शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

शिवमूर्ति गोरे कहानीकारों के बीच में साँवले कथाकार हैं।

प्रश्नों के उत्तर की शक्ल में कथाकार-उपन्यासकार शिवमूर्ति के बारे में मेरी यह राय इंडिया इनसाईड पत्रिका के शिवमूर्ति केन्द्रित विशेषांक के लिए लिखी गयी। पत्रिका जल्द ही आनेवाली है लेकिन मुझे लिखे हुए कई महीने हो चुके। इस उम्मीद के साथ कि अपने ब्लॉग में साझा करना पत्रिका के इंतजार को सह्य बनाएगा प्रस्तुत है मेरी राय। प्रश्नों की कल्पना आप खुद कर लेंगे।

1.      खेती आज असंभव होती जा रही कुछ किसानों की जानलेवा विवशता है। किसान की हालत मुग़ले आज़म के अनारकली की हो गयी है। सलीम तुम्हें मरने नहीं देगा और हम अनारकली तुम्हें जीने नहीं देंगे। किसान अपनी मौत को इस तरह गले लगाता है मानो ज़िंदा रहने की यही एक सूरत बची हो। यह सच है कि आज के अधिकांश कहानीकार बचपन से ग्रामीण हैं। लेकिन जिन वजहों से उन्होंने गांव छोड़ा वही ग़म रोज़गार के उन्हें अब तीज त्यौहार में भी गांव नहीं जाने देते। वे गांव से चले आये। उनके आने की जितनी कहानी गांव में बची है उनके किस्सों में उतना भी गांव नहीं बचा है। यह दारुण सच है। रोज़गार और बेरोज़गारी दोनों के केन्द्र आज शहर हैं। विडंबना यह भी है कि गांव की कहानियाँ शहर से लिखी जाती हैं जैसे बकौल ख्यात चित्रकार और कहानीकार प्रभु जोशी हिंदी की लड़ाई अंग्रेज़ी में लड़ी जाती है। समय इतना महत्वाकांक्षी हो चला है कि लेखक भी कुछ बनकर जीना चाहते हैं। लेखन से मान, पैसा, सत्ता सबकुछ पाना चाहते हैं। कुछ बनने और सबकुछ पाने की नागरिक आकांक्षा उन्हें गांव नहीं लौटने देती। वे स्मृतियों के सहारे शहर में गांव को जितना भुना सकते हैं भुनाने की कोशिश करते हैं। कुछ महानगरीय गांव-लेखक तो इतने अहमक हैं कि जो गांव की कहानी नहीं लिखते उन्हें बुर्जुआ और क्रांति की राह का रोड़ा समझते हैं। शिवमूर्ति जैसे विरल कथाकार गांव देहात के किस्सों के लिए इसलिए भरोसेमंद बचे हुए हैं क्योंकि उनका मूल पिंड ग्रामीण संवेदना से ओत प्रोत कथाकार का है। उनकी मिट्टी ही गांव की है। शिवमूर्ति गांव जायें तो उन्हें लोगों में घुलते देर न लगेगी। कोई पहचानकर्ता किसी किसान घर से उन्हें अलगाकर निकाल ले यह असंभव है। सच तो यह है शिवमूर्ति कुछ बनने शहर नहीं आये थे। उन्हें बचना था। अपने जैसे करोड़ों खेतिहर लोगों के बीच से स्वावलंबी होना था। वह भी शिक्षा के बूते। सरकारी राह पर चलकर। अपनी आत्मा और लेखक को बचाना था। वे हलवाही से अफसरी में आये। कोई दूसरा होता तो भुला ही देता सब पिछला। लेकिन चोरी चोरी वही रहे आये जो शिवमूर्ति थे। किसान, खुद्दार, संवेदना से भरे। जो उन्हें होना था। उन्हें गौर से देखिए तो वे शहर में गांव बसा लेने की चाहत से भरे हुए नज़र आते हैं। पुराने सभी जीवंत रिश्तों से घिरे। शिवमूर्ति जी के ही समकालीन मशहूर कथाकार और इतिहासकार प्रियंवद कहते हैं मैं खुशनसीब हूँ कि उस घर में रहता हूँ जहाँ मेरी पूर्वज कई पीढ़ियाँ रहीं। घूमना वरदान है लेकिन विस्थापित हो जाना त्रासदी। आज के बहुत से लेखक विस्थापन में जीते हैं। वे किसी धरती से अपना रिश्ता नहीं बना पाते। आज यहाँ। कल दूसरे शहर में। यह मजबूरी इंसानों, धरती और प्रकृति से रिश्ता नहीं बनाने देती। शिवमूर्ति के लेखन का मिजाज़ भिन्न है। लेकिन उनमें विद्यमान संलग्नता की गहराई वही है जिसकी बात प्रियंवद कहते हैं। यह अनायास नहीं है कि शिवमूर्ति ने आखिरी छलांग के बाद ख्वाजा ओ पीर जैसी कहानी लिखी।

2.      किसी मार्मिक कहानी जैसी दूसरी कहानी नहीं होती। कसाई बाड़ा वैसी ही कहानी है जैसे पंच परमेश्वर जैसी दूसरी कहानी नहीं हो सकती। इन कहानियों के विषय महज पंचायत चुनाव या न्याय नहीं हैं। ये वैसी कहानियाँ  हैं जो हमें दृष्टा बनाती हैं। इंसानियत बख्शती हैं। हरिशंकर परसाई की व्यंग्य कहानी एक गौ भक्त से भेंट को याद कीजिए। ऐसी शिक्षक रचनाओं को कोई दूसरा भी लिखे इससे बेहतर होगा हम ही इन्हें दोबारा पढ़ लें।

3.      प्रेमचंद कह सकते थे कि साहित्य राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है। उनमें जनता की आग भी थी और समाज का पानी भी था। लेकिन दुर्भाग्य से इसे सबसे अधिक वह कहानीकार जपते हैं जिनकी या तो कोई राजनीति नहीं है या जो राजनीति की मलाई गपकते हैं। जैसे टोपी लगाने वाले कांग्रेसियों के बीच गांधी जी की अब एक ही तस्वीर बची है लाठी चश्मे वाली वैसे ही प्रेमचंद गाँव के कहानीकार बना दिए गये हैं। जबकि प्रेमचंद हिंदी जनता के लेखक हैं। जिसका देश भारत है। भारत। माता नहीं। देश। वह देश जिसका सपना गांधी और रवींद्रनाथ ठाकुर देख रहे थे। शिवमूर्ति की सिरी उपमा जोग, केसर कस्तूरी और तिरिया चरित्तर गाँव या शहर की स्त्रियों की कहानी नहीं हैं। भारतीय औरतों की गाथाये हैं। मेरे खयाल से शिवमूर्ति के लेखन के केन्द्र में सत्ता नहीं इंसानी ताक़त है। वे आज के ऐसे विरल कहानीकार हैं जो चरित्रों के उत्थान पतन में राजनीति का उत्थान पतन दिखा पाते हैं। शिवमूर्ति का कहानीकार पत्रकारीय दोषों से मुक्त है। वे खोज खोजकर स्टोरी नहीं करते कहानी जीते हैं। डूब डूबकर कथा में तर्पण करते हैं। शिवमूर्ति का त्रिशूल दैहिक, दैविक, भौतिक शूलों को निकालने के लिए है। शिवमूर्ति के पास प्रेमचंदीय धर्म और मरजाद है।

4.      तिरिया चरित्तर पर बनी फिल्म भी शिवमूर्ति की सुंदर आलोचना है। उनकी कहानियों का मंचन हो या फिल्मांकन शिवमूर्ति का कहानीकार आड़े नहीं आता। आप एक हिट फिल्म पा को याद कर सकते हैं। यदि यह शिवमूर्ति की कहानी सिरी उपमा जोग पर आधारित होती तो अधिक दूरगामी होती। हाल ही में गुज़रे जनकवि रमाशंकर यादव विद्रोही की औरतों पर कही सुनी जानेवाली अत्यंत प्रखर कविताओं में शिवमूर्ति की कहानियों की स्त्री जैसी छवि दिखायी देती है। कहने का अभिप्राय यह कि विद्रोही हों या शिवमूर्ति औरतों के लिए संविधान नहीं बनाते। बल्कि अपनी भूमिका स्पष्ट करते हैं। जो पाठकों का पक्ष है। मेरी राय में किसी भी विडंबना में जिसमें अन्याय होता है, हक़ मारा जाता है और निर्दोष को सज़ा मिलती है कोई एक ज़िम्मेदार नहीं होता। इससे निपटा भी सामूहिक विवेक के सहारे ही जा सकता है। शिवमूर्ति अपने लेखन में जजमेंटल नहीं हैं न ही आंदोलनकारी। वे विमली के लिए ज़िम्मेदार कारकों में समाज, व्यवस्था और स्त्री की प्राकृतिक विवशताओं तीनों को मूर्त करते हैं। मेरे खयाल से कहानीकार से इससे अधिक की अपेक्षा ठीक नहीं। वह फैसले नहीं कर सकता। न ही वकालत। उसकी निगाह में गवाही और जज दोनों बराबर होते हैं। जब कहानीकार वैसा अंत नहीं कर पाता जैसा होना चाहिए तो वह लंबी सांस भरकर माफ़ी मांग लेता है और जता देता है कि वास्तव में क्या होता तो अच्छा होता। शिवमूर्ति के पहलवान जब टूटते हैं तब कहानीकार पाठकों का दिल थाम लेता है।

5.      स्त्रियों की मुक्ति कुछ वर्जनाओं के टूटने में नहीं स्वावलंबन में है। जिस दिन औरतें संपत्ति, राज्य और समाज में बराबर की मालकिन होंगी उस दिन नया ज़माना आयेगा। शिवमूर्ति की स्त्रियां काम में और कर्म में परिपक्व तथा भविष्योन्मुख हैं। वे इंसानी जज़्बे से लबरेज़ हैं। शिवमूर्ति कर्मठ और दबंग स्त्रियों की ताक़त जानते हैं। उन्होंने बहुत अच्छे से जाना है कि स्त्री को अच्छा बनाये रखने की प्रविधि स्त्री की गुलामी का उपक्रम है। उनकी कहानियाँ बताती हैं कि मेहनतकश स्त्रियां प्रेम को धार देती हैं। गहने बनवाने और तुड़वाने वाली स्त्रियाँ नये दौर में दूसरे कथाकारों के यहाँ दैहिक क्रांति करती होंगी शिवमूर्ति की अभिसारिकाएँ अँधेरा चीरकर निकलती हैं।

6.      मेरी नज़र में शिवमूर्ति जैसा कहानीकार दूसरा नहीं है। वे सहज कहानीकार हैं। मर्म की वैसी समझ और कहानी में लोक की पकड़ किसी के पास नहीं। तुलना और वकालत मैं कर नहीं पाता मुझे बस लगता रहता है शिवमूर्ति जितने साधारण लगते हैं उतने ही विशिष्ट हैं। वे सिर से पांव तक कहानीकार हैं। आज कहानी समूहों और विषयों में बंट गयी है। भारतीय राज्यों जैसा कहानीकारों का हाल है। जैसे दिल्ली में यूपी और बिहार ही छाये रहते हैं। बुरा न माने तो मैं कहूँगा यदि कोई कहानी के बीरबल हैं तो शिवमूर्ति कहानी के तानसेन हैं। यदि कोई कहानी के अर्जुन हैं तो शिवमूर्ति विदुर। कोई सूर का सर हैं तो शिवमूर्ति सूर की पीर। मैं कभी कभी सोचता हूँ यदि शिवमूर्ति कहानी सुनाने निकल जायें तो लोग रात रात भर सुनेंगे। वैसा कहानी पाठ दुर्लभ है। जेंटल मैन कहानीकारों से बहुत अलग शिवमूर्ति की गढ़न और धज ही ऐसी है। वे भाषा को इतना गाढ़ा कर देते हैं कि कहानी के मर्म को घोलने पाठक के आँसू निकल पड़ते हैं। फिर अपनी पलकें झपका झपकाकर कब हँसा दे कह नहीं सकते। शिवमूर्ति गोरे कहानीकारों के बीच में साँवले कथाकार हैं। गोरे और साँवले का फर्क आप भली भाँति जानते होंगे। शिवमूर्ति की कहानी पढ़िए तो गाने की पंक्ति खयाल में आती है हँसते भी रहे, रोते भी रहे। मेरी राय में शिवमूर्ति की कहानियों के मर्मभेदी होने के पीछे रागात्मकता की शक्ति है। वे यथार्थ को नमक की तरह इस्तेमाल करते हैं। शिवमूर्ति कपड़ा रंगते हैं। रंगों का कपड़ा नहीं फहराते। उनकी कहानियों में लोकगीत का सा असर है। मैं मानता हूँ अगर लोकगीत न होते तो शिवमूर्ति कहानीकार न होते। इस कहानीकार की जान लोकगीत में है। वही पीड़ा बोध, वही जिजीविषा। शिवमूर्ति की लगभग हर कहानी लोकगीत सरीखी चित्त में अमिट हो जाती है। मोटी मोटी पोथियाँ शिवमूर्ति ने भी पढ़ी हैं मगर वे जिल्द में नहीं बंधे हैं। शिवमूर्ति की भाषा और प्रतिबद्धता प्रेमचंद से मिलती हैं। वे बड़े सजग लेखक हैं। अपनी सामाजिकता और इंसानी गर्माहट को भाषा में भी ले आते हैं। अपने देशकाल पर उनकी पकड़ अचूक है। अपनी अद्वितीय कथा शैली में जब वे टिप्पणी या हस्तक्षेप करते हैं तो वह दृष्टांत बन जाता है। कुछ उदाहरण देखिए:-

1. बड़ी बहू कंकण की सब्जी बनाती थीं। खेत से सफेद कांकड़ लातीं। खूब साफ़ धोतीं। एक से एक मसाले डालतीं। कांकड़ में लपेटतीं। खूब सुंदर, देर तक पकातीं। सब्जी बनती तो सारा गाँव महकता। लोग बड़े चाव से सब्जी खाते। वाह वाह करते। आप पूछेंगे कांकड़ की सब्जी खाते कैसे होंगे लोग। उसमें क्या कठिनाई? मुँह में डाला। मसाला चूसा और कांकड़ थूक दिया। मित्रों कुछ लेखक ऐसे ही मसाला कहानी लिखते हैं।

2. चीन में लड़कियों को लोहे के जूते पहनाए जाते हैं। कारण? लड़कियों के छोटे पाँव शुभ माने जाते हैं। लड़की को लोहे का जूता पहना दिया जाता है। पाँव को बढ़ने से रोकने के लिए। लड़की जूते पहने रखती है मगर पाँव भीतर ही भीतर बढ़ते रहते हैं। एक दिन जब उसके जूते उतरते हैं तो पाँव टेढ़े मेढ़े हो जाते हैं। कुछ कहानीकारों के यहाँ शिल्प वही लोहे का जूता है।

3. बहू को खिचड़ी बनानी होती तो बड़ा इंतजाम करतीं। शानदार बर्तन निकालती। ईंधन सहेजतीं। चूल्हे पर देर तक पकातीं। जब तक खिचड़ी पकती बैठी रहतीं। जाने कितना खटर पटर करतीं। मगर खिचड़ी में स्वाद वही फीका आता। कभी वह आनंद न आता। जिसकी कोशिश बहू करतीं। वहीं दूसरी ओर अम्मा खेत से भागती आतीं। जल्दी जल्दी बर्तन धोती। आग सुलगाती।  चावल दाल धोकर खिचड़ी चढ़ा देती। बीच बीच में काम करती रहतीं। खूंटे में बंधे मवेशियों का भी ध्यान रखतीं। हमें आवाज़ लगातीं। हम आते तो झट खिचड़ी परोस देतीं। हम खूब छककर खाते। उंगली चाटते। और मांगते। वैसा स्वाद बहू की बनायी खिचड़ी में आया ही नहीं। कभी कभी लगता है लेखक ताम झाम में ही फंसकर रह जाता है।

मैं समझता हूँ शिवमूर्ति यह बेहतर जानते हैं कि विमर्शों, फौरी प्रतिबद्धताओं और प्रसिद्धि तथा सम्मानों से ऊपर उठकर कहानी लिखना ही ईमान की बात है। उनके लक्ष्य छद्म पाठक, प्रकाशक या आलोचक नहीं वे भारतीय लोग हैं जो अपने उत्थान की आशा में पढ़ाई लिखाई के साथ साहित्य को अपने जीवन में अहम दर्ज़ा देते हैं। शिवमूर्ति की लोकप्रियता और सार्थकता का राज़ उनकी सादगी और जनपक्षधरता है।

   -शशिभूषण