शनिवार, 31 दिसंबर 2011

नये साल में बच्चों और उनकी शिक्षा के लिए बड़ी जगह पैदा होनी चाहिए।



गुरू-शिष्य के संबंधों पर सभी भाषाओं और समाजों में साहित्य भरा पड़ा है। वह पूरा साहित्य न मैं अब तक पढ़ पाया हूँ न ही पूरे साहित्य से अनजान हूँ। वह विगत और अनवरत साहित्य आज अध्यापन में कितनी सहायता करता है यह भी मेरे लिए गुत्थी ही है। मैं अनुभव से कई ग़लतियों के बाद सीख सीखकर ही सिखाने वाला अध्यापक हूँ।

मैं जब विद्यार्थी था इस रिश्ते को निभाने लायक मिथकीय शिष्यों जैसा कृतज्ञ नहीं रहा। न अब गुरू होते कभी खुद को ईश्वर की जगह देख पाता हूँ। सीखने और सिखाये जाने की पारस्परिकता में ही जो मुझसे हो सका वह मेरा शिष्य धर्म था और मेरे अध्यापको ने जो किया वह उनका कर्तव्य। इस निर्वहन से कभी समाज को दिक्कत नहीं हुई सो कह सकते हैं मेरे गुरुजनों का चरित्र उत्तम था और मेरे चरित्र में भी निर्माण से लेकर अब तक खोट नहीं है।

आज अपने भावलोक और आदर्शों से बाहर निकलता हूँ, शैक्षिक अपेक्षाओं से थककर घर लौटते हुए जब बाहर टेबल पर रखे रजिस्टर पर हस्ताक्षर करता हूँ और घड़ी देखकर समय डालता हूँ तो अपने आपको अध्यापन की नौकरी करते हुए पाता हूँ।

एक कठिन नौकरी। नौकरी के मूल स्वभाव से हटकर जो हर साल इसलिए भी कठिनतर होती जा रही है कि बच्चे बच्चों जैसे नहीं रहे। इसके कारणों में उँगली के इशारे जैसी यह वजह कि कॉलोनी इतनी घनी हो गई कि गलियों में खेलने की जगह नहीं बची, मैदान नहीं बचा, तालाब-नदी नहीं बचे। कामकाज की आपा-धापी में माँ-बाप बच्चों के लिए नहीं बचे। घर में अकेले टीवी, कम्प्यूटर, मोबाइल से घिरे छोटे-छोटे आदमजात कितना बच्चा बचेंगे? घर से लेकर स्कूल तक उसके इतने गाइड हैं कि स्कूल बस में ही सयाना हो चुका जो बच्चा कक्षा में पहुँचता है उस पर किसी बात का असर ही नहीं होता।

वह इसी सप्ताह रिलीज होनेवाली फिल्म का वयस्क गाना गाना चाहता है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स में चैट करना चाहता है। स्कूल बैग में पड़ा उसका मोबाइल एसएमएस के आगमन से घूँ-घूँ काँपता है तो वह रिप्लाई न कर पाने की खीज में शिक्षक को शैतान समझ बैठता है। उसकी मानसिक लड़ाई अपने शिक्षक से उसी समय शुरू हो जाती है। अगली किसी डाँट पर वह माँ-बाप से केवल टीचर की शिकायत करना चाहता है।

पिछले दो तीन साल से नये शैक्षिक प्रयोग के बीच यह भी खूब सुन रहा हूँ कि “शिक्षक केवल विद्यार्थियों के लिए हैं। चुनौतियाँ कार्पोरेट सेक्टर जैसी। मुख्य है टार्गेट। विद्यार्थी अब शिष्य नहीं विद्यालय के उपभोक्ता हैं। यदि वे संतुष्ट नहीं, पैरेंट्स शिकायत करते हैं, आप टार्गेट में पीछे रहे तो हमें आपकी ज़रूरत नहीं।”

मैं और मेरे जैसे कई घर से हज़ारों किलोमीटर दूर डर जाते हैं। नौकरी गयी तो जीवन कैसे बचेगा? हम जितना डरते हैं माहौल उतना ही अच्छा होता माना जाता है।

आये दिन नये-नये डरावने बयान- “शिक्षक, विद्यार्थियों को पागल, गधा, मूर्ख नहीं कह सकते। चाँटा मारा तो कठोर अनुशासनात्मक कार्यवाही। अगर लहज़े में भी सख्ती दिखी और विद्यार्थी को इस वजह से तनाव हुआ उसने शिकायत की तो शिक्षक अपराधी। कोई नहीं बचा पाएगा।”

शिक्षकीय जीवन की एकदम शुरुआत में ही एक भली, कर्मठ शिक्षिका ने बताया था “यह ऐसा समाज है जिसमें शिक्षक की कोई नहीं सुनता” तो हँसी आ गयी थी। डरपोक। हम इंसान गढ़ने आये हैं। निर्माता हैं। हमें गुहार क्यों लगानी पड़ेगी? समाज हमसे खुद पूछेगा कोई तकलीफ़ तो नहीं। मैडम के लहज़े में रिटायर होने तक न मिटनेवाला डर साफ़ दिख रहा था। “सर, बहुत सतर्क रहने की ज़रूरत है। बच्चे सब नाबालिग हैं उनकी हर ग़लती का दोषी टीचर है। क्योंकि अभिभावक अपनी ग़लती मानेगा नहीं। स्टूडेंट, पैरेंट्स, प्रिंसिपल सबसे बचकर रहना पड़ता है टीचर को।”

उनकी आवाज़ फुसफुसाहट में बदल गयी थी जब वे बोलीं- “सर, आप मेरे छोटे भाई जैसे हैं लेकिन नये हैं इसलिए कह रही हूँ गर्ल चाइल्ड को तो डाँटना भी मत कभी। कुछ ग़लत करते देखो तो किसी लेडी टीचर को समझाने के लिए बोलो। कभी स्कार्ट ड्यूटी हो तो लड़कियाँ लेकर बाहर मत जाओ। बच्ची की शिकायत को कुछ हथियार बनाते हैं। सीधे इंक्वायरी बैठती है और ऊपर तक कोई नहीं सुनता।”

इतने साल बाद लगता है कि ये सलाहें बड़ी व्यावहारिक थीं। फिर किन्हें और कैसे पढ़ाएँ? सोचकर साँस लेने को हवा कम पड़ती प्रतीत होती है।

सालों से घुट रहे पर सफल माने जानेवाले कुछ शिक्षक साथी कहते हैं “काहे की शिक्षा और काहे के स्कूल। सब नाटक है। जब ऊपर से नीचे तक ग़लत ही हो रहा है। तो बच्चे क्या सीखेंगे? सीखे हुए ईमानदार विद्यार्थी कहाँ, किस भविष्य में जाएँ?”

सुना था कि नौकरी तो बाप की भी बुरी। लेकिन शिक्षक भी नौकर ही है सोचकर रूह काँप जाती है। घर से, सबसे इतनी दूर, मन में इतने समर्पण, बच्चों से इतनी ममता, समाज की अपेक्षा मनुष्यता की सेवा और ओहदा नौकर का। आत्मा गवाही नहीं देती। नहीं, नौकर होकर नहीं पढ़ाया जा सकता!

तब उन बच्चों की शक्लें आँखों के आगे घूम जाती है जो रोकते-रोकते पैर छू लेते हैं सर, आपके मार्गदर्शन और आशीर्वाद से यह सफलता मिली। मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ। यदि ये बच्चे पढ़ेंगे नहीं तो कुछ नहीं कर पायेंगे। उन्हें इंसान भी नहीं माना जाएगा दुनिया में। विद्या ही उन्हें सर उठाकर जीने लायक बनाएगी। वे पढ़ रहे हैं। पेट में कुछ नहीं ऐसा जिससे दिमाग़ मज़बूत होता है। घर भर का खाना बनाकर ही वे अपने बस्ते में पौष्टिक खाना नहीं रख पा रहीं। बराबर रौशनी भी नहीं पर वे किताबों में नज़र गड़ाए हुए हैं। सबकी गालियाँ खा रही हैं पर पेन-कापी नहीं रख रहीं। चुपचाप रात दिन मेहनत करते हुए, कम कपड़ों में सर्दी का विद्यार्थी जीवन बिताते जब इन बच्चों को देखता हूँ और अपने से गहरे जुड़ा पाता हूँ तब भी मन नहीं कहता कि नौकर हूँ। भीतर से आवाज़ आती है शिक्षक हूँ और पुण्य का काम है पढ़ाना।

अभी यह लिखते हुए जान रहा हूँ कि कुछ ही घंटो में यह साल बीत जाएगा। आज़ादी के बाद अपने देश में इतने साल गुज़र चुके हैं कि इसके बीत जाने को भी कितना महत्व दूँ? लेकिन सभी आशावादी लोगों की तरह मेरी भी एक आशा है कि नये साल में हमारे देश में बच्चों और उनकी शिक्षा के लिए बड़ी जगह पैदा हो। शिक्षक अपने काम को सेवा समझें और इसके लिए कोई उन्हें ताना न मारे।

रविवार, 30 अक्तूबर 2011

सरलता के सहारे हत्या की हिकमत

एक सरकारी आदेश आता है और हमारी सारी मानसिकता को बदलकर रख देता है। लोकतंत्र में यह जनभावना साथ साथ चलती है कि सरकार ने अगर कोई निर्णय लिया है तो वह पूरी तरह ग़लत नहीं हो सकता। फिर सुधार और विकास के कवर में तो कोई भी मसौदा चल जाता है। ऐसे में उस तबके को ही समझाने में असफलता ही हाथ लगती है जो कथित रूप से बुद्धिजीवी माना जाता है। फिर जनमानस निर्माण का ख्वाब कैसे देखें? उसके बारे में तो कहा ही जाता है कि जैसे कितनी भी बारिश हो कुआँ नहीं उफनता वैसे ही जनता लोकतांत्रिक निर्णयों के खिलाफ़ नहीं जाती चाहे वह संस्कृति संबंधी फैसला ही क्यों न हो। भाषा के संबंध में सतर्क जागरूकता तो वैसे भी कम पायी जाती है। प्रभु जोशी जी का यह लेख ऐसे समय में हमारे सामने है जब सरकारी तौर पर कामकाज की हिंदी में अंग्रेज़ी के शब्दों के खुलकर प्रयोग की वकालत की जा रही है। और इसे केवल वकालत ही क्यों कहें यह तो आदेश है कि ऐसा हो। इसे ग़ौर से पढ़ें और अगर किसी खतरे की आहट सुनते हैं तो यों ही टालने की कोशिश न करें। -शशिभूषण

भारत-सरकार का ‘गृह-मंत्रालय’, जिसको पता नहीं अतीत में जाने क्या सोच कर देश में ‘राष्ट्रभाषा‘ के व्यापक प्रचार-प्रसार का जिम्मा सौंप दिया गया था, पिछले दिनों एकाएक नींद से जागा और जाग कर उसने देश के साथ, आजादी के बाद का सबसे ‘क्रूरतम’ मजाक किया कि वह राजभाषा हिन्दी को ‘आमजन‘ की भाषा’ बनाने का फरमान जारी कर दिया। यह इसलिए कि वह ‘कठिन‘ और ‘अबोधगम्य‘ है। पिछली लगभग आधी सदी से जो शब्द परिचित चले आ रहे थे पता नहीं किस इलहाम के चलते वे तमाम शब्द अचानक ‘अबोधगम्य’ व ‘कठिन’ हो उठे। उसने अपनी तरफ से काफी चतुराई-भरा ‘परिपत्र‘ जारी करते हुए, सममस्या-समाधान के लिये गालिबन सलाह दी जा रही हो कि हिन्दी में ‘उर्दू-फारसी-तुर्की‘ के शब्दों का सहारा लिया जाये और साथ ही साथ आवश्यकता अनुसार ‘अंग्रेजी‘ के शब्दों को भी शामिल किया जाये। अंग्रेजी को सबसे पीछे, उर्दू-फारसी की आड़ में खड़ा कर दिया गया। लेकिन मूलतः यह मंसूबा, साफ-साफ दिखायी दे रहा था कि देश के ‘खास-आदमी‘ की दृष्टि से ‘आम-आदमी‘ के लिए भाषा की छल-योजित ‘पुनर्रचना‘ की जा रही है, इससे उनके भाषा-विवेक की वर्गीय पहचान तो प्रकट हो ही रही है, बल्कि यह भी पता चल रहा है ‘वित्त-बुध्दि’ की सरकार, सांस्कृतिक-समझ के स्तर पर कितनी कंगली है।

परिपत्र में बताया गया है कि मंत्रालय की ‘केन्द्रीय हिन्दी समिति‘ की प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में सम्पन्न होने वाली बैठक के बाद यह निर्णय किया गया। छोटे पर्दे की खबरों में कभी भी हिन्दी में बोलते नहीं दिखायी देने वाले प्रधानमंत्री की हिन्दी बैठक की सिर्फ कल्पना भर की जा सकती है, कि वह कैसी होती होगी। बहरहाल, इसमें देश की ‘राजभाषा‘ को सरल सुगम बनाये जाने के लिए कोई निश्चित ‘प्रतिमान‘ तो नहीं बनाया गया है कि ‘सरल‘ बनाते समय अंग्रेजी शब्दों का प्रतिशत क्या होगा, लेकिन बतौर ‘प्रतिमानीकरण‘ के लिए ‘सरल‘ और ‘कठिन‘ शब्दों की पहचान करते हुए ‘समिति‘ ने पता नहीं देश के किस स्थान से प्रकाशित होने वाली कौन-सी पत्रिकाओं से उदाहरण दिया, वह निश्चय ही स्पष्ट रूप से बताता है कि उसकी दृष्टि में ‘भोजन‘ की जगह ‘लंच‘, ‘क्षेत्र‘ की जगह ‘एरिया‘, ‘महाविद्यालय‘ के बजाय ‘कॉलेज‘, ‘वर्षा-जल‘ के बजाय ‘रेन-वॉटर‘, ‘नियमित‘ की जगह ‘रेगुलर‘, ‘श्रेष्ठतम पांच‘ के स्थान पर ‘बेस्ट फाइव‘ ‘आवेदन‘ की जगह ‘अप्लाई‘, छात्रों के बजाय ‘स्टूडेण्ट्स‘, ‘उच्च शिक्षा‘ के बजाय ‘हायर-एजुकेशन‘ आदि-आदि का प्रयोग भाषा के सरलीकरण में सहयोगी होगा। आप यह पढ़ कर स्वयं स्पष्ट कर लें कि हिन्दी के शब्दों की तुलना में जो शब्द अंग्रेजी के बताये गये हैं, वे ‘सरल‘ हैं और आमजन को आसानी से समझ में आ जायेंगे।

उनका यह भी कहना है कि इससे भाषा में ‘प्रवाह‘ बना रहेगा। अब आप बखूबी अंदाजा लगा सकते हैं कि यह प्रवाह अंततः भाषा को किस दिशा में ले जायेगा। परिपत्र में बहुत बुद्धिमानी के साथ यह ‘सत्य‘ भी उद्घाटित किया गया, जो हिन्दी के साहित्यकारों की समझ में भी इजाफा करेगा कि ‘साहित्यिक भाषा के इस्तेमाल से उस भाषा-विशेष की ओर से आम-आदमी का रूझान कम हो जाता है और उसके प्रति मानसिक-विरोध बढ़ता है।‘ खैर यह नेक सलाह हिन्दी के साहित्यकार जानें, जो पिछले बीस बरसों से, इसी झंझट से ही बाहर नहीं आ पा रहे हैं कि किसकी कविता को ‘प्रगतिशील’ बतायें और किसकी को ‘प्रतिक्रियावादी’।

बहरहाल, इस ऐतिहासिक ‘परिपत्र‘ में भाषा की ‘कठिनता‘ की समस्या का समाधान खोजते हुए पहले काफी बड़ी भूमिका भी बांधी गयी और ‘उर्दू-फारसी-तुर्की‘ के शब्दों के प्रयोग की बात कुछ ऐसे सदाशयी अंदाज में पूरे भोलेपन के साथ कही गयी है कि जैसे वे कोई नयी बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि बस ‘गांधी-नेहरू‘ वाली ‘बोलचाल‘ की भाषा की बात को ही फिर से दोहरा रहे हैं।

लेकिन, मित्रो, हकीकत ये है कि ‘उर्दू-फारसी-तुर्की‘ के शब्दों के शामिल किये जाने की बात से तो सिर्फ बहाना है, जबकि बुनियादी रूप से उनका मंसूबा सिर्फ अंग्रेजी के शब्दों को शामिल करने का ही है। क्योंकि, उन्होंने ‘परिपत्र‘ में जो अनुकरणीय उदाहरण दिया है, उनकी असली इच्छा ‘भाषा‘ को उसी ‘रूप‘ की ओर हांकने की ही है, जिसको उन्होंने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पाते ही धन्धों में धुत्त हो चुके अखबारों से ही उठा कर उसे उदाहरण के रूप में रखा है। और पिछले वर्षों से हिन्दी के अखबारों के महानगरीय संस्करणों में यह रूप चलाया जा रहा है। , लेकिन वे साफ-साफ ‘हिंग्लिश’ नहीं कहना नहीं चाहते। जबकि वे हिन्दी को ‘हिंग्लिश’ में बदलने का संकल्प ले चुके हैं और ऐसा करना उनके लिये इसलिए भी जरूरी है कि उनकी यह विवशता है,। चूंकि भारत में विदेश से हासिल होने वाली आवारा पूंजी की यह अघोषित शर्त है। यह पूंजी, केवल पूंजी की तरह नहीं आती, वह सांस्कृतिक माल के लिये जगह बनाती हुई आती है।

कहने की जरूरत नहीं कि अंग्रेजी के अखबारों ने उनके इस नेक इरादे को इसीलिए तुरन्त पढ़ लिया और उनकी बांछें खिल गयीं। उन्हांेने इस ‘परिपत्र‘ के स्वागत के उत्साह में ‘प्रथम-पृष्ठ‘ की खबर बनाते हुए कहा कि सरकार ने ‘देर आयद दुरूस्त आयद‘ की तरह खुद को ‘अमेण्ड‘ किया और आखिरकार देश के विकास के पक्ष में ‘हिंग्लिश‘ के लिए रास्ता खोल दिया है।‘ हिंग्लिश गेन्स रेस्पेक्टैबिलिटी।’ ‘ हिंग्लिश गेन्स ग्राउण्ड इन इण्डिया’। ‘हिंग्लिश विल बी द ऑफिशियल लैंग्विज ऑव इंण्डिया।’

बहरहाल, यह सच अब किसी से भीे छिपा नहीं रह गया है कि बहुराष्ट्रीय-निगमों की ‘सांस्कृतिक-अर्थनीति‘ के दलालों द्वारा भारत में ‘भूमण्डलीकरण’ के शुरू होते ही लगातार इस बात की वकालत की जाती रही है कि भारत में ‘अंग्रेजी‘ किसी भी तरह देश की प्रथम भाषा का ‘वैध‘ स्थान प्राप्त कर ले। इसके लिए उन्होंने ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’ की तर्ज पर उससे भी कहीं ज्यादा धूम-धड़ाके वाला एक आयोजन, जो ‘माइका’ द्वारा प्रायोजित था, मुम्बई में किया, जिसमें गिरहबान पकड़ कर भारतीयों को बताया जाता रहा कि ‘भारत का भविष्य हिन्दी नहीं, ‘हिंग्लिश‘ में है’ और इससे नाक-भौंह सिकोड़ने की जरूरत नहीं, क्योंकि इसमें भी शेक्सपीयर पैदा हो जायेगा, और तीस वषों बाद यह दुनिया की सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा होगी। ये बात वे किसे बता रहे हैं ? कौन नहीं जानता कि संख्या के आधार के कारण भारतीय जो भी भाषा बोलने लगेंगे वह दुनिया की सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा कह लायेगी ही। दूसरी बात ये कि जो अंग्रेजी दूसरा शेक्सपीयर पैदा नहीं कर पायी, वह हिंग्लिश पैदा कर देगी ? फिर क्या भविष्य के एक काल्पनिक शेक्सपीयर के भारत में पैदा हो जाय इसके लालच में उस भाषा को मार दें, जिसने वह यात्रा मात्र चौसठ वषों में पूरी कर ली, जिसे पूरी करने में अंग्रेजों को पांच सौ वर्ष लगे ?

बहरहाल पेंगुइन प्रकाशन ने इस पूरे प्रायोजित अभियान पर केन्द्रित एक बड़ी-सी लगभग दो-सौ पृष्ठों की एक पुस्तक भी छापी है, ताकि भारत के उन काले अंग्रेजों को तर्कों के वे तमाम धारदार अस्त्र मिल जायें, जिनका वे जरूरत पड़ने पर अचूक इस्तेमाल जहां-तहां बहस-मुबाहिसों में कर सकें, क्योंकि निश्चय ही आगे-पीछे ‘गोबरपट्टी बनाम काऊबेल्ट‘ के लद्धड़ लोग एक दिन ‘राष्ट्रभाषा‘ के नाम पर एकजुट हो कर हो हल्ला मचायेंगे, तब सार्वजनिक-मंचों और छोटे पर्दे पर भाषा को लेकर होने वाली मुठभेड़ों में उन्हें विजयी बनाने मंे ये तर्क ही इमदाद करेंगे।

दूसरी ओर ‘धंधे में धुत्त‘ हिन्दी के सामान्य से अखबारों ने भी आमतौर पर तथा उन अखबारों ने, जिन्होंने ‘प्रत्यक्ष विदेशी निवेश‘ पर अपना साम्राज्य खड़ा किया है, खासतौर पर ठीक ऐसी ‘छुपाये न छुपने वाली‘ खुशी के साथ परिपत्र की ‘अगुवाई‘ की जैसे भारत और अमेरिका के बीच परमाणु सौदा सुलट गया है। बड़े-बड़े और लम्बे सम्पादकीय रगड़ते हुए उन्होंने अपने पाठकों को बताया कि जो काम इस सरकार ने कर दिखाया, वह उसकी शक्तिशाली राजनीतिक इच्छा का प्रमाण है। यह एक बहुप्रतीक्षित और अनिवार्य कदम था। हालांकि, उन्होंने इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा कि उनकी टिप्पणी में भूले से भी कहीं ‘हिंग्लिश’ शब्द ना आ जाये।

लेकिन, भाषा की ‘ऐतिहासिक-‘सामाजिक-सांस्कृतिक’ और आर्थिक भूमिका के परिप्रेक्ष्य को अपेक्षित गहराई से समझने वाले दूरदृष्टा लोग, इस परिपत्र को किसी सरकारी कार्यालय के कारिन्दे द्वारा गाहे-ब-गाहे जारी कर दिया जाने वाला रस्मी ‘कागद‘ नहीं, बल्कि भारतीय-भाषाओं के क्षेत्र में परमाणु सौदे से भी ज्यादा उलटफेर करने वाला ‘अस्त्र’ मान रहे हैं। तीन-सौ वर्षों के गुलामी के दौर में भारतीय भाषाओं का जितना नुकसान अंग्रेजों ने नहीं किया, उससे ज्यादा बड़ा नुकसान भारत-सरकार का गृह-मंत्रालय इस परिपत्र के जरिये करने वाला है। क्योंकि वे जानते हैं कि यह हिन्दी ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाओं को भी जल्दी ही विघटित कर देगा। क्योंकि उन राज्यों की वे क्षेत्रीय भाषाएं, संविधान की आठवीं अनुसूची वाली भाषाएं हैं। निश्चय ही वहां भी यह फरमान तमिल को ‘तमलिश’ बांग्ला को ‘बांग्लिश’ बनाने का काम करेगा । वैसे इन भाषाओं के अखबार भी ये काम शुरू कर ही चुके हैं। यहां यह याद रखा जाना चाहिए कि दक्षिण की भाषाएं अपनी वैकल्पिक-शब्दावलि की तलाश में उर्दू-फारसी-तुर्की की तरफ नहीं जातीं। चूंकि वे अपना रक्त-संबंध संस्कृत से ही बनाती आयी हैं। लेकिन इनके बोलने वालों के भीतर छुपे अंग्रेजी के दलालों की फौज दलीलें देने के लिए आगे आयेगी कि जब भारत-सरकार द्वारा हिन्दी को ‘हिंग्लिश’ बनाया जा रहा है, तब तमिल को ‘तमिलिश’ बनाने का अविलम्ब रास्ता खोल दिया जाना चाहिये, ताकि उसका भी ‘आम-आदमी’ के हित में ‘सरलीकरण’ हो सके। दरअस्ल हिन्दी के संस्कृतनिष्ठ-रूप का आग्रह तो दक्षिण ही सबसे ज्यादा करता रहा आया है।

कुल मिलाकर, इस महाद्वीप की सारी की सारी भाषाओं के निर्विघ्न विसर्जन का एकमात्र हथियार बनने वाला सिद्ध होगा, यह परिपत्र। एक से अनेक को निपटाने का कारगर हथियार। प्रकारान्तर से यही वही औपनिवेशिक विचार का एक किस्म का अप्रकट ‘डिवाइन-इण्टरवेंशन’ है, जिसके चलते कहा गया था कि ‘प्रोलिफरेशन ऑव लैंग्विज इज पेनल्टी ऑन ह्यूमेनिटी।’ भाषा-बहुलता मानवता पर दण्ड है। अतः सभी भाषाएं खत्म हों और केवल एक पवित्र अंग्रेजी भाषा ही बची रहे। हिन्दुस्तान अपनी भाषा की बहुलता के कारण वैसे ही पाप की काफी बड़ी गठरी अपने सिर पर उठाये चला आ रहा है। बहरहाल, भाषा सम्बन्धी ऐसी ‘पवित्र- वैचारिकी‘ भारत-सरकार के गृह-मंत्रालय के प्रति स्वयं को निश्चय ही बहुत कृतज्ञ अनुभव कर रही होगी।

कहना न होगा कि हिन्दी की भलाई करने का मुखौटा लगा कर सत्ता में बैठे ये लोग, निश्चय ही काफी पढ़े-लिखे लोग हैं और यह बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि भाषाएं कैसे मरती हैं और उन्हें क्यों और किसी फायदे के लिए मारा जाता है। बीसवीं सदी में अफ्रीकी महाद्वीप की तमाम भाषाओं का खात्मा करके उसकी जगह अंग्रेजी को स्थापित करने की रणनीति क्या थी? यह सब इनको बखूबी पता है और वही कुचाल उन्होंने यहां चली और वे अब सफलता के करीब हैं। जी हां वह रणनीति थी ‘स्ट्रेटजी ऑव लैंग्विज-शिफ्ट।‘ इसके तहत सबसे पहले चरण में शुरू किया जाये-‘डिस्लोकेशन ऑव वक्युब्लरि‘। अर्थात् स्थानीय भाषा के प्रचलित शब्दों को वर्चस्ववादी अंग्रेजी भाषा के शब्दों से ‘विस्थापित’ किया जाये। ध्यान रखें कि ‘डिस्लोकेशन शुड बी क्वाइट स्मूथ।’ अन्यथा उस भाषा के लोगों में विरोध पैदा होना शुरू हो सकता है। अतः यह काम धीरे-धीरे हो। इसको कहा जाता है- ‘काण्टा-ग्रेजुअलिज्म’। शब्दों का ‘विस्थापन’ करते हुए , इसका प्रतिशत सत्तर और तीस का कर दिया जाये। यानी सत्तर प्रतिशत शब्द अंग्रेजी के हो जाएं तथा तीस प्रतिशत स्थानीय भाषा के रह जायें। एक सावधानी यह भी रखी जाये कि इसके लिये सिर्फ एक ही पीढ़ी को अपने एजेण्डे का हिस्सा बनायें। जब उस समाज की परम्परागत-सांस्कृतिक शब्दावलि जिससे उसकी भावना जुड़ी हो, और यदि उसे ‘डिस्लाकेट’ या कहें अपदस्थ करने पर उस समाज में इस नीति के प्रति कोई प्रतिरोध नहीं उठे तो मान लीजिए कि ‘दे आर रेडी फॉर लैंग्विज शिफ्ट’। इसके बाद ‘वॉल्टेण्टअरली दे विल गिव्ह-अप देअर लैंग्विजेज’।

बस, इसी निर्णायक समय में उसकी मूल-लिपि को हटाकर उस लिपि की जगह ‘रोमन- -लिपि’ कर दीजिए। ‘दिस विल वी द फाइनल असाल्ट ऑन लैंग्विज’। यानी भाषा की अंतिम कपाल क्रिया। हालांकि, इन दिनों विज्ञापन व्यवसाय व मीडिया और इसी के साथ उन समाजों और राष्ट्रों की सरकारों पर ‘विश्व-व्यापार संघ’, ’अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष’ जैसे वित्तीय संस्थानों से दबाव डाला जाता है कि ‘रोल ऑफ योर गव्हर्मेण्ट आर्गेनाइजेशंस शुड बी इनक्रीज्ड इन प्रमोशन ऑफ इंग्लिश लैंग्विज।‘

कहने की जरूरत नहीं कि इनके साथ हमारा प्रिण्ट और इलेक्टॉनिक मीडिया गठजोड़ करता हुआ, यह बताता भी आ रहा है कि देवनागरी को छोड़कर रोमन-लिपि अपना ली जाय। लोगों ने अपनाना भी शुरू कर दी है। यह अंग्रेजी के उस गुण की याद दिला रहा है, जिसके बारे में शायद बर्नार्ड शॉ ने कहा था कि ‘अंग्रेजों की सबसे बड़ी विशेषता ही यह है कि वह आपको इस बात के लिए राजी कर सकते हैं कि आपके हित में आपका मरना जरूरी है।’

बहरहाल, विश्व बैंक द्वारा ‘सर्वशिक्षा-अभियान’ के नाम पर डॉलर में दिये गये ऋण का ही दबाव है, जो अपने निहितार्थ में ‘एजुकेशन फॉर आल’ नहीं, -इंग्लिश फॉर आल’ का ही एजेण्डा है। इसी लिये बेचारे गरीब सैम पित्रोदा कहते आ रहे हे कि ‘पहली कक्षा से ही अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू कर दी जाये’। चूंकि इससे लैंग्विज-शिफ्ट में आसानियां बढ़ जायेगीं।
यह भारत-सरकार का वही नया पैंतरा है, और जो भाषा की राजनीति जानते हैं वह बतायेंगे कि यह वही ‘लिंग्विसिज्म’ है, जिसके तहत भाषा को ‘फ्रेश-लिंग्विस्टिक’ लाइफ देने के नाम पर उसे भीतर से बदला जाता है। पूरी बीसवीं शताब्दी में इन्होंने अफ्रीकी महाद्वीप की भाषाओं को इसी तरह खत्म किया। वहां भी शुरूआत एफ,एम, रेडियो के जरिये वहां के संगीत और मनोरंजन में घुसकर की गई थी। उन्होंने वहां पहले फ्रांस की तर्ज पर रेडियो के जरिये भाषा-ग्राम अर्थात् लैंग्विज-विलेज बनाये जिसमें स्थानीय भाषाओं में अंग्रेजी के ’मिक्स’ से भाषा-रूप बनाया और वहां की युवा-पीढ़ी को उसका दीवाना बना दिया। ये अफ्रीकी भाषाओं की पुनर्रचना का अभियान था। जी हां, रि-लिंग्विफिकेशन, जिसकी शुरूआत हमारे यहां भी एफ-एम रेडियो में अपनायी गयी प्रसारण-नीति से शुरु की गई।

दरअस्ल, हकीकत ये है कि चीन की भाषा मंदारिन के बाद दुनिया की सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा हिन्दी से डरी हुई, अपनी अखण्ड उपनिवेश बनाने वाली अंग्रेजी ने ब्रिटिश कौंसिल के अमेरिकी मूल के जोशुआ फिशमेन की बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए, उदारीकरण के शुरू किये जाने के बस कुछ ही समय पहले एक सिद्धान्तिकी तैयार की थी, जो ढाई-दशक से गुप्त थीं, लेकिन इण्टरनेटी युग में वह सामने आ गयी। इसका ही नाम था रि-लिंग्विफिकेशन। अर्थात् भाषा की पुनर्रचना।
अंग्रेज शुरू से भारतीय भाषाओं को पूर्ण भाषा न मानकर उन्हें वर्नाकुलर कहा करते थे। वे अपने बारे में कहा करते थे वी आर अ नेशन विथ लैंग्विज, व्हेयर एज दे आर ट्राइब्स विद डॉयलेक्ट्स। फिर हिन्दी को तो तब खड़ी बोली ही कहा जा रहा था। लेकिन दुर्भाग्यवश एक गुजराती-भाषी मोहनदास करमचंद गांधी ने इसे अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ाई में देश भर में प्रतिरोध की सर्वाधिक शक्तिशाली भाषा बना दिया और नतीजतन एक जन-इच्छा पैदा हो गयी कि इसे हम ‘राष्ट्रभाषा’ बनाएं और कह सकें वी आर अ नेशन विद लैंग्विज। लेकिन औपनिवेशिक दासता से दबे दिमागों के कारण यह ‘राष्ट्रभाषा’ के बजाय केवल ‘राजभाषा’ बन कर ही रह गयी। गांधी जी के ठीक उलट, नेहरू का रूझान शुरू से ही अंग्रेजी की तरफ ही था। चौदह अगस्त की रात में जब वे बीःबीःसी के सम्वाददाता को वे कह रहे थे कि ‘संसार को कह दो कि गांधी अंग्रेजी भूल गया है’ तो यह एक भाषा-समर की घोषणा थी, जबकि नेहरु एक नव-स्वतन्त्र राष्ट की संसद में अंग्रेजी में भाषण दे रहे थे। लेकिन गांधी ने हिन्दी को राष्टभाषा बनाने की बात कर के उसे भारतीय-राजनीति का हमेंशा के लिये सालते रहने वाला कांटा बना दिया।
बहरहाल, चौंसठ वर्षों से सालते रहने वाले उस पुराने कांटे को अब निकाला जा सका है।

बहरहाल ,अभी पांच साल पहले तक हिन्दी में जो शब्द, चिर-परिचित थे। अचानक ‘अबोधगम्य’ और ‘कठिन’ हो गये। एक और दिलचस्प बात यह कि हममें ‘राजभाषा’ के अधिकारियों की भर्त्सना की बड़ी पुरानी लत है ओर उसमें हम बहुत आनन्द लेते हैं, जबकि हकीकतन वह सरकारी केन्द्रीय कार्यालयों का सर्वाधिक लतियाता जाता रहने वाला नौकर होता है। उससे ज्यादातर दफ्तरों में जनसम्पर्क के काम में जोत कर रखा जाता है। कार्यालय प्रमुख की कुर्सी पर बैठा अधिकारी उसे सिर्फ हिन्दी पखवाड़े में पूछता ह और जब ‘संसदीय राजभाषा समिति’, जो दशकों से खानापूर्ति के लिए आती रही है, के सामने बलि का बकरा बना दिया जाता है। यह परिपत्र भी उन्हीं के सिर पर ठीकरा फोडते हुए बता रहा है कि हिन्दी के जो शब्द कठिन है इनकी ही अकर्मण्यता के कारण है। और जबकि, इतने वर्षों में कभी पारिभाषिक शब्दावलि का मानकीकरण सरकार द्वारा खुद ही नहीं किया गया। हर बार बजट का रोना रोया जाता रहा।

कहने की जरूरत नहीं कि यह इस तथाकथित भारत-सरकार (जबकि गव्हर्मेण्ट ऑफ इण्डिया सरल शब्द है) का इस आधी शताब्दी का सबसे बड़ा दोगलापन है, जो देश के एक अरब बीस करोड़ लोगों को अंग्रेजी सिखाने की महा-खर्चीली योजना का संकल्प लेती है, लेकिन साठ साल में वह देश को मुश्किल से हिन्दी के हजार-डेढ़ हजार शब्द नहीं सिखा पायी ? और उसे उन्हें सरल बनाने के लिए अंग्रेजी के सामने धक्का देना पड़ा है।
दरअस्ल, सरल-सरल का खेल खेलती हुई किसे मूर्ख बनाने की कोशिश कर रही है ? वह ‘राजभाषा’ के नाम पर देश के साथ सबसे बड़ा छल कर रही थी।

यह बहुत नग्न-सचाई है कि यह देश, अपने कल्याणकारी राज्य की गरदन कभी का मरोड़ चुका है और कार्पोरेटी संस्कृति के सोच को अपना अभीष्ट मानने वाले अरबों के आर्थिक घोटालों से घिरे सत्ता के कर्णधारों को केवल घटती बढ़ती दर के अलावा कुछ नहीं दिखता। भाषा और भूगोल दोनों उनकी चिंता के दायरे से बाहर हैं। निश्चय ही इस अभियान में हमारा पूरा मीडिया भी शामिल है, जिसने नव-उपनिवेशवादी मंसूबों के इशारों पर सुनियोजित ढंग से ‘यूथ-कल्चर’ का राष्ट्रव्यापी मिथ खड़ किया और अंग्रेजी और पश्चिम के सांस्कृतिक-उद्योग में ही उन्हें उनका भविष्य बताने में जुट गये। यह मीडिया द्वारा अपनाई गई दृष्टि उसी रॉयल चार्टर का नीति का कार्यान्वयन है, जो कहता है, दे शुड नॉट रिजेक्ट अवर लैंग्विज एण्ड कल्चर इन फेवर ऑफ देअर ट्रेडिशनल वैल्यूज। देअर स्ट्रांग एडहरेन्स टू मदर टंग हैज टू बी रप्चर्ड। इसलिए उनमें एक ‘अविवेकवाद’ पैदा किया गया ताकि वे भारतीय भाषाओं को विदा करने में देश की तरक्की के सपने देखने लगें।

कहना न होगा कि ‘लैंग्विजेज शुड बी किल्ड विथ काइण्डनेस’ की रणनीति का यह प्रतिफल है, परिपत्र। इसे हिन्दी के ताबूत में आखिरी कील समझा जाना चाहिए और इसकी चौतरफा तीखी आलोचना और भर्त्सना तक की जाना चाहिए और कहा जाना चाहिए कि वे इसे अविलम्ब वापस लें। क्योंकि सरकार की नीति का खोट खुलकर सामने आ चुका है। अंग्रेजी अखबार जिसे पढ़ कर साफ-साफ बता रहे हैंए वहीं हिन्दी के अखबार उसे छुपा रहे हैं। ऐसा करते हुए वे आग के आगे पर्दा खींच रहे हैं। यह निश्चय ही राष्ट के साथ पत्रकारिता का सबसे बड़ा धोखा कहा जायेगाा। हम इस लांछन के साथ इस संसार से बिदा नहीं होना चाहेंगे कि प्रतिरोध की सर्वाधिक चिंतनशील भाषा का एक सांस्कृतिक-रूप से अपढ़ सत्ता ने हमारे सामने गला घोंटा और हम चुपचाप तमाशबीनों की तरह देखते रहे और कोई प्रतिरोध नहीं किया। जबकि, इस परिपत्र के सहारे तमाम भारतीय भाषाओं की पीठ में नश्तर उतार दिया जाना है। यह ‘सरलता के सहार’े चुपचाप तमाम भारतीय भाषाओं की हत्या के लिए की जा रही जघन्य हिकमत है।

भाषा मनुष्य का सामाजिक-सांस्कृतिक आविष्कार है। सम्प्रेषण के साथ ही संस्कृतीकरण के मार्ग को इसी ने प्रशस्त किया। जिस राष्ट्र के पास अपनी कोई भाषा नहीं, वह सांस्कृतिक रूप से अनाथ ही होगा। ‘अपनी भाषा में ही अपना भविष्य’ खोजने वाले चीन और जापान, जिनकी भाषाएं ढाई हजार चिन्हों की चित्रात्मक लिपि है, उसी में उन्होंने बीसवीं शताब्दी का सारा ज्ञान-विज्ञान विकसित और आज वह सभी क्षेत्रों से लगभग निर्विवाद रूप से अपराजेय है। कन्नड़ सीख कर चपरासी की भी नौकरी नहीं मिल सकती का तर्क देकर भाषा को खत्म करने के लिए लोग हिन्दी के भी बारे में यही बात बोलते हुए उसके संहार के सरंजाम जुटा रहे हैं, जबकि हिन्दी में यदि हम अपने पड़ोसियों से ही व्यापार-व्यवसाय शुरू करने लगे तो हिन्दी अच्छी खासी कमाने वाली भाषा बन सकती है। भाषा का अर्थशास्त्र खंगालकर यह बताया जा सकता है कि जब मनोरंजन के कारोबार में वह कमा रही है तो वह दूसरे क्षेत्रों में भी उतनी ही कमाऊ सिद्ध हो सकती है। लेकिन, दुर्भाग्य यह कि हमने पूरे भारतीय समाजं को कभी भी अंग्रेजी के औपनिवेशक शिकंजे से मुक्त होने ही नहीं दिया या हमें हमारी सत्ताओं ने नहीं होने दिया। नेहरू ने अपनी असावधानी के क्षणों में, जो बात यू ए एन राजनय जॉन ग्रालब्रेथ के सामने लगभग पश्चात के स्वर में कही थी कि ‘आयम द लास्ट इंग्लिश प्राइम मिनिस्टर अू रूल इण्डिया’। पर इन्हें कहां मालूम था कि नेहरू जो तुम गांव गांव धूल धक्कड़ खाते हुए हिन्दी में ही बोलते बतियाते प्रधानमंत्री थे, लेकिन अब देश के पास बाकायदा अंग्रेज तो नहीं, पर अंग्रेजी प्राइममिनिस्टर तो है ही , जो संसद और अपनी पत्रकार वार्ताओं में भूल से भी हिन्दी शब्द नहीं बोलता। उसके पास हिन्दी लाल किले की सीढ़ियों पर अपने रेडिमेड रूप में आती है। वहां हिन्दी देश का गौरव नहीं, राजनीति का रौरव है।

अन्त में, मैं सारे ही देशवासियों से कहना चाहता हूं कि ये मसला केवल हिन्दी भाषा-भाषियों का नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण भारतीय भाषाओं का है। क्योंकि बकौल राहुल देव के हमें ये अच्छी तरह से ये जान लेना चाहिये कि हमारा भविष्य हमारी भाषाओं में ही है। इसलिये इस नीति का खुल कर विरोध करें। और राजभाषा विभाग को अपनी असहमति प्रकट करते हुए ई-मेल करें।

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-प्रभु जोशी
303, गुलमोहर निकेतन, वसंत-विहार
(शांति निकेतन के पास)
इन्दौर-10

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

कहानी: आत्मकथ्य

यह कहानी ‘कथादेश’ के जुलाई 2011 अंक में प्रकाशित हुई। इस पर जितनी राय मिलीं उनसे मुझे खुशी और अचरज दोनो हुए। खुशी की वजह तो वही थी जो किसी रचनाकार के लिए वास्तव में होती है कि कहानी अच्छी है, साहसिक है अच्छे से लिखी गयी है वगैरह....अचरज इस बात का हुआ कि यदि अपने समय की किसी ख़तरनाक प्रवृत्ति पर भी कहानी लिखी जाय तो कुछ ख़ास पाठक उसे व्यक्तिगत बनाकर पेश कर ही देते हैं। बहरहाल ज़रूरत तो नहीं है फिर भी यहाँ अपने ब्लॉग में आनेवालों से स्पष्ट कर दूँ कि यह कहानी केवल और केवल हमारे इस साहित्यिक दौर पर है। इसमें जो चेहरे दिखाई देते हैं वे हांडी के कुछ चावल भर हैं। -शशिभूषण



(यह आत्मकथ्य किसी पत्रिका में छपने या समारोह में पढ़ने के लिए मैंने नहीं लिखा है।यह मेरी और उनकी बात है।केवल उनके लिए है जो मेरे अंतरंग हैं,मेरे बारे में सब जानते हैं।मेरी अप्रकाशित रचनाओं के साझीदार हैं।किसी ग़लती से यदि यह सार्वजनिक हो जाए और किसी को इसमे अपना चेहरा दिख जाए तो मैं बिल्कुल जवाबदेह नहीं हूँ।यह शिल्पहीन झूठ जो कहानी या व्यंग्य बनकर कभी भी सच जैसा हो सकता है मैंने खुद को पहचानने के लिए लिखा है।कोई भी मुझे ढूँढने निकला,उन्हें पहचानने की कोशिश की तो मैं अभी से बता दूँ-मैं कोई नहीं हूँ।कही नहीं हूँ।जो इसे प्रकाश में लाएगा उसके दिमाग़ की कोरी उपज हूँ- बेनामी)

सुबह-सुबह मोबाईल स्क्रीन पर श्री.......कॉलिंग देखकर लगा मोबाइल मेरे हाथ से छूट जाएगा।यह पहली बार था।इसकी कल्पना तक नहीं की थी मैंने।सोचा यदि मैंने अभी रिसीव कर लिया तो बात ही नहीं कर पाऊँगा।काँपती आवाज़ और बढ़ी हुई धड़कने मुझे कुछ का कुछ बोलने को मजबूर कर देंगी।मैंने हड़बड़ी में साइलेंट की जगह लाल बटन दबा दिया।सोचकर काँप उठा कि उन्हें पता चल गया होगा!...उधर सुनाई दे रहा होगा….जिस उपभोक्ता को आप कॉल कर रहे हैं वह अभी व्यस्त है।मैं पसीने में नहा गया।सब खुशी की वजह से मेरे साथ हुआ।मैंने उन्हें तुरंत अपनी तरफ़ से फ़ोन लगाना चाहा।ऐसा नहीं है कि मैंने कभी उनसे फ़ोन पर बात नहीं की।की थी।अनगिन बार।पिछले छह सालों से मेरे मोबाइल रखने के गुज़रे वक्त में उनसे बातचीत का समृद्ध इतिहास है।उनके कई साक्षात्कार किए।किताबों की समीक्षाएँ लिखीं।पर हमेशा मैंने ही उन्हें फ़ोन लगाया।वे आ रहे हों तब भी मैं ही फ़ोन करके रेलवे स्टेशन उन्हें लेने गया।

मोबाइल में उधर जो व्यक्ति थे उन्हें साहित्य का सिपाही कहेंगे।जीवन में मैंने ज्यादा यात्राएँ नहीं की हैं।सच कहें तो की ही नहीं।परीक्षा,साक्षात्कार आदि के लिए दो-चार जगहों में गया हूँ।इन्हें यात्रा की कोटि में नहीं रखा जा सकता।सिर्फ जाना,लौट आना यात्रा नहीं होती।उसे आना-जाना ही कहेंगे।पर जाने क्यों मेरी हमेशा उनकी तुलना भारतीय रेलवे से करने की होती है।लोगों में लंबी दौड़ का घोड़ा आदि कहने की अनुकरणशील लत है।काफ़ी हद तक ख़ास मक़सद के लिए दौड़नेवालों को घोड़ा आदि कहना ठीक होगा।मैं उन्हें कम स्टॉप वाली लंबी दूरी की ट्रेन कहता हूँ।वह ट्रेन जिस पर सफ़र किए जाते हैं,माल की ढुलाई होती है।जिसकी पटरियाँ उखाड़ देने की कोशिश भी अनवरत होती रहती हैं।यह तुलना करते हुए मैं इस संभावना से भी इंकार नही कर रहा कि कोई विदग्ध टिप्पणीकार तुरंत कह देगा “सही कहा ट्रेन जिसे हमेशा घाटे में सरकार चलाती है।”मैं इसकी परवाह नहीं करता।विरोधियों में विलक्षण विपरीत तर्कशक्ति होती ही है।

वे पूरे देश में पैठे हैं।उनकी जड़ें अकादमिक जगत,सत्ताकेन्द्रों से लेकर जनता तक गहरी और विस्तृत हैं।प्रसिद्ध आलोचक,एक साहित्यिक संगठन के अध्यक्ष तथा लोकप्रिय,लाभकारी प्रकाशन से निकलनेवाली देशव्यापी पत्रिका के कार्यकारी संपादक हैं।उन्होंने अपनी सारी क्षमता-प्रतिभा;संगठन,पत्रिका और साहित्यकारों को एकजुट करने में लगा दी।युवाओं की नई पौध तैयार की।साहित्यिक कार्यक्रमों के अद्वितीय युद्धक संयोजक।रचना या विचार गोष्ठी जैसे आयोजन तो वे ट्रेन की शयनयान बोगी में ही कर डालें।उनके आमंत्रण पर कोई भी तत्काल गुटनिरपेक्ष हो जाए।यानी आने से इंकार न कर सके।सांप्रदायिकता और हर किस्म के साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपराजेय संस्कृतिकर्मी।मैं उनका नाम नहीं बता रहा हूँ,अंत तक बताऊँगा भी नहीं तो इसका कारण यह है कि मुझे लगता है आपके आस-पास आपका समकालीन भी कोई ऐसा व्यक्ति ज़रूर होगा।जिसके बारे में अभी से लिख लिया गया होगा कि उनके चले जाने के बाद उनकी जगह कोई नहीं ले पाएगा।उनके काम हमेशा आनेवालों का पथ आलोकित करेंगे।वे अभूतपूर्व हैं।लेकिन मैं इतना ही नहीं मानता।इससे हल्की प्रशस्ति या श्रद्धांजली हो ही नहीं सकती।मेरा दृढ़ मत है उनका अंत नहीं होगा।वे हर समय,पूरे देशकाल में रहेंगे।एक बात और उनके संबंध में इतनी बातें सुनकर कोई यह न समझ ले कि वे बहुत सयाने व्यक्ति हैं।उनकी उम्र अभी केवल पचपन साल है।

मैं उन्हीं के संगठन का छोटा-मोटा कार्यकर्ता हूँ।उनका अतिप्रिय भी हूँ। मेरी आंतरिक राय यह है कि वे साहित्य के अजेय योद्धा हैं।एक कस्बे से निकला साहित्य साधक जिसने रचनाकारों के शहर बसाए।कुछ प्रतिक्रियावादी और फासीवादी ताक़तें उन्हें साहित्य का दरोगा बोलती हैं।मैं समझता हूँ यह एक सामाजिक-सांस्कृतिक बेशर्मी है।लोगों के यह कहने का क्या तुक कि वे समझौतापरस्त हैं,मार्क्सवाद के चोले में कांग्रेसी हैं।प्रगतिशील अध्यात्मिक हैं,सिफारिशी चिट्ठियाँ लिखते हैं।नियुक्तियाँ करवाते हैं।पुरस्कार समितियों को प्रभावित करते हैं।कहीं से भी अनुदान वगैरह ले लेते हैं।उनके बेटे-दामाद उच्च पदों की लोकसेवा में लाखों करोड़ों के हेर-फेर करते हैं।हालांकि इसमें भी मुझे गरिमा दिखती है।नमक के दरोगा की तरह साहित्य का दरोगा।यह वैसी ही बात है कि निंदक भी कभी कभी कोई गहरी बात बोल जाता है।उनको क्या कहें जिनके पास निंदा के सिवाय कोई काम नहीं।कुंठा किसी का अवमूल्यन नहीं कर पाती।सच तो यह है उनके जैसे संघर्षशील प्रगतिकामी की अवमानना फलीभूत हो ही नहीं सकती।एक वही हैं जो विरोधों से और निखर आते हैं।उनके विरोधी धीरे-धीरे क्षीण होकर विलुप्त ही हो गए।उन्हें कोई अब पूछता तक नहीं।

और आज के साहित्यिक विवाद-विरोध में रखा ही क्या है ? उनकी असलियत किसे नहीं पता।इसी शहर की बात है।इसे कोई जानेगा तो बहुत कुछ साहित्यिक बहिष्कारों कि छुद्रता पता चल जाएगी।लोग मुझ पर सीधा प्रहार न करें इसलिए मैंने इसे एक कथास्थिति बनाकर लिख लिया है।मैं जानता हूँ चाहूँ तो अच्छी कहानियाँ लिख सकता हूँ।जैसी मध्यवर्गीय,फिल्मी प्रेम कहानियाँ आजकल चलन में हैं उनसे बेहतर।ज्यादा सरोकारों से युक्त।लेकिन नहीं मैंने जान-बूझकर व्यंग्य तथा समीक्षा को चुना है।मैं समझता हूँ हम किस तरफ़ के हैं जितना ही यह भी महत्वपूर्ण होता है कि हम किस विधा के हैं।सारी विधाओं में केवल मुँह मारते रहना खास तरह की लंपटई है।मैं पहले ही बता दूँ इसमें आपको मेरी भाषा थोड़ी बदली नज़र आएगी।तो यह होता ही है।सीधे मुखातिब होने और लिखने की भाषा में फर्क रखना ही पड़ता है।यह फर्क बातचीत के दैरान सबसे ज्यादा दिखाई पड़ता है।दूसरे,मैं इसे व्यंग्य की तरह दोबारा लिखूँगा।खैर,प्रसंग यह है।

जिस शहर में प्रसिद्ध युवा कवि जगन्नाथ जलज रहते थे उसी शहर में मशहूर वरिष्ठ साहित्यकार दीनबंधु उपाध्याय का घर था।दोनों ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे।दोनों मे सिर्फ़ उम्र और देखी हुई दुनिया का फर्क था।लगन,मेधा,संघर्ष क्षमता और सफलताएँ क़रीब-क़रीब एक सी।इन्हीं समानताओं के आधार पर किसी समय दोनों साहित्यकारों में गजब की एकता थी।आपसी संबंधों में मैत्रीपूर्ण अनौपचारिकता थी।जिसमें लिहाज तथा सम्मान का पूरा खयाल रखा जाता है ऐसा हार-जीत का अपनापा था।पर हवा का रुख देखते हुए तथा जलज की युवकोचित महत्वाकांक्षाओं के चलते छोटी-मोटी बहसों से टकराहटें बढ़ीं, मतभेद हुए और बढ़ते गए।

एक दिन यह देखने में आया कि लगभग समान प्रगतिवादी विचारधारा के दो अलग-अलग लेखक संगठनों में से एक ने जलज को राष्ट्रीय कमान सौंप दी।और निष्क्रिय होते जा रहे दूसरे संगठन के शिथिल संरक्षकों ने दीनबंधु को अपना मनोनीत सदस्य प्रचारित कर दिया।ऐसा होते ही दोनों के आपसी आरोप-प्रत्यारोप भी साहित्य की कोटि मे आ गए।चर्चा के विषय हो गए।नये कार्यकर्ताओं के बीच इनके पक्ष-विपक्ष की तत्परता मुख्य हो गई।

ऐसा नहीं था कि जलज को अवसरों की कमी थी।उनकी किताबें मशहूर हो रहीं थी।ईनाम भी भरपूर दिये जा रहे थे उन्हें।संगठन प्रेरित कार्यक्रमों मे वे सम्मानित हो रहे थे।वे समर्पित कार्यकर्ता भी थे।उत्साही युवकों की नयी फौज उनके कहने पर कोई भी नारा लगा सकती थी।कहीं भी विरोध प्रदर्शन कर सकती थी।पर समस्या यह थी कि उसी शहर में दीनबंधु भी रहते थे।उनकी विनम्रता तथा अहर्निश चिंतन-सृजन उन्हें एक सम्मानित बुजुर्ग की गरिमा देते थे।उनमें जल्दी जवाब देने की फिक्र नहीं थी।वे तो इसका इंतज़ार करते थे कि ऐसा विरोध हो मेरा जो सचमुच का इंटेलेक्चुअल थ्रिल पैदा कर सके।अभद्र कथन में उनकी प्रवृत्ति थी ही नहीं।उपेक्षा को अपना लेने की वजह से उनमें आ गया संतुलन उन्हें डिगा नहीं पाता था।उनके भीतर टूट-फूट होती थी लेकिन उसे भांप लेना आसान नहीं था।काफ़ी हद तक इसी से जलज के सम्मान में वहाँ कुछ कमी थी।उनके आतुर विरोधों को भी लोग जल्द ही भुला देते थे।

पर जलज की भी खासियत थी वे हार नहीं मानते थे।यह गुण उन्होंने विकराल शत्रुओं साम्राज्यवाद तथा फासीवाद से लड़ने के लिए किताबें पढ़-पढ़कर अपने भीतर पैदा किया था।चूंकि पूरे देश में ही कोई बड़ी प्रकट राष्ट्रीय लड़ाई नहीं बची थी।कानू सान्याल आत्महत्या कर चुके थे।इरोम शर्मिला को धीरे-धीरे मरते हुए सारा देश देख रहा था।इसलिए दीनबंधु या ऐसे ही मुद्दे एक प्रयोगशाला की तरह हो गए थे।उनकी अन्य बाहरी प्रयोगशालाएँ भी थीं पर हम यहाँ वो भी संक्षेप में केवल उनके ही शहर की बात कर रहे हैं।

जलज को कोई ठोस वजह नहीं मिल रही थी जिसके आधार पर दीनबंधु का नाम साहित्य के रजिस्टर से खुरचने की कार्यवाही शुरू की जा सके।या उन्हें ज़ोर का झटका ही दिया जा सके।पर जैसा कि हर बड़ी शुरुआत मामूली घटना से होती है।कुशल व्यक्तिगत विरोध को सैद्धांतिक विरोध की पहचान मिल जाती है।यहाँ भी वैसा ही हुआ।

जलज एक बार दीनबंधु को शहीदे आजम भगत सिंह पर आयोजित होनेवाले एक कार्यक्रम में निमंत्रण देने गए।दीनबंधु उन दिनों काफ़ी व्यस्त होते तो भी ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।पर वे इसलिए निमंत्रण स्वीकार न कर सके कि अगले दिन उनका व्रत था।वे सप्ताह में एक दिन व्रत रखते थे।लोगों का कहना था वे धीरे धीरे आस्तिक होते जा रहे हैं।इतना ही नहीं पूजापाठ का पाखंड भी शुरू कर दिया है उन्होंने।अच्छे वक्ता होते हुए भी वे व्रत के दौरान बोलने आने में असमर्थ थे।जलज ने इसे निराश लौटते ही मुद्दा बना दिया।ज़ोर देकर प्रस्ताव रखा कि यह भगत सिंह का अपमान है।दीनबंधु का बहिष्कार होना चाहिए।वे धार्मिक किताबें पढ़ते हैं,व्रत रखते हैं।सांप्रदायिक लोगों के साथ मंच शेयर करते हैं।मिथकों आदि की लोक स्वीकार्यता के कारणों की पड़ताल में गंभीर रूप से लिप्त हैं।वास्तव में पुनरुत्थानवादी हैं।कुल मिलाकर साम्राज्यवादी ताक़तों के साथ कबका हाथ मिला चुके हैं।

जलज द्वारा उठाए गए इन मुद्दों को राष्ट्रीय स्वीकार्यता मिली।क्योंकि दीनबंधु से असंतुष्ट रहनेवालों की खासी तादाद हो चुकी थी।फिर यह शुरू हुआ कि दीनबंधु अपनी हर रचना के साथ विवादित होने लगे।रचना छपते ही विभिन्न पतों से उन्हें अश्लील चिट्ठियाँ भी मिलने लगीं।शहर का पूरा बौद्धिक समाज उन्हें दबे-छुपे सुरुचिवादी और जनविरोधी मानने लगा।उनकी आदत नहीं थी पर मजबूरन हर बार लगभग सफाई देनी पड़ती।पलड़ा जैसा कि जलज चाहते थे उनकी तरफ़ भारी हो गया।उन्हें विरोध की ज़मीन मिल गई थी।

जिन लोगों ने जबरन दीनबंधु को अपने संगठन का महत्वपूर्ण सदस्य घोषित कर लिया था ऐसे मौकों पर उनसे देर हो जाती थी।वे थोड़ा कम सक्रिय रहनेवालों का समूह भी था।इसकी वजह वह लापरवाही भी थी कि दीनबंधु का साहित्यिक प्रताप देर से भी जलज जैसों के आरोंपों को चूर कर ही देता है।

लेकिन अब तो हद हो चुकी थी।उनके शहर में भी एक महत्वपूर्ण स्तंभ को वैसे ही लांछित करके हाशिए पर धकेला जा रहा था जैसे देश के तमाम बड़े लेखकों को साहित्य के प्राध्यापक और शिष्य-मित्र आलोचक खदेड़ने में सफल हो रहे थे।

अपने सम्मानित बुजुर्ग साथी के प्रायोजित हनन को देखकर एक बिल्कुल नये कार्यकर्ता का खून खौल उठा।जनकवि त्रिलोचन पर बड़े सम्मिलित आयोजन का लाभ उठाकर उसने विषयांतर की खतरनाक छूट लेते हुए जलज के खिलाफ़ बदले की उत्तेजना को भाषा में उल्था कर दिया।

वह बोला-“जलज जैसों को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए।वे मां-बाप का दिया अपना मूल नाम छोड़कर क्रांतिकारी नाम रख लेने में पहले ही उदघाटित हो चुके थे।साथियों,अब जलज का आशय वह बिलकुल नहीं रहा हैं जो आज़ादी की लड़ाई के समय था।जोंक भी जलज का पर्याय होता है।जलज साहित्य की जोंक हैं।अगर वे सचमुच क्रांतिकारी कवि हैं तो उन्हें आज के संदर्भों में अपना नाम कुकुरमुत्ता रखना था।रहा सवाल उनकी कविता का तो वह कैसी है? यदि विचारधारा को शिल्प की मिट्टी में गाड़ दिया जाय।उसके ऊपर कला का रंग पोत दिया जाए।फिर कोशिश की जाए कि वहाँ नीम या पीपल का पौधा न उगने पाए जो सबसे ज्यादा आक्सीजन छोड़ते हैं तो जो कविता पैदा होगी वही जलज की कविता है।जलज जैसे लोग विचारधारा के सूदखोर हैं।

युवा लेखक के इस वक्तव्य से हंगामा हो गया।पूरे आयोजन को चौपट होने में देर न लगी।अध्यक्ष महोदय की इस पेशेवर गुहार को किसी ने सुना ही नहीं कि-साहित्य को ऐसे विवादों से बचाएँ।हालांकि वे मन ही मन इस बात से काफ़ी खुश थे कि सबसे विवादित कार्यक्रम की अध्यक्षता करनेवालों में उनका नाम जुड़ गया है।यह वह दौर था जब विवादित होना ही साहित्यकार होना था।कंट्रोवर्सी सबसे ज्यादा बिक रही थी।

सभी आमंत्रितों जिनमें अधिकांश साहित्यकार ही थे तथा किसी न किसी संगठन से जुड़े हुए थे।मन ही मन अगले कार्यक्रम की तैयारी करते हुए लौटने लगे।

जलज ने गौर किया नये कार्यकर्ता में जबरदस्त जोश था।काश,ऐसे युवा अपने संगठन में होते।फिर उन्होंने ध्यान से देखा-दीनबंधु का चेहरा भी उतना ही उतरा हुआ था।उन्होने डरते हुए अनुमान लगाया कि जैसे दीनबंधु कह रहे हैं इस मौके को भी मत छोड़ना।आज से ही अभियान चला दो कि मैंने ही ऐसे व्याकुल युवा तैयार करने में लिप्त हूँ।जलज आप ही झेंप गए।

ऐसी घटनाएँ जानने के बाद भी आप मेरी स्थिति,उपलब्धियों पर पक्षपात की मुहर लगाएँगे ? उनमें चेलावाद की गंध सूँघेंगे ? जबकि मैं अपने बारे में बेहतर जानता हूँ।इस समय के हिसाब से मैं काफ़ी भावुक और भोला हूँ।मुझे अध्ययन तथा शोध से ही फुरसत नहीं।जो मुझमें चालाकी तथा योजना की बू सूँघते हैं वे दरअसल मुझसे ईर्ष्या रखनेवाले,उनके दुश्मन हैं।उन्हें खुद कुछ नहीं करना।जब सबसे ज्यादा प्रगतिशील ताक़तों को एकजुट होने की ज़रूरत है,तब कुछ तथाकथित प्रतिभाशाली या तो किसी के फटे में टांग अड़ा रहे है या अपनी मेधा के दुरुपयोग से छिद्रान्वेषण करने में लीन हैं।

मुझे इस पर भी हँसी आती है कि एक तरफ़ लोग कहते हैं मैं पढ़ता कम हूँ।दूसरी तरफ़ आरोप लगाते हैं मेरी रचनाओं में चोरी की हद तक अन्य रचनाकारों के प्रभाव हैं।भई,साहित्यिक परंपरा भी कोई चीज़ होती है कि नहीं ? यदि मेरी किसी रचना से किसी पूर्ववर्ती रचना की याद आ जाती है तो इसका आशय यही तो नहीं होता कि मैं नकलची हूँ।किसी समय में सारे अच्छे लोग एक जैसा सोचते हैं।अक्सर श्रेय स्थापितों के ही खाते में चला जाता है।

लिखने पढ़ने का शौक मुझे बचपन से था।मैंने ग्रेजुएशन में ही उनकी सारी लाइब्रेरी पढ़ डाली थी।उनकी लाइब्रेरी के बारे में मैं क्या बताउँ ? वह कई हिंदीभाषी राज्यों की राजधानियों के केन्द्रीय पुस्तकालय से बड़ी है।उसमें श्रेष्ठ आडियो-वीडियो सामग्री भी है। मैं पूर्णकालिक संस्कृति कर्मी बिल्कुल शुरुआत से बनना चाहता था।मैं सोचता हूँ कि यदि साहित्य का मेयार न भी बदल सकूँ तो कम से कम उसे एक मुकाम तक तो पहुँचाऊँ ही।बाद में मुझे थोड़ा समझौता करना पड़ा कि स्वतंत्र सृजन,आर्थिक कठिनाइयों के चलते व्यवहार में दुखद बनकर रह जाता है।आर्थिक स्वावलंबन प्रेरणाओं के लिए संजीवनी है।नौकरी को एक आवश्यक बुराई की तरह ग्रहण करना चाहिए।यदि अवसर मिले तो महाविद्यालय आदि में अध्यापन में कोई बुराई नहीं।प्रतिष्ठा,पैसा और साहित्य सेवा के लिए पर्याप्त समय के लिहाज से इससे उपयुक्त नौकरी नहीं।

मैं जानता हूँ कि आज साहित्यकार होने के लिए,महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में हिंदी की सेवा करने के लिए,किसी साहित्यिक गुट से जुड़ना ज़रूरी है।किसी विशिष्ट आचार्य,संपादक,साहित्यकार का आशीर्वाद मिलना अनिवार्य है।यह बाक़ी लोगों का भी मानना है।जिसमें मुझे सिर्फ़ यह अति खटकती है कि हर नियुक्ति केवल ऐसे ही होती है।लेकिन मैं उनसे इसलिए जुड़ा कि मुझे अपने सोच का विस्तार करना है।अपनी साहित्यिक संवेदना को विचारधारा की पटरी पर लाना है।खुद को सिद्धहस्तों के बीच रखकर मांजना है।इसका मुझे सचमुच लाभ हुआ।मेरे सम्पर्क बढ़े।मैं आधुनिक श्रेष्ठताओं से परिचित हुआ।इसने मेरी यह सहायता भी की कि मेरा रिसर्च के लिए एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में चयन हो गया।छह हज़ार रुपये महीने की फेलोशिप मिल गई।रिसर्च क्या लिखने-पढ़ने,सभा-संगत की सुविधा और मोहलत मिल गई।

तब से मैं पारिवार के छोटे सदस्य की तरह उनके सौंपे गए कामों को निष्ठा से करता आ रहा हूँ।इसमें कार्यक्रमों की रिपोर्ट बनाने,कार्ड में पते लिखने,रेलवे का टिकट करवाने से लेकर उनकी दवाइयाँ पहुँचा आना तक शामिल है।मुझे सचमुच गर्व होता है कि वे मुझे प्यार,मान,सेवा का अवसर देते हैं।मेरा खयाल रखते हैं।मेरा फोन अवश्य रिसीव करते हैं।एक बार तो मैंने उन्हें तब फोन कर डाला जब वे संगठन की कार्यकारिणी की आपात बैठक में असंतुष्टों को लताड़ रहे थे।उन्होंने पूरी बात करने के बाद बताया कि मैं अभी मीटिंग में हूँ।बाद में कोई रास्ता निकालता हूँ।मैं अपराध बोध से भर गया था।इतना सौजन्य किसी वरिष्ठ साहित्यकार में होना दुर्लभ है।इसीलिए वे अद्वितीय हैं।हिंदी में एक युग की तरह हैं।

उनका बड़प्पन देखिए कि वे कभी भी अन्यों द्वारा की गई मेरी चुगली,निंदा पर यकीन नहीं करते।कभी मेरी सार्वजनिक प्रशंसा करके दुष्टों को नहीं उकसाते।मुझ पर वे कभी अविश्वास करें यह तो सोचा ही नहीं जा सकता।दीर्घकालिक,दूरगामी संबंध के लिए ऐसा ही विश्वास चाहिए होता है।वे मेरे व्यक्तित्व की रीढ़ हैं।मेरे निर्माण में उन्हीं का हाथ है।मैं ज़ोर देकर कहता हूँ कृतज्ञता चापलूसी नहीं होती।

यद्यपि वे बड़े सहृदय,वत्सल और क्षमाशील स्वभाव के हैं पर जाने क्यों उनकी छवि का आतंक हर कोई मानता हैं।मैंने उनमें देखा कि उपेक्षा और कृपा विरोधियों,रुष्टों को चित करने के अचूक गुण हैं।अपना काम करो।उपेक्षा या कृपा में से जिसका उचित अवसर हो इस्तेमाल करो कभी पीछे नहीं लौटना पड़ेगा।लोग हाथ मलते रह जाएँगे।मैं भी इसे सीखना चाहता हूँ।उन्होंने इसी से बड़े बड़े विरोधियों का अहिंसक दमन किया है।

मै उनकी व्यावहारिकताओं से हमेशा सीखता हूँ।मुझे व्यंग्य विधा में जो थोड़ी बहुत सफलता मिली हैं वह उनके मार्गदर्शन की कृतज्ञ है।उन्होंने ही एक दिन कहा था कि खूब पढ़ो,अपने आसपास के लोगों को जोड़ो।स्थायी काम के लिए अपना समूह होना आवश्यक है।फुटकल व्यंग्य लेखों को कब तक सहेजोगे।पांडुलिपि तैयार करो।बुजुर्गों की कृतियाँ बचाने में योग दो।मैं उन्हीं के निर्देश से छोटी वय के सुबुद्ध युवकों को लगातार प्रोत्साहित करता रहता हूँ।अब मेरा तैयार किया हुआ एक छोटा मोटा साथी समूह भी बन गया है।हालांकि उसमें ज्यादा लद्धड़ ही है अभी।पर इंसान तो इंसान होता है।उसमें अनंत संभावनाएँ होती हैं।

मुझे उनकी सलाह हमेशा आदेश लगती है।उनके सिर पर हाथ रख देने भर से मेरे रोम-रोम में पौरुष और आत्मविश्वास का संचार होने लगता है।यह दुनिया मुझे बहुत छोटी प्रतीत होती है।लगता है वे कह दें तो अभी पृथ्वी के चार फेरे लगा आऊँ।मैं उसी दिन जुट गया था।मैंने दो हफ्ते में सारी रचनाएँ टाइप करा डाली थीं।उनको स्पाइरल बाइंड करा लिया।वे किसी आयोजन में मुख्य वक्ता बनकर मेरे शहर आए थे कि मैंने उन्हें लौटते समय अपने घर चलने का निवेदन किया।उन्होंने यह कहते हुए कि इतने सालों के तुम्हारे आग्रह को आज ठुकराना असंभव है मेरा आमंत्रण स्वीकार कर लिया।इस तरह मैं यह कह सकता हूँ आज कि वे मेरे इस घर में पधार चुके हैं।मेरे बहुत से विरोधी इतनी निश्छल बात को भी मेरा आत्मप्रचार समझते हैं।

वे न केवल मेरे घर आए उन्होंने मेरे बच्चों को प्यार भी किया।पत्नी को आगे पढाई ज़ारी रखने,हो सके तो शोध कर डालने की सलाह दी।यदि नौकरी करना चाहे बहू तो आवेदन करने के पहले एक बार मुझे सूचित करने में संकोच मत करना।चलते हुए बच्चों की मिठाई के लिए पांच सौ रुपये का नोट बिटिया की गदोरी में रख दिया।जो उनकी इस पारिवारिक उदारता से परिचित नहीं होगा वही उन्हें कोरा शहरी बुद्धिजीवी कहेगा।वे प्रगतिशील और पारंपरिक दोनों हैं।यह उनकी सीमा नहीं भारतीय अर्थों में प्रतिबद्धता है।

तभी मैंने सकुचाते हुए पांडुलिपि उन्हें दिखायी थी।उन्होने उसे उलटा पलटा था लेकिन मुझे लौटाना भूल गए थे।मांग लेने में मुझे संकोच हुआ था।बाद में मैने जो सुना उस पर मुझे यकीन ही नहीं हुआ।उस दिन मैंने यों ही उनका एक वक्तव्य जो दक्षिणपंथी ताक़तों के विरोध में था पढ़कर फोन किया था।उन्होंने एकदम विषय बदलते हुए मुझे चौंका दिया।“कोई कह रहा था तुम्हारा व्यंग्य संग्रह छपकर आ गया है।उसकी दो प्रतियाँ मुझे जल्दी भेजो।पत्रिका के इसी अंक में रिव्यू चला जाएगा तो ठीक होगा।वरना फिर लगातार विशेषांक निकालने की योजना है।यदि फलाने ने अपनी अराजकता के चलते बीच में ही छोड़ दिया तो उनमें से एक की ज़िम्मेदारी तुम्हें भी सम्हालनी पड़ सकती है।यद्यपि यह सही वक्त नहीं है कहने का,इसे अपने तक ही रखना।सभी लोगों की राय है कि आगे तु्म्हे ही पत्रिका सम्हालनी है।सहायता के लिए मैं रहूँगा।दरअस्ल मैं कुछ दिनों का रचनात्मक एकांत चाहता हूँ।इसके लिए विदेश यात्रा ही ठीक रहेगी।”

मैं संकोच और दोहरे उल्लास में स्तब्ध था।यह बताना भी भूल गया था कि मुझे तो मालूम तक नहीं।यद्यपि मुझे भरोसा था वे कह रहे हैं तो झूठ नहीं हो सकता।फिर मैं याद करने लगा था कि किस प्रकाशक को भेजने की बात उन्होंने कही थी।जब मुझे याद आया तो मेरी प्रसन्नता असीम थी।और खुश संयोग भी देखिए उसी के तीसरे दिन किताबों का बंडल मेरे घर आ गया।बेटे ने कक्षा में टॉप किया।पत्नी उसी दिन नौकरी की बजाय घर में ही रहकर पढ़ाई-लिखाई में मेरा सहयोग करने को राज़ी हो गई।मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा और प्रगाढ़ हो गई थी।

मेरी आत्मा ने दोहराया मैं कभी उऋण नहीं हो सकता।सब कुछ उनका ही दिया तो है मेरे पास।मैं अपनी पूरी निष्ठा से उनका आजीवन साथ दूँगा।उनके सौंपे कामों, दी गई ज़िम्मेदारियों को आगे बढ़ाऊँगा।लोग मेरी इस कृतज्ञता को नहीं समझ पाने के कारण मुझे चाटुकार की गाली देते हैं।लेकिन मन ही मन उनकी निकटता चाहते हैं।मैं परवाह नहीं करता ऐसे पिछड़े निंदकों की।मेरा मानना है यह श्रद्धा को चाटुकारिता समझनेवाले मूढ़ों की संख्या बढ़ जाने का दुष्परिणाम हैं।संक्रमण के दौर में जब कोई बड़ा ध्येय साथ न हो,लोग अपनी सारस्वत परंपरा को भूल जाएँ तो यही होता है।यह हमारे समय का खोट है।यहाँ भी ब्राह्मणवाद तथा बाज़ार ही हावी है।जबकि मैं जनवादी वर्तमान का सच हूँ।उनकी उम्मीदों का सबसे निस्वार्थ लेखक,कार्यकर्ता हूँ।

यह क्या वे दुबारा काल कर रहे हैं…मैं फोन उठा लेता हूँ।हलो,प्रणाम सर,पैर छू रहा हूँ।वे कह रहे हैं-“सुनो अपनी किताब लोग अब भी जीते हैं की दो प्रतियाँ अमुक पुरस्कार के लिए भेज दो।समय ज्यादा नहीं बचा है।आजकल में ही भेज दो तो विचार करने में सहूलियत होगी।”जी,जी सर।मेरे मुह से निकला।लेकिन अपनी किताब को तो मैं ही इस पुरस्कार के लायक नहीं मानता सर।ढंग से किताब को आए छह महीने भी नहीं हुए हैं और इसकी ज्यादातर रचनाएँ अप्रकाशित हैं।मैं समझ रहा हूँ ऐसा बोलकर अपनी किसी किस्म की महत्वाकांक्षा से उनको अपरिचित रखना चाहता हूँ।पर इतनी समझदार आत्मरक्षा बुरी नहीं।वे समझाते हैं “रचना के संबंध में पाठक लेखक से बड़ा जज होता है।एक बार पुरस्कार मिल गया तो लोगों का ध्यान जाएगा।समीक्षा और पुरस्कार में ज्यादा फर्क नहीं।दोनों लोगों का ध्यान खींचने का काम करते हैं।तुम किताब भेजो बाकी बातें बाद में करेंगे।”

मैं मन ही मन गहरे आत्मतोष में था।लेकिन जानबूझकर विलंब किया।फिर यह सोचकर कि उस दिन तक ज्यादा देर नहीं कहलाएगी सोमवार को किताब भेज दी।

आपको विश्वास नहीं होगा ठीक एक महीने बाद उनकी पत्रिका के प्रूफ़रीडर और मेरे बचपन के मित्र ने मुझे फोन करके बताया कि तुम्हारी किताब को पुरस्कार मिलने की सूचना संगठन की ओर से प्रेस में जा रही है,बधाई हो…मैं उससे चहककर कहता हूं घर आओ तो साथ-साथ मुह मीठा किया जाए।तुम्हारी भाभी भी यही कह रही है।मेरे इस मित्र पर भी वे बहुत विश्वास करते है।हालांकि संकोची होने,खराब स्वास्थ्य,लेट लतीफ़ स्वभाव की वजह से वह अपना हक़ आज तक नहीं पा सका है।उसकी निष्ठा ही है कि वह पत्रिका के प्रचार प्रसार में भी कोई कसर नहीं रखता।कई बार खुद ही बंडल बुक स्टालों में पहुँचाता है।रचनाएँ भेजने के लिए लेखकों को याद दिलाता है।अपनी नौकरी और परिवार के साथ उसके इस समर्पण को समझने लायक यह समाज अभी तक हो ही नहीं पाया है।उसके संबंध में भी लोग गंदी बातें करते है।मज़ाक उड़ाते हैं-अवसरवादी है,हकलाता है।किसी भी तरीक़े से हमेशा उनके कृपाकांक्षियों की सूची में खुद को सबसे ऊपर रखता है।

जैसा कि उन्होंने कहा था मेरे चारों ओर बधाइयों का तांता लग गया है।मैं मन ही मन महसूस कर रहा हूँ।सर,सब आपका ही आशीर्वाद है।दुनिया जिसे पुरस्कार समझ रही है वह वास्तव में आपका आशीष है।पर बिना आशंसा के कोई भी बौद्धिक मार्ग तय भी तो नहीं होता।बहुत संभव है उनकी अनुशंसा ने ही मुझे यह सम्मान समय रहते मिलने में मदद की हो।यह सच भी हो तो भी यह मेरी प्रतिभा का ही प्राप्य है।इस संबंध में उन लोगों की ईर्ष्यालू निंदा की मुझे परवाह नहीं जो ऐसे ही किसी अवसर के लिए मुँह फाड़े रहते हैं।मैं क्या देख नहीं रहा हूँ कि मेरे दुश्मनों,प्रतिद्वंदियों के चेहरे उतर गए हैं।दुबक गए हैं सब।एक बधाई तक देने में छाती फट रही है।इधर उधर से निंदा की गंध फैला रहे हैं।

आरोप लगा रहे हैं कि उन्होने पहले ही तय कर लिया था।औपचारिक पुष्टि के लिए मुझसे पुरस्कार चयन समिति को किताब भिजवायी।क्योंकि बिना किताब भेजे तो अब भी किसी को पुरस्कृत नहीं किया जा सकता।कैसी कैसी कहानी,फैंटेसी गढ़ने में माहिर हैं लोग।मसलन उन्होंने मुझसे कहा कि तुम किताब भेजो।और हाँ मैं कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहा हूँ।निर्णायक मंडल के लिए किन्हीं तीन लोगों को पत्र भेज दो और साथ ही लिख दो कि निर्धारित मानको के आधार पर प्रारंभिक छँटनी हमने खुद कर ली है।यह एकमात्र पुस्तक इस योग्य हमें लगी है सो आप लोगों की स्वीकृति या अस्वीकृति जैसा आप उचित समझे के लिए भिजवा रहा हूँ।प्रारंभिक चयन में अयोग्य पायी गयी किताबों को इसलिए नहीं भेजा जा रहा है कि आपका समय और डाकव्यय व्यर्थ न जाए।ध्यान रखना कि पत्र मेरे लेटर पैड पर ही लिखना।हस्ताक्षर की जगह मेरी सील का प्रयोग करना।

अब आपही सोचिए ऐसी कलुषित भर्त्सनाओं को क्या जवाब दें।समय मुझे सिद्ध करेगा।मैं निश्चिंत हूँ।मेरा काम आगे भी बोलता रहेगा।मैं हमेशा यह लाइने दोहराता हूँ-काल तुझसे होड़ है मेरी…


-शशिभूषण
मो.-09436861488

मंगलवार, 21 जून 2011

जितना हो पाया है उससे भी कम खुशी नहीं

कहानियों से बचपन से रिश्ता रहा है। पिताजी का एक बहुत पुराना झोला जो शायद पुराने पैंट के कपड़े से बनाया गया था किसानी के सामानों ‘खरिया’ और ‘गड़ाइन’ के साथ टँगा रहता था। उसी झोले से मैं प्रेमसागर निकालकर पढ़ता था। बाद में उसी झोले में पिताजी के बी.ए. की हिंदी की किताबें मिली जिनसे मैंने प्रेमचंद, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश, हरिशंकर परसाई, मन्नू भंडारी की कहानियाँ पढ़ीं। वे जल्द ही खतम हो गयीं तो दुबारा पढ़ीं। फिर जाने कितनी बार.. किताबों की ऐसी भूख पैदा हुई कि नींद में कहानी की किताबों के सपने आते। लंबी लंबी कहानियाँ, कितना भी पढ़ो, कभी खतम न होनेवाली। पर उन्हे पढ़ पाने के पहले ही नींद टूट जाती। नींद अक्सर सपने से छोटी होती।

उसी उम्र में अम्मा मुझे कहानियाँ सुनाया करती। मैं अम्मा के किस्से दादी और दूसरों को सुनाया करता। अम्मा से सुने मेरे किस्से बुआ सुनतीं, किताबों में पढ़ी कहानियाँ नाना सुनते। मुझे अम्मा के सुनाए राजा-रानी, हाथी, बंदरों के किस्से आज तक याद हैं। उसी कच्ची उम्र में मैंने महाभारत पढ़ा। पंचतंत्र, हितोपदेश, बैताल पच्चीसी, सिंहासन बत्तीसी और तोता मैंना के किस्से पढ़े। ये कहानियाँ किसी एक जगह न ठहरनेवाले मेरे पाँवों को रोके रखतीं। मेरा मन बँधा रहता। मैं कहानियों के आगे सोचा करता। मन में हर वक्त कोई न कोई फंतासी चलती रहती। छुट्टियों में जब ननिहाल जाता तो छोटी मौसी के रैक से चुरा-चुराकर, छुपकर सस्ते किस्म के, रोमानी-जासूसी उपन्यास पढ़ता। रात-रात भर !

मुझे कहानी बिल्कुल अपने आस पास की, जानी-पहचानी, औपन्यासिक रूप में तब मिली जब मैं नवमीं में पढ़ता था। बड़े भाई के कॉलेज का पहला साल था। एक दिन मैंने उनका साइकिल में टँगा झोला टटोला। झोले में गणित की किताबों के बीच एक कुजात किताब मिली। लेकिन उसके कवर पर बड़ी जानी पहचानी तस्वीर थी। फोटो के सिर के ऊपर लिखा था गोदान । फोटो के नीचे प्रेमचंद। सर्दी के दिन थे। घर में कोई रिश्तेदार आए थे। पिताजी उनके साथ कहीं जा रहे थे। रास्ता साफ़ था, देखनेवाला कोई नहीं होगा। हल्की-फुल्की मनाही भाई के सो जाने पर मैंने छुपाकर पढ़ना शुरू किया। रात बीती जा रही थी पर किताब नहीं खतम हो रही थी। वह पूरी हुई जाकर नौ बजे सुबह। मैं बेजान। स्तब्ध। हारा हुआ। आँख से आँसुओं की धार....। होरी क्यों मर गया? धनिया का रोते हुए कहना- लीजिए पंडित जी इन्हीं पैसों से गोदान करा दीजिए, आत्मा में बिंध गयी थी। मेरा ही जैसे सब कुछ खत्म हो गया था। खेती उजड़ गयी थी। लेकिन यह चमत्कार भी हुआ उसी दिन कि गाँव में बेचैन भटकते हुए मेरे पाँव ज़मीन पर मज़बूती से पड़ रहे थे। जैसे भीतर कोई बीज अँखुआ रहा था। उस दुख में बल मिला था। एक सच्ची किताब की आत्मा मेरी आत्मा का सिर सहला गयी थी। उस दिन मेरे मन में दो खयाल आये पहला- मुझे प्रेमचंद बनना है। दूसरा-संसार की सब कहानियाँ पढ़नी हैं। मैं अपने एकांत में प्रेमचंद की तस्वीर देख-देखकर रोया करता। मुझे इस बात से बड़ा दुख पहुँचता कि इतने महान कहानीकार के गाल पिचके हुए हैं, काया दुर्बल है। इतनी कम उमर में चले गये।

मेरे बचपन के दोनों संकल्प आज तक पूरे न हो सके हैं। आगे भी कोई संभावना नहीं। एक तरह से अब मैंने बचपन में छुपकर पैसे बोए थे.. टाइप के इन संकल्पों को बचपन के ही सपने मानकर मुस्कुरा पड़ना सीख लिया है। प्रेमचंद बनना संभव होता तो अब तक यह पद खाली न होता। पर तब मैंने डँटकर हिंदी पढ़ने का मन बना लिया था तो उससे पीछे नहीं हटा। बी.ए. करने का सोचते-सोचते बी.एस.सी. कर गया। एम.एस.सी. करने के दिन आने ही वाले थे कि राजेन्द्र यादव की पत्रिका हंस जो आग चुनती है में एक दिन दिनेश कुशवाह की समीक्षा पढ़ने को मिली। समीक्षा कहानीकार नमिता सिंह के कहानी संग्रह निकम्मा लड़का की थी। शीर्षक था-‘ले देकर एक संगी साथी इन आँखों का पानी’। मुझे झटका लगा। हंस में छपनेवाला लेखक रीवा में रहता है और मैं जानता तक नहीं। फिर इन्हीं की कविता इंडिया टुडे में पढ़ी-इसी ‘काया में मोक्ष’। गजब है। मन में इच्छा गहरायी कैसे मिला जाए!

उसी साल युवा उत्सव में मेरा पहली बार ग्वालियर में दिनेश कुशवाह जी से मिलना हुआ। वे जनसत्ता के सांस्कृतिक पत्रकार अजित राय जी के साथ कोई गंभीर संस्मरणनुमा साहित्यिक चर्चा कर रहे थे। मैंने दोनों की बातचीत सुनी। ध्यान से। मेरा कस्बाई साहित्यिक मन उनके राष्ट्रीय पहुँच का मुरीद हो गया। दिल ने कहा- यदि मैं हिदी में एम.ए. कर डालूँ तो मुझे बहुत सी किताबें यों ही पढ़ने को मिल जाएँगी। इनके घर में भी किताबें होंगी। मैंने आनन-फानन तय कर लिया हिंदी में एम.ए. करना है। एम.एस.सी. करके ट्यूशन पढ़ाते रहने से बेहतर होगा जे.आर.एफ़ निकालकर यूजीसी की फेलोशिप ली जाये और रिसर्च के बहाने भी चुपचाप कहानियाँ-उपन्यास पढ़े जायें। यदा-कदा कहानियाँ लिखीं भी जायें।

अब यूजीसी कहानियाँ पढ़ने-लिखने के लिए फेलोशिप देने से रहा इसलिए कहानियों पर ही शोध कर डालने का उपाय सूझा। यह बात और है कि मैंने कालांतर में प्रेमचंद बनने की बजाय कहानीकार बनने का विचार अपना लिया और जैसे-जैसे कहानियाँ पढ़ता गया शोध ग्रंथ लिखना मुश्किल होता गया। बाद में फेलोशिप भी जिस तरह रुला-रुलाकर आधी-अधूरी मिली उसका तो लंबा वृत्तांत है। इसी बीच देवेंद्र की नालंदा पर गिद्ध जैसी कहानी और विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास नौकर की कमीज़ जो पढ़ डाले। लेकिन ज़िम्मा लिया था और फेलोशिप ली थी तो मुकरा नहीं। नतीजतन समकालीन हिंदी कहानीः मूल्यों का द्वंद्व और विमर्शों का सच विषय पर शोध ग्रंथ दिनेश कुशवाह जी के निर्देशन में आखिरकार बीते 8 जून को जमा हो ही गया। अब जबकि शोध-प्रबंध लिखकर जमा कर चुका हूँ मुझे हृदय से खुशी, फुर्सत और कृतज्ञता अपने पूरे आवेग के साथ महसूस हो रही हैं। कोई बड़ी ज़िम्मेदारी संपन्न होने पर अंदाज़ा होता है कि यह केवल इरादे, संकल्प तथा श्रम के बल पर ही पूरी हो पायी। इस लायक सामर्थ्य तो हममें थी ही नहीं।

यहीं एक बात कहना चाहता हूँ कि कहानी हमेशा से लोगों को प्रिय रही है। लोग सदा से इसकी ओर आकर्षित होते रहे हैं। कहानी से प्रभावित हो जाना और कहानी से प्रभावित कर लेना मनुष्यों की आदिम मनोवृत्ति रही है। इसीलिए राजाओं ने अपनी कहानी लिखवाई और फकीरों ने दुनिया की कहानी सुनायी। कहानी, संसार में अब तक नैतिक-सामाजिक शिक्षण की सबसे कारगर विधि रही है। क्योंकि कितनी ही घोर अँधेरी रात में वह सुनायी गयी हो लोगों को सुबह तक नींद नहीं आयी। अच्छी कहानी हमेशा भुनसारे पूरी हुई है। कहानियों पर अधिकार कर लेने का इतिहास स्वतंत्र रूप से भले न लिखा गया हो पर दुनिया में कहानियाँ ही हारी-जीती हैं। हम लोग कहानी सुनते-सुनाते ही इसीलिए हैं कि एक दिन जनता की कहानी जीतेगी। राजा की कहानी हारेगी। आज तक दिये और तूफान की कहानी रुकी नहीं है।

इस नवपूँजीवाद, बाज़ारवाद और उत्तर आधुनिक समय में भी कहानी पर अधिकार और कहानी को मुक्त करने की भावना ही विमर्शों, आंदोलनों की जन्मदात्री है। कैसा भी युग रहा हो सच्ची कहानी सदैव मूल्यों के लिए कही-सुनी-लिखी जाती रही है। अपनी सीमाओं के बावजूद मेरा संकल्प यही था कि समकालीन कहानी के विस्तृत फलक पर मूल्यों के टकराव और विमर्शों के सच की पहचान की जाए। जितना चाहता था उतना तो नहीं कर पाया हूँ पर जितना हो पाया है उससे भी कम खुशी नहीं।

शुक्रवार, 10 जून 2011

प्रियंवद का नया उपन्यास धर्मस्थल एक पाठक की नजर में

यह टिप्पणी प्रद्युम्न जड़िया की है। वे साहित्य के शौकिया पाठक हैं। शुरुआत में सात-आठ साल पत्रकारिता करने के बाद बत्तीस वर्षों तक आकाशवाणी रीवा में उद्घोषक रहे। आजकल सेवानिवृत्ति के बाद पढ़ने और लिखने में जुटे हैं। खूब पत्र लिखते हैं। उपन्यास के कवर की तस्वीर अंतिका प्रकाशन की वेबसाईट से साभार।

बया में प्रकाशित प्रियंवद के उपन्यास धर्मस्थल की पात्र योजना में कथावाचक है विजन, जो इंजीनियर होकर विदेश में जा बसा है। यह है कथानायक कामिल का बालसखा। धर्मस्थल का सूत्रधार यही है। कामिल की पत्नी न बन सकी प्रेयसी-सी है दाक्षायणी; जो बेहद महत्वाकांक्षिणी है; और जिसकी मुखमुद्रा, मुद्राओं (धन) के दर्शन से ही, लगता है खिलती-खुलती है। यह कामिल की ओर बेतरह आकर्षित होती है और शादी तक करना चाहती है। पर कामिल, अपने पिता को अंत तक त्याग नहीं पाता और दाक्षायणी ही उसे त्याज्य मान-समझ लेती है। कामिल की विवशप्राय दशा का चित्रांकन प्रियंवद ने पूरी तार्किक परिणति, कल्पनाशीलता, सौंदर्यबोध, और ज़िम्मेदारी से किया है। बड़े भाई द्वारा पिता की उपेक्षा किए जाने के दुख-संताप से पीड़ित कामिल की पिता के प्रति भक्ति आदि भी बयान हुई है गहन् आंतरिक सहानुभूति और तलस्पर्शी भावुकता के साथ। यहाँ प्रियंवद भावुक, दार्शनिक, इतिहासविद, सौंदर्यबोध संपन्न आदि एक साथ प्रतिभासित होते हैं।

पूरे किस्से में गॉडफादर जैसे हैं बाबू आनंदस्वरूप जो कामिल को कचहरी में काम देते-दिलाते हैं टायपिंग आदि का और धीरे-धीरे कामिल कचहरी को धर्मस्थल के स्वरूप में अभिहित करते हुए भी गहरे में वितृष्णा रखता है कचहरी के प्रति। लेकिन “ दिलफरेब हैं ग़म रोज़गार के ” वाली उक्ति के चलते, राग-विराग वाला उसका यह कचहरी (धर्मस्थल) के प्रति रिश्ता आखिर-आखिर तक बना तो रहता ही है।

मून कामिल का संगी है। जिसका भोजनालय है और जो कचहरी के कामों का और-और विस्तार करता-कराता है कामिल के लिए। प्राय: मून के भोजनालय में ही सज़ायाफ्ता मुज़रिमों के रिश्तेदार कामिल से मिलते हैं और कामिल मून के सहयोग से; उन्हें उनके रिश्तेदारों से मिलवाने, उनकी सज़ा में कैसे छूट मिले, ज़मानत मिले, खाना आदि कैसे पहुँचे, पेशियों के दौरान रिश्तेदारों की मुलाकात कैसे हो आदि का प्रबंधन करता है और पैसे कमाता जाता है। कैटेलिक एजेंट या उत्प्रेरक का काम, कामिल के लिए लगातार दाक्षायणी ही करती है। उसे खूब पैसेवाला पति जो चाहिए। यह और बात है कि उपन्यास के अंत तक दाक्षायणी की इच्छा पूरी नहीं हो पाती और वह खिन्नमन, विषण्ण मुकाकृतियों से जब तब कामिल को दुत्कारने लगती है। कामिल एक अन्य पात्र गंगू की मुन्नी (कमलेश कुमारी कौशिक) को टायपिंग आदि सिखाता है और कचहरी के कामों में उससे ही सहायता लेना शुरू करता है। दाक्षायणी को भी दूसरा साथी मिल ही जाता है।

उपन्यास का सबसे मुख्य पात्र है या सुसंबद्द आकर्षक व्यक्तित्व का धनी रहा है कामिल का मूर्तिकार पिता ! यह ऐसा मुर्तिकार है जो अपनी दृष्टि की भास्वर निर्मलता, सोच की उदग्र उदात्तता के लिए, अपनी सौंदर्योन्वेषिनी दृष्टि के लिए, मूर्तिशिल्प हित हेतु किए गए अपने चिंतन के लिए पाठक की संवेदना में गहरे-भीतर जा धँसता है। प्रियंवद की यह खूबी है कि वे पाठक को जतला देते हैं कि उन्होंने कामिल के पिता की सम्यक सृष्टि हेतु, उनके समग्र व्यक्तित्व-विकास हेतु ही सारे पात्र सिरजे हैं, कथा का ताना-बाना बुना है।


कामिल के मूर्तिकार पिता माँ की मूर्ति बनाने में अड़चन महसूस करते हैं और यह जानकर कि कामिल किसी कन्या को चाहता है तत्काल कह उठते हैं कि कामिल उसे उनके सामने लाए। लेकिन दाक्षायणी पूरी बात जान-समझ कर भी नहीं आती कामिल के पिता के सामने और यक्ष प्रश्न सा उपस्थित कर देती है “ यदि मैं तुम्हारे पिता की माँ हुई तो तुम मेरे क्या हुए ? ” यह संबंध तय हो जाए या कामिल इस दशाविशेष, संबंधविशेष को कोई नाम-संज्ञा दे दे तो वह राज़ी हो जाएगी। दूसरी बात भी है दाक्षायणी के मन में कि कामिल उसका होकर रहे उसी के घर में; और पिता को भी ले आए। पर यह नहीं संभव होता (कथाकार ही शायद संभव नहीं होने देता) और उपन्यास की खूबसूरत इंतिहा होती भी है और नहीं भी।


अब शिल्प, शैली, भंगिमा, कथोपकथन आदि की बात कहें तो प्रियंवद की लेखन यात्रा में ऐसा धर्मस्थल दुबारा संभव शायद ही हो। यह प्रतीकात्मक रूप में और खुले रूप में भी भारतीय न्याय व्यवस्था के वधस्थल या क़त्लगाह होते जाने का मारक और बेधक दस्तावेज है। यह यथावत आयातित भारतीय दंड संहिता जो साक्ष्यों पर अवलंबित है और हमारे न्यायालयों की संविधान सी है में वर्णित और अदालतों में जारी साक्ष्य की पूरी प्रविधि पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है। साक्ष्यों का महत्व वहाँ होता है जहाँ गवाह पढ़े-लिखे और ईमानदार हों। बिकी हुई गवाहियाँ न्याय को हत्यारा बना देती हैं।

इतनी खूबसूरती से इस उपन्यास को रचा गया है कि अचरज होता है कि मूलत: इतिहासविद माने जानेवाले प्रियंवद, मूर्तिशिल्प के कितने गहरे जानकार हैं; सौंदर्यबोध के कितने तल-स्तर पहचानते हैं; कितनी भाषिक सधाव वाली दार्शनिक मनोदशा है उनकी। मूर्तिशिल्प की भाषा में 96 अंगुल में मूर्ति के भौंह, होंठ, नासिका, मुख, नाभि आदि की नाप पेश करते हैं वे और संस्कृतज्ञ की भाँति श्लोकों की भी उद्धरण भरमार करते जाते हैं।

धर्मस्थल में इतना ही भर होता तो शायद आज के नज़रिए से यह अप्रासंगिक हो जाता लेकिन कचहरी के भीतर होते घात-प्रतिघात, वकील-जज-मुवक्किल आदि की दाँव-पेंच भरी बारीक जानकारियाँ भी प्रियंवद पाठकों को परोसते चलते हैं। पाठक स्तंभित लगभग स्तब्ध रह जाता है कि कहीं वकील काले कौव्वे तो नहीं ? जज जल्लाद तो नहीं ? मुवक्किल, कचहरी के मकड़जाल में फँसा, दिन-दिन मरता निरीह कीड़ा तो नहीं ? ऐसे सवाल उठा पाने में वे सफल रहे हैं। साथ ही इस भीषण-पाषाण न्यायिक दुर्दशा की कथा की अंतर्धारा में भी स्मृति, मित्रता,त्याग, समर्पण, पितृ सेवा, वंचक-अतृप्त प्रेम की सुधा प्रवाहित करने में पूर्णतया सफल रहे हैं। तभी तो यह पूरा उपन्यास दृष्टांत बन-बनकर याद में कौंधता है। ऐसे समय में जब पाठक भूलते जाने का शिकार होता जा रहा है।

प्रियंवद इस उपन्यास में केवल सवाल ही नहीं उठाते पाठक को जागरूक-सचेत करते हैं और उसके अंत:करण का आयतन विस्तृत करते हैं। बया की उपलब्धि है धर्मस्थल। धर्मस्थल की उपलब्धि है मूर्तिकार पिता की शख्सियत। नारी चरित्र की विचक्षण-विलक्षण प्रतीक है दाक्षायणी। इस उपन्यास की एक और उल्लेख्य उपलब्धि है गंगू का मुन्नी के प्रति और उसका गंगू के प्रति लगाव। प्रियंवद यशस्वी हो, ऐसा ही कोई नायाब तोहफ़ा हिंदी साहित्य को फिर सौंपें।
-प्रद्युम्न जड़िया

बुधवार, 25 मई 2011

कहानी और कहानीपन

बिना कहानी के भी समाज की कल्पना की जा सकती है भला! जिन्हें यह लगता हो कि तब गीत से काम चल जाता तो उन्हें यह पहले सोच लेना चाहिए कि तब गीत होते ही नहीं। गीत, कहानी की कोख से पैदा होते हैं। कहानी जननी है गीतों की। कोई ऐसा गीत किसी को पता भी हो जिसमें कहानी न हो तो हमारा पूरा यकीन है उसे कम से कम गाने के लिये, गानेवाले को गाने लायक बनने के लिए कहानी की ज़रूरत पड़ेगी। यह चमत्कार हो भी जाए कि कहानी से अनजान कंठ गीत गा पाये तो सुनने वाले तब तक नहीं गुन पाएँगे वह गीत जब तक उन्हें कहानी का आसरा नहीं होगा। गीत के कान हैं कहानी और कहानी की आँख हैं गीत।

फिर भी हम सोचे कि कहानी नहीं है हमारे पास तो तुरंत खयाल आ जाता है केवल प्रयोजनमूलक शब्द व्यापार जिंदगी को असंभव बना देगा। कितनी नीरस होगी वह दुनिया जब एक ही छत के नीचे रहनेवाले या परस्पर मिलने वाले लोग केवल काम की बात करेंगे। बातों में स्मृति न हो, कल्पना न हो, फंतासी न हो तो वे बातें भले ही कितनी उपयोगीं हों क्या हृदय में रह पाएँगी? क्या पुराने लोग यों ही कहते आ रहे हैं कि सच बात के लिए भी झूठ के परथन की ज़रूरत होती है। तभी वह सबके गले का हार बनती हैं।

बातें रोचक हों तो जीवन के प्रति लगाव पैदा होता है। इसकी प्रत्यक्ष सिद्धि या गणितीय निष्पत्ति खोजने चलेंगे तो कुछ हाथ नहीं लगेगा। यह नाता वैसा ही है जैसा जीभ का स्वाद से। जब जीभ से स्वाद कम होने लगता है तब जीवनी शक्ति क्षीण होने लगती है। मज़ेदार बात कि जीभ से स्वाद जाने की कहानी होती है तो जीवनी शक्ति क्षीण होने की भी कहानी ही होती है। बातों से जब यादें विदा हो जाती है तो वे उस रसीले गन्ने की तरह ही होती हैं जिनमें मिठास नहीं होती। बिना कल्पना के यथार्थ सूखे आटे जैसा होता है। फंतासी न हो तो कथा बिना रुई की रजाई होती है।

हर किसी की मुराद होती है कि वह कहानी बने। लोग उसके किस्से सुनायें। हम अपने वर्तमान में खूब इसीलिए कमाना चाहते हैं कि भविष्य में जब हम न हों तो हमारे बारे में ढेर स्मृतियाँ हों। यदि कहा जाये कि हर कमाई के बदले हमारी छुपी माँग स्मृति ही होती है तो अत्युक्ति न होगी।

आप सोचिये यदि कहानियाँ न होतीं तो यह दुनिया कैसी होती? मैं तो यह सोच ही नहीं पाता। मुझे लगता है कि कहानी न होती तो हम आसमान से बातें न कर पाते। हरियाली देखते तो खूब उसे समझ न पाते, पेड़ों-चिड़ियों का दुख न जान पाते। पहाड़ों, झरनों, नदियों के दिल के हाल न जानते। हमारा कोई सपना चमकीला न होता, हमारा कोई गीत गाढ़ा न होता। बादलों में आकृतियाँ न बनतीं। सपनों में कोई राजकुमारी या राजकुमार न आते। हमारा इतिहास न होता। इतिहास न होता तो सभ्यता न होती। सभ्यता न होती तो हम उत्तरोत्तर संस्कृत न हो पाते।

कहानी से अपने इतने रिश्ते जानते हुए भी अब अगर आप पूछें कि कहानी से कहानीपन चला जाय तो क्या होगा तो आप ही बताये कोई क्या जवाब देगा?

गुरुवार, 12 मई 2011

इंतज़ार

मेरे लिए तुम्हारे इंतज़ार में
महीनों काटना मुश्किल नहीं होता
जितना तुम्हारे पास पहुँचने से पहले का एक दिन
तुम्हारे सामने होने से पहले का एक घंटा ज्यादा मुश्किल होता है
उससे भी भारी होता है तुम्हारा सीढियों से नीचे आने में लगा एक मिनट
मेरी वीरान आसानी है मेरे-तुम्हारे बीच का लंबा अरसा
सबसे मुश्किल होता है तुमसे पहले का सबसे छोटा लम्हा।

मंगलवार, 3 मई 2011

कहानी: नौकरी


रमा मास्टरनी हो गई। पयासिन दाई गाँव में घूम-घूमकर बताती हैं।

पयासिन दाई फुरसत हैं। सुबह से खउनही जून तक,दोपहर खाने-सोने के बाद मजूरी बेरा तक पयासिन दाई के पास घर के चबूतरे में बैठे रहने के अलावा कोई काम नहीं। वहीं गाली-गलौज,राम नाम सब निपटाती हैं। आती-जातियों से हाल-चाल,कुशल-क्षेम का आदान-प्रदान करती हैं। धूप होते या ढलते ही निकल जाती हैं। किसी के भी घर में जम जाती हैं। कैसी हो? क्या हो रहा है? के बाद सुनिए उनकी चिरपरिचित रटें। वही आँसू। पयासिन दाई आधी पागल हैं। किसी दिन पूरी पागल हो जाएँगी। गाँववाले कहते हैं।

“पुतऊ,जान्या रमा मास्टरनी हो गई।”
“हाँ दाई तुम्हीं ने तो बताया था। अच्छा हुआ।”
“मैं कहती हूँ अब तुम भी अपनी बिटिया को पढ़ाओ। बइया नौकरी करेगी तो घर के दिन बहुरेंगे।”
“पढ़ती तो है दाई पर दसवीं ही नहीं पास हो रही तो क्या करे कोई। हमारे यहाँ किस चीज़ की कमी है पर विद्या भी लगता है घुरहों को ही आती है। रमा के घर एक नई लुगड़ी का इंतज़ाम नहीं। दवा-दारू को रकम नहीं पर वह पढ़ती गई। मास्टरी पा गई। एक हमारी लड़कियाँ हैं। एक गिलास पानी नहीं मांग सकते। फैसन और टीवी के सिवा दूसरा काम नहीं। पर पढ़ाई की पूछो तो जैसे गोबर भरा है दिमाग़ में।”
“मैं कहती हूँ अब रमा की महतारी राज करेगी। बिना पढ़ी-लिखी लड़कियों की मां को दुख के सिवा कुछ नहीं। ज़िंदगी भर आँसू। दुनिया भर से फरियाद। कोई नहीं सुनता। लड़की सुखी रहे यही ज़िंदगी का पुन्न है बहू।”
“राज क्या करेगी दाई ! क्या रमा का ब्याह अब बिना दइजा के हो जाएगा? क्या लड़केवाले उसके घर आँएगे बरिक्षा की रकम नारियल लेकर? जीभ दसा कर कहेंगे कि हमें अपनी मोड़ी दे दो। जैसा फिल्मों में होता है। मैं तो जानती हूँ वैसा तो नहीं होनेवाला। ज़माना वही रहेगा दाई। बल्कि और मुसीबत होगी। रमा खेतिहर लड़के से ब्याह करेगी नहीं। नौकरीवाले से करने की औकात नहीं। पाँच हज़ार रुपिट्टी महीना और शहर की चाकरी में घर का दलिद्दर दूर नहीं होगा।”
“कौन कहता है पुतऊ कि घर का दलिद्दर दूर हो जाएगा। ब्याह भी सेंत में नहीं होगा। लेकिन रमा किसी के आगे हाथ नहीं पसारेगी। औरत के लिए इससे बड़ा वरदान नहीं। मेरी सितुआ कमा रही होती तो क्या उसका घाती मनुष उसे छोड़ आता? मजे से दूसरा ब्याह कर पाता? मेरे हाथ में कमाई होती तो मैं उसे जेल की चक्की न पिसवाती? लेकिन कुछ नहीं कर पाई मैं। मेरी फूल जैसी बिटिया,मोर करेजा दवाई बिना मर गई।”

पयासिन दाई सुबकने,अँचरा से आँखें पोंछने लगीं। जब वे ऐसी सीखें देने के बाद रोने लगती हैं तो कोई उन्हें गंभीरता से नहीं लेता। कोई कोई तो मत रोओ भी नहीं कहतीं। सबने यह मान लिया है कि वे गाँव में ऐसी खबरें ढूँढती फिरती हैं जिसके बहाने अपनी सितुआ का दुखड़ा रोया जा सके। कभी कभी वे हबूक (झूठी खबरें) भी फैलाती हैं कि फलानी ने अपने पति को लात से कूटा। जिसकें यहाँ दाई जा बैठी होती हैं वे तब अपने काम में लग जाती हैं।
“दाई नागा मत मानना आज बहुत काम पड़े हैं। तुम आराम से बैठो।”
कोई कोई लड़ भी जाती हैं। लेकिन तब दाई ही जीतती हैं। वजह कोई न कोई डाँट देता है
“क्या डोकरी के मुँह लगती हो।”

राम प्रताप पयासिन दाई के पति हैं। कई साल के बीमार। कभी जवानी में दमा हुआ था। फिर टीवी ने पकड़ लिया। आजकल दोनों बीमारियाँ साथ-साथ हैं। बिजली विभाग में लाइनमैन के पद से रिटायर होने के बाद अब वे ज्यादातर अस्पताल में ही रहते हैं। बीमारियाँ,तकलीफ़ स्थायी सी हो गई हैं। जब उनमें अप्रत्याशित वृद्धि होने लगती है तो खुद ही जाकर भर्ती हो जाते हैं। गाँव से शहर जानेवालों में से कभी कोई कभी कोई खाना पहुँचा देता है। थोड़ा आराम होने या पहले जैसा महसूस होनेपर वे अस्पताल से खुद ही लौट आते हैं।

पयासिन दाई के दो देवर हैं। बेटा एक भी नहीं। दोनों का खाना पीना छोटे देवर के बड़े लड़के के यहाँ होता है। बेटी के बारे में विस्तार से जाने की ज़रूरत नहीं। सिर्फ़ इतनी ही कहानी है उसकी। चौदह साल की उम्र में ब्याह हुआ। गौने के बाद तीन साल में पहली बार मायके आई। फिर बुलाने कोई नहीं आया ससुराल से। पिता गाँववालों के ताने सुन सुनकर एक दिन खुद ही छोड़ आए ससुराल। वहाँ दूसरे हफ्ते वह बीमार पड़ी। एक इतवार उसके मरने का समाचार आया।

उस दिन आठ बार बेहोश हुईं थीं पयासिन दाई। गाँववाले भी समझ गए थे कि वहाँ क्या हुआ होगा। पर यह सब होता ही रहता है लोगों ने सोचा। कुछ संवेदनशील लोगों ने दाई को समझाया

“लड़की मरने का दुख सबको होता है। लेकिन क्या किया जा सकता है। ज़माना ही ऐसा है। लड़की के लिए आसमान सिर पर उठा लेना ठीक नहीं। कोर्ट कचहरी के लिए और भी बातें हैं। यह सब तुम्हारे बस का भी नहीं।”

पयासिन दाई की उम्र अस्सी के पार पहुँच रही है। पढ़ी-लिखीं नहीं हैं। दाढ़ें नहीं हैं। आँख-कान अपनी भूमिका निभा चुके जितनी निभानी थी। कुल मिलाकर वे लाचार हैं। पर उनकी आवाज़ और गर्मजोशी में कोई फर्क नहीं पड़ा है। एक भी अच्छी बात का युवकों से ज्यादा उत्साह से स्वागत करती हैं। किसी भी मसले पर रुचि लेती हैं। इसे ही अधिकतर उनका पागलपन समझा जाता है।


इन दिनों पयासी जी अस्पताल में हैं। तबियत में गंभीर गिरावट जारी है। लेकिन अस्पताल आने-जानेवाले पयासिन दाई को संदेश बताते हैं-वे ठीक हो रहे हैं। पयासिन दाई की दशा यह है कि वे ठीक होकर आएँ या उनकी लाश आए तभी सही-सही जानेंगी।

रमा गोबर पाथ रही है। पयासिन दाई उसके घर के पास से गुजर रही हैं। वह बाल्टी में हैंडपंप से पानी लेने उठती है कि पयासिन दाई सामने हैं।
“कौन?...रमा हो?...”
“हाँ दाई मैं रमा ही हूँ। कहाँ से आ रही हो?”
“तनी पास आओ लाला,मोर करेजा तुम्हे देखे कितने दिन हो गए।”
“दाई मेरे हाथों में गोबर लगा है। तुम भीतर चलकर बैठो। मैं हाथ धोकर आती हूँ।”
“अरे,गोबर लगा है तो क्या हुआ मैं कोई रानी महरानी हूँ। तुम्हें देख लूँगी और चली जाऊँगी। जल्दी में हूँ। तुम्हारे पयासी बाबा को खाना भिजवाना है। मैं जब तक पीछे न पड़ूँ बहू भूली रहती है।”

उन्होंने बढ़कर रमा के गाल चूम लिए।

“तुम्हारी ड्यूटी आई कि नहीं।”
“आ गई है दाई। पर अभी मेडिकल होना है। यह हफ्ता लग जाएगा।”
“हो जाएगा मेडिकल में क्या रखा है। तुम्हें नज़र बस न लगे किसी की। तुम मेरी भी नज़र उतार लिया करो। मैं बड़ी अभागन हूँ। वरना क्या अपनी ही बेटी को नज़र लगा देती। हाँ…तुम पहले दिन स्कूल जाओ तो मेरे पास ज़रूर आना। मैं द्वारकाधीश का प्रसाद खिलाऊँगी।”
“दाई तुम्हारा तो आशीर्वाद लगता है। मैं इतनी सुकुमार नहीं। ये तो बताओ आज खाना कौन लेकर जाएगा। मैं रीवा जा रही हूँ। अस्पताल तक चली जाऊँगी।”
“तुम जा रही हो तो तुम्हीं लेते जाना। किसी का कोई ठिकाना थोड़े है। तब मैं जल्दी जाती हूँ खाना लेकर तुम्हारे घर रख देती हूँ।”
“तुम रहने दो मैं मुन्नू से मँगवा लूँगी।”

पयासिन दाई कुछ सोचकर ठिठकीं। रमा ने पूछा

“क्या सोच रही हो? ”
“सोच रही हूँ बेलावाली क्या इतनी सुबह खाना बना पाएगी। वह तो दस बजे के पहले बनाती नहीं।”
“तो कोई बात नहीं चार रोटी तरकारी मैं अपने घर से लिए जाऊँगी।”
“ऐसा कर लो तो बहुत नीक हो बेटा। तुम जैसी बिटिया भाग्यवान के घर आती हैं। द्वारकाधीश की कृपा हो कि तुम्हें बहुत बड़ा घर-वर मिले।”

रमा तैयार होकर नौ बजे घर से निकली। कंधे में बैग। हाथ में टिफिन का झोला। माँ-बाप भोर से खेत में है। धान की निदाई चल रही है। दोनों छोटे भाईयों को नहलाया खिलाया। वे स्कूल जाएँगे। छोटा तीसरी में पढ़ता है दूसरा पाँचवी में। उसके चलते चलते एक साल की छोटी बछिया रंभायी। गाँयें हुँकरी। उसे याद आ गया। लौटकर उसने सबके सामने चारा डाल दिया। बछिया के सामने रखी पानी से आधी भरी बाल्टी हटा दी।

तीन किलोमीटर चलने के बाद वह तिराहे पर पहुँची। सिर पर ओढ़ा हुआ दुपट्टा गर्दन और गालों के पास बिल्कुल भीग गया था। अभी साढ़े नौ ही बजे थे लेकिन सावन की बिना बादलोंवाली धूप बड़ी कड़ी थी। उमस भरी गर्मी असह्य थी। यहाँ से शहर के लिए टैक्सी मिलेगी। अब ऑटो भी चलने लगे हैं। मगर यहीं से चलनेवाले ऑटो में सात रुपये लगते हैं। दूर से आनेवाली टैक्सियाँ पाँच रुपये में मान जाती हैं।

रमा जिस जगह खड़ी है उसके पीछे बाणसागर की नहर का पुल है। वह उसी पुलवाली कच्ची सड़क से पैदल चलकर आई है। पुलवाली सड़क से सीधा आने पर वह जिस मुख्य सड़क से जुड़ती है उसके उत्तर में रीवा है और दक्षिण में गोविंदगढ़। रमा तिराहे पर खड़ी जीप का इंतज़ार कर रही है। उसे रीवा जाना है। पर गोविंदगढ़ से आनेवाली जीपें खचाखच भरीं हैं। दाएँ-बाएँ,पीछे सवारियाँ झूल रही हैं। उसकी हिम्मत नहीं हो रही कि हाथ दे। हालांकि उसके हाथ देनेपर जीप रुक जाएगी। कोई बैठी सवारी झूल जाएगी। उसे किसी तरह बीच की सीट में ठूँस दिया जाएगा। ऐसे ही तो आती-जाती रही है वह। कभी बैठने को मिल गयी हो जगह तो देर ही हुई है। कि जब तक कुछ और सवारियाँ नहीं आ जातीं। गाड़ी नहीं जाएगी। गाड़ी चलने का एक ही नियम गिरी हालत में भी सारी सीटें फुल हों।

रमा ने एक हाथ से हैंडपंप चलाया। दूसरे हाथ के चुल्लू में पानी भरकर मुँह में पानी के छींटे मारे। उसे ठंडक महसूस हुई। पैदल चलने की थकान थोड़ी कम लगी। दुपट्टे से मुँह पोंछ लिया। धुधुरियाया साँवला चेहरा निखर आया। इंतज़ार करनेवालों में अगर कोई जनाना न हो तो रमा को बड़ी झेंप महसूस होती है। अपने भीतर ही सिमटती रहती है। आस पास पान की गुमटियों,पंचर की दुकानों में खड़े लोग जैसे सब काम छोड़कर उसे ही देखने लगते हैं। वह अक्सर हवा से अपना दुपट्टा,उड़ते कुरते को ही सम्हालते खीझ जाती है।

उसने सिर-मुँह में दुपट्टा लपेट लिया। जबसे मोबाईल आया है उसे देखते ही कोई न कोई छोकरा ऊँची ध्वनि पर गाना बजा ही देता है। इसी तरह आते-जाते उसे पाँच साल हो चुके हैं। इस डर से कि लौटने में अँधेरा न हो जाए उसने कभी कॉलेज के किसी फंक्शन में भाग नहीं लिया। सहेलियों की शादी में नहीं गई। दिन में ही डर लगता है उसे कि जिससे हँसकर बात कर लो वही पीछे पड़ जाता है। किसी के साथ भी चार क़दम चल लो चर्चाएँ ज़ोर पकड़ लेती हैं। वह नहीं चाहती मेरे पीछे कोई कहानी चले। तब भी बातें करने वाले,मौक़े ढूढ़नेवाले हर समय तैयार रहते हैं।

“रीवा...रीवा...रीवाsss। आइए मैडम।”

एक जीप आकर बिलकुल उसके पैर के पास खचाक से रुक गई। रमा घबराकर पीछे हट गई। सदा मौजूद रहनेवाला एक काले रंग का नौजवान लपका। ड्राइवर से चीखकर बोला “देखकर गुरू मैडम के ऊपर चढ़ा दोगे क्या ?” ड्राइवर हँसा “देखकर ही चलातें हैं दादा आप फिक्र न करें।” “क्या देखकर चलाते हो बे अभी मैडम नीचे आ जातीं।” उसने आँख मारी। ड्राइवर के कंधे में धौल जमाकर बोला “अब बढ़ाओ जल्दी।और हाँ मैडम को अच्छे से ले जाना।” ड्राइवर ने जवाब में कुछ नहीं कहा सिर्फ़ मुस्कुरा दिया। रमा बैठ गई थी। गाड़ी आगे बढ़ गई।

रमा की पिछली सीट से किसी ने कहा “गाँड़-मुँह भर है और गुंडई करते हैं। बहन बेटी नहीं समझते।” दूसरे ने जोड़ा “अभी सवा शेर के पाले नहीं पड़े है वरना दादागिरी कब की पिछवाड़े घुस गई होती।” इतना सुनकर ड्राइवर ने जैसे सार्वजनिक माफ़ी मांगी “हम ऐसे नहीं हैं। रोड में डेली चलना पड़ता है इसलिए लिहाज़ कर जाते हैं। किसी दिन मुंडा सनक गया तो बहनचोद,ऊपर से ले जाएँगे गाड़ीsss..” रमा सुनती रही। उसका खून खौलता है पर जब्त करना,मुँह न लगना,समय से पहुँच जाना ही उसने अपने लिए चुना है। कोई फायदा नहीं सब साले एक जैसे हैं। कोई मदद को नहीं आता। बस मौक़ा चाहिए। छेड़ने या हमदर्दी दिखाने का।


जीप अस्पताल चौराहे पर रुकी। रमा उतर गई। उसने दस का नोट दिया। कंडक्टरी कर रहे छोकरे ने कहा “छुट्टा दीजिए मैडम। ”ड्राइवर ने डाँटा “इधर ला नोट।” उसने रमा को पाँच रुपये लौटाते हुए कहा “लीजिए मैडम-लौंडा बकचोद है।”

रमा ने अस्पताल की चौथी मंजिल के सभी वार्डों में खोज लिया। पयासी जी कहीं नहीं थे। तब उसने तीसरे वार्ड में जा रही नर्स से पूछा। नर्स ने उसे एक छोटे से आफिस में भेजा। वहाँ उसे पता चला कि पयासी जी की छुट्टी हो गई है। किसके साथ गए। अचानक कैसे रिलीव कर दिया गया? पूछने पर जूनियर डाक्टर ने कहा “यह बताने के लिए रजिस्टर देखना पड़ेगा। इसके लिए अभी मेरे पास टाईम नहीं है।” इतनी दूर आना बेकार गया। मन ही मन कोसती हुई वह पैदल लगभग दो किलोमीटर दूर ज़िला अस्पताल की ओर चली। जहाँ उसे अपना फिजिकल फिटनेस सर्टिफिकेट बनवाना है।

गुरुवार को ज़िला अस्पताल में मेडिकल के लिए बोर्ड बैठता है। समय से यानी ग्यारह बजे तक पहुँच जाओ तो दो बजे तक सर्टिफिकेट मिल जाता है रमा को उसकी सहेली ने बताया था। इसके अलावा वह कुछ नहीं जानती थी कि क्या क्या करना पड़ता है। हालांकि अस्पताल में मेडिकल बनवानेवालों की भीड़ थी। लोग खुद ही एक दूसरे को बता रहे थे कि क्या क्या होना है। यह अच्छा हुआ कि वह अपना ज्वाइनिंग आर्डर लेती आई थी। उसे दिखाने पर ही फॉर्म दिया जा रहा था। रमा ने फार्म लिया उसे भरकर देने गई तो क्लर्क ने कहा “पहले जाँच करवा लीजिए। तब फार्म के इस हिस्से को कंम्प्लीट करके जमा कीजिए।”
उसने ग़ौर से पढ़ा। आई टेस्ट,यूरीन टेस्ट,ईसीजी और एक्स रे करवाने होंगे। रमा इन लंबी चौड़ी जाँचों के बारे में कुछ नहीं जानती थी। उसे कभी कोई बीमारी नहीं हुई। छह साल पहले मलेरिया हुआ था। तब खून की जाँच करवायी थी। फिर साल दो साल में कभी सर्दी जुकाम हुआ तो चाय या काढ़े से ही ठीक हो गया था। पर इसे कोई नहीं मानेगा। जाँच तो करवानी ही होगी। वह आगे क्या करूँ। पहले कहाँ जाऊँ की मानसिकता में उन लोगों की ओर बढ़ी जिनके बारे में उसे अनुमान था कि नौकरी के लिए ही मेडिकल करवाने आए होंगे।

अस्पताल के आफिस के बाहर यह नीम के पेड़ का चबूतरा था जहाँ तीन युवक खड़े थे। उन्हीं में से एक से उसने पूछा “मेडिकल के लिए जाँचें कहाँ हो रही हैं?” उस दुबले पतले सांवले युवक ने हाथ के इशारे से जाँच की अलग अलग जगह दिखायीं। रमा ने पहली बार ग़ौर किया कि अस्पताल निर्जन नहीं यहाँ तो भारी भीड़ है। मैं शायद पिछले गेट से आ गयी। मुख्य द्वार से आती तो यह जनता देख ली होती। वह युवक को शुक्रिया बोलकर आगे बढ़ी। युवक ने किंचित रोकते हुए उससे पूछा

“आपका सेलेक्शन किसमें हुआ है?”
“संविदा वर्ग-एक में।” रमा ने बताया।
“मेरा भी संविदा में ही चयन हुआ है।”
“अच्छा। आपका किस वर्ग में हुआ है? ”
“वर्ग तीन में। जगह भी घर से सौ किलोमीटर दूर है। लेकिन ज्वाइन करने के अलावा कोई चारा नहीं। आपका तो वर्ग एक अच्छा है। कौन सी जगह मिली है? ”
“जगह तो मेरी भी दूर ही है। सिहोर ज़िला पंचायत में है। अभी पता नहीं कौन सा स्कूल है? ”
“वो तो काऊंसिलिंग के बाद ही पता चलेगा।”
“हाँ।”

वह आगे बढ़ गई थी। युवक की दिलचस्पी देखकर उसमें बात करने की इच्छा जगी थी। पर उसने खुद को रोक लिया था। संबंधित जगहों की भीड़ देखकर उसे लग रहा था कि यदि समय से लाईन में नहीं लगी तो टेस्ट नहीं हो पाएँगे। सब कुछ अगले हफ्ते तक के लिए स्थगित हो जाएगा। यद्यपि काऊंसिलिंग के लिए दस दिन का समय है पर अन्य तैयारियाँ भी करनी हैं। वैसे भी संविदा में मिलनेवाली स्कूलों,तनख्वाह की चर्चाएँ उदास ही करती हैं। यह भी कोई नौकरी है। मरते क्या न करते का किस्सा है।

सारे शिक्षकों को वर्ग एक,दो,तीन में बदल दिया गया था। प्राइमरी के लिए वर्ग तीन। सेकेंन्डरी के लिए दो और सीनियर सेकेन्डरी के लिए वर्ग एक। हर वर्ग के लिए अलग-अलग अखिल भारतीय परीक्षा हुई थी। इस नौकरी के लिए भी परीक्षार्थी लाखों की संख्या में उमड़ पड़े थे। नियुक्तियाँ प्रदेश स्तर पर पंचायतों के अधीन हो रही थीं। नगर निगम,ज़िला पंचायत,जनपद पंचायतो के अन्तर्गत विद्यालय आवंटित किए जा रहे थे। वेतन क्रमश: ढाई हज़ार,साढ़े तीन हज़ार और साढ़े चार हज़ार। बाकी कोई सुविधा नहीं। तनख्वाह ज्वाईन करने के बाद कम से कम छह महीने बाद मिलनी शुरू होगी। नियमित मिलेगी या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं। काम पढ़ाने के अलावा जनगणना से लेकर चुनाव ड्यूटी तक कुछ भी करना पड़ेगा। यह सब बताने में भी शर्म आती है। लेकिन रमा को यही नौकरी मिलने पर गाँव,शहर,कॉलेज में जिस तरह ऊँची नज़रों से देखा जाने लगा है इससे अंदाज़ होता है कि बेरोज़गारी कितनी विकराल है।

वह भीड़ चीरती हुई तेज़ी से उस रूम में पहुँची जहाँ एक जूनियर संविदा डाक्टर सभी जाँचों के लिए पर्ची लिखकर दे रहा था। लाईन में लगे मर्द,औरतों ने उसे तीखी नज़रों से देखा। एक ग्रामीण औरत ने ज़ोर से कहा-दिखती तो पढ़ी लिखी है पर लाईन से बाहर जाने में शर्म नहीं आती। रमा तिलमिला गई। उसने ग़ौर से देखा। दिखने में तो इतनी तेज़ नहीं है। कोई पुरुष होता तो क्या तब भी ऐसे ही बोलती? सच तो यह है उसे लाईन जैसा कुछ दिखा ही नहीं था। लेकिन उसके कुछ बोलने से पहले ही डाक्टर ने कहा “इन्हें मेडिकल बनवाना है। चलिए सब लाईन में आइए। लीजिए आप। उधर चले जाइए।”

पहला आई टेस्ट था। वह नेत्र चिकित्सक के कक्ष में पहुँची। वहाँ पहले से एक छह सात- साल का बच्चा कुर्सी पर बैठा था। उसका मोटा चश्मा देखकर वह सिहर गई थी। चश्में के काँच के पीछे बच्चे की आँखें क़रीब क़रीब सफ़ेद थीं। बच्चा सुंदर था। दुबला पतला। कुम्हलाया गोरा रंग जैसा अत्यधिक धूप में रहने से हो जाता है। किसी खेतिहर का बेटा होगा। उसने सोचा। डाक्टर के कहने पर उसकी कमज़ोर,दयनीय माँ ने बच्चे को उठा लिया।

“आपको क्या तक़लीफ़ है?” अधेड़ डॉक्टर ने रमा से पूछा। उसने पर्ची आगे बढ़ा दी।
“मेडिकल सर्टिफिकेट के लिए चेकअप कराना है।”
“अच्छा...आपको चश्मा लगता है? ”
“नहीं। यह धूप के लिए है।”
“आँख में कभी कोई तकलीफ़ हुई? ”
“नहीं सर।”
“बैठो।”
डाक्टर के कहने पर रमा उसी कुर्सी पर बैठ गई जिसमें थोड़ी देर पहले वह दुर्बल बच्चा बैठा था। सामने एक बोर्ड था जिसमें अंग्रेज़ी वर्णमाला के अक्षर लिखे हुए थे। डॉक्टर के कहने के अनुसार रमा ने क्रमश:दाईं,बाँईं आख को बंद करके सभी अक्षर पढ़ दिए। डाक्टर ने ओके कहा। रमा के फार्म में उसकी दृष्टि का विवरण लिख दिया। अब उठिए उसने रमा से कहा तो वह झेंप गई। “जी।थैंक्यू सर...” वह बाहर आ गई। यह डाक्टर संविदा नहीं होगा! सब कुछ तो आसान ही है। उसे खुशी और आत्मविश्वास महसूस हुए।

वह सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आई तो भीड़ में खोजने लगी। किससे पूछूँ? एक नर्स को उसने पीछे से आवाज़ दी “सुनिए मैडम।” वह पीछे मुड़ी “क्या है?” रमा ने करीब आकर बिल्कुल धीरे से पूछा “पेशाब की जाँच किधर होती है?” “उधर...” दायेँ हाथ से इशारा कर नर्स चली गई।

रमा उस दरवाज़े के सामने थी। जिसके ऊपर दीवाल में पुती नीली स्याही के ऊपर सफ़ेद अक्षरों में लिखा था। पेशाब की जाँच यहाँ होती है। उसने अंदर देखा। यहाँ भी भीड़ थी। पर कोई औरत नज़र नहीं आ रही थी। वह सहमी हुई भीतर दाखिल हुई। यहाँ गोल छेद और उनके ऊपर जालियोंवाले दो काउंटर थे। एक से खाली शीशियाँ मिलती तथा जमा की जा रही थी। दूसरे से रिपोर्ट मिल रही थी। कमरे में अँधेरा जैसा था। पेशाब और रसायनों की मिली जुली अजीब गंध थी। उसने स्विच बोर्ड के आधार पर बल्ब या ट्यूब लाईट देखनी चाही तो वहाँ खाली था। पंखा भी देखने से लग रहा था सालों से नहीं चला होगा। उसमें मकड़ियों ने जाल बुन रखा था।

जब वह कमरे में घुसी उसने महसूस किया था कि सब उसे ही देखने लगे हैं। वह शीशी मिलने वाली कतार में लग गई। पहले तो इच्छा हुई थी कि बग़ल से सीधे काउंटर पर ही पहुँच जाऊँ। जल्दी से शीशी लेकर भागूँ। पर उसे उस खड़ूस औरत की भौंकती सी आवाज़ याद आ गई थी। यहाँ किसी ने बोल दिया तो लोग कैसे देखने लगेंगे।...वह नज़रें झुकाए खड़ी खड़ी आगे की ओर खिसकती रही। उसे वरदान सा लगा कि लाइन में कोई मर्द उसके पीछे नहीं है। वह आखिरी है।

बीस मिनट बाद उसका नंबर आ गया। उसने पर्ची आगे बढ़ा दी। कम्पाउंडर ने पर्ची के साथ उसे भी ग़ौर से देखा। फिर अंदर जाकर एक दराज़ से छोटी सी शीशी ले आया। रमा को पकड़ा दी। यह वैसी ही शीशी थी जैसी होमियोपैथी की गोलियों की होती है। उसने रमा को बताया-वापस यहीँ जमा करना है। बीस मिनट लगेंगे। रिपोर्ट बग़ल के काउंटर पर मिलेगी। अभी बीस रुपये जमा कर दीजिए।

रमा ने टिफिनवाला झोला वहाँ ज़मीन पर रखने की बजाय हाथ में ही फँसाकर बैग से निकालकर बीस रुपये दिये। जल्दी से बाहर आ गई। दरवाज़े के बाहर की खुली हवा में उसे राहत महसूस हुई। पर अब अगली चिंता थी “ट्वायलेट किधर है?” आसपास तो कहीं नहीं दिख रहा। उसने परेशान नज़र से फिर किसी नर्स की तजवीज शुरू की। कोई नहीं दिख रही थी। वह उस जगह आई जहाँ कुछ औरतें खड़ी थीं। एक से पूछा “यहाँ ट्वायलेट कहाँ है?” एक सीधी सादी औरत ने कहा

“यहाँ कहीं नहीं है। उधरवाला जो है उसमें किसी ने टट्टी कर दी है। मर्द भी भरे होंगे। बाहर ही किसी ओट में चले जाओ। पर कहाँ जाओगी यहाँ तो कोई झुरमुट भी नहीं है। यहाँ लोग हैं। उधर होटल हैं। पीछे कोई आफिस है और सामने सड़क देख ही रही हो। अस्पताल क्या है कोई औरत निर्लज्ज न हो तो लाज से मर जाए…”

रमा ने इतनी असहायता कभी महसूस नहीं की थी। उसकी कल्पना में भी ऐसा अस्पताल नहीं आया था। इसके अलावा तो वह पानी ही कम पीती थी। एक बार घर से निकलने के बाद लौटकर घर में आती थी। वह रुआँसी हो गई। फटीचर नौकरी के लिए इतनी ज़िल्लत!...यहाँ सुलभ काम्प्लेक्स भी पास नहीं। पर जाँच तो ज़रूरी है। उसने पाँच किलोमीटर दूर चौराहे पर स्थित सुलभ काम्प्लेक्स जाना तय किया।

रमा को लौटने में एक घंटा लग गया। उसने काऊंटर पर जाकर शीशी जमा की। कंम्पाउंडर ने पहले ही बता दिया। मैडम एक घंटा लगेगा तब तक एक्स रे वगैरह करवा लीजिए। वह क्या बहस करती। बाहर निकल आई।सीधे वहाँ पहुँची जहाँ एक्स रे हो रहा था। संयोग कहिए या क़िस्मत वहाँ आज भीड़ नहीं थी। जब रमा पहुँची सुबह मिला वही युवक एक लंबे चौड़े पीले लिफ़ाफ़े में एक्स रे का निगेटिव लेकर निकल रहा था। वह रमा को देखकर मुस्कुराया। रमा ने अपनी मुस्कान रोक ली। जवाब में सिर्फ़ देखा।

यहाँ उसने फिर एक फ़ार्म भरा। सौ रुपये की रसीद कटवायी। कम्पाऊंडर ने कहा “मैडम चेस्ट का एक्स रे होगा। शरीर में कोई धातु की चीज़ नहीं होनी चाहिए। रमा ने पहले समझा ही नहीं। जब उसे समझ आया तो वह सकुचा गई। यहाँ भी कोई एकांत नहीं था। उसने कम्पाउंडर से डरते डरते कहा-आप थोड़ी देर के लिए बाहर चले जाइए। उसने जल्दी से अपना ब्रा उतारकर बैग में रख लिया।

चलो यह मुसीबत भी निपटी। यहाँ भी निगेटिव एक घंटे बाद मिलेगा। सूखने में समय लगता है। कुछ नहीं कर सकते। सबकुछ कितना गंदा है। हे भगवान मैने इतना लुंज-पुंज,घटिया अस्पताल सोचा तक नहीं था। वह करीब करीब भागती हुई ईसीजी के लिए कक्ष में पहुँची।

वहाँ उसने पर्ची दिखायी। एक रजिस्टर में नाम पता लिखकर हस्ताक्षर किए। उधर चले जाइए महिला क्लर्क ने कहा। वह दूसरे कक्ष में पहुँची तो वहाँ हरे रंग के पर्दों से तीन ओर से घिरा हुआ एक बेड था। उसके बग़ल में ऊँचा टेबल था। जिसमें प्लग से लगी हुई तारों वाली कोई मशीन थी। कमरे में दो व्यक्ति थे। एक डॉक्टर के यूनीफ़ार्म में दूसरा साधारण ड्रेस में। यह डाक्टर भी संविदा ही होना चाहिए रमा ने सोचा। फिर उसे खुद ही कोफ्त हुई “मैं भी क्या हर समय संविदा ही पहचानती रहती हूँ!”

युवा डॉक्टर ने रमा का स्वागत मुस्कुराकर किया। उसका सहायक भी मुस्कुराया। सहायक ने रमा से पूछा “पहले कभी इसीजी करवाया है?” रमा ने इंकार में सिर हिलाया। सहायक तुरंत पलटा और उसने दरवाज़ा बंद कर दिया। डाक्टर ने रमा को झोला और बैग एक छोटे से स्टूल में रख देने को कहा।
“अब इधर आ जाइए। ” रमा बेड के पास पहुँची। उसे सहायक का दरवाज़ा बंद करना आपत्तिजनक लगा। “आपने दरवाज़ा क्यों बद कर दिया? खोलिए उसे।” सहायक ने कोई जवाब नहीं दिया। डॉक्टर ने शांत भाव से कहा
“कुर्ते को गले तक उठा लीजिए और लेट जाइए।”
“ यह कैसी बत्तमीज़ी है? आपको शरम नहीं आती कपड़े उतारने को कह रहे हैं। और आप श्रीमान जीsss” “दरवाज़ा खोलिए।” रमा बोलते बोलते काँपने लगी थी।
“आप शांत रहिए। ईसीजी में यह करना पड़ता है। हमें कुछ मसीनें लगानी होती हैं जो कपड़े के ऊपर से नहीं लगायी जा सकती। यह ज़रूरी है। दरवाज़ा इसलिए बंद किया गया है कि बाहर भीड़ है। लोग घुस आते हैं। डॉक्टर ने जवाब दिया।”
“मुझे नहीं कराना ईसीजी। ” वह जाने लगी
“मत कराइए हम आपको बुलाने नहीं गए थे। पर यदि कराना है तो जैसा कहा जा रहा है करना पड़ेगा।”
“यदि यही सब करना पड़ता है तो यहाँ लेडी डॉक्टर क्यों नहीं है। आप लेडी डॉक्टर बुलाइए।”
“लेडी डाक्टर छुट्टी पर है। अगर आपको उन्हीं से करवाना है तो एक महीने बाद जब वो आएँगी तब करवा लेना।”
रमा को लगा जैसे ग़ुस्से और अपमान से उसके दिमाग़ की नस फट जाएगी। वह अपना झोला,बैग उठाने लगी। सहायक ने समझाया
“मैडम नाराज़ मत हों। डाक्टर भगवान का रूप होता है। इससे ज्यादा आपसे क्या कहें? ” “आप पढ़ी लिखी समझदार लग रही हैं। फिर भी इतना ग़ुस्सा कर रही है।”
“पढ़ी लिखी हूँ इसीलिए तो। आपको लेडी डाक्टर बुलाना पड़ेगा। और हाँ मुझे सीख देने की कोई ज़रूरत नहीं।”

रमा तेज़ी से दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गई। वह पसीने से भीगी हुई थी। उसे तब ज्यादा हैरानी हुई जब उसने देखा बाहर इसीजी के लिए लड़कियों की लाईन लग गई है ये इतनी कहाँ से आ धमकीं? अभी तक तो कोई नहीं थी। क्या इन्हें भी पता नहीं? उसने आश्चर्य से भरकर सोचा। तभी अंदर से अगले की पुकार आई। एक लड़की अंदर चली गई। रमा की जैसी हालत हो रही थी उसे देखकर एक लड़की से पूछे बिना न रहा गया
“क्या हुआ ? आपका टेस्ट हो गया? ”
“नहीं”
“क्यों अंदर डाक्टर तो है न? ”
“डॉक्टर तो है लेकिन लेडी डॉक्टर नहीं है।”
“उससे क्या हुआ ? ”
“जेन्ट्स है और जाँच के लिए कुर्ता उतारने को कह रहा है।”
“अरे sss…क्यों ”
”बोलता है ऐसे ही जाँच होती है। ऊपर से दरवाज़ा बंद कर लिया था।”
“ बाप रेsss…आपने क्या कहा? ”
“मैंने कहा लेडी डॉक्टर को बुलाओ।”
“तो क्या कहा उसने? ”
“लेडी डॉक्टर महीने भर की छुट्टी पर हैं।”
यह सुनकर दूसरी लड़की बीच में ही बोली
“सब बहाना है। भ्रष्ट और कमीना है यह पूरा अस्पताल ही। पर कुछ नहीं कर सकते। मैं ही दूसरी बार आई हूँ। पहली बार मैंने भी सीएमओ से शिकायत की थी। उसने बेशर्मी से कहा था। स्टाफ़ की भर्ती मेरे हाथ में नहीं। यहाँ कोई लेडी डाक्टर आए तब तक के लिए जाँच रोकी नहीं जा सकती। हर रोज़ सैकड़ों मरीज़ यहाँ आती हैं। किसी को आपत्ति नहीं। मैं कुछ नहीं कर सकता। मैंने उससे पूछा था तब मुझे प्राइवेट अस्पताल की जाँच सबमिट करने का परमिशन दीजिए। हरामी ने कहा था। हम यह भी नहीं कर सकते। आपके लिए मेडिकल बोर्ड का रूल नहीं बदला जा सकता।”
“फिर आपने क्या किया? ”
“क्या करती जाँच करवायी थी।”
“अब दुबारा किसलिए करवा रही हैं? ” रमा ने दूसरा सवाल पूछा
“मैंने तब संविदा वर्ग तीन के लिए करवाया था। अब मेरा महिला एवं बाल विकास विभाग में सेलेक्शन हो गया है।”
“ तो क्या पिछला सर्टिफिकेट नहीं मानते? ”
“नहीं हर बार नया चाहिए। कमाई का धंधा बना रखा है। ”

रमा का ग़ुस्सा ठंडा पड़ रहा था। गिचिर-पिचिर सुनकर आ गईं अस्पताल की एक दो महिला कर्मचारियों ने भी उसे चुपचाप जाँच करवा लेने की सलाह दी। तर्क यह था कि जब यहाँ लेडी स्टाफ़ है ही नहीं तो क्या किया जा सकता है ?

रमा के बाद गई लड़की लगभग रोती हुई बाहर निकल आई थी। उसके हाथ में लंबी काग़ज़ की पट्टी जैसी जाँच रिपोर्ट थी। लड़कियाँ एक एककर अंदर जा रहीं थीं। जो नहीं जानती थी उनके दिल में शर्म थी,डर था। जिन्हें मालूम था वे धिक्कारती हुई अंदर खिसक रहीं थीं। पर विरोध के लिए कोई तैयार नहीं थी। रमा का दिल हुआ कि पुलिस में रिपोर्ट लिखा दे। सीएमओ का सिर फोड़ दे। पर वह कुछ नहीं कर पा रही थी। सर्टिफिकेट ज़रूरी था। मेडिकल की वजह से यह नौकरी गई तो फिर दूसरी मिले न मिले। लड़कियाँ ही उसे समझा रहीं थी। उलझने से फायदा नहीं। कुछ नहीं होता। पाँच मिनट के लिए आँख बंद कर लो। थूककर निकल आओ।

धीरे धीरे रमा भी तैयार हो गई। जब वह मन मारकर अंदर पहुँची तो डॉक्टर और सहायक अधिक मुस्कुरा रहे थे। उसने जबड़े भींच लिए। मन ही मन गंदी गाली दी।

डाक्टर ने कहा आइए मैडम जल्दी कीजिए। वह बेड पर लेट गई। कुर्ते को गले तक उठाकर चेहरा ढँक लिया। सहायक ने कथित मर्यादा का ध्यान रखते हुए दरवाज़ा बंद कर दिया था।

फिर उसने जो महसूस किया उस शर्म,घृणा,अपमान को शब्दों में नहीं बताया जा सकता।यूरीन टेस्ट,एक्स रे रिपोर्ट लेते और मेडिकल बोर्ड के कुछ औपचारिक सवालों का जवाब देते हुए उसे यही लगता रहा कि निर्वस्त्र हूँ। ईसीजी के लिए पेट तथा छाती की त्वचा में लगाया गया लिक्विड जीवन भर चिपचिपाता रहेगा।

रमा जब मेडिकल सर्टिफिकेट लेकर अस्पताल से निकली तो तीन बज रहे थे। उसने एक हाथ में टिफ़िनवाला झोला पकड़ रखा था। उसे सर्टिफिकेट बैग में रख लेने का ध्यान भी नहीं रहा। सबकुछ इतना अपमान जनक,गलीज़ बीता था कि उसे ग़ुस्सा और रुलायी साथ साथ आ रहे थे। कुछ नहीं कर सकती मेरे जैसी लड़की। एक दो कौड़ी की नौकरी के लिए बेआबरू होना ही हमारी नियति है। उसने सर्टिफिकेट को हिकारत से देखते हुए उसे बैग में रख लेना चाहा। कंधे से बैग उतारकर उसकी चैन खोली तो उसके मुह से चीख निकल गई। ओ अम्मा !... ब्रा बैग में ही थी। वह दोनों हाथ में मुँह छुपाकर रोने लगी।

“हरामजादों को जेल में सड़-सड़कर मरना चाहिए।” वह बुदबुदा रही थी।

क़रीब साढ़े पाँच बजे जब वह गाँव पहुँची तो वहाँ सन्नाटा था। चार बजे से ही शुरू हो जानेवाला मंदिर का लाउडस्पीकर चुप था। लोग जैसे बाहर थे ही नहीं या कहीँ गए हुए लग रहे थे। आसमान में बादल घिर रहे थे। लगता था ज़ोर की बारिश होगी। फिर ऐसा हुआ कि रमा को टिफिनवाला बैग़ सहसा भारी लगा। उसकी निगाह गाँव के तालाब की ओर चली गई। वहाँ कुछ लोग जमा थे। कुछ लोग उधर ही जाते दिख रहे थे। उसे संदेह हुआ कोई गुज़र गया क्या? सहसा उसे पयासी बाबा की याद आई…लेकिन तभी पयासिन दाई उसे अपनी ओर आती दिखीं। पास पहुँचते ही उन्होंने कहा

“आ गई मोर लाला। तुम्हें नाहक परेशान किया। पयासी बाबा की छुट्टी हो गई है। वे ठीक होकर घर आ गए हैं। ला झोला मुझे दे दे तू थक गई होगी।”
“हाँ दाई जब मैं अस्पताल पहुँची तो बाबा की छुट्टी हो गई थी। तुम घर चलकर बैठो न? ”
“नहीं मोर करेजा। घर चलने की कल नहीं है। थोड़ी देर पहले पयासी बाबा आ गए हैं। तुम मिल गई तो अच्छा हुआ। तुम्हारे पास दस रुपये हों तो मुझे दे दो। मैं एक नारियल खरीदूँगी। न हो तो कोई बात नहीं उधार ले आऊँगी। मैं पांड़े की दुकान पर ही जा रही हूँ…”
“दाई पैसे तो मैं तुम्हें दे दूँगी पर ये तो बताओ नारियल किसलिए खरीदोगी? ”
“तुम्हें नहीं पता बिटिया। पयासी बाबा चंगे हो गए हैं। मैनें द्वारकाधीश को नारियल बदा था। उसी की खातिर लेने जा रही हूँ।”
“यह तो बहुत अच्छा हुआ। रमा खुश हो गई। उसने पयासिन दाई को रुपये दे दिये। वे उसे आशीर्वाद देती हुई चली गईं।”
“खूब तरक्की करो बेटा। ज़िंदगी में कभी कोई कष्ट न हो…द्वारकाधीश की कृपा बनी रहे।”

किंतु रमा ने घर पहुँचते ही जो सुना उससे स्तब्ध रह गई। उसकी मां ने दूध की दोहनी धोकर पानी बाहर फेंकते हुए कहा। “रमा,झोला बाहर ही रख दो। पयासी बाबा शांत हो गए है…”
“क्याsss…लेकिन दाई तो कह रही है पयासी बाबा ठीक हो गए। वह उनके लिए नारियल खरीदने गई है। मैंने ही रुपये दिए हैं।”
“हाँ दाई को सदमा न लगे इसलिए घरवालों ने उन्हें समझा दिया है कि पयासी बाबा ठीक होकर आए हैं। पहले से ही पागल हैं और भी पागल हो जाएँगी। तब कौन सम्हालेगा। अपनी औलाद होती तो और बात थी। देवर-देवरानी कितना सम्हांलेगे।”
“लेकिन यह तो बहुत ग़लत है। सरासर अन्याय है। बुढ़िया जानेगी और कैसे नहीं जानेगी ? कोई न कोई बता ही देगा। तब क्या हालत होगी उसकी?”
“जो होगा,होगा तुम क्यों चिंता करती हो। ज़माने का दोष है। बेचारी की क़िस्मत में ही दुख लिखा है।”

माँ यह कहकर काम में लग गई थी। उसे गाय दुहनी है। निदाई से निकला चारा धोना है। दिन जा रहा है। लगता है पानी गिरेगा। मवेशी अंदर बाँधने हैं।

रमा के लिए यह अपने साथ हुई दुर्घटना से भी बुरी बात लगी। कैसी दुनिया है। कैसे कैसे लोग हैं। हे भगवान ! कोई क्या करे। कैसे जिए। उसकी भूख प्यास मानो मर गई थी।

वह सोच रही थी अगर मैंने सबकुछ इसी तरह बर्दाश्त किया तो एक दिन दिल-दिमाग़ बिल्कुल सुन्न हो जाएँगे। कुछ भी महसूस होना ही बंद हो जाएगा। मैं ऐसी ज़िंदगी नहीं जीना चाहती। देर रात अम्मा बाबू और भाइयों को खिला चुकने के बाद उसने लालटेन के उजाले में बीबीसी के पते पर हिंदी सेवा की अध्यक्ष अचला शर्मा के नाम यह पत्र लिखा।

आदरणीया मैडम जी,
मैं म.प्र. के रीवा ज़िले की जगहथा गाँव की रहनेवाली हूँ। आज मैं रीवा के ज़िला चिकित्सालय में सिविल सर्जन द्वारा ज़ारी किया जानेवाला वाला मेडिकल सर्टिफ़िकेट बनवाने गयी थी। वहाँ ईसीजी के चेकअप के लिए पुरुष जूनियर डाक्टर था। उसका असिस्टैंट भी पुरुष ही था। एक भी महिला वहाँ नहीं थी। दरवाजा बंद कर डाक्टर इस काम के लिए लडकियों के ऊपर पहने जानेवाले कपड़े उतरवा देता था। फिर दोनों जानबूझकर मशीन लगाने में देरी कर रहे थे। डॉक्टर की हरकतें नितांत गंदी थीं। मैं अध्यापिका पद के लिए मेडिकल सर्टिफिकेट चाहती थी जिसमें यह जाँच ज़रूरी भी नही। मैंने जब इस निर्लज्ज प्रक्रिया का विरोध किया,लेडी डॉक्टर की मांग की तो उस जूनियर डाक्टर तथा उसके सहायक ने कहा-यह सरकारी अस्पताल है। यह अच्छा है हमने आपके लिए दरवाजा बंद कर लिया वरना वह खुला ही रहता है। कुछ दूसरी लडकियाँ इससे विचलित थीं और रो रहीं थीं। उन्हे कर्मचारी तथा अन्य लडकियाँ भी समझा रही थीं कि जाओ डाक्टर भगवान होता है। ऐसा एक शहरी ज़िला अस्पताल,जो ज़िला संभाग भी है, में हो रहा है। देखने,विरोध करनेवाला कोई नहीं। एक लड़की ने तो बताया कि सीएमओ से शिकायत के बाद भी उन्होंने इसे ग़लत नहीं माना। मैं यह मामला BBC के ध्यान में इसलिए ला रही हूँ कि मुझे यहाँ के अखबारों और दूसरे माध्यमों पर भरोसा नहीं। मुझे यह खयाल आया था कि मैं शहर के सिटी चैनल आफिस फोंन करूँ पर मैंने ऐसा नहीं किया। क्योंकि मैंने वहाँ के कुछ पत्रकारों के बारे में सुना है। स्थानीय टीवी चैनलों की असलियत मैं जानती हूँ। वे अस्पताल से पैसे ऐंठकर मुझे तमाशा बनाकर छोड़ देंगे। मैं यह पत्र इस उम्मीद में लिख रही हूँ कि मेरे साथ हुआ जो हुआ आगे किसी लडकी का ऐसा उत्पीड़न नही हो। भविष्य में कोई बडा अनर्थ होने से रुक जाए।

आशा है आप मेरी इस चिट्ठी को न केवल प्रसारित करेंगी बल्कि कोई सार्थक पहल भी करेंगी।

आपकी एक श्रोता
रमा
गाँव पोस्ट-जगहथा
जिला-रीवा
म.प्र.

रमा ने पत्र लिखने के बाद उसे मोड़ा,लिफ़ाफ़े में रखकर चिपकाया और सिरहाने रखकर सो गई।

-शशिभूषण

मो.-09025743718


























शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

परमाणु ऊर्जा का मसला जरूरत का नहीं, राजनीति का हैः डॉ. विवेक मोंटेरो

फुकुशिमा के परमाणु विध्वंस से ये साफ हो गया है कि चाहे परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा का कितना भी दावा किया जाए वो पूरी तरह सुरक्षित नहीं कहे जा सकते। फुकुषिमा में चारों रिएक्टरों में हुए विस्फोट से परमाणु विकिरण कितने बड़े इलाके़ में पहुँचा है और इसके कितने दूरगामी असर होंगे इन सवालों का ठीक-ठीक जवाब देने की स्थिति में न तो राजनीतिज्ञ हैं और न ही वैज्ञानिक। ऐसे में भारत में दुनिया का सबसे बड़ा परमाणु संयंत्र स्थापित करने के पीछे भारत सरकार की ओर से दिये जा रहे तर्क हास्यास्पद हैं और उनमें से जनता के प्रति धोखे को साफ पहचाना जा सकता है।

संदर्भ केन्द्र की 12वीं सालगिरह के मौके पर इन्दौर प्रेस क्लब के राजेन्द्र माथुर सभागृह में 20 नवंबर 2011 को आयोजित कार्यक्रम में मुंबई से आये डॉ. विवेक मोंटेरो ने दर्शकों-श्रोताओं को अपने व्याख्यान में फुकुशिमा से जैतापुर तक के परमाणु कार्यक्रम की यादगार यात्रा करवाते हुए एक वैज्ञानिक होने के नाते न केवल परमाणु ऊर्जा की वैज्ञानिक कसौटियों को जाँचा-परखा बल्कि एक सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता होने के नाते परमाणु ऊर्जा के पैरोकारों के तर्कों की आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर भी बखूबी जाँच-पड़ताल की।

संदर्भ केन्द्र की ओर से डॉ. जया मेहता ने डॉ. विवेक मोंटेरो का परिचय देते हुए कहा कि विवेक ने अमेरिका से भौतिकी में पीएच.डी. कर लेने के बाद और कुछ समय टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च फेलो रहने के बाद तमाम सुख-सुविधा वाले कैरियर को छोड़ मुंबई में मजदूरों के संघर्षों में शामिल होने का निश्चय किया। फिलहाल वे मजदूर संगठन सीटू के महाराष्ट्र के राज्य सचिव हैं और जैतापुर में चल रहे परमाणु संयंत्र विरोधी आंदोलन कोंकण बचाओ समिति में शामिल हैं।

डॉ. विवेक मोंटेरो ने अपने व्याख्यान में कहा कि भारत में परमाणु ऊर्जा के पक्ष में तीन बातें कही जाती हैं कि ये सस्ती हैं सुरक्षित है और स्वच्छ यानि पर्यावरण हितैषी है। जबकि सच्चाई ये है कि इनमें से कोई एक भी बात सच नहीं है बल्कि तीनों झूठ हैं। देश की जनता को धोखे में रखकर भारत में परमाणु कार्यक्रम बरास्ता जैतापुर जिस दिशा में आगे बढ़ रहा है वहाँ अगर कोई दुर्घटना नहीं भी होती है तो भी आर्थिक रूप से देश की जनता को एनरॉन जैसे और उससे भी बड़े आर्थिक धोखे का शिकार बनाया जा रहा है। और अगर कोई दुर्घटना हो जाती है तो आबादी के घनत्व को देखते हुए ये सोचना ही भयावह है लेकिन निराधार नहीं कि भारत में किसी भी परमाणु दुर्घटना से हो सकने वाली जनहानि का परिमाण कहीं बहुत ज्यादा होगा।

विवेक मोंटेरो ने कहा कि फुकुशिमा में परमाणु रिएक्टरों के भीतर हुए विस्फोटों को ये कहकर संदर्भ से अलगाने की कोशिश की जा रही है कि वहाँ तो सुनामी की वजह से ये तबाही मची। और भारत में तो सुनामी कभी आ नहीं सकती। उन्होंने कहा कि ये सच है कि फुकुशिमा में एक प्राकृतिक आपदा के नतीजे के तौर पर परमाणु रिसाव हुआ लेकिन जादूगुड़ा या तारापुर या रावतभाटा या कलपक्कम आदि जो भारत के मौजूदा परमाणु ऊर्जा संयंत्र हैं जहाँ कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई है वहाँ के नजदीकी गाँवों और बस्तियों में रहने वाले लोगों में अनेक रेडियोधर्मिता से जुड़ी बीमारियों का फैलना साबित करता है कि परमाणु विकिरण के असर उससे कहीं ज्यादा हैं जितने सरकार या सरकारी वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं। मोंटेरो ने कहा कि लोग आमतौर पर सोचते हैं कि परमाणु ऊर्जा सिर्फ बम के रूप में ही हानिकारक होती है अन्यथा नहीं। लेकिन सच ये है कि परमाणु बम में रेडियोएक्टिव पदार्थ कुछ किलो ही होता है और विस्फोट की वजह से उसका नुकसान एकबार में ही काफी ज्यादा होता है जबकि एक रिएक्टर में रेडियाधर्मी परमाणु ईंधन टनों की मात्रा में होता है। अगर वह किसी भी कारण से बाहरी वातावरण के संपर्क में आ जाता है तो उससे रेडियोधर्मिता का खतरा बम से भी कई गुना ज्यादा बढ़ जाता है। उन्होंने परमाणु ऊर्जा के सस्ती व सुरक्षित होने के मिथ को तोड़ने के साथ ही इसके पर्यावरण हितैषी मिथ को भी तोड़ा। उन्होंने कहा कि परमाणु ईंधन को ठंडा रखने के लिए बहुत ज्यादा मात्रा में पानी उस पर लगातार छोड़ा जाता है। ये पानी परमाणु प्रदूषित हो जाता है और इसके असर जानलेवा भी होते हैं। फुकुशिमा में ऐसा ही साठ हजार टन पानी रोक कर के रखा हुआ था जिसमें से 11 हजार टन पानी समंदर में छोड़ा गया और बाकी अभी भी वहीं रोक कर के रखे हैं। जो पानी छोड़ा गया है वो भी काफी रेडियोएक्टिव है और उसके खतरे भी मौजूद हैं।

जहाँ तक परमाणु ऊर्जा की लागत का सवाल है तो इसके लिए आवश्यक रिएक्टर तो बहुत महँगे हैं ही और भारत-अमेरिकी परमाणु करार की वजह से हम पूरी तरह तकनीकी मामले में विदेशों पर आश्रित हैं। साथ ही किसी भी परमाणु संयंत्र की लागत का अनुमान करते समय न तो उससे निकलने वाले परमाणु कचरे के निपटान की लागत को शामिल किया जाता है और न ही परमाणु संयंत्र की डीकमीशनिंग (ध्वंस) को। कोई दुर्घटना न भी हो तो भी एक अवस्था के बाद परमाणु संयंत्रों को बंद करना होता है और वैसी स्थिति में परमाणु संयंत्र का ध्वंस तथा उसके रेडिएशन कचरे को दफन करना बहुत बड़े खर्च का मामला होता है। और अगर परमाणु दुर्घटना हो जाए तो उसके खर्च का तो अनुमान ही मुमकिन नहीं। चेर्नोबिल की दुर्घटना से 1986 में 4000 वर्ग किमी का क्षेत्रफल हजारों वर्षों के लिए रहने योग्य नहीं रह गया। उन्होंने स्लाइड्स के माध्यम से बताया कि वहाँ हुए परमाणु ईंधन के रिसाव से करीब सवा लाख वर्ग किमी जमीन परमाणु विकिरण के भीषण असर से ग्रस्त है। कोई कहता है कि वहाँ सिर्फ 6 लोगों की मौत हुई जबकि कुछ के आँकड़े 9 लाख भी बताये जाते हैं। क्या इसकी कीमत का आकलन किया जा सकता है विकिरण के असर को खत्म होने में 24500 वर्ष लगने का अनुमान हैं तब तक ये जमीन किसी भी तरह के उपयोग के लिए न केवल बेकार रहेगी बल्कि इसे लोगों की पहुँच से दूर रखने के लिए इसकी सुरक्षा पर भी हजारों वर्षों तक खर्च करते रहना पड़ेगा।

उन्होंने कहा कि फुकुशिमा के हादसे के बाद से दुनिया के तमाम देशों ने अपने परमाणु कार्यक्रमों को स्थगित कर उन पर पुनर्विचार करना शुरू किया है। जर्मनी में तो वहाँ की सरकार ने परमाणु ऊर्जा को शून्य पर लाने की योजना बनाने की कार्रवाई भी शुरू कर दी है। खुद अमेरिका में 1976 के बाद से कोई भी नया परमाणु संयंत्र नहीं लगाया गया है। वे सिर्फ दूसरे कमजोर देशों को बेचने के लिए रिएक्टर बना रहे हैं। इसके बावजूद भारत सरकार ऊर्जा की जरूरत का बहाना लेकर जैतापुर में परमाणु संयंत्र लगाने के लिए आमादा है। इसके पीछे की वजहों का खुलासा करते हुए उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन और रूस के साथ ये करार किया है कि भारत इन चारों देशों से 10-10 हजार मेगावाट क्षमता के रिएक्टर खरीद कर अपने देश में स्थापित करेगा। ये हमारे देश की नयी विदेश नीति का नतीजा है जो हमारे सत्ताधीशों ने साम्राज्यवादी ताकतों के सामने गिरवी रख दी है। महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में जैतापुर में लगाये जाने वाले परमाणु संयंत्र के बारे में उन्होंने बताया कि वहाँ फ्रांस की अरीवा कंपनी द्वारा लगाया जाने वाला परमाणु संयंत्र खुद फ्रांस में ही अभी सवालों के घेरे में है और हम भारत में उसे लगाने के लिए तैयार हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी की पिछले दिनों हुई भारत यात्रा के पीछे भी ये व्यापारिक समझौता ही प्रमुख था। उन्होने विभिन्न स्रोतों का हवाला देकर बताया कि परमाणु संसाधनों से बनने वाली ऊर्जा न केवल अन्य स्रोतों से प्राप्त हो सकने वाली ऊर्जा से महँगी होगी बल्कि वो देश की ऊर्जा की जरूरत को कहीं से भी पूरी कर सकने में सक्षम नहीं होगी। खुद सरकार मानती है कि परमाणु ऊर्जा हमारे मौजूदा कुल ऊर्जा उत्पादन का मात्र 3 से साढ़े तीन प्रतिशत है जो अगले 40 वर्षों के बाद अधिकाधिक 10 प्रतिशत तक पहुँच सकेगी, वो भी तब जब कोई विरोध या दुर्घटना न हो। उन्होंने कहा कि एक मीटिंग में मौजूदा पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने उनसे बिलकुल साफ कहा था कि महाराष्ट्र के जैतापुर में बनने वाला परमाणु संयंत्र किसी भी कीमत पर बनकर रहेगा और इसकी वजह ऊर्जा की कमी नहीं बल्कि हमारी विदेश नीति और अन्य देशों के साथ हमारे रणनीतिक संबंध हैं।

जहाँ तक ऊर्जा की कमी का सवाल है ये ऊर्जा की उपलब्धता से कम और उसके असमान वितरण से अधिक जुड़ा हुआ है। बहुत दिलचस्प तरह से इसका खुलासा करते हुए उन्होंने मुंबई के एक 27 मंजिला घर की स्लाइड दिखाते हुए कहा कि इस बंगले में एक परिवार रहता है और इसमें हैलीपैड, स्वीमिंग पूल आदि तरह-तरह की सुविधाएँ मौजूद हैं। इस बंगले में प्रति माह 6 लाख यूनिट बिजली की खपत होती है। ये बंगला अंबानी परिवार का है। दूसरी स्लाइड दिखाते हुए उन्होंने कहा कि शोलापुर में रहने वाले दस हजार परिवारों की कुल मासिक खपत भी 6 लाख यूनिट की है। अगर देश में बिजली की कमी है तो दस हजार परिवारों जितनी बिजली खर्च करने वाले अंबानी परिवार को तो सजा मिलनी चाहिए लेकिन उल्टे अंबानी को इतनी ज्यादा बिजली खर्च करने पर सरकार की ओर से कुल बिल पर 10 प्रतिशत की छूट भी मिलती है।

पवन सौर तथा बायोमास जैसे विकल्पों का संक्षेप में ब्यौरा देकर अपनी बात समाप्त करते हुए उन्होंने कहा कि अगर परमाणु ऊर्जा इतनी महँगी खतरनाक और नाकाफी है तो फिर उसे किस लिए देश की जनता पर थोपा जा रहा है-ये देश के लोगों को देश की सत्ता संभाले लोगों से पूछना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय ताकतों के सामने और उनके मुनाफे की खातिर देश की राजनीति और देश के लोगों की सुरक्षा को दाँव पर लगाया जा रहा है। ये मसला ऊर्जा की जरूरत का नहीं बल्कि राजनीति के पतन का है और पतित राजनीति का मुकाबला राजनीति से अलग रहकर नहीं बल्कि सही राजनीति के जरिये ही किया जा सकता है।

कार्यक्रम की शुरुआत फैज की जन्मशती के मौके पर फैज की दो नज्मों पर संदर्भ केन्द्र की ओर से बनाये गये एक पोस्टर को जारी करने के साथ हुई। पोस्टर विवेक मोंटेरो ने जारी किया। फैज की मशहूर नज्म लाजिम है कि हम भी देखेंगे को गाया सारिका श्रीवास्तव ने। इस मौके पर बड़ों व स्कूली बच्चों की ओर से परमाणु ऊर्जा के खतरों से आगाह करती एक पोस्टर प्रदर्शनी भी लगायी गई थी जिसका शीर्षक था- जैतापुर की संघर्षशील जनता के नाम। विवेक मोंटेरो के व्याख्यान के पूर्व मुंबई की डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाने वालीं मानसी पिंगले ने 10 मिनट की फिल्म कोंकण जलतासा (कोंकण जल रहा है) का भी प्रदर्शन किया। मानसी ने फिल्म के माध्यम से बताया कि जैतापुर में बनने वाले परमाणु संयंत्र के प्रति स्थानीय लोगों का विरोध पिछले चार वर्षों से लगातार जारी है। पुलिस उनका दमन कर रही है और प्रशासन कभी ज्यादा मुआवजे का लालच दे रहा है तो कभी धमका रहा है तो कभी अच्छे और उजले भविष्य का आश्वासन दे रहा है लेकिन अधिकांश लोगों ने अपनी जगह छोड़ने से इन्कार कर दिया है। फिल्म में प्रभावित गाँवों के लोग उन जगहों के नजदीक रहने वाले लोगों से जाकर मिलते और बात करते भी बताये गए जहाँ परमाणु संयंत्र पहले लग चुके हैं। पुराने संयंत्रों की वजह से उजड़े लोगों में से एक का ये बयान हमारे विकास के पूरे परिदृश्य को ही प्रतिबिंबित करता है कि वो कहते थे कि जिंदगी में अच्छा होगा, फर्क पड़ेगा। लेकिन क्या बदला पहले भी हमें बिजली नहीं मिलती थी और अब भी आठ-आठ घंटे की कटौती होती है। ऐसे अनेक लोगों ने उन्हें पिछले कुछ वर्षों में पनपीं और बढ़ीं बीमारियों के बारे में भी बताया जिसकी वजह उन्हें सीधे-सीधे नजदीक मौजूद परमाणु संयंत्र के साथ जुड़ी लगती हैं। चूँकि सरकार उन गाँवों को प्रभावित ही नहीं मानती अतः उन्हें इलाज में भी काफी तकलीफों का सामना करना पड़ता है। फिल्म दस मिनट की अल्प अवधि में भी जैतापुर में चल रहे लोगों के संघर्ष और सरकार के दमन का चित्र खींचने में कामयाब रही।

अंत में हुए सवाल जवाबों के लम्बे दौर में भी अनेक श्रोताओं ने भागीदारी की। एक उल्लेखनीय सवाल ये था कि अगर चेर्नोबिल और फुकुशिमा ही दो मात्र परमाणु दुर्घटनाएँ हुईं हैं तो ऐसी दुर्घटनाएँ तो किसी भी तरीके के ऊर्जा संयंत्रों में होती रहती हैं फिर परमाणु ऊर्जा का ही विरोध क्यों? जवाब में विवेक ने कहा कि अगर आप रेल में केरोसीन या पेट्रोल लेकर सफर करते हैं तो जरूरी नहीं कि उससे हर बार ट्रेन में आग ही लग जाए लेकिन आप इसी आधार पर ट्रेन में पेट्रोल लेकर चलने को सही तो नहीं ठहराने लगते। दूसरी बात ये है कि चेर्नोबिल और फुकुशिमा बेशक सात तीव्रता वाली दो ही परमाणु दुर्घटनाएँ हुई हैं लेकिन कम तीव्रता वाली अनेक दुर्घटनाएँ दुनिया के अलग-अलग देशों में हुईं हैं। खुद भारत में भी ऐसी अनेक दुर्घटनाएँ हो चुकी हैं। परमाणु संयंत्रों की डीकमीशनिंग (विध्वंस) भारत के परमाणु ऊर्जा विभाग की गैर जिम्मेदार भूमिका, परमाणु कचरे की समस्या आदि पर भी विस्तृत सवाल-जवाब हुए।

-विनीत तिवारी