बुधवार, 15 मार्च 2017

सार्वजनिक उपक्रमों का दुश्मन मीडिया

किसी भी मीडिया घराने को सरकारी विज्ञापन मिलना बंद हो जाये तो वह जार जार रोता है। अगर उसे सरकारी कृपा न प्राप्त हो तो थोड़ी दूर भी चल नहीं पाता।

लेकिन मीडिया का अभियान एक ही होता है हर प्रकार के सार्वजनिक संस्थान को संदिग्ध बनाना। उसे देखने में इतना उजाड़ देना कि कोई सेठ उसे तुरंत बसाने के लिए आगे आ सके। इस संबंध में हिंदी फिल्मों का वह दृश्य सटीक है कि आग लगवा दो और फिर सबसे पहले बुझाने पहुंचो। मोटर कार से।

एक से एक पढ़े लिखे, अंग्रेजी के जानकार खोजी पत्रकार सार्वजनिक उपक्रमों की कमियों के तिल को ताड़, राई को पहाड़ बनाते रहते हैं। उनके ज्ञान ध्यान को देखकर ऐसा लगता है जैसे उन्हें फरिश्तों वाले गुण प्राप्त हैं।

एक भी मौक़ा नहीं छोड़ा जाता। जब कोई कमी न मिले तो अफ़वाह से काम चलाया जाता है। यही पत्रकार किसी निजी संस्थान की कमियों के बारे में अंधे बहरे बन जाते हैं। ये भारतीय रेलवे पर धारावाहिक स्टोरी लिखते हैं। लेकिन अगर किसी प्राइवेट बस का कंडक्टर इन्हें दो की सीट पर तीसरा बैठा लेने को लप्पड़ भी मार दे तो किसी से नहीं बताते।

सार्वजनिक संस्थानों को चुन चुन ख़त्म कर निजी क्षेत्र के विस्तार के लिए प्राइवेट मीडिया संगठित गिरोह की तरह काम करता है। इस मसले पर लगभग सारे अख़बार डाकू जैसे हैं। पैसा लूटकर गरीबों को ज्ञान बांटते हैं।

यदि सरकारी संस्थाएं एक एककर निजी क्षेत्र में चली जाएँगी तो यह उम्मीद करना मूर्खता ही है कि भारतीय संविधान का कोई मूल अधिकार ठीक से बचा रह पाएगा।

जितना संभव हो और जितना कर पाएं उतने उद्यमों में सार्वजानिक संस्थानों की प्रतिष्ठा के लिए हर संभव कोशिश करें।

एक सरकारी अस्पताल या विद्यालय अभावग्रस्त हो सकता है और किसी हद तक बुरा भी। लेकिन कोई भी निजी उपक्रम प्रथम दृष्टया ही क्रूर होता है। उसके जाल से निकलने का रास्ता फिर कोई विदुर नहीं बता पाता।

सुना है अब मीडिया में अंतर्राष्ट्रीय पूंजी निवेश भी है। वह आपके सामाजिक न्याय, समता, समान अवसरों वाली और लोकतान्त्रिक समाजवाद वाली राष्ट्रीयता का भला सोचने से पहले कोई अनाथालय न खोलना चाहेगा!!!

-शशिभूषण

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