रविवार, 27 नवंबर 2022

दलित-सवर्ण लेखक रहस्य

जब दलित विमर्श चलाया गया तो कहा गया- जो लेखन दलित करे वह दलित लेखन। दलितों के बारे में लेखन को ही दलित लेखन नहीं कहा जायेगा। परिणामस्वरूप दलित लेखन करने वाले दलित ही दलित लेखक कहलाते हैं। दलित विमर्श चलाने वालों को किसी प्रकार की राजनीति में शामिल समझने की बजाय सामाजिक न्याय वाला करुणा का सिपाही समझा गया। शिक्षा का प्रसार हुआ। धीरे-धीरे दलित लेखक बढ़ते गये। दलित लेखकों के संगठन बने। दलितों की संख्या समाज में हर देशकाल में अधिक ही हुआ करती है। किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर दलित लेखक संघ में एक दिन लेखकों की संख्या सर्वाधिक हो।

पहले तो कुछ समय तक दलित लेखन करने वाले गैर दलित लेखकों को भी सम्मान की नज़र से देखा गया। फिर उनका वर्चस्व बना ही न रहे इसलिए उन्हें जानबूझकर सवर्ण लेखक कहा जाने लगा। जयंती और पुण्यतिथि पर लेखकों को जाति प्रमाण-पत्र वितरित किये गये। इस प्रकार लेखकों की दो श्रेणी बनीं दलित लेखक और सवर्ण लेखक। इनके बीच समय-समय पर मार काट मचायी गयी तो एकता प्रदर्शित करने वाले सम्मेलन भी हुए। ताकि यह बँटवारा चलता रहे। पहचान अमिट रहे। किसी भी लापरवाही या उपेक्षा से दलित और सवर्ण लेखक के बीच लेखक का बोध न जड़ पकड़ ले। दलित लेखक और सवर्ण लेखकों के मध्य लेखकों की संख्या निरंतर घटती गयी। जैसे हिंदू और मुसलमानों के बीच इंसानों की संख्या घटती जाती है। कहा यह जाता कि जाति नहीं जाती। सवर्ण या दलित भले बौद्ध ही क्यों न हो जाये उसकी जाति नहीं जाती। अगर कभी जाति चली भी जाए तो दलित न सवर्ण की जाति नहीं जानी चाहिए क्योंकि अब दोनों को ही आरक्षण सुविधा प्राप्त है। अब हालात यह हैं कि किसी को दलित लेखक कहलाने के लिए उसके सामने सवर्ण लेखक को खड़ा करना ज़रूरी है। साहित्य के इतिहास से उन लेखकों को भी सवर्ण बता-बताकर खड़ा किया जाने लगा जिनके समय में दलित विमर्श का नामोनिशान तक न था। जो जाति और धर्म के शिकंजों से निकलकर अधिकतम मनुष्य बने।

सवर्ण लेखक जब किसी को दलित लेखक कहते हैं तो सोचते हैं, अच्छा कहा। सम्मान दिया। पहचान स्वीकार की। जब दलित लेखक किसी को सवर्ण लेखक कहते हैं तो सोचते हैं, अच्छा मुँह तोड़ जवाब दिया, अच्छा नाक काट ली। धीरे-धीरे दशा ऐसी आ चुकी है कि दलित लेखक के अस्तित्व के लिए सवर्ण लेखक का होना ज़रूरी हो चुका है। सवर्ण लेखक की वैधता के लिए दलित लेखक को मान्यता देना ज़रूरी है। सही भी है, सवर्ण लेखक ही न हो तो कोई दलित लेखक क्यों कहलाए ? किस तर्क से ? किसलिए ? किसके आगे ? अब दलित सवर्ण लेखक पूर्णतया सापेक्षिक हो चुके हैं। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि दलित लेखक होना ज़रूरी है ? क्यों है ? इसका सरल जवाब है कि पहले दलित लेखक होना था क्योंकि दलितों की पीड़ा अभिव्यक्त करनी थी। अब लोकतंत्र आगे बढ़ रहा है। अब जो अधिक हैं उनके अधिक वोट से उनके बीच के लोग जीत सकते हैं, जीत पाते हैं। अब बहुसंख्यकों का ज़माना या तो आ चुका है या आता जा रहा है। ऐसे में दलित लेखक रहना है जिससे भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल हमेशा दलित ही हुआ करें। इसमें कोई समस्या भी नहीं होनी चाहिए सबको संवैधानिक पदों पर रहना चाहिए। सिवाय इस यथार्थ के कि शासक कोई भी हो वह दमन और दलित ही पैदा करता और बढ़ाता है। आज दलित पिछड़े के राष्ट्रपति प्रधानमंत्रित्व काल में क्या है सब देखते जानते हैं। बहुत पहले भी कुछ लोगों द्वारा कहा जाता है कि राम कुर्मी थे और कृष्ण यादव। दरअसल यही राजनीति है। जिसमें एक सनातन बदला है। बदला धर्म का। बदला पूँजी का। बदला शक्ति का। बदला जाति का। बदला जेंडर का। यह बदला चलता रहता है। क्योंकि राज किसी का भी हो मगर वह होता है और चलता-बदलता रहता है। लेखक होने का बदला भी चलता रहेगा। दलित लेखक, सवर्ण लेखक, हिंदू लेखक, मुसलमान लेखक, किन्नर लेखक होते रहेंगे। लेखक इनके बीच पिसते रहेंगे। क्योंकि लेखक दलित-सवर्ण, हिंदू-मुसलमान, स्त्री-पुरुष-किन्नर रह नहीं पाते। वे एक दिन लेखक होते हैं और समस्या शुरू हो जाती है। क्योंकि हम सब किसी ईश्वर के राज्य में नहीं मनुष्यों के शासन में रहते हैं। दुनिया किसी ईश्वर के हाथों नहीं चलती बल्कि इसे राजनीति चलाती है। राजनीति लोककल्याण की खाल ही पहनती है। लोककल्याणकारी होती नहीं।

(मुझे मालूम है मैंने जो उपर्युक्त पंक्तियाँ लिखी हैं उनके पीछे मेरी जाति, जेंडर, रिलीजन, देशभक्ति ही देखे जायेंगे। कुछ भी देखा जाये। मैं लेखक को लेखक ही मानने-देखने के लिए प्रतिबद्ध हो चला हूँ। मैंने भी इसके पहले लेखकों की स्त्री, दलित आदि श्रेणी पर यकीन किया था, वे मुझ पर राजनीतिक प्रभाव थे। मुझ पर स्वीकार्य पहचान की मार थी। लेकिन अब मैं उनसे मुक्त होना चाहता हूँ। मुझे राजनीतिक लेखन भले पसंद है लेकिन लेखकों की राजनीति में मेरी दिलचस्पी अब नहीं है।)

- शशिभूषण

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