी है उतनी ही
भाषा की नदी। पात्र जिस तरह बोलते हैं उनकी निजता जिस तरह उतर आती है, जिस तरह का
नैरेशन है वह बेजोड़ है। मालवी लोकोक्तियों के संबंध में यह लंबी कहानी कोश की तरह
है। पेशे, सामाजिकता और जीवन सत्यों को उद्घाटित करते उखान यहाँ भरे पड़े हैं। यह
मालवी में मालवी की सीमा लाँघकर एक बोली को सार्विक अभिव्यक्ति का गौरव देनेवाली
कथाभाषा है। जिसे आंचलिक रहकर महत्व जुटाने की फिक्र नहीं है बल्कि आंचलिकता को
सर्वग्राही बनाने की साधु ज़िद है।
‘शुरुआत से पहले’ एक कुम्हार की कहानी है जो
पैसे के लिए देवी की मूर्ति बनाता है। अपनी ही बनायी देवी से डरता है। एक दिन जब
मूर्ति बन जाती है तो वह पाता है कि ग़लती से मूर्ति की पूजा हो चुकी है। पूजित
मूर्ति अब कहीं नहीं जा सकती। बेची तो हरगिज न जायेगी यही प्रण कर बदरीप्रसाद अपनी
जान पर खेल जाता है। अपनी ही निर्मिति पर जान देना कला के इस मूल्य के अलावा इस
प्रक्रिया में जिन सामाजिक सत्यों का उद्घाटन हुआ है वे औपन्यासिक हैं।
‘पितृऋण’ किताब की कहानियों को इस
तरह पढ़ना कि ये एक कहानीकार की उसके उठान के दिनों के मील के पत्थर हैं ग़लत होगा
इन कहानियों को रचनाकाल से बाहर अपने समय में पढ़ना सुखद रहेगा कि ये ऐसी कहानियाँ
वास्तव में हैं जिनमें आज गूँजता है। कल का वैभव और मुहावरा बोलता है।
‘पितृऋण’ संग्रह की पहली कहानी है।
यह कहानी बड़ी मार्मिक है। यदि आप इसे पढ़ेंगे तो कभी भूल नहीं पायेंगे। इस कहानी
में होता यह है कि एक बहुत लायक बेटा अपने लाचार वृद्ध पिता को तीर्थ कराने के
बहाने गंगा ले जाता है। पिता बड़े अरमान से अपनी पत्नी की अस्थियाँ भी साथ रख लेता
हैं कि सुपुत्र के बहाने आ पड़े इस नसीब में वह अभागिन भी तर जायेगी। जैसे ही पिता
गंगा में डुबकी लगाते हैं बेटा उनकी खुदरा पूँजी लेकर इत्मीनान से लौट जाता है। अब
नहाये हुए अशक्त किंतु कृतज्ञ पिता के पास कुछ नहीं है। अपनी स्मृति और भीख के
जोड़ से बनी पूँजी से शायद पिता लौट भी न पायेगा। जिस तरह से यह कथा लिखी गयी है
उसमें लोक कथाओं के उस अभाव की पूर्ति भी हो जाती है जिसमें दुखियारी अधिकांशत: उपस्थित औरते होती हैं।
इसमें अनुपस्थित औरत और माँ जिस तरह आँखों के सामने आती है वैसा केवल लोकगीतों में
ही होता है। प्रभु जोशी की यह कहानी हिंदी की धरोहर है। इस कहानी के बूते वे उस
पंक्ति के कथाकार हैं जिसमें ‘बूढ़ी काकी’ के साथ प्रेमचंद और ‘चीफ़ की दावत’ के साथ भीष्म साहनी आते
हैं।
प्रभु जोशी ने
कहानियाँ खूब क्यों नहीं लिखीं उन्हे पढ़नेवाला यह ज़रूर पूछेगा पर जब वह खूब
लिखने और खूब प्रसिद्धि के उद्यमों से तंग आकर शांत बैठा होगा तो उसे यह सवाल भी
उतना ही कोंचेगा कि प्रभु जोशी की कहानियाँ पढ़ी क्यों नहीं जा रही? कहानियों पर एक्सपायरी डेट
की चिप्पी चिपकानेवाले होते कौन हैं?
‘किरिच’ एक सांद्र प्रेम कहानी है।
कुतुब मीनार में पहुँचने और उसके ढह जाने के प्रतीकों में जीवन भर और सबके जीवन
में चलनेवाली कहानी है। यह प्रेम के उगने, उमगने और एक टीस में बदलते जाने की
शाश्वत सी परिणति के उम्र भर के किस्से को लगभग एक दिन के भ्रमण के प्लॉट में समेट
लेने की सफलतम कहानी है। यदि देख पायें तो भाषा के भीतर फिल्म।
प्रभु जोशी कहानी के
भीतर फिल्मकार हैं। उनकी हर कहानी में फिल्म की संभावना है। लेकिन हमारे दौर में
जिस तरह की वाचालता फिल्मों की उपजीव्य है उनके हामी शायद इन कहानियों को गले न
उतार पायें।
हिदी कहानी के आदोलन
आक्रांत दौर में विषय खोज खोजकर कहानियाँ लिखी गयीं। जब विषय कम पड़ गये तो आंतरिक
सूखे, निर्वासन, आत्मालाप और मृत्यु जैसे विषय को भी खूब घसीटा गया। नतीजे में ऐसी
चर्चित कहानियाँ निकली जिनके पात्र एक सी भाषा बोलते हैं, इतनी एकरूपता कि लगता है
एक ही कहानी लिखने के लिए लेखकों की शिफ्ट बदल रही है। कभी कभी तो यह भी लगता है
कि किसी कहानीकार का रिलीवर नहीं पहुँचा तो वही ओवर टाईम कर रहा है। ओवर टाईम कहानी
लेखन के 70-80 के दौर में प्रभु जोशी ने इस इत्मीनान से कहानी लिखी कि उनकी कहानियों का
किसान किसान की और मुसलमान मुसलमान की ज़बान बोलता है।
संग्रह की कहानी ‘मोड़ पर’ मंटो की कहानी ‘ब्लाउज’ की याद दिला जाती है।
किशोर मन स्त्री का संग किस तरह चाहता है और समाज उसे निरंतर कितनी वंचना में
धकेलता रहता है इसे कहानी जीवंत कर देती है।
‘उखड़ता हुआ बरगद’ पढ़कर काशीनाथ सिंह की
कहानी ‘अपना रास्ता लो बाबा’ याद आती है। जो ‘अपना रास्ता लो बाबा’ बाद में पढ़ेगा उसे ‘उखड़ता हुआ बरगद’ याद आयेगी। कोई पाठक शायद
ही ऐसा मिले जो दोनों में से किसी एक कहानी को चुनना चाहे। प्रभु जोशी के कहानीकार
की यही खासियत है वे एक साथ कई कथा पीढ़ियों को अपनी निजता और अद्वितीयता में
आत्मसात किये हुए हैं। लगभग सन्यस्त हो चला हिंदी का यह कथाकार जितना अपने दौर का
है उतना ही हमारे दौर का है। प्रभु जोशी को पढ़ते हुए यदि कमलेश्वर याद आयें तो
प्रियंवद भी ज़रूर याद आयेंगे।
अंत में केवल यह
कहना काफ़ी होगा कि संग्रह की कहानी ‘कमीगाह’ ज़रूर पढ़ें। इस कहानी को पढ़कर ही जाना जा
सकता है कि केवल परकाया प्रवेश काफ़ी नहीं हिंदुस्तानी कथाकार में परधर्म प्रवेश कर मनुष्य को गले लगा लेने की
सिद्धि भी होनी चाहिए थी। प्रभु जोशी क्या किसी कथाकार कि इससे बड़ी सफलता क्या
होगी कि उससे ‘पितृऋण’, ‘शुरुआत से पहले’, ‘उखड़ता बरगद’ और ‘कमीगाह’ जैसी कहानियाँ केवल कुछ
वर्षों में संभव हो जायें।
-शशिभूषण
बहुत अच्छा विश्लेषण किया है।
जवाब देंहटाएंपितृ ऋण ' संकलन की बहुत बढ़िया समीक्षा. आभार. ---आशीष सिंह
जवाब देंहटाएं