रविवार, 27 मार्च 2011

आइए एक साधारण आदमी की नज़र से कमला प्रसाद को देखें

कमला प्रसाद जी के बारे में सोचने-लिखने और याद करने लायक मेरे पास बहुत है। यही वजह होगी कि मैंने जबसे उनके चले जाने की खबर सुनी है उनसे जुड़े अनेक भावों और स्मृतियों से भरा हूँ। लेकिन उबर पाने के लिए ही सही लिख कुछ भी नहीं पा रहा हूँ। दो दिन बाद आज थोड़ा तटस्थ हुआ हूँ तो कमला प्रसाद के बारे में एक साधारण इंसान के नज़रिए से कुछ साझा करना चाहता हूँ। कृपया इसे किसी साहित्यिक रचना की तरह न देखें। यह केवल एक याद है। यह वैसी ही याद है जैसे जब कमला प्रसाद जी के निधन की खबर रेडियो पर प्रसारित हुई तो गाँव में भाभी और माँ को मेरी याद आई। उन्होंने सोचा कि कमला प्रसाद पाण्डेय गुज़र गए हैं तो यह मुझे इतनी दूर तमिलनाडु में पता है कि नहीं। हो सकता है इसी बहाने उन्होंने मुझे याद किया हो कि मैं कैसे गाँव के घर में रहकर इन सब भोपाल,दिल्ली के साहित्यकारों के ही गुन गाता रहता था। आप यकीन मानिए यह मेरे कहानीकार मन की कमजोरी भी है कि किसी बड़े से बड़े आदमी को आम शख्स की निगाह से पहले देखो। विचार करो की वह लोगों की स्मृति में कैसा है। क्योंकि समय बड़ा अजीब हो चला है टीवी और अखबारों से भी पता नहीं चलता कि आम आदमी क्या सोच रहा है। एक साहित्यकार की छोड़ दें तो सब पहले रसूखदारों की सुनते हैं। मीडिया का छोटे से छोटा आदमी भी यदि आप कुछ नहीं हैं तो भाव नहीं देता।

मैं बीएससी करने के बाद जब अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सन् 2000 में एमए करने गया तो कमला प्रसाद 1998 में ही सेवानिवृत्त होकर भोपाल बस चुके थे। विभाग में पढ़ाने के लिए एकमात्र ढंग के अध्यापक आज के चर्चित कवि दिनेश कुशवाह थे। वे कहा करते मुझे कमला प्रसाद ही इस विभाग में लाए। मैं उनके साथ रहूँ तो रगों में नया खून आ जाता है। मन में दुगुनी ताक़त भर जाती है। मैं दिनेश कुशवाह की प्रेरणा से गणित छोड़कर हिंदी में आ गया था। कौशल प्रसाद मिश्र विभागाध्यक्ष थे। उन्हें इसी रूप में रीवा में जाना और माना जाता था। वे कमला प्रसाद के मनसा विरोधी थे और तब के म.प्र. के विधानसभा अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी जी के बड़े कृपापात्र थे। डाक्टर बारेलाल जैन संविदा व्याख्याता थे। उन्हें कमला प्रसाद ने 1994 में रिसर्च एसोसिएट के रूप में नियुक्त किया था। वे आज भी वैसे ही कभी संविदा तो कभी अतिथि विद्वान के नामों से टेंपोरेरी सेवाएँ दे रहे हैं। इन सबके मुह से मैं कमला प्रसाद के किस्से आए दिन सुनता रहता। सब संस्मरणों में कमला प्रसाद की बड़ी बड़ाई होती। उनके कद और काम के प्रति नमन होता। इन सबने कमला प्रसाद के लिए मेरे मन में बड़ी श्रद्धा भर दी थी। लेकिन मुझे वास्तविक संतोष तब मिला जब विभाग के ही चपरासी अशोक तिवारी से बतियाने की लत लग गई।

अशोक तिवारी बड़े विनम्र और सहृदय इंसान थे। उनमें ब्राह्मण होने के बावजूद अपनी नौकरी को लेकर कोई हीन भावना नहीं थी। बल्कि कभी कभार हमारे हाथ से भी गिलास,कप,प्लेट जबरन धोने के लिए छीन लेते यह कहकर कि यह मेरी ड्यूटी है। मुझे बुरा तब मानना चाहिए जब विभाग के बाहर कोई मुझसे यह काम करवाए। तनख्वाह लेता हूँ तो कैसी शर्म ? अशोक जी ने अपनी सादगी और शुभकामनाओं से धीरे धीरे मेरे मन में जगह बना ली। मैं खाली पीर्यड में विभाग के सामने पत्थर पर बैठा होता तो उनके पास चला जाता। वे दबी ज़बान में मन की बातें बोला करते।

शुरुआत ऐसे होती-“आपको यकीन नहीं होगा यह विभाग क्या था जब पाण्डेय जी अध्यक्ष थे। मैं विभाग का ताला बाद में खोलता दरवाजे पर सूटकेस लिए लोग पहले खड़े मिलते। पूछने पर बताते दिल्ली,भोपाल,बनारस आदि जाने किन किन जगहों से आए हैं। जब समय होता और कार्यक्रम शुरू होते तब पता लगता कि सुबह यूँ ही कमला जी का इंताज़ार कर रहे व्यक्ति कितने बड़े साहित्यकार हैं। दूसरे विभागों से भी लोग जुट आते।” अशोक तिवारी आगे बताते “कमला प्रसाद जी को जब विभाग मिला था तो यह भवन नहीं था। रसायन विभाग में एक कुर्सी टेबल दो आलमारी और कुछ विद्यार्थी ही थे। वहीं कक्षाएँ चलती। बाद में धीरे धीरे उन्हीं के प्रयासों से यह भवन बना। एम फिल की कक्षा शुरू हुई और इतनी विशाल लाइब्रेरी बनी। और केंद्रीय पुस्तकालय के सामने विशाल अंतर्भारती की स्थापना हुई जिसमें आज कबूतर बोलते हैं और विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं में जो प्रेमी हैं उनके लिए खंडहर का काम करता है। क्या तो कुलपति और क्या तो रजिस्ट्रार सब कमला जी की मानते थे। उनके पीछे पीछे कमला जी को किसी न नहीं देखा। बड़े स्वाभिमानी इंसान थे। अपनी गरिमा हरदम बचाकर रखते।

कमला जी भले कहीं जा रहे हों या कहीं से आये हों पर यदि आफिस बंद होने का समय नहीं हुआ है तो क्लास ज़रूर पढ़ाते। ये दिनेश कुशवाहा जी भी तब कितना काम करते थे और कमला जी के लिए एक पैर पर खड़े रहते। यह जो आज आप अध्यक्ष के कमरे में तंबाकू की गंध और पान की पीक देखते हैं उसी कुर्सी में बैठे हुए कमला जी एक से एक साहित्यिक चर्चाएँ करते। कमला जी के जाने के बाद रमाकांत श्रीवास्तव जी भी बर्दाश्त नहीं कर पाए और इस्तीफ़ा देकर चले गए खैरागढ़।”

अशोक तिवारी के भीतर जैसे आत्मीयता और सम्मान की झिर थी। वे कमला प्रसाद के बारे में बोलते नही थकते थे। रोज़ नया और ताज़ा पानी। उनके पास कृतज्ञता के कुछ निजी किस्से भी थे। जिसमें दो का अक्सर ज़िक्र करते। पहले किस्से में वे बताते “मैंने बेटी की शादी की तो कमला जी को निमंत्रण दिया। मौके पर तो नहीं पहुँच पाए पाण्डेयय जी लेकिन बाद में एक दिन पहुँच ही गए। नहीं पहुँच पाने का सच्चा अफसोस जाहिर किया। व्यवहार दिया।” यह बताते हुए अशोक भावुक हो जाते “बताइए कहां हम और कहाँ इतने बड़े पाण्डेय जी।कितने व्यस्त रहने वाले इंसान। पर उतने ही स्नेही। उतना ही याद रखनेवाले। कोई ऐसे ही इतना सम्मान नहीं पाता। जनता सबसे बड़ी अदालत होती है।कमला जी की निंदा करनेवाले कुंठित हैं।”

दूसरा किस्सा जब अशोक तिवारी बताते तो यह ज़रूर कहते “हो सकता है मैं यह आपको बता चुका होऊँ पर मैं इसे कभी भूलता नही हूँ। पाण्डेय जी दूसरे के अन्न-जल का बराबर ध्यान रखनेवाले अधिकारी थे। हमेशा सबकी मर्यादा और सम्मान का खयाल रखते। वे ऐसे नहीं होते तो मेरी नौकरी कब की जा चुकी होती।”

वाकया यह था-एक दिन कमला प्रसाद जी ने अशोक तिवारी को वि.वि. में ही स्थित इलाहाबाद बैंक में जमा करने के लिए पचास हज़ार रुपये का चेक दिया।वे चेक लेकर बैंक पहुँचे। वहां भीड़ थी तो किसी ने प्रस्ताव रखा कि चलिए पान खा लेते हैं। अशोक पान खाने पहुँच गए। पान लगानेवाला काफ़ी मजाकिया इंसान था। और क्या पता दुष्ट ही रहा हो। उसने अशोक से कहा कि दिखाइए उसे जिस काम की वजह से इतनी जल्दी में हैं। अशोक ने उसे देखने के लिए चेक दे दिया। पानवाले के हाथ में चेक आया तो उसने नया मज़ाक शुरू कर दिया कि इसे पान की तरह कैंची से काट दिया जाय तो क्या हो ? अशोक ने कातर होकर कहा लाओ चेक रोजी काट दोगे क्या? पर वह जाने किस रौ में था कैंची चला दी। चेक बीच से दो टुकड़े।

अशोक यहां पहुँचकर जरा देर साँस खींचते। “मुझे चीरो तो खून नहीं। वहाँ खड़े लोग भी भौचक्के रह गए। पर क्या करता। चेक के दोनों टुकड़े लिए जैसे अपनी नौकरी की लाश हो विभाग की ओर चला। पाँव नहीं बढ़ रहे थे। लेकिन पाण्डेय जी का सामना करने से बचने का भी कोई उपाय नहीं था। विभाग पहुँचा तो कमला प्रसाद जी मेरा ही रास्ता देख रहे थे। बोले विभाग बंद करो कहाँ रह गए थे इतनी देर तक? मैंने दोनों हाथ जोड़ दिए सर,बहुत बड़ी गलती हो गई। पता नहीं अब मेरा क्या होगा? अब सबकुछ आपके ही हाथ में है। कमला प्रसाद जी ने पूछा क्या हुआ तो मैंने उन्हें सब बता दिया। वे सुनकर कुछ नहीं बोले। बस एक सांस भरी और एक ही वाक्य कहा- हद करते हो भई।

अशोक किस्से के जब इस हिस्से पर आते तो उनमें सिहरन साफ़ दिखती थी। लेकिन वे अगले पल ही चहक उठते। गजब अधिकारी थे पाण्डेय जी। उसके बाद न कुछ पूछा न कुछ किया। बाद में नया चेक मैं ही जमा करने गया। तब भी नहीं। मिश्रा जी होते तो नौकरी हर लेते।

अशोक तिवारी अब इस दुनिया में नहीं हैं। कई साल हुए उन्होंने पारिवारिक वजहों से गले में फंदा डालकर आत्म हत्या कर ली। मैंने उनकी मौत की बात कमला जी को फोन पर बतायी थी। वे बोले थे बहुत बुरा हुआ। अशोक अत्यंत भरोसेमंद आदमी था। जब भी मेरी उन दिनों बात होती कमला प्रसाद जी यह पूछना नहीं भूलते थे कि विभाग में सब कैसे हैं ?

मैंने बहुत सोचकर यह नहीं लिखा है। अशोक तिवारी कोई विद्वान व्यक्ति नहीं थे जिनकी बातों को कोई बहुत महत्व देगा। बस यह खयाल रहा कि जब कमला प्रसाद जी की नज़र में अशोक एक सच्चा और भरोसेमंद इंसान था तो उसी की नज़र में कमला प्रसाद कैसे थे क्यों न देखा जाय…

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