रविवार, 17 सितंबर 2017

कहानीकार गीताश्री और उनकी कहानियाँ

गीता श्री कहानीकार हैं। आजकल यह सरल वाक्य अधूरा लग सकता है। इसके बावजूद कहना चाहिए गीता श्री कहानीकार हैं। जैसा इधर का चलन है यदि कहा जाये कि गीताश्री महिला कथाकार हैं तो दस्तूर के मुताबिक बात पूरी लगेगी। लेकिन इस सायास परिचय का ख़ालीपन लेखकीय मन को उदास कर सकता है। बल्कि उदास करना चाहिए। भले, हालात बाक़ायदा ऐसे रूढ़ हो चले हों कि कहने वाले विशेषण जोड़कर पूरी बात कहेंगे- गीताश्री ने कहानी में स्त्री विमर्श को नया आयाम दिया है।

कहने का सामयिक अभिप्राय यानी समकालीन समीक्षा का अनुभूत अर्थात यह है कि स्त्री हैं तो महिला कथाकार हैं, और महिला कथाकार हैं तो स्त्री विमर्श की पैरोकार हैं। लगे हाथ कहानियों के प्रकाशन की शुरुआत भी राजेन्द्र यादव द्वारा संपादित ‘हंस’ से हुई हो, लेखिका में फ़ेमिनिस्ट आग्रह भी हों तो क्या कहने ! फिर समीकरण बड़ा सीधा है। दायां, बायां बराबर सिद्ध है। मज़े की बात यह है कि यह समीकरण राजेंद्र यादव से पहले की कथा लेखिकाओं पर भी आज के समीक्षकों द्वारा संतुलित है। हाथों हाथ इति सिद्धम है। इसलिए है तो गुस्ताख़ी की तरह ही लेकिन मेरा वाक्य सरल है कि गीताश्री कहानीकार हैं। कहानीकार यद्यपि स्त्रीलिंग नहीं है। लेकिन क्या करें अपनी हिंदी में महापुरुष का स्त्रीलिंग महास्त्री भी तो सुनने में अब तक के अभ्यस्त कानों के लिए अजीब ही है। 

यह सच है कि गीताश्री कहानी में देर से आई। उनके लेखन की शुरूआत वाया पत्रकारिता है। वे कहानीकार से पहले पत्रकार हैं। इस मूलनिवास और पुनर्वास फिर पारस्परिक आवाजाही को उनकी कहानियों में अलग से देखा जा सकता है, खूबियों खामियों समेत दिखता भी है; लेकिन मैं अभी चाहता हूँ कि यह देखा जाये गीताश्री किस तरह की कहानीकार हैं?

कहानियां दो तरह की होती हैं। पहली वह जो होती हैं, और संवाद के लिए सुनायी जाती हैं या स्थायित्व के लिए लिख डाली जाती है। दूसरी वह जो सुनाने से या लिखने से कहानी बनती हैं। लिखे जाने से पहले की कहानियां सबके जीवन में होती हैं। अपनी यही कहानियाँ हमें दूसरों की लिखी या सुनायी गयी कहानियों से जोड़ती हैं।

जिसके जीवन में जितनी विविधता होती है, जितने अनुभव होते हैं उसके जीवन में उतनी ही अनलिखी-अनपढ़ी कहानियां होती हैं। ये कहानियां याद आती रहती हैं, दूसरों को सुनाने के लिए उकसाती हैं। दूसरे तरह की कहानियाँ लिखने के दौरान ही जनमती हैं। इनका निर्माण और स्वरूप पूरी तरह कहानीकार की दक्षता और कौशल पर निर्भर करता है। ऐसा कोई लिखित नियम नहीं है कि लिखी गयी कहानी या अनुभव की कहानी में श्रेष्ठ कहानी कौन होगी। लेकिन इतना तय है कि अनुभव की कहानी यदि कहानीकार की सिद्धि का परस पा जाये तो वह यादगार होकर रहती है।

सुनाने के दौर का अंत हो जाने के बाद अब लिखना ही हर किस्म की कहानी की वास्तविक देह है और पढ़ना नियति या परिणति। कहा जा सकता है कि गीताश्री की कहानियां उनके अनुभव में आयी कहानियां हैं जिन्हें उन्होंने कभी जल्दी में तो कभी धैर्य के साथ अधिकतर पत्रकारीय कुशलता से लिखा है। इसीलिए बाक़ायदा लिखी गयी कहानियों की दुनिया में गीताश्री की कहानियां कहीं कम गोल तो कहीं अधिक सिंकी हैं। 

आइये अब इस बात पर चर्चा करते हैं कि गीताश्री की कहानियों की मूल प्रवृत्तियाँ क्या हैं? हिंदी कहानी के वृहद आकाश में उनका स्थान क्या है? जब मैं गीताश्री की कहानियों के विषय में विचार करता हूँ, तो मुझे हिंदी कहानी का बडा परिदृश्य दिखाई पड़ता है। हिंदी कहानी का यह परिदृश्य लगभग सवा सौ साल का है। यह कहते हुए मुझे खुशी भी महसूस होती है और आश्वस्ति भी अनुभूत होती है कि आधुनिक हिंदी कहानी के करीब सवा सौ साल हिंदी की समृद्धि के भी साल हैं। 

इतने वर्षों में एक से एक कथाकार और एक से बढ़कर एक कालजयी कहानियां हमारे सामने आई हैं। जिस दौर में गीताश्री ने कहानियां लिखनी शुरू कीं, वह दौर आत्मकथाओं का दौर था, और विमर्शों का दौर था। लघु पत्रिकाओं की प्रमुख उपस्थिति या वर्चस्व का दौर। यानी जो भी साहित्यिक उपलब्धियाँ थीं, वे विमर्शों के माध्यम से और लघु पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकट हो रही थी। आत्मकथाओं में प्रमुख रूप से दलितों, स्त्रियों की आत्मकथाएँ थीं। कहीं-कहीं आत्मकथ्य की शैली में विमर्श की बात भी परिदृश्य में थी। ये आत्मकथाएं भारतीय भाषाओं से अनूदित होकर हिंदी में आ रही थीं, अंग्रेजी से आ रही थी, और इनके अतिरिक्त विमर्श थे, जिनमें दलित विमर्श और स्त्री विमर्श प्रमुख थे। इस प्रकार लघु पत्रिकाओं के माध्यम से आया सारा नया साहित्य हमारे सामने दो रूप में आया, एक जो विमर्शों से पैदा हो रहा था और दूसरा जो विमर्श पैदा कर रहा था। हालांकि जो कहानियां विमर्श पैदा कर रही थीं, उन्हें उतनी तवज्जो नहीं दी गयी क्योंकि विमर्श खड़े किए जा रहे थे या विमर्श खड़े करना मुख्य ध्येय था। उन्हीं कृतियों के सम्बन्ध में विमर्श की आवश्यकता महसूस हुई। 

गीताश्री की कहानियाँ जब आईं, तो स्त्री विमर्श का दौर था, दलित विमर्श का दौर था। हंस में प्रकाशित कहानी के केंद्र में स्त्री विमर्श था। गीताश्री की कहानियों में स्त्री विमर्श ही मुख्य है। उनकी कहानियों की स्त्री युवती है, विवाहिता है, स्वाबलंबी है, कामकाजी है, जुझारू है, अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीने वाली है। वह अपने स्वायत्त निर्णयों एवं पहल से थोड़ी हलचल पैदा करने वाली भी है। कह सकते हैं आज स्त्री जैसी भी है और समाज में इसकी जो भी भूमिका है, वही स्त्री गीताश्री की कहानियों की धुरी है। हम गीताश्री की कहानियों की स्त्रियों को तत्कालीन आत्मकथाओं की स्त्रियों से सबल, प्रगतिशील और स्वाबलंबी पाते हैं। आत्मकथाओं में जो स्त्रियाँ हैं उनसे बेहतर पाते हैं। आप प्रभा खेतान की आत्मकथा और उसमें वर्णित स्त्री याद कर सकते हैं। वह स्त्री भावुक है। दुखी स्त्री है। हमारी यही धारणा बनती है कि स्त्री आज भी वही है। यानी साहित्य और समाज में अत्यंत सक्रिय प्रभा खेतान, जिनका बड़ा सार्वजनिक जीवन भी था, वो भी जब अपनी आत्मकथा में आती हैं तो कस्बाई, दीनहीन और छली गयी स्त्री से भिन्न नहीं दिखती हैं। इसके उलट गीताश्री की कहानियों में जो स्त्री आती है, वह एकदम भिन्न है। उसे प्रेम में छली गयी, भावात्मक सुकून तलाशती स्त्री ही नहीं कह सकते। 

गीताश्री की पहली कहानी ‘प्रार्थना के बाहर’ में दो स्त्रियाँ हैं। यद्यपि वे सहेली हैं लेकिन प्रकृति से पूर्णतया भिन्न हैं। एक लड़की खुद को कस्बाई और कथित आदर्श समाज में आदर्श स्थापित करने वाली बनाना चाहती है। जिस पर कोई उँगली न उठा सके। उसके बारे में कोई सवाल न खड़ा किया जा सके, वैसी स्त्री खुद को समझती है। वह अपनी साथिन लड़की को लेकर बहुत प्रश्नाकुल है कि कैसी लड़की है यह जो लड़कों के साथ इतना स्वच्छंद व्यवहार करती है। निश्चित ही इसके जीवन में एक दिन प्रश्न ही प्रश्न रह जाएंगे और बुरी तरह पछ्ताएगी। वह अपने जीवन को संयमित बनाने की कोशिश में लगातार रहती है। मगर अंत में होता यह है कि वही लड़की जो अपनी जरूरतों, कल्पनाओं में पूरी तरह से डूबती है, इच्छित साहचर्य जीती है, पढ़ती भी है और सफल होती है। यही लड़की आप कह सकते हैं कि जो प्रभा खेतान हो सकती है एकदम से चौंक जाती है -ये तो हमसे आगे निकल गयी, कहीं न कहीं यही सफल है। मैं तो यों ही रह गयी। 

गीताश्री की कहानियां उन स्त्रियों की कहानियाँ हैं जो जुझारू हैं, समाज में योगदान देने वाली नागरिक हैं। हालांकि गीताश्री की कहानियों पर कई आरोप भी हैं जैसे उन्होंने यौनिकता को आरोपित कर बहुत बढ़ावा दिया है, महिमामंडित कर यौनिकता को केंद्र में रख दिया है। मेरी देह मेरे चुनाव का राग छेड़ दिया है। यौनिकता का केन्द्र में होना स्त्रियों को कमजोर करता है। स्त्री की आकांक्षाओं के आकाश को सीमित कर देता है। मेरी राय में एक अच्छी बात यह है कि गीताश्री की कहानियों की स्त्रियाँ यौनिकता को लेकर स्वच्छंद नहीं अपराधबोध से मुक्त हैं। वे अपने जीवन में आ जाने वाले भरोसे, उल्लास और पुरुष साहचर्य को अकुंठ स्वीकार करती हैं। यही कारण है कि ‘प्रार्थना के बाहर’ की दूसरी लड़की अकादमिक और प्रतियोगी परीक्षाओं और सफलता की दृष्टि से पिछड़ी हुई नहीं है। वह ग्लानि और अपराधबोध में नहीं है। यहीं हम कह सकते हैं कि गीताश्री की कहानियों के केंद्र में स्त्री है। भले ही वह एक गंवई स्त्री के रूप में आ रही हो, मगर वह नागर स्त्री ही है। गीताश्री की कहानियों की संवेदना नागर स्त्री की संवेदना है। उसकी मानसिकता शहरी मध्यवर्ग की ही है। इस दृष्टि से कहानीकार ईमानदार हैं। खुद को अपने अनुभवों से बाहर प्रक्षेपित नहीं करती हैं। वे उस क्षेत्र में जाकर अजूबे निर्णय नहीं लाना चाहती हैं, जो उनके अनुभव क्षेत्र के बाहर के हैं। यहीं आप उस प्रवृत्ति को भी गीताश्री की कहानियों में रेखांकित कर सकते हैं कि जो आत्मकथाओं की लेखिकाएं हैं वे भी अपना अनुभूत सत्य बता रही हैं और गीताश्री अपनी कहानियों में जिन स्त्रियों को ला रही हैं वे भी उनके अनुभव संसार की हैं। कहानीकार गीताश्री का कथासंसार और निजी कार्यक्षेत्र महानगरीय कार्यक्षेत्र है। पत्रकारिता के अनुभव उनके पास हैं। शहरों का अकेलापन, अवसाद, उदासी और एक ऐसी स्थिति जहां थोड़ी सी आत्मीयता से भी प्रेम के अंकुर फूट पड़ते हैं ये सब गीताश्री की कहानियों में दिखाई देते हैं। 

अब यह सवाल उठता है कि क्या गीताश्री केवल स्त्री विमर्श की कहानीकार हैं? निश्चित रूप से किसी भी कहानीकार की प्रतिबद्धता को इससे आंका नहीं जाना चाहिए कि उसमें किसी विशेष विषय को प्राथमिकता दी गयी है। या किसी विमर्श विशेष की बात करने की कोशिश की गयी है। कहानी हमेशा अपने निहितार्थों, परिणति में बड़ी या महत्वपूर्ण होती है। गीताश्री की एक कहानी में महानगरीय दफ्तर का परिवेश है। कहानी मे एक अफसर है, जिसे बॉस कहा जाता है। वह अपने ही दफ्तर की कर्मचारी लड़की के पहनावे पर टिप्पणी करता है। लड़की दुखी होती है लेकिन वह विवश है। सहना ही उसके वश में है। कहानी हमारे सामने बड़े यथार्थ की तरह तब प्रकट होती है जब लड़की खुद को खुली और आज़ाद महसूस करती है। इसी को एन्जॉय करने वह एक न्यूड पार्टी में जाती है। वहां अपने उसी बॉस को देखकर वह चौंक जाती है। अरे, यह तो वही है जो पहनावे को लेकर इतना चीखता है, इतना नैतिक था। इस कहानी में एक पुराना छद्म सामने आता है कि दरअसल स्त्री के लिए जो नैतिकताएं हैं वो गुलाम, उपभोग्य बनाए रखने की ही युक्तियाँ हैं। 

अब विमर्शों की बात करें तो, हम पाएंगे कि हिंदी कहानी ने अनेक आन्दोलनों को देखा है। लेकिन दुर्भाग्य से कोई भी आन्दोलन हिंदी कहानी में कोई नियामक भूमिका नहीं निभा पाया। जनवादी कहानी, समान्तर कहानी आदि आदि जितने भी आन्दोलन आए, वे नेतृत्वकर्ताओं की निजी धमक से आगे नहीं बढ़ सके। कहानी के बारे में मुझे एक फिल्मी उक्ति बड़ी सच लगती है कि कहानी वह झूठ है जो हमें सच तक लेकर जाता है। जो गल्प है, जैसा कहानी का ताना बाना है, उसके अन्दर आने वाले जो चरित्र हैं, निश्चित रूप से वे किसी बने बनाए खांचे या धारणाओं में नहीं अटते हैं। कहानीकार की दृष्टि, जिद्द, कल्पना शक्ति एवं सृजन क्षमता से ही कोई कथ्य कहानी बनता है। मार्मिकता में ही कहानी सबसे अधिक प्रभावित करती है एवं अमिट होती है। यह एक जांचा परखा पाठकीय सत्य है।

एक दूसरा उदाहरण लेते हैं- मशहूर लेखिका और उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा में जो स्त्री है, कस्तूरी कुण्डलि बसै की जो लड़की है, जो माँ है और गीताश्री की कहानी ‘अन्हरिया रात बौरानी…’ में जो स्त्री है तो आप देखेंगे कि साहित्य में आरोप क्या है, अपेक्षाएं क्या हैं और वास्तविकताएं क्या हैं? आरोप लगाने वाली आत्मकथा में आती हैं तो कौन सा यथार्थ प्रकट करती हैं, और जब अपेक्षाओं में उतरती हैं तो कैसे कैसे मांगपत्र पेश करती हैं। यह ऐसे चरित्रों की, सामाजिक सत्यों की मांग सूची होती है जिसे कोई भी कहानीकार पूरा नहीं कर सकता है। मुझे लगता है आज प्रेमचंद भी अपना उपन्यास गोदान लेकर आते तो उन्हें यह सलाह दे देता कोई प्रकाशक कि ये क्या शीर्षक है? गोदान का क्या औचित्य है? कहने का मकसद यह है कि हमें स्त्री यौनिकता के विषय में साफ और निरपेक्ष नज़रिया रखना ही होगा। ‘अन्हरिया रात बैरनिया हो…’ में जो बहू है, भाभी है उसका पति परदेश में है। वह यौन अतृप्ति और विक्षिप्तता में जी रही है। एक दिन इतनी पीड़ित हो जाती है कि बाध्य होकर अपने सुख की खातिर घर छोड़कर ही चली जाती है। यहीं हमें यह समझना होगा कि इस तरह भूत प्रेत की सतायी मानी जानेवाली देवर के साथ भागने को विवश स्त्रियाँ हमारे समाज में क्या जोड़ रही हैं। किन चीज़ों से ऊपर उठने की जद्दोजहद में हैं। क्या वे हमारे समाज को आगे ले जाने की दिशा में सक्रिय हैं? क्या ये हमारी जानी पहचानी लड़कियों जैसी हैं? जब हम ये सवाल खुद से पूछेंगे तो मुझे लगता है कि गीताश्री की कहानियों की वैधता और प्रासंगकिता हमारे बीच स्पष्ट होगी।

किसी कहानीकार से दूसरी बड़ी अपेक्षा होती है कि वह अपने समय की कहानी को शिल्प या रूप की दृष्टि से कितना आगे लेकर जा रहा है? क्योंकि ऐसे तो कहानी बड़ी प्राचीन विधा है। हमेशा से कही जा रही है, हमेशा से सुनी जा रही है, पढी या लिखी जा रही है। लेकिन क्या समाज ही कभी आमूल चूल बदल पाता है? वह पूरी तरह नया हो पाता है? शायद नहीं। यही कारण है कि आज भले ही लोकतंत्र आया हो, हम उत्तर आधुनिक कहे जा रहे हों मगर 2017 में भी हज़ारों करोड़ रूपए के कुम्भ मेले आयोजित हो रहे हैं, संसद को मंदिर कहा जा रहा है, हमारा लोकतांत्रिक रूप से चुना गया प्रतिनिधि उसमें माथा टेक रहा है। तो एक ऐसा समाज जहाँ धर्म प्रतिबद्धता भी हो, जहां अनेक रूपों में मनुष्य का जीवन अनेक सदियों में गति करता हो, वहां फौरी तौर पर यह कह देना कि लेखक आखिर क्या प्रयोग कर रहा है? उसने कहानी में ऐसा नया क्या किया है? तो हमें धैर्य के साथ नए को पुरानेपन में भी देखना होगा। 

इस सवाल के जवाब में कि क्या गीताश्री कहानी को शिल्प के स्तर पर आगे ले आई हैं या वहीं हैं? मैं निर्ममता से यह कहूँगा कि भाषा और शिल्प और कथ्य के स्तर पर गीताश्री ऊँची सीढ़ी चढ़ चुकी कहानीकार नहीं ठहरती हैं। उनकी चिंताएं बड़ी हैं, प्रतिबद्धताएं बड़ी हैं, उनकी साहसिकता बड़ी है, वे एक नागरिक के रूप में स्त्री को सामने ला रही हैं। यही उनका प्रमुख हस्तक्षेप भी है, लेकिन प्रयोग के स्तर पर कहानी को आगे ले जाने की दृष्टि से गीताश्री को अभी लंबी दूरी तय करनी है।

एक अन्य सवाल -क्या गीताश्री का दायरा विमर्श ही हैं या इन विमर्शों से ऊपर उठकर उन्होंने कोई निजता भी हासिल की है? का जवाब है कि गीता श्री को इस दिशा में खुद साबित करना काफी हद तक शेष है। मुद्दों पर कहानी लिखी जा सकती है। जैसे देशद्रोह पर लिखी जा सकती है, गौ रक्षा पर लिखी जा सकती है, नोट्बंदी पर लिखी जा सकती है, लेकिन यह कहानी क्या कहानीकार की उस गरिमा के साथ प्रकट हो पाएगी, जिसका हमें अब तक कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, ममता कालिया आदि की कहानियों में अनुभव हो चुका है? यह महत्वपूर्ण अपेक्षा हो सकती है। गीताश्री की कहानियों की संवेदना नगरीय है, शहरी मध्यवर्ग ही उनकी चिंता के केंद्र में है। यदि इस आलोक में और देखें तो हमारा मध्यवर्ग जो अक्सर गुलाटी खाता रहता है, आज उसके पास न तो कोई क्रांतिकारी नेतृत्व है, न कोई परिवर्तनकारी समझ, जिसमें हम यह उम्मीद देख सकें कि हम वाकई लोकतांत्रिक ऊंचाई छूने जा रहे हैं। उलझा हुआ, आत्ममुग्धता, का, अकेलेपन का शिकार और आत्मकेन्द्रित वैयक्तिकताओं में जीता हुआ हर तरह के मूल्यों के क्षरण को भोगता हुआ जो समाज है, उसमें यथार्थ ही मसाल है। कोई आगे चलती हुई मशाल लेकर चलनेवाला नहीं दिखता है। हमने आन्दोलन देखे, उभरते हुए नेता देखे, पूँजी से भरते हुए धार्मिक, आध्यात्मिक, मीडिया के लोग देखे, नयी राजनीति तक ले जाने के वादे करने वाले और अफवाहों का धंधा करने वाले प्रधानसेवक देखे। अब इतना कुछ देखने के बाद हम कहानीकार से यही अपेक्षा कर सकते हैं कि वह यथार्थ को अभिव्यक्त करे। इस लिहाज़ से हम अपने बीच गीताश्री को एक प्रॉमिसिंग कहानीकार के रूप में देख सकते हैं। उनके कहानी लेखन में समाज के अलग अलग तबकों को शामिल करने की प्रवृत्ति है। हालांकि उन्होंने जितना घूमा है, जितनी दुनिया देखी है, जितना कहानी में समेटा है, उसी से हमें गीताश्री से और भी बेहतर की अपेक्षा है। 

गीताश्री की कहानियों का रास्ता उनका निजी रास्ता है। इन दिनों की दिशाहीन कहानियों, और ऐसी कहानियों के दौर में जिनमें कोई राजनीतिक चेतना नहीं है, परिवर्तन की ललक नहीं है, नायक सिरजने और उन्हें स्थापित करने की कोई ललक नहीं है, और ऐसी कहानियां नहीं लिखी जा रही हैं जो समाज को बदल सकें, ऐसी कोई प्रयत्नशीलता नहीं है, तो छुटपुट जो आलोकभरी कहानियाँ हैं जिसके बारे में हम यह उम्मीद करते हैं कि यही अपने नायक खुद पैदा करेंगी। तो ऐसे दौर की कहानियों में गीताश्री का अपना एक अच्छा स्थान बनता दिखता है। 

यह नहीं भूलना चाहिए कि सक्रिय वैचारिक कहानियों के अपने जोखिम होते हैं। यदि गीता श्री विचार परक कहानियाँ नहीं लिख रही हैं तो इसे किसी बड़ी कमी की तरह ही नहीं देखा जाना चाहिए। मुझे याद आता है कि अपने देश में जब अन्ना आन्दोलन शुरू हुआ था तो अखिलेश ने ‘श्रृंखला’ नाम से एक कहानी लिखी थी। जिस कहानी के विषय में मशहूर लेखक-संपादक रवीन्द्र कालिया ने संपादकीय में कहा था कि यह कहानी हमारे समाज की यथास्थिति में आ रहे बड़े बदलावों के बारे में दिखा रही है। कहानी अपनी रचनात्मकता के साथ आंदोलन के पैदा होने को समग्रता में देख पा रही है। जिस तरह के परिवर्तनकारी आंदोलन का वर्णन कहानी में है संयोग से वैसा ही कुछ देश में घटित होता दिख रहा है। लेकिन दुर्भाग्य से कालिया जी अब हमारे बीच नहीं हैं और हमने उस आन्दोलन की परिणिति चरमपंथी युग में भारत के गर्क होते जाने की दृष्टि से देख रहे हैं। देश उन्नत होने की बजाय गृह युद्ध के मुहाने पर खड़ा है। लोकतंत्र पर ही अब तक का सबसे बड़ा संकट मंडरा रहा है। यहीं समझना आवश्यक है कि कहानी जब हमारे सामने एक यथार्थ रखती है, स्वप्न रचती है तो कालांतर में उस यथार्थ एवं स्वप्न के पूरी तरह असफल हो जाने की दशा में भी कहानी को हम इस तरह से भी देखते हैं कि तब ऐसा देखा गया था, या तब ऐसा हुआ था या ऐसा होना चाहिए। जब लोग हमें किसी रूप में दीखते हैं मगर वैसे होते नही हैं तब कहानीकार इसका भी समाज के समक्ष साक्ष्य रख देना चाहता है। यहीं, कहानी स्मृतिपरक दस्तावेज बनती है। यह समृति हमें भविष्य के प्रति सचेत करती है। कहानी का महत्व पूरी तरह सच साबित हो जाने के अतिरिक्त इसमें भी बहुत होता है।

कुल मिलाकर गीताश्री सार्थक कहानियां लिख रही हैं। मैंने उनकी जितनी कहानियां पढ़ी हैं उनमें हमारे समय का विश्वसनीय अक्स है। इस कहानीकार से जितनी उम्मीद है उतना ही इनपर यकीन भी है।

-शशिभूषण



1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (18-09-2015) को "देवपूजन के लिए सजने लगी हैं थालियाँ" (चर्चा अंक 2731) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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