रविवार, 8 अक्तूबर 2017

लेखन के साथ जीवन में भी ज़रूरी है जनपक्षधरता

कविता कार्यशाला,1-2 अक्टूबर 17, प्रलेस-इप्टा अशोकनगर

प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) एवं भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की मध्य प्रदेश में सर्वाधिक सक्रिय इकाइयों में से एक अशोकनगर इकाई ने संयुक्त रूप से विगत 1-2 अक्टूबर को मुक्तिबोध की जन्म शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में दो दिनी कविता कार्यशाला का आयोजन किया। इस कार्यशाला में अनेक वरिष्ठ एवं प्रसिद्ध साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों के साथ दर्जनभर से अधिक युवा कवियों ने हिस्सा लिया। कार्यशाला नितांत अनौपचारिक, आत्मीय माहौल में साहित्यिक-वैचारिक अनुशासन के साथ संपन्न हुई। दो दिन चलनेवाली इस कार्यशाला की रूपरेखा इस प्रकार तैयार की गयी थी कि नये पुराने कवियों-लेखकों-संस्कृतिकर्मियों का न केवल परस्पर परिचय हो, घुलना-मिलना हो बल्कि उनके बीच नि:संकोच वैचारिक आदान-प्रदान एवं संवाद स्थापित हो ताकि नये कवियों की अपने समय की राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों के साथ-साथ समकालीन रचनात्मक-कलात्मक-साहित्यिक बारीकियों से भी अंतरंगता विकसित हो सके। 

ऐसे समय में जब संवादहीनता, तटस्थता, गैर जवाबदेह स्वायत्तता एवं आत्मकेन्द्रित वैयक्तिकता से निर्मित विचारहीन, अप्रतिबद्ध रचनात्मकता चरम पर है और उसे इसी रूप में व्यवस्था के हित में प्रोत्साहित भी किया जा रहा है ऐसी कार्यशालाओं का महत्व बढ़ जाता है। इस कार्यशाला के दो दिन बड़े सुनियोजित, संबद्ध एवं व्यस्त रहे। भोजनावकाश के अतिरिक्त दोनो दिन देर रात तक सवाल-जवाब एवं बहसों तथा असहमतियों से लबरेज़ रहे। प्रलेस और इप्टा के आयोजनों की यही खासियत उन्हें रचनात्मक एवं ऊर्जावान बनाती है कि यहाँ महमामंडन नहीं होता, श्रद्धाभाव से तर्कों या प्रस्तुतियों को हृदयंगम नहीं किया जाता बल्कि बड़े से बड़े और वरिष्ठ साथी को भी तीखे सवालों एवं कभी-कभी खारिज कर देनावाली कठोर असहमतियों का सामना करना पड़ता है। इन आयोजनों में नये और पुराने लोग बराबर सीखते हैं और ताप एवं तनाव से बराबर गुज़रते हैं।

इस दो दिन की कार्यशाला में कुल 8 सत्र संपन्न हुए। पंकज दीक्षित की कविता पोस्टर प्रदर्शनी लगायी गयी। जनगीत हुए तथा कविताओं (कबीर, पाश एवं उदय प्रकाश) के गायन की प्रस्तुतियों ने कार्यशाला को जीवंत और सोद्देश्य बनाया। किताबों एवं पत्रिकाओं तथा पुस्तिकाओं के स्टॉल भी पाठकों-लेखकों की गहमा गहमी के केन्द्र रहे। इस स्टॉल के प्रमुख आकर्षण रहे- खोजी पत्रकार राना अयूब की बेस्ट सेलर किताब ‘गुजरात फाइल्स’ का हिंदी संस्करण और उदभावना के अंक। नये पुराने कवियों में पंकज चतुर्वेदी, विनीत तिवारी, बसंत त्रिपाठी, समीक्षा, शिल्पी, कविता जड़िया, मानस भारद्वाज, मयंक जैन, अभिषेक अंशु, अरबाज़, शशिभूषण आदि ने काव्य पाठ किये। वैचारिक सत्रों में प्रमुख रहे- ‘मुक्तिबोध का काव्य विवेक और आज का समय’, ‘मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया और उनका आलोचनात्मक संघर्ष’, ‘कविता की पक्षधरता’, ‘इक्कीसवीं सदी की कविता का वैचारिक स्वप्न’ और ‘जनपक्षधर कविता की पहचान और ज़रूरत’। इन सत्रों में क्रमश: पंकज चतुर्वेदी, बसंत त्रिपाठी, विनीत तिवारी और निरंजन श्रोत्रिय ने विचारोत्तेजक एवं बहस तलब आधार वक्तव्य दिये। वक्ताओं में प्रमुख रहे- सत्येंद्र रघुवंशी, डॉ. अर्चना, सुरेंद्र रघुवंशी, पवित्र सलाल पुरिया, कथाकार आशुतोष, शशिभूषण, सत्यभामा और समीक्षा। सवाल एवं संवाद तथा हस्तक्षेप के अंतर्गत न केवल सवाल, जवाब हस्तक्षेप हुए बल्कि अनेक मुद्दों पर गंभीर विमर्श हुए। वक्तव्य से लेकर काव्य पाठ तक सबमें सवाल, असहमति की अन्त: धारा व्याप्त रही।

कविता कार्यशाला के पहले दिन तीन सत्र सम्पन्न हुए। पहले सत्र का विषय था 'मुक्तिबोध का काव्य विवेक और आज का समय।' दूसरे सत्र का विषय था 'मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया और उनका आलोचनात्मक संघर्ष।' आखिरी सत्र में युवा कवियों ने कविता पाठ किये। शुरुआत पंकज दीक्षित द्वारा बनाये कविता पोस्टर की प्रदर्शनी के उदघाटन से हुई। प्रदर्शनी का उद्घाटन कवि एवं सामाजिक कार्यकर्ता विनीत तिवारी, वरिष्ठ साहित्यकार निरंजन श्रोत्रिय एवं चित्रकार मुकेश बिजोले ने किया। इस अवसर पर इप्टा अशोक नगर की सीमा राजोरिया एवं कलाकारों ने जनगीत प्रस्तुत किये।

'मुक्तिबोध का काव्य विवेक और आज का समय।' विषय पर अपने प्रभावी एवं मार्मिक आलोचनात्मक आधार वक्तव्य में चर्चित कवि एवं आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने कहा -शमशेर ने मुक्तिबोध की सबसे प्रामाणिक किंतु संक्षिप्त आलोचना की। मुक्तिबोध ने हिंदी कविता को पूरी तरह बदल दिया। वे सरल कवि हैं। लेकिन उनका सरलीकरण नहीं किया जा सकता। उनका जीवन और साहित्य विवेक एक ही थे। उनमें किसी स्तर पर द्वैत या फांक नहीं थी। उनमें दुचित्तापन नहीं था। निरंतर द्वंद्वात्मकता और गहन आत्माभियोग या आत्मालोचन उनकी खासियत थे। मुक्तिबोध ने अंधेरे के काले समुद्र का प्रतिकार अपनी बेचैनी एवं रचनात्मक अर्थवत्ता से किया। मुक्तिबोध ने फ़ासीवाद के आगमन की आहट नेहरू की मृत्य के समय ही देख ली थी। उनमें नैतिक बोध बहुत गहरा था।

इस सत्र में हस्तक्षेप करते हुए सत्येंद्र रघुवंशी, सुरेंद्र रघुवंशी और डॉ अर्चना ने अपने विचार व्यक्त किये। सत्येंद्र रघुवंशी ने कहा- जीवन विवेक ही साहित्य विवेक है यह मुक्तिबोध अपनी सृजनात्मकता से साबित करते हैं। डॉ अर्चना ने कहा कि मुक्तिबोध बहुत सचेत एवं सजग कवि हैं। वे हमें प्रेरित करते हैं कि हम अपनी नैतिकता को उच्च स्तर पर ले जाएं। तभी मुक्तिबोध को आत्मसात किया जा सकता है। इसी सत्र में हस्तक्षेप करते हुए चर्चित कवि बसंत त्रिपाठी ने मुक्तिबोध के जीवन एवं सृजन से संबंधित कुछ अनसुने प्रसंग सुनाए। उन्होंने स्पष्ट किया कि मुक्तिबोध की किताब पर प्रतिबंध केवल पाठ्यक्रम में न लेने के संबंध में लगाया गया था। उन्होंने अपने उपन्यास विपात्र में अपने महाविद्यालय के जिन प्रबंधक को मुख्य पात्र बनाया था उन्हीं को अपनी किताब भी समर्पित की। यह उनके जीवन की स्पष्टता थी कि आलोचना और आत्मीयता का स्थान अलग अलग है। इस स्तर पर उनमें संशय नहीं था।

इस अवसर पर श्रोताओं ने अपने सवाल भी रखे। युवा कवि अरबाज़ के सवाल के जवाब में पंकज चतुर्वेदी ने कहा कि मुक्तिबोध ने अपने डर पर विजय प्राप्त कर, चुनौतियों का सामना करते हुए ख़ुद्दार, प्रतिबद्ध साहित्यिक क़द हासिल किया। हमें भी वैसी नैतिकता एवं ईमानदारी को अपनाना चाहिए। दूसरे सत्र के वक्ताओं में प्रमुख रहे - पवित्र सलालपुरिया, सत्यभामा और कहानीकार आशुतोष। इस सत्र में आधार वक्तव्य दिया बसंत त्रिपाठी ने। दोनों सत्रों का संचालन कवि एवं रंगकर्मी हरिओम राजोरिया ने किया। 

दूसरे सत्र का विषय था-'मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया और उनका आलोचनात्मक संघर्ष।' इस विषय पर चर्चित कवि बसंत त्रिपाठी ने आधार वक्तव्य दिया। बसंत त्रिपाठी ने मुक्तिबोध की कृति ‘एक साहित्यिक की डायरी’ और ‘कामायनी एक पुनर्विचार’ के हवाले से विस्तार से ‘फैंटेसी’ रचना प्रक्रिया एवं उनके आलोचनात्मक संघर्षों पर प्रकाश डाला। इस सत्र में कथाकार आशुतोष ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि संवेदना मुख्य है। सृजन का संबंध इसी से है। आलोचक की लेखकों से निकटता हमेशा रचनात्मक नहीं होती। आलोचना के लिए रचनाकार से ऑब्जेक्टिव दूरी बड़े काम की होती है। लेखकों से निकटता उनकी आलोचना में बाधक भी होती है। इसी दूरी के चलते राम विलास शर्मा अपने समकालीनों में से एक मुक्तिबोध के स्थान पर निराला एवं प्रेमचंद पर बड़ी आलोचना कृतियाँ रच पाये। जेएनयू की छात्रा सत्यभामा ने कहा कि मुक्तिबोध हमेशा नये ढाँचे की खोज में रहे। उन्हें लोगों की उदासीनता बहुत परेशान करती थी। हमारी लिए बड़ी चुनौती यह है कि हम पुरानी चीज़ों को तो खत्म करते आये लेकिन उन्हें नयी चीज़ों से रिप्लेस नहीं कर पाये। 

तीसरे सत्र के विषय ‘कविता की पक्षधरता’ पर कवि एवं सामाजिक कार्यकर्ता विनीत तिवारी ने यादगार एवं विस्तृत आधार वक्तव्य दिया। स्पष्टता, वैचारिकता, जनपक्षधरता एवं परिवर्तनकारी रचनात्मक कार्यवाई का आह्वान उनके वक्तव्य की रीढ़ रहे। उन्होंने मुक्तिबोध के आत्मसंघर्ष, द्वंद्व एवं सामाजिक संघर्षों का यथार्थपरक खाका प्रस्तुत किया। विनीत तिवारी ने भूतपूर्व विद्रोही का बयान सहित मुक्तिबोध की दो कविताओं का प्रभावी पाठ किया। उन्होने जोर देकर कहा कि हम असफल इसलिए हैं क्योंकि आधे अधूरे मन से थोड़े विद्रोही हैं। अधिकांश श्रोताओं ने महसूस किया इस वक्तव्य को समग्र रूप में पढ़े-सुने जाने की आवश्यकता रहेगी। यदि वक्तव्य की पुस्तिका भी प्रकाशित हो तो मुक्तिबोध को समझने के लिए महत्वपूर्ण द्वार खुलेगा। वक्तव्य में अकादमिक गुंजलकों से मुक्त एक जनशिक्षक के नज़रिए से दर्ज बयान सर्वाधिक काम के हैं। 

कविता कार्यशाला के दूसरे दिन की शुरुआत भी इप्टा अशोक नगर के कलाकारों द्वारा प्रस्तुत जनगीत से हुई। इस अवसर पर जेएनयू की छात्रा समीक्षा ने अपनी मधुर आवाज में 'हिरना समझ बुझि बन चरना।' का शास्त्रीय गायन पेश का सबको मंत्रमुग्ध कर दिया। कार्यशाला के दूसरे दिन पहले सत्र का विषय था 'इक्कीसवीं सदी की कविता का वैचारिक स्वप्न।' दूसरे सत्र का विषय था 'जन पक्षधर कविता की पहचान और ज़रूरत।' कार्यशाला के अंतिम सत्र में विनीत तिवारी, सुरेंद्र रघुवंशी, शशिभूषण, मानस भारद्वाज, अरबाज़ और हरिओम राजोरिया ने अपनी कविताओं का पाठ किया।

'इक्कीसवीं सदी की कविता का वैचारिक स्वप्न।' विषय पर अपने आधार वक्तव्य में चर्चित कवि एवं युवा द्वादश के संपादक निरंजन श्रोत्रिय ने कहा - मुक्तिबोध हमारी नई रचनाशीलता के लिए प्रकाश स्तंभ की तरह है। कल अपने वक्तव्य में विनीत तिवारी ने मुक्तिबोध के जीवन, काव्य विवेक एवं आत्मसंघर्ष को समझने के लिए जैसा अकादमिक, साहित्यिक एवं वैचारिक वक्तव्य दिया उसे हमेशा ध्यान में रखने की ज़रूरत है। उन्होंने आगे कहा यह सुखद है कि युवा कवि अपने विचारों एवं सृजन में सुलझे हुए हैं। वे किसी जल्दी में नहीं हैं। कल जिन कवियों मानस भारद्वाज, कविता जड़िया, अरबाज़, बसंत त्रिपाठी आदि ने कविता पाठ किये उनकी रचनात्मकता आस्वास्तिकारक है। इनकी मंजिल ऊंची हैं। वैचारिकता के स्वप्न से संबद्धता को सबसे प्राथमिक एवं ज़रूरी संलग्नता बताते हुए कवि एवं कहानीकार शशिभूषण ने कहा - यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत को बाक़ायदा विचारहीन बनाया गया है। विचारहीनता ही भ्रष्टाचार की शुरुआत है। यह विचारहीनता भारत के लोकतंत्र एवं लोकतांत्रिक समाजवाद के सपने के लिए रोड़ा है। धर्म सत्ता एवं राज सत्ता से आम जन या लोक के लिए, हक़ एवं बराबरी के लिए विचारपरक कविताएं ही जूझ सकती हैं। हमें हमेशा याद रखना चाहिये मुक्तिबोध की बात कि 'मुक्ति सबके साथ है।' भारत को विचार की ओर फिर से ले चलना रमाशंकर विद्रोही के शब्दों में आसमान में धान बोने के समान है। लेकिन हमें यह करना ही होगा।

तीसरे सत्र 'जन पक्षधर कविता की पहचान और ज़रूरत।' में कवि एवं सामाजिक कार्यकर्ता विनीत तिवारी ने आधार वक्तव्य दिया। उन्होंने दो कविताओं के पाठ के हवाले से कहा ब्रेख्त और पाकिस्तानी शायर हबीब जालिब(दस्तूर) हमारे पथप्रदर्शक हो सकते हैं । जनपक्षधरता केवल लेखन में नहीं होती। वैसा जीवन भी जीना पड़ता है। आज के युवा रचनाकारों में वैचारिकता और राजनीतिक संलग्नता की कमी महसूस होती है। यह व्यवस्था एवं दक्षिणपंथी राजनीति की एक सफलता ही है कि वह यथास्थितिवाद बनाये रखने हेतु लोगों को छोटे छोटे कामों में उलझाए हुए है। जबकि हमारा बड़ा स्वप्न लोकतंत्र और समाजवाद है। उसके लिए व्यवस्था परिवर्तन की योजना भी हमें अपनी रचनात्मक तैयारी में शामिल करना चाहिए। इस अवसर पर श्रोताओं ने अपने सवाल भी रखे। जिनका विस्तार से जवाब हरिओम राजोरिया, निरंजन श्रोत्रिय एवं विनीत तिवारी ने दिया। तीनों सत्रों का संचालन हरिओम राजोरिया ने किया एवं आभार माना पंकज दीक्षित ने।

कुल मिलाकर ऐसे समय में जब स्वयं के द्वारा घोषित प्रेमचंद के कथित ध्वज वाहकों ने ही उनके कालजयी एवं विश्व प्रसिद्ध भारतीय उपन्यासों में धरोहर सरीखे गोदान को केन्द्रीय हिंदी संस्थान से बाहर का रास्ता दिखा दिया और कुछ दूसरे कथित महा उत्तराधिकारी-आलोचक-संपादक मुक्तिबोध की वैचारिक पहचान छीनकर उन्हें सरकारी आयोजनो पर निर्भर एवं उनका मोहताज बनाकर व्यापक स्वीकार्य बनाने के बहाने बेदखल करवा देने की अघोषित तैयारी में लगे हैं, लेखक संगठनों एवं अन्य जनपक्षधर संगठनों पर चौतरफा विचारहीन अवसरवादी हमले हो रहे हैं तब व्यक्तिगत प्रयासों, सीमित संसाधनों एवं साहित्यिक-सांस्कृतिक सहकार से आयोजित जन्म शताब्दी वर्ष में मुक्तिबोध को समर्पित यह कविता कार्यशाला केवल प्रतिबद्धता ही नहीं बल्कि अपने साहित्यिक-विचारक पुरखों के काम, सपने को ज़िदा रखने की जिद की तरह याद रखे जाने की आवश्यकता पर बल देती है। प्रतिबद्ध सक्रियता की दृष्टि से ही नहीं विनम्र हस्तक्षेप की दृष्टि से भी अशोकनगर जैसे छोटे शहर में संपन्न प्रलेस एवं इप्टा की इस कविता कार्यशाला को याद किया जायेगा।

-शशिभूषण

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